दो कविताएँ

do kawitayen

अजायब कमल

अजायब कमल

दो कविताएँ

अजायब कमल

और अधिकअजायब कमल

    एक

    वह अपनी मनचाही

    गुलाबी जिस्म वाली औरत के

    शरीर के गहरे कुएँ में ख़ुद

    कच्चे धागे से उलटा लटका

    एक गुप्त मंत्र का कर रहा था पाठ

    कुएँ से बाहर गाय

    कचर-कचर सूखा घास चबाती

    लंबे सींग हिला रही थी

    एक बूढ़ी कुतिया रुक-रुककर

    सुरताल में भौंकती,

    लंबी पूँछ हिला रही थी

    एक चितकबरे पिंजर वाली

    कमज़ोर बकरी

    क़साई की छुरी तले मिमियाती

    विवश, निरीह चिल्ला रही थी

    दीवार पर लटकता

    पिंजर में बैठा शातिर तोता

    रामायण तो पढ़ता था

    लेकिन राम के स्थान पर

    रावण को नायक मान

    उसकी उपलब्धियों की सराहना करता

    अपनी तोता भाषा में

    लक्ष्मण के पराक्रम को

    बुरा-भला कहता

    उसकी जन्मकुंडली साँस लेती

    पाँव उखड़ने से उसका होरोस्कोप

    उसके साथ ही अर्थी का कफ़न हो जाता

    उसी के साथ क़ब्र के अँधेरे में दफ़न हो जाता

    ब्रह्मांड की व्यवस्था का यह क्रम अजीब है

    उम्रभर मनुष्य समय, स्थान और

    इतिहास की जटिल गाँठों में उलझा रहता

    शून्य, शब्द की स्वप्न-सी

    सूक्ष्म दूसरी यात्रा में फँसा रहता

    जिसके एक पाँव तले धूप

    दूसरे के नीचे छाया छिपी रहती

    एक के नीचे जीवनधारा

    दूसरे तले मौत छिपी रहती है।

    दो

    नज़र के सामने क्षितिज तक

    भवजल के बहुरूपिए टापू फैले हुए हैं

    आकाश और सागर

    रेतीले टापुओं में डूबकर रह गए

    तेज़ अंधड़ के समान

    फटे काग़ज़ की तरह दूर से

    ख़ून और आग से भरे

    लाल बादलों के टुकड़े उड़कर आते

    नन्हे नन्हे हिरोशिमा बनकर क्षितिज पर

    अधजले पोस्टरों की तरह लटके रह जाते

    हिरोशिमा—दिल बहलावे जैसी फ़िल्मों के सस्ते

    भोगविलास के पोस्टर नहीं

    उबलते, खौलते आग के कड़ाहे हैं, यह शहर नहीं

    शहरों के शरीर पर जख़्मों से चिपके

    खंडहरों के भयानक पते हैं

    मर्यादा पुरुषोत्तम राम को

    सीता संग शारीरिक अन्याय के विरुद्ध

    चितकबरी गालियाँ देता

    गुलाबी औरत के जिस्म के खुदे कुएँ में

    उलटा लटकने वाला मनुष्य

    जो शायद फ्रायडवादी पालने में

    विविध सपने देखता पला

    ऊँचे स्वर में कह रहा

    जाने यह रूढ़ भारतीय संस्कारों के

    अंतर हैं या बीसवीं सदी की बीमार

    सोच का जंतर-मंतर

    पश्चिमी समाज लिंग को रणक्षेत्र में

    नंगी तलवार की तरह चमकाते हैं

    लेकिन ग़रीब भारतीय

    इसे म्यान में रखकर जंग लगाने के लिए

    पूजाघरों की दीवारों पर ही लटकाए रखते हैं

    शिवलिंग-सा देव मान, सिंदुर लगाकर

    धूप, अगरबत्ती जलाकर, पुष्प अर्पित करके

    उसे अर्घ्य चढ़ाते हैं

    गेहूँ की रोटी शीशे की तरह

    मुख देखने के लिए नहीं,

    खाने के लिए होती है

    पेट की आग बुझाने के लिए

    तोते का पेट ख़ाली रहे

    वह सूखे चमड़े की थैली-सा हो जाता है

    मुँह से निकले बोल ठीकरों का ढेर बनकर

    पैरों के लिए रोक बन जाते,

    सोच के लिए संताप हो जाते

    जितनी देर मनुष्य के पाँव धरती पर गड़े रहते

    उसकी जड़ें, वनों और पत्तों में

    जीवनधारा दौड़ती रहती है

    कई बार अकेला बैठा मनुष्य

    एकांत पलों में अपनी शंकालु नज़र के सम्मुख

    कभी विशाल सागर बना रहता

    कई बार आसमान में, अपने सिर पर

    महान हो, इतिहास हो

    मुँह में हँसती मौत

    हर अभिमानी का मज़ाक़ उड़ा रही होती

    प्रत्येक आडंबरी को सीगों पर बिठा

    उसके अभिमान को मिट्टी में मिला रही होती

    हरेक नया हिरोशिमा, जासूसी उपन्यास का

    जंतर-मंतर जैसा पेचीदा नहीं

    सिर में उगा कैंसर

    छाती के बालों वाले घास तले उगा

    बालतोड़ फोड़ा है

    यह जो तीसरे दिन अंधड़ों-झँझावतों संग

    छोटे-छोटे हिरोशिमा, लाल पोस्टर की तरह

    उड़कर आते उन्हें देख नैन सहम जाते

    थिरक जाते देखकर साहसी मनुष्य

    भीगी बिल्ली-से सिकुड़कर रह जाते

    धरती, आकाश और समंदर

    मृगजली वाले चितकबरे टापू में

    डूबकर रह जाते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 198)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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