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एक साधारण शव यात्रा

ek sadharan shav yatra

तजेंद्र सिंह लूथरा

तजेंद्र सिंह लूथरा

एक साधारण शव यात्रा

तजेंद्र सिंह लूथरा

और अधिकतजेंद्र सिंह लूथरा

    ना हाहाकार मचाते तेज़ रोते स्वर,

    ना वाहन ना बड़ी अगुवाई,

    पिता-माता साधारण,

    पैदल चल रही यह एक साधारण शव यात्रा थी,

    वाहन पर लेटा शव

    ख़ुद को शव ही समझता,

    पर तेज़ी से बदलते

    अनगिनत कंधो की बीच हिचकोले खाते,

    शव को अपना बचपन याद रहा था,

    ये शव कुछ बरस पहले बचपन लाँघी,

    लाडली का था।

    माँ फफक कर रोती थी,

    बार-बार पूछती थी,

    ये कैसे हो सकता है,

    ये मुझे छोड़कर कैसे जा सकती है

    अभी सुबह तो बोली थी,

    शाम को बाज़ार चलेंगे।

    पिता के आँसू अब तक पथरा चुके थे,

    वो जीवन से हारे क़दमों से,

    बार-बार मरते हृदय से,

    रोम-रोम से रोता,

    एक हाथ से घड़ा काँधे पर संभाले,

    घड़े में उसे मालूम नहीं था कौन पाप थे,

    जिनका प्रायश्चित भरा था

    सफ़ेद धोती, बनियान पहने,

    जीने की इच्छा में मीलो पीछे,

    विडंबित अगुवाई करता,

    वो शवयात्रा के आगे निढ़ाल चल रहा था,

    इतना अकेला था वो,

    उसे लगता था जैसे पीछे सब छोड़ गए हैं उसे,

    दिल को ढाँढस देता,

    जब पीछे मद्धम आवाज़ में,

    शामिल होते स्वर राम नाम सत्य के,

    अकाल मृत्यु से बेटी हारने के बाद,

    उसे दुनिया का हर हारा हुआ आदमी,

    अपने से बेहतर नज़र आता था।

    छोटे रास्तों गलियों से,

    जैसे-जैसे निकलती रही ये शवयात्रा

    एक छोटी नुक्कड़ पे खड़े कुछ,

    टैक्सी ड्राइवर ऊँचा-ऊँचा बोलते ठिठक गए,

    सभी के ऊँचे हाथ नीचे ढल गए,

    दो ने बीड़ी बुझा दी,

    कुछ ने जेबो से हाथ निकाल लिए,

    एक ने मफ़लर ठीक किया,

    फिर वो सब एक क़दम पीछे यू हटे,

    जैसे शवयात्रा को सम्मान से रास्ता दे रहे हो।

    कुछ आगे एक अँधे मोड से,

    एक दैत्याकार ट्रक अचानक निकल कर,

    शवयात्रा के सामने आया,

    तो लगा रुकेगा ही नहीं,

    पर जैसे ही ड्राइवर को सुध आई,

    उसने भरसक जतन से उसे किनारे कर,

    गर्म इंजन की सांसे ख़त्म कर दी,

    फिर शवयात्रा की और देखते,

    कानों को हाथ लगाने लगा

    जैसे किसी भूल का, पश्चाताप कर रहा हो।

    थोड़ी देर बाद एक कसाई

    जो अपनी झटका दुकान में,

    शवयात्रा की और पीठ फेरे

    लगे मन से अख़बार पढ़ रहा था,

    मुझे उम्मीद नहीं थी क्यो कि उसके,

    और शवयात्रा के राम नाम स्वरों के बीच,

    दुकान का शीशा था

    जिस पर शुद्ध झटका मीट लिखा था,

    पर जाने कैसे राम नाम सत्य स्वरों ने

    उसे पकड़ लिया,

    और वो अख़बार छोड़ ठिठका

    फिर घूम कर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

    कुछ देर बाद दो निम्न मध्य वर्गीय महिलाए,

    जो शवयात्रा की दिशा में ही कुछ आगे जा रही थी,

    कनखियों से शवयात्रा जाते देख ठहर गई,

    सहसा अपने सिर को शाल से ढापने लगी।

    थोड़ा और आगे झोपड़ पट्टी के गंदे बच्चे,

    खेलते खेलते सहम गए,

    और गली के एक किनारे जमा हो,

    शवयात्रा को टक-टकी लगाए देखने लगे,

    एक दो ने चुपचाप

    अपने एक-एक हाथ से सिरों को ढक लिया।

    रोती माँ को बीच रास्ते से ही वापस कर दिया,

    औरते शमशान नहीं जाती,

    बीच रास्ते ही माँ को

    बेटी की अर्थी विदा करनी पड़ी।

    शवयात्रा के अंतिम पड़ाव से थोड़ा पहले,

    एक दिहाड़ी मज़दूर जैसा आदमी,

    जो शवयात्रा की और आती चढ़ाई पर,

    साइकिल चढ़ाने की कोशिश कर रहा था,

    अचानक नज़र पड़ते ही,

    ब्रेक लगाने के प्रयास में,

    हकबका कर साइकिल से लगभग गिर पड़ा,

    फिर एक पाँव से सड़क छूकर, थोड़ा संभल कर,

    साइकिल को अपने बदन से भींचा,

    सड़क के किनारे नाली से पूरा सट गया,

    एक हाथ बचा कर उसे बार-बार माथे,

    फिर छाती से लगाकर एक शटल-सी चलने लगा।

    इन सब हैरानियों के बीच,

    शवयात्रा शमशान तक पहुँच गई,

    लोग अपने आप लकड़ी के बड़े-बड़े गट्ठे उठाकर,

    चिता सजाने लगे,

    किसी को दोबारा गट्ठे उठाने का मौका ना मिला,

    बेसुध पिता को जाने किस ने हाथ पकड़ कर

    शव की परिक्रमा करवाई,

    और सहारा देकर घड़ा फुटवा दिया,

    किसी ने एक जलती लकड़ी दी पिता के हाथ में,

    और चिता को अग्नि दिलवाई।

    फिर धीरे-धीरे लोग पैरों के बल ज़मीन पर बैठ गए,

    और कुछ चिता के आस-पास बनी

    छोटी-छोटी दीवारों पर,

    धीरे-धीरे चिता भी मर गई,

    और सब पिता को हाथ जोड़

    अफ़सोस करते विदा हो गए,

    और पिता कुछ संबंधियों के साथ

    बोझिल क़दमों से, घर वापिस जाने लगा।

    में हैरान था ये सब देखकर,

    ना कोई हॉर्न बजा बैचेनी से,

    ना कोई वाहन गुजरा फ़र्राटे भरे तनाव से,

    ना किसी ने कार के शीशे चढ़ाए वितृष्णा से,

    ना किसी ने अपने बच्चे की आँखे बंद की

    किसी आशँका से,

    ना किसी को रास्ता देने

    शवयात्रा को सिकुड़ना पड़ा,

    सहसा मुझ महानगर वासी को,

    ध्यान आया

    मैं एक कस्बे से

    बस थोड़े बड़े शहर में हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : तजेंद्र सिंह लूथरा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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