खानपान की बदलती तस्वीर

khanpan ki badalti tasvir

प्रयाग शुक्ल

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खानपान की बदलती तस्वीर

प्रयाग शुक्ल

और अधिकप्रयाग शुक्ल

    पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हमारी खानपान की संस्कृति में एक बड़ा बदलाव आया है। इडली-डोसा-बड़ा-साँभर-रसम अब केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं हैं। ये उत्तर भारत के भी हर शहर में उपलब्ध हैं और अब तो उत्तर की ‘ढाबा’ संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। अब आप कहीं भी हों, उत्तर भारतीय रोटी-दाल-साग आपको मिल ही जाएँगे। ‘फ़ास्ट फ़ूड’ में बर्गर, नूडल्स’ अब संभवत: किसी के लिए अजनबी नहीं रहे।

    ‘टू मिनट्स नूडल्स’ के पैकेटबंद रूप से तो कम-से-कम बच्चे-बूढ़े सभी परिचित हो चुके हैं। इसी तरह नमकीन के कई स्थानीय प्रकार अभी तक भले मौजूद हों, लेकिन आलू-चिप्स के कई विज्ञापित रूप तेज़ी से घर-घर में अपनी जगह बनाते जा रहे हैं।

    गुजराती ढोकला-गाठिया भी अब देश के कई हिस्सों में स्वाद लेकर खाए जाते हैं और बंगाली मिठाइयों की केवल रसभरी चर्चा ही नहीं होती, वे कई शहरों साथ ही अब अन्य प्रदेशों के व्यंजन-पकवान भी प्राय: हर क्षेत्र में मिलते हैं और मध्यमवर्गीय जीवन में भोजन-विविधता अपनी जगह बना चुकी है।

    कुछ चीज़ें और भी हुई हैं। मसलन अँग्रेज़ी राज तक जो ब्रेड केवल साहबी ठिकानों तक सीमित थी, वह कस्बों तक पहुँच चुकी है और नाश्ते के रूप में लाखों-करोड़ों संस्कृति से सबसे अधिक प्रभावित नई पीढ़ी हुई है, जो पहले के स्थानीय व्यंजनों के बारे में बहुत कम जानती है, पर कई नए व्यंजनों के बारे में बहुत-कुछ जानती है। स्थानीय व्यंजन भी तो अब घटकर कुछ ही चीज़ों तक सीमित रह गए हैं। बंबई की पाव-भाजी और दिल्ली के छोले-कुलचों की दुनिया पहले की तुलना में बड़ी ज़रूर है, पर अन्य स्थानीय व्यंजनों की दुनिया में छोटी हुई है। जानकार ये भी बताते हैं कि मथुरा के पेड़ों और आगरा के पेठे-नमकीन में अब वह बात कहाँ रही! यानी जो चीज़ें बची भी हुई हैं, उनकी गुणवत्ता में फ़र्क पड़ा है। फिर मौसम और ऋतुओं के अनुसार फलों-खाद्यान्नों से जो व्यंजन और पकवान बना करते थे, उन्हें बनाने की फ़ुर्सत भी अब कितने लोगों को रह गई है। अब गृहिणियों या कामकाजी महिलाओं के लिए ख़रबूज़े के बीज सुखाना-छीलना और फिर उनसे व्यंजन तैयार करना सचमुच दु:साध्य है।

    यानी हम पाते हैं कि एक ओर तो स्थानीय व्यंजनों में कमी आई है, दूसरी ओर वे ही देसी-विदेशी व्यंजन अपनाए जा रहे हैं, जिन्हें बनाने-पकाने में सुविधा हो। जटिल प्रक्रियाओं वाली चीज़ें तो कभी-कभार व्यंजन-पुस्तिकाओं के आधार पर तैयार की जाती हैं। अब शहरी जीवन में जो भागमभाग है, उसे देखते हुए यह स्थिति स्वाभाविक लगती है। फिर कमरतोड़ महँगाई ने भी लोगों को कई चीज़ों से धीरे-धीरे वंचित किया है। जिन व्यंजनों में बिना मेवों के स्वाद नहीं आता, उन्हें बनाने-पकाने के बारे में भला कौन चार बार नहीं सोचेगा!

    खानपान की जो एक मिश्रित संस्कृति बनी है, इसके अपने सकारत्मक पक्ष भी हैं। गृहिणियों और कामकाजी महिलाओं को अब जल्दी तैयार हो जानेवाले विविध व्यंजनों की विधियाँ उपलब्ध हैं। नई पीढ़ी को देश-विदेश के व्यंजनों को जानने का सुयोग मिला है—भले ही किन्हीं कारणों से और किन्हीं ख़ास रूपों में (क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि विविध व्यंजन इन्हें ख़ालिस रूप में उपलब्ध नहीं है)

    आज़ादी के बाद उद्योग-धंधों, नौकरियों-तबादलों का जो एक नया विस्तार हुआ है, उसके कारण भी खानपान की चीज़ें किसी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में पहुँची हैं। बड़े शहरों के मध्यमवर्गीय स्कूलों में जब दुपहर के ‘टिफ़िन’ के वक़्त बच्चों के टिफ़िन-डिब्बे खुलते हैं तो उनसे विभिन्न प्रदेशों के व्यंजनों की एक ख़ुशबू उठती है।

    हम खानपान से भी एक-दूसरे को जानते हैं। इस दृष्टि से देखें तो खानपान की नई संस्कृति में हमें राष्ट्रीय एकता के लिए नए बीज भी मिल सकते हैं। बीज भलीभाँति तभी अंकुरित होंगे जब उस बोली-बानी, भाषा-भूषा आदि को भी किसी-न-किसी रूप में ज़्यादा जानेंगे, जो किसी खानपान-विशेष से जुड़ी हुई है।

    इसी के साथ ध्यान देने की बात यह है कि ‘स्थानीय’ व्यंजनों का पुनरुद्धार भी ज़रूरी है जिन्हें अब ‘एथनिक’ कहकर पुकारने का चलन बढ़ा है। ऐसे स्थानीय व्यंजन केवल पाँच सितारा होटलों के प्रचारार्थ नहीं छोड़ दिए जाने चाहिए। पाँच सितारा होटलों में कभी-कभार मिलते रहें, पर घरों-बाज़ारों से ग़ायब हो जाएँ तो यह एक दुर्भाग्य ही होगा। अच्छी तरह बनाई-पकाई गई पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ-जलेबियाँ भी अब बाज़ारों से ग़ायब हो रही हैं। मौसमी सब्ज़ियों से भरे हुए समोसे भी अब कहाँ मिलते हैं? उत्तर भारत में उपलब्ध व्यंजनों की भी दुर्गति हो रही है।

    अचरज नहीं कि पहले उत्तर भारत में जो चीज़ें गली-मुहल्लों की दुकानों में आम हुआ करती थीं, उन्हें अब ख़ास दुकानों में तलाश जाता है। यह भी एक कड़वा सच है कि कई स्थानीय व्यंजनों को हमने तथाकथित आधुनिकता के चलते छोड़ दिया है और पश्चिम की नक़ल में बहुत सी ऐसी चीज़ें अपना ली हैं, जो स्वाद, स्वास्थ्य और सर्सता के मामले में हमारे बहुत अनुकूल नहीं हैं।

    हो यह भी रहा है कि खानपान की मिश्रित संस्कृति में हम कई बार चीज़ों का असली और अलग स्वाद नहीं ले पा रहे। अकसर प्रीतिभोजों और पार्टियों में एक साथ ढेरों चीज़ें रख दी जाती हैं और उनका स्वाद गड्डमड्ड होता रहता है। खानपान की मिश्रित या विविध संस्कृति हमें कुछ चीज़ें चुनने का अवसर देती है, हम उसका लाभ प्राय: नहीं उठा रहे हैं। हम अकसर एक ही प्लेट में कई तरह के और कई बार तो बिलकुल विपरीत प्रकृतिवाले व्यंजन परोस लेना चाहते हैं।

    इसलिए खानपान की जो मिश्रित-विविध संस्कृति बनी है—और लग यही रहा है कि यही और विकसित होनेवाली है—उसे तरह-तरह से जाँचते रहना ज़रूरी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-2) (पृष्ठ 65-68)
    • रचनाकार : प्रयाग शुक्ल
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022

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