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इकाई-I हिंदी भाषा और उसका विकास।

ikai–I hindi bhasha aur uska vikas

अज्ञात

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इकाई-I हिंदी भाषा और उसका विकास।

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    हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएँ, मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ:— पालि, प्राकृत शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और उनकी विशेषताएँ, अपभ्रंश अवहट, और पुरानी हिंदी का संबंध, आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ और उनका वर्गीकरण। हिंदी का भौगोलिक विस्तार हिंदी की उपभाषाएँ, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उनकी बोलियाँ, खड़ीबोली, ब्रज और अवधी की विशेषताएँ। हिंदी के विविध रूप: हिंदी, उर्दू, दक्खिनी, हिंदुस्तानी हिंदी का भाषिक स्वरूप हिंदी की स्वनिम व्यवस्था—खंड्य और खंड्येतर, हिंदी ध्वनियों के वर्गीकरण का आधार हिंदी शब्द रचना उपसर्ग, प्रत्यय, समास, हिंदी की रूप रचना—लिंग, वचन और कारक व्यवस्था के संदर्भ में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया रूप, हिंदी वाक्य रचना, हिंदी भाषा प्रयोग के विविध रूप बोली, मानक भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा, संचार माध्यम और हिंदी, कंप्यूटर और हिंदी, हिंदी की संवैधानिक स्थिति। देवानागरी लिपि विशेषताएँ और मानकीकरण।

     

    पालि

    मध्यकालीन आर्य भाषा की पहली अवस्था

    कालखंड—सामान्य रूप से इसका कालखंड 500 ईस्वी पूर्व से ईस्वी सन् की शुरूआत तक माना गया है।

    नामकरण 

    विभिन्न विद्वानों ने पालि शब्द की उत्पत्ति अलग-अलग शब्दों से मानी है। इनमें से कुछ व्याख्याएँ इस प्रकार हैं:

    पालि की व्युत्पत्ति ‘पल्लि’ अर्थात ग्राम से स्वीकार की जा सकती है। इस अर्थ में पालि से तात्पर्य होगा ‘ग्रामीण भाषा’। 

    पालि शब्द की उत्पत्ति ‘पाटलि’ (पाटलिपुत्र) से भी मानी गई है इस संदर्भ में पालि का अर्थ होगा मगध की भाषा‌।

    पालि शब्द का तीसरा सबंध पंक्ति से माना गया है। बुद्ध वचनों में जो पंक्तियों प्रयुक्त की गई हैं, उन्हें भी पालि कहा जाता है। बुद्ध साहित्य इसी भाषा में होने के कारण इस मत को काफ़ी अधिक महत्व दिया जाता है।

    कुछ भाषा वैज्ञानिक ‘पालि’ शब्द को प्राकृत शब्द का तदद्भव रूप मानते हैं। उनके अनुसार प्राकृत से पहले पाइल तथा अंत में पालि शब्द का विकास हुआ। इस दृष्टि से प्राकृत का ही विशेष रूप पालि है।

    कुछ विद्वानों ने यह भी माना है कि पालि का अर्थ पालने वाली है। यह मत मानने वाले विद्वान पालि को बौद्ध साहित्य को पालने वाली या रक्षा करने वाली भाषा मानते हैं।

    विद्वान

    आचार्य विधुशेखर—पंति> पत्ति> पट्ठि> पल्लि पालि

    मैक्स वालेसर—पाटलिपुत्र या पालि

    भिक्षु जगदीश काश्यप—परियाय> पलियाय> पालियाय> पालि

    भंडारकर व वाकर नागल—प्राकृत> पाकट> पाअड> पाउल> पालि

    भिक्षु सिद्धार्थ—पाठ> पाळ> पाळि> पालि

    कोसांबी—पाल् > पालि

    उदयनारायण तिवारी—पा + णिञ् + लि = पालि

    भाषा वैज्ञानिकों की सामान्य मान्यता यह है कि पालि शब्द का वास्तविक संबंध पवित या प्राकृत शब्द से है। पंक्ति से इसलिए कि यह भाषा मूलतः बौद्ध साहित्य से संबंधित है तथा प्राकृत से इसलिए कि भाषिक स्वरूप की दृष्टि से यह प्राकृत से काफ़ी मिलती जुलती है। कुछ विद्वानों ने इन दोनों मतों को मिलाकर इसे बौद्ध प्राकृत भी कहा।

    विद्वान

    पालि भाषा प्रदेश

    श्रीलंकाई बौद्ध तथा चाइल्डर्स—मगध

    वेस्टरगार्ड तथा स्टेनकोनो—उज्जयिनी या विंध्य प्रदेश

    ग्रियर्सन व राहुल—मगध

    ओलडेन वर्ग—कलिंग

    सुनीतिकुमार चटर्जी—मध्यदेश की बोली

    देवेंद्रनाथ शर्मा-मथुरा के आसपास का भू—भाग

    उदयनारायण तिवारी—मध्यदेश की बोली

    सर्वमान्य मत पाली भाषा का प्रदेश मध्यदेश की बोली को स्वीकार किया गया है।

    सामान्यतः विद्वानों की मान्यता यही है कि यह भाषा मथुरा और उज्जैन के बीच के क्षेत्र में विकसित हुई थी, किंतु धीरे-धीरे इतनी व्यापक हो गई कि बुद्ध ने अपने धर्म के प्रचार के लिए इसी भाषा को माध्यम बनाया।

    पाली में रचित महत्वपूर्ण ग्रंथ

    पालि भाषा के अध्ययन के मुख्य आधार हैं त्रिपिटक (बुद्ध वचन), अशोक के कुछ अभिलेख तथा तत्कालीन अन्य साहित्य।

    बौद्ध धर्म का प्रचार भारत से बाहर तक होने के कारण पालि भाषा का भी अत्यधिक क्षेत्र विस्तार हुआ।

    बौद्ध धर्म से संबंधित त्रिपिटक ग्रंथ पालि में हैं—

    ‘सुत्त पिटक’ बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। इसके अंतर्गत पाँच निकाय आते हैं:- 1. खुद्दक निकाय, 2. दीघ निकाय, 3. मज्झिम निकाय, 4. संयुक्त निकाय और 5. अंगुत्तर निकाय।

    ‘विनय पिटक’ में बुद्ध की उन शिक्षाओं का संकलन है जो उन्होंने समय-समय पर संघ संचालन को नियमित करने के लिए दी थी। विनय पिटक में निम्न ग्रंथ हैं— 1. महावरग 2. चुल्लवग्ग 3. पाचित्तिय 4. पाराजिक और 5 परिवार

    ‘अभिधम्म-पिटक’ में चित्त, चैतसिक आदि धर्मों का विशद् विश्लेषण किया गया है।

    ‘अट्ठकथा—साहित्य’ के प्रणेता आचार्य बुद्धघोष बतलाए जाते हैं, जिनका समय ईसा की पाँचवी शताब्दी निश्चित है।

    बुद्धघोष कृत ‘विसुद्धि मग्ग’ (विशुद्धमार्ग) को बौद्ध सिद्धांतों का कोश भी कहा जाता है।

    प्रो. बलदेव उपाध्याय ने पालि में उपलब्ध व्याकरण को तीन शाखाओं में विभक्त किया है।

    (1) कच्चायन व्याकरण

    (2) मोग्गालायन व्याकरण

    (3) अग्गवंसकृत ‘सहनिति’

    ‘कच्चायन व्याकरण’ (7वीं शती) के रचयिता महाकच्चायन माने जाते हैं। कालक्रम में यह सर्वप्राचीन पालि व्याकरण है।

    ‘कच्चायन व्याकरण’ को ‘कच्चान गंध’ या ‘सुसंधिकप्प’ भी कहा जाता है।

    ‘मोग्गालायन व्याकरण’ के रचयिता मोग्गलान है।

    ‘मोग्गालायन व्याकरण’, पालि व्याकरण में सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। इस व्याकरण में 817 सूत्र हैं।

    ‘सहनिति व्याकरण (1154 ई०) के रचयिता बर्मी भिक्षु अग्गवंश थे, ये ‘अग्गपंडित तृतीय’ भी कहलाते थे।

    प्रथम प्राकृत (पालि) के अंतर्गत ही अभिलेखी प्राकृत या शिलालेखी प्राकृत भी आता है। इसके अधिकांश लेख शिला पर अंकित होने के कारण इसकी संज्ञा ‘शिलालेखी प्राकृत’ हुई।

    पालि के ध्वनि समूह का परिचय

    कच्चायन के अनुसार पालि में 41 ध्वनियाँ थीं, लेकिन मोग्गलायन इसमें 43 ध्वनियाँ मानते हैं। लेकिन कहा जाता है कि पालि में कुल 47 ध्वनियाँ हैं।

    संस्कृत से तुलना करने का ऋ, ऐ, औ स्वरों का प्रयोग पालि भाषा में नहीं मिलता है।

    पालि में दो नए स्वर ह्रस्व ‘ए’ और ह्रस्व ‘ओ’ मिलते हैं। 

    विसर्ग पालि में नहीं मिलता है। 

    श,ष पालि में नहीं मिलते।

    ‘ळ’ व्यंजन का प्रयोग पालि में होता है लेकिन लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग नहीं मिलता है।

    मिथ्या सादृश्य के कारण ‘ठठ्’ का प्रयोग ‘ल्’ के स्थान पर भी देखा जा सकता है। 

    पालि में संस्कृत की कई ध्वनियों में परिवर्तन आया। ऋ का उच्चारण ख़त्म हो गया। जैसे नृत्य>निच्य

    विसर्ग का स्थान स्वर ‘ओ’ ने ले लिया।

    ऐ, औ विलुप्त हो गए। ‘ऐ’ का ‘ए’ (ऐरावण > एरावण) ‘औ’ का ‘ओ’ (गौतम>गोतम) अथवा आँ हो गया।

    टर्नर के अनुसार पालि में वैदिक की भाँति ही संगीतात्मक एवं बलात्मक, दोनों स्वराघात थीं। ग्रियर्सन तथा भोलानाथ तिवारी पालि में बलात्मक स्वराघात मानते हैं। जबकि जूल ब्लॉक किसी भी स्वराघात को नहीं स्वीकार करते हैं।

    व्याकरणिक संरचना

    पालि की क्रिया रचना से ही हिंदी में प्रयुक्त होने वाली क्रियाओं का विकास होना प्रारंभ हो गया था।

    पालि में तीन लिंग, तीन वाच्य तथा दो वचन (एक वचन और बहुवचन) का प्रयोग मिलता है। पालि में द्विवचन नहीं होता है।

    पालि हलंत रहित, छह कारक, आठ लकार (चार काल, चार भाव) तथा आठ गण युक्त भाषा है।

    पालि में तद्भव शब्द अधिक हैं, तत्सम शब्द कम पाए जाते हैं। परवर्ती साहित्य में कुछ विदेशी शब्द भी पाए जाते हैं।

     

    प्राकृत

    प्राकृत को मध्यकालीन आर्यभाषा की दूसरी अवस्था माना जाता है।

    मोटे तौर पर प्राकृत का समय सन् ई. से 500 ई. तक माना जाता है।

    नामकरण और क्षेत्र

    जब संस्कृत लोक व्यवहार की भाषा से अलग होकर शिष्ट जनों की भाषा बन गई तब उसका स्थान प्राकृत ने ले लिया और धीरे-धीरे भारत वर्ष में प्राकृत भारत की लोकमान्य भाषा बनकर जनसामान्य तक पहुँची। 

    इस युग में संस्कृत से भिन्न जितनी भी भाषाएँ थीं उनका सामूहिक रूप प्राकृत भाषा थी जो विकसित हो रही थी ।

    प्राकृत शब्द ‘प्रकृतेरागतम्’ व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृति से आने वाली भाषा है। प्रकृति का अर्थ स्वभाव, अशिक्षित जनता, अनपढ़ जीवन यापन करने वाला वह मानव समूह है, जो व्याकरणिक भाषा ज्ञान के अभाव में अपनी बात दूसरे तक पहुँचाता था। 

    रुद्रट ने व्याकरण विहीन बोली जाने वाली भाषा जो सहज और स्वाभाविक रूप से वचन व्यापार है, को प्रकृति माना है और यही प्रकृति ‘प्राकृत’ के रूप में धीरे-धीरे विकसित होकर आगे बढ़ी अर्थात् प्रकृति जन्य भाषा ही प्राकृत है।

    कुछ अन्य विद्वानों ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया है कि प्राकृत का अर्थ “प्राक् कृतम्” अर्थात् प्राचीन काल में बोली जाने वाली भाषा। 

    कुछ अन्य विद्वानों ने प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखकर प्राकृत पद की व्युत्पत्ति करते हुए बताया है कि “प्रकृतेः आगतम् “ प्रकृति से आई हुई भाषा।

    यहाँ उन विद्वानों ने प्रकृति का आशय संस्कृत माना है। प्राक् कृत का अर्थ है पहले से किया गया। 

    • प्राकृत के विकास की अवस्थाओं को किशोरीदास वाजपेयी आदि वैयाकरणों ने तीन चरणों में बाँट कर देखा है—

    • प्रथम प्राकृतः प्राकृत एक जनभाषा रही जो प्राचीन प्रचलित जनभाषा है।

    नमि साधु ने प्राकृत के संबंध में लिखा है ‘प्राक् पूर्व कृतं प्राकृत’ अर्थात् पहले से बनी हुई भाषा।

    द्वितीय प्राकृतः कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि संस्कृत भाषा के सरलीकरण के कारण प्राकृत भाषा बनी।

    हेमचंद्र ने लिखा है ‘प्रकृतिः संस्कृतं तत भवं तत आगतवा प्राकृतम्’ अर्थात् प्रकृति का मूल संस्कृत है और जो संस्कृत से आगत है वह प्राकृत है। द्वितीय प्राकृत को ‘साहित्यिक प्राकृत’ भी कहते हैं। 

    तृतीय प्राकृतः प्राकृत के बाद की भाषा अपभ्रंश को कुछ विद्वान तृतीय प्राकृत भी कहते हैं।

    • सामान्य रूप से वर्तमान में ‘प्राकृत’ नाम उस भाषा के लिए रूढ़ हो गया है, जो ईस्वी सन् की शुरुआत से पाँचवी शताब्दी तक प्रमुख साहित्यिक भाषा के रूप में प्रचलित रही।

     

    प्राकृत के भेद

    भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में 7 मुख्य प्राकृत तथा 7 गौण विभाषा की चर्चा की है। 

    मुख्य प्राकृत- गौण विभाषा

    मागधी- शाबरी

    अवन्तिजा- आभीरी

    प्राच्या- चांडाली

    सूरसेनी (शौरसेनी)- सचरी

    अर्धमागधी- द्राविड़ी

    बाह्लीक- उद्रजा

    दाक्षिणात्य (महाराष्ट्री)- वनेचरी

    वरुचि (सातवीं शताब्दी) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ ‘प्राकृत प्रकाश’ में प्राकृत भाषा के चार भेद बताए हैं जो निम्नलिखित हैं।

    (1) महाराष्ट्री प्राकृत

    (2) पैशाची

    (3) मागधी

    (4) शौरसेनी

     

    महाराष्ट्री प्राकृत

    महाराष्ट्री को प्राकृत वैयाकरणों ने आदर्श, परिनिष्ठित तथा मानक प्राकृत माना है। इस प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र है।

    डॉ० हार्नले के अनुसार महाराष्ट्री का अर्थ ‘महान राष्ट्र की भाषा’ है। महान के अंतर्गत राजपुताना तथा मध्यप्रदेश आदि आते हैं। 

    जार्ज ग्रियर्सन एवं जूल ब्लाक ने महाराष्ट्री प्राकृत से ही मराठी की उत्पत्ति मानी है।

    भरतमुनि ने ‘दाक्षिणात्य प्राकृत’ भाषा का भेद महाराष्ट्री के लिए ही किया है। अवंती और वाह्रीक ये दोनों भाषाएँ महाराष्ट्री भाषा में अंतर्भूत है। 

    डॉ० मन मोहन घोष और डॉ० सुकुमार सेन का अभिमत है कि महाराष्ट्री प्राकृत शौरसेनी का ही विकसित रूप है। 

    आचार्य दंडी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘काव्यादर्श’ में महाराष्ट्री को सर्वोत्कृष्ट प्राकृत भाषा बतलाया है—”महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः। सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयाम्॥”

     

    महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ निम्नलिखित हैं— 

    (1) राजा हाल कृत ‘गाहा सतसई’ (गाथा सप्तशती)

    (2) प्रवरसेन कृत ‘रावण वहो’ (सेतुबन्धः)

    (3) वाक्पति कृत ‘गउडवहो’ (गौडवधः)

    (4) हेमचंद्र कृत ‘कुमार पाल चरित’।

     

    शौरसेनी प्राकृत

    यह मूलतः शूरसेन या मथुरा के आसपास की बोली थी।

    डॉ० पिशेल के अनुसार इसका विकास दक्षिण में हुआ।

    शौरसेनी मूलतः नाटकों के गद्य की भाषा थी। आचार्य भरतमुनि ने लिखा भी “शौरसेनम समाश्रित्य भाषा कार्य तु नाटके।”  

    वररुचि ने शौरसेनी प्राकृत को ही प्राकृत भाषा का मूल माना है।

     

    पैशाची प्राकृत

    पैशाची प्राकृत को पैशाचिकी, पैशाचिका, ग्राम्य भाषा, भूतभाषा, भूतवचन आदि से भी संबोधित किया जाता है।

    जार्ज ग्रियर्सन ने पैशाची भाषा-भाषी लोगों का आदिम-वास-स्थान उत्तर-पश्चिम पंजाब अथवा अफ़ग़ानिस्तान को माना है तथा इसे ‘दरद’ से प्रभावित बताया।

    लक्ष्मीधर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘षड् भाषा चंद्रिका’ में राक्षस, पिचारी तथा नीच पात्रों के लिए पैशाची भाषा का प्रयोग बतलाया है (रक्ष पिशाचनीचेषु पैशाची द्वितयं भवेत)।

    मार्कण्डेय ने ‘प्राकृत सर्वस्व’ में कैकय पैशाची, शौरसेन पैशाची और पांचाल पैशाची, इन तीन प्रकार की पैशाची भाषाओं का तीन देशों के आधार पर नामकरण किया है।

     

    मागधी प्राकृत

    मागधी प्राकृत मगध देश की भाषा रही है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी से मागधी की व्युत्पत्ति बताई है। (मागधी शौरसेनीतः)।

    मागधी के शाकारी, चांडाली और शाबरी, ये तीन प्रकार मिलते हैं। 

    मागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप अश्वघोष के नाटकों में मिलता है।

    भरतमुनि के अनुसार मागधी अन्त:पुर के नौकरों, अश्वपालों आदि की भाषा थी।

     

    अर्धमागधी प्राकृत

    अर्धमागधी प्राकृत को ‘जैन अर्धमागधी’ भी कहते हैं क्योंकि जैन साहित्य इस भाषा में अत्यधिक मात्रा में मिलता है।

    हिंदी की एक उपभाषा पूर्वी हिंदी का विकास इसी से हुआ है।

    जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार यह मध्य देश (शूरसेन) और मगध के मध्यवर्ती देश (अयोध्या या कोसल) की भाषा थी।

    श्रीजिनदा सगणिमहत्तर (7वीं शताब्दी) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘निशीथचूर्णि’ में अर्धमागधी को मगध देश के अर्ध प्रदेश की भाषा होने के कारण अर्धमागध कहा है (मगहद्ध विसयभाषा निबद्धं अद्धभागहं)। 

    अर्धमागधी का प्रयोग मुख्यतः जैन-साहित्य में हुआ है। 

    भगवान् महावीर का संपूर्ण धर्मोपदेश इसी भाषा में निबद्ध है।

    जैनियों ने अर्धमागधी को ‘आर्ष’, ‘आर्षी’, ‘ऋषिभाषा’ या ‘आदिभाषा’ नाम से भी संबोधित किया है।  

    डॉ० जैकोबी ने प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री कहकर ‘जैन महाराष्ट्री’ नाम दिया है।

    आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य दर्पण’ में अर्धमागधी को चेट, राजपूत एवं सेठों की भाषा बताया है। 

     

    हेमचंद्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘प्राकृत-व्याकरण’ में प्राकृत भाषा के तीन और भेदों की चर्चा की, जो निम्न है—

    (1) आर्षी (अर्धमागधी)

    (2) चूलिका पैशाची

    (3) अपभ्रंश।

    हेमचंद्र को प्राकृत का पाणिनी माना जाता है। 

    हेमचंद्र की ‘चूलिका-पैशाची’ को ही आचार्य दंडी ने ‘भूत भाषा’ कहा है।

     

    प्राकृत की ध्वनि संरचना संबंधी विशेषताएँ

    विसर्गयुक्त अकारांत शब्द विसर्गहीन अकारांत शब्दों में परिवर्तित होने लगे। उदाहरण के लिए—वीर:> वीरो 

    पालि में ‘य’ व्यंजन का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में होता था, जबकि प्राकृत में प्रायः ‘य’ समाप्त होने लगा और उसके स्थान पर ‘ज’ प्रयुक्त होने लगा। उदाहरण के लिये यश > जस 

    प्राकृत में पहली बार एक नई परंपरा शुरू हुई जिसे ‘क्षतिपूरक दीर्घीकरण’ कहा जाता है। यह संस्कृत से हिंदी के विकास में एक महत्वपूर्ण सोपान है।

    इसके अंतर्गत द्वित्वीकृत रूप में प्राप्त व्यंजन का भी मूल व्यंजन बचा रहा किंतु दूसरे व्यंजन के स्थान पर वह स्वर से युक्त होकर दीर्घरूप में व्यक्त होने लगा। उदाहरण के लिए—जिव्हा जिब्भा > जीभ।

    व्याकरणिक संरचना में परिवर्तन के रूप में प्राकृत में परसर्गों का विकास पालि की तुलना में काफ़ी अलग स्तर पर दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, इस काल में ‘कए’, ‘केरक’ तथा ‘मज्झ’ परसर्ग दिखते हैं, जो आगे चलकर ‘का, के, की’ और ‘में’ के रूप में विकसित हुए।

    प्राकृत में तद्भव के स्थान पर पुनः तत्समीकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसकी मात्रा आगे चलकर अपभ्रंश में काफ़ी अधिक बढ़ जाती है।

    संस्कृत की केंद्रीकृत भाषिक स्थिति के विपरीत प्राकृत में पहली बार भाषिक विकेंद्रीकरण होना आरंभ हुआ और स्थान भेद से विभिन्न प्राकृत विकसित हुईं, जिन्होंने आधुनिक हिंदी की उपभाषाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

     

    अपभ्रंश 

    विद्वानों ने ‘अपभ्रंश’ को एक संधिकालीन भाषा कहा है।

    ‘अपभ्रंश’ मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है।  

    ‘अपभ्रंश’ के सबसे प्राचीन उदाहरण भरतमुनि के ‘नाट्य शास्त्र’ में मिलते हैं, जिसमें ‘अपभ्रंश’ को ‘विभ्रष्ट’ कहा गया है।

    भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ के अनुसार सर्वप्रथम व्याडि ने संस्कृत के मानक शब्दों से भिन्न संस्कारच्युत, भ्रष्ट और अशुद्ध शब्दों को ‘अपभ्रंश’ की संज्ञा दी।

    भर्तृहरि ने लिखा है—

    “शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते। तमपभ्रंश मिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम्॥”

    ‘अपभ्रंश’ शब्द का सर्वप्रथम प्रामाणिक प्रयोग पतंजलि के ‘महाभाष्य’ में मिलता है। महाभाष्यकार ने ‘अपभ्रंश’ का प्रयोग ‘अपशब्द’ के समानार्थक के रूप में किया है—

    “भूयां सोऽपशब्दाः अल्पीयांसः शब्दाः इति। एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः॥”

    डॉ० भोलानाथ तिवारी और डॉ० उदयनारायण तिवारी के अनुसार, भाषा के अर्थ में ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रथम प्रयोग 'चण्ड' (6वीं शताब्दी) ने अपने ‘प्राकृत-लक्षण’ ग्रंथ में किया है। (न लोपोऽभंशेऽधो रेफस्य)।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “अपभ्रंश’ नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि० सं0 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”

    भामह ने ‘काव्यालंकार’ में अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत के साथ एक काव्योपयोगी भाषा के रूप में वर्णित किया है—

    “संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा।”

    आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपभ्रंश को ‘ण-ण भाषा’ कहा है।

    चार्य दंडी ने ‘काव्यादर्श’ में समस्त वाङ्मय को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र, इन चार भागों में विभक्त किया है—

    “तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृत प्राकृतं तथा।

    अपभ्रंशश्च मिश्रञ्चेत्याहुशर्याश्चतुर्विधम्।।”

    आचार्य दंडी ने ‘काव्यादर्श’ में अपभ्रंश को ‘आभीर’ भी कहा है।

    भरतमुनि ने अपभ्रंश को ‘आभीरोक्ति’ कहा।

    वाग्भट्ट और हेमचंद्र ने अपभ्रंश को ‘ग्रामभाषा’ से संबोधित किया।

    अपभ्रंश को विद्वानों ने विभ्रष्ट, आभीर, अवहंस, अवहट्ट, पटमंजरी, अवहत्थ, औहट, अवहट आदि नामों से भी पुकारा है।

    ग्रियर्सन, पिशेल, भंडारकर, चटर्जी, वुलनर आदि विद्वानों ने अपभ्रंश को देश भाषा माना है, जबकि कीथ, याकोबी, ज्यूलब्लाख, अल्सडार्फ आदि विद्वानों ने अपभ्रंश को देश भाषा नहीं माना है।

    रुद्रट ने ‘काव्यालंकार’ में जिन छः भाषाओं का उल्लेख किया है, उनमें अपभ्रंश भी है। 

    दामोदर पंडित ने ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ में कोसल की भाषा को अपभ्रष्ट कहा है।

    • महाकवि कालिदास की कृति ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के चतुर्थ अंक में अपभ्रंश के कुछ छंद मिलते हैं। 

    धनपाल द्वारा रचित ‘भविस्सयत कहा’ अपभ्रंश का प्रथम प्रबंध काव्य है। डॉ. याकोबी ने इसका संपादन किया था।

    अपभ्रंश की रचनाएँ

    आठवीं शताब्दी में सिद्ध साहित्य के विकास में पूर्वी प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश मिलती है।

    बाद के समय में बौद्ध, रासो तथा विशेषकर जैन साहित्य की रचनाओं में अपभ्रंश के प्रयोग दिखाई देते हैं। 

    स्वयंभू (8वीं सदी) कृत ‘पउमचरिउ’, पुष्पदंत (10वीं सदी) रचित ‘महापुराण’ अपभ्रंश के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

    अपभ्रंश में रचित अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं—

    ‘जसहर चरिउ’, ‘णायकुमार चरिउ’, ‘जिनदत्त कहा’, ‘भविस्यत कहा’, “पाहुड़ दोहा’ आदि।

    कालिदास के नाटकों में भी निम्नवर्ग के पात्र इसी भाषा का प्रयोग करते हैं।

     

    अपभ्रंश के भेद

    विभिन्न विद्वानों ने अपभ्रंश के निम्नलिखित भेद बताए हैं।

    नमि साधु ने अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं                

    (1) उपनागर, (2) आभीर, (3) ग्राम्य।

    मार्कण्डेय ने अपनी पुस्तक ‘प्राकृत सर्वस्व’ में अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं।               

    (1) नागर- गुजरात की बोली

    (2) उपनागर- राजस्थान की बोली

    (3) व्राचड- सिंध की बोली    

    याकोबी ने ‘सनत्कुमार चरिउ’ की भूमिका में अपभ्रंश के चार भेंदों का उल्लेख किया है।            

    (1) पूर्वी, (2) पश्चिमी (3) दक्षिणी, (4)उत्तरी

    तगारे ने अपनी पुस्तक ‘हिस्टॉरिकल ग्रामर ऑफ़ अपभ्रंश’ में अपभ्रंश के तीन भेद बताए हैं।

    (1)पूर्वी, (2) पश्चिमी (3) दक्षिणी। 

    नामवर सिंह ने अपभ्रंश को दो वर्गों में विभाजित किया है।

    (1)पूर्वी और (2) पश्चिमी।

    डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी और धीरेंद्र वर्मा ने अपभ्रंश को भारतीय आर्यभाषा के विकास की एक ‘स्थिति’ माना है। 

    इनके अनुसार 6वीं से 11वीं शती तक प्रत्येक प्राकृत का अपना अपभ्रंश रूप रहा होगा—जैसे मागधी प्राकृत के बाद मागधी अपभ्रंश, अर्धमागधी प्राकृत के बाद अर्धमागधी अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत के बाद शौरसेनी अपभ्रंश एवं महाराष्ट्री प्राकृत के बाद महाराष्ट्री अपभ्रंश।

    अपभ्रंश भाषा की अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं।

    अपभ्रंश को (उकार बहुला भाषा कहा गया है। 

    अपभ्रंश वियोगात्मक हो रही थी अर्थात् अपभ्रंश में विभक्तियों के स्थान पर स्वतंत्र परसर्गों का प्रयोग होने लगा था।

    अपभ्रंश में दो वचन (एकवचन और बहुवचन) और दो ही लिंग (पुलिंग और स्त्रीलिंग) मिलते हैं।

    अवहट्ट

    ‘अवहट्ट’ भाषा का समय 900 ई. से 1100 ई. तक निश्चित किया गया है।

    अवहट्ट अपभ्रंश का ही परवर्ती या परिवर्तित रूप है। 

    डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी को ‘अवहट्ट’ कहा है। 

    ‘अवहट्ट’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग—ज्योतिश्वर ठाकुर ने अपने ‘वर्णरत्नाकर’ ग्रंथ में किया है।

     

    अवहट्ट

    साहित्य में 14 वीं शती तक इसका प्रयोग होता रहा।

    ‘संदेशरासक’ (अद्दहमाण) में अवहट्ट का उल्लेख मिलता है।

    ‘प्राकृत पैंगलम्’ के टीकाकार वंशीधर ने इसकी भाषा को अवहट्ट माना है।

    विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ की भाषा को ‘अवहट्ट’ कहा है।

    ‘सक्कय बाणी बुहजण भावइ। पाउअं रस को मम्म न पावइ।

    देसिल बअणा सभ जण मिट्ठा। तं तै सण जंपऔ अवहट्ठा॥”

    भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश और अवहट्ट को एक ही भाषा माना है।

    ज्ञानेश्वरी (संत ज्ञानेश्वर),राउलवेल (रोड कवि) ग्रंथ को भी कुछ विद्वान अवहट्ट का ग्रंथ मानते हैं।

    अपभ्रंश के सभी स्वरों के अतिरिक्त अवहट्ट में दो अतिरिक्त स्वर मिलते हैं—‘ऐ’ और ‘औ’  

    ‘क्षतिपूरक दीर्घीकरण’ का अवहट्ट में प्रयोग बढ़ा और पुरानी हिंदी में तो यह प्रमुख प्रवृत्ति बन गई। उदाहरण के लिए—

    कम्म> काम

    अज्ज> आज

    गृहिणी> धरणी

    अपभ्रंश की व्यंजनमाला के अतिरिक्त ‘ड’ और ‘ढ’ नए व्यंजन विकसित हुए।

    व्यंजनों में अकारण द्वित्वीकरण भी दिखता है जो अवहट्ट की अपनी विशेषता है, जैसे—कमान> कम्माण

    ‘हि’ विभक्ति या परसर्ग के प्रयोग को कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने अवहट्ट की सबसे बड़ी विशेषता माना है। 

     

    पुरानी/प्रारंभिक हिंदी

    चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने परवर्ती अपभ्रंश को ही पुरानी हिंदी कहा है।

    इस भाषा का काल लगभग तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी का है जब पहली बार हिंदी तथा उसकी बोलियाँ स्वतंत्र रूप से प्रकट होने लगी थीं। 

    इस भाषा को अन्य विद्वानों ने अन्य नामों से व्यक्त किया है, जैसे आचार्य द्विवेदी इसे ‘उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं, पंडित वासुदेवशरण अग्रवाल इसे ‘उदीयमान हिंदी’ कहते हैं, तो डॉ. शिवप्रसाद सिंह इसे ‘परवर्ती संक्रातिकालीन अपभ्रंश’ नाम देते हैं।

    8वीं 9वीं शताब्दी में सिद्धों की भाषा में हमें अपभ्रंश से निकलती हिंदी स्पष्टतः दिखाई पड़ती है।

    पउमचरिउ में भी उदीयमान हिंदी के छिटपुट उदाहरण मिलते हैं।

    विद्यापति और ज्योतिरीश्वर ठाकुर के यहाँ भी पूर्वी हिंदी के बीज मिल जाते हैं।

    खड़ी बोली का दक्खिनी रूप आरंभिक हिंदी के लिहाज़ से अधिक परिष्कृत रहा। 

    शुद्ध खड़ी बोली के प्रारंभिक नमूने खुसरो के लेखन में प्राप्त होते हैं। 

    हरदेव बाहरी, डॉ. माताप्रसाद गुप्त और डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया के विचार से सहमत हैं कि रोड कवि कृत राउलवेल एक मात्र ऐसी कृति है जिसमें एक भाषा के लक्षण मिलते हैं।

    अवधी, खड़ी बोली और दक्खिनी, किसी का भी ‘एक भाषी’ ग्रंथ 1250 ई. से पहले का उपलब्ध नहीं है और यही तीन भाषाएँ ऐसी हैं जिनकी परंपरा आगे चली है।

    नाथों और जोगियों की वाणी में आरंभिक हिंदी का निखरा रूप दिखाई पड़ता है।

    पुरानी हिंदी में परसर्गों का विकास काफ़ी तेज़ी से हुआ। 

    सरलीकरण और वियोगीकरण की जो परंपरा पालि, प्राकृत से ही आरंभ और अपभ्रंश, अवहट्ट में काफ़ी विकसित हो गई थी, वह पुरानी हिंदी में आकर सीधे-सीधे आधुनिक आर्यभाषा के रूप में प्रकट हुई।

     

    अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी का संबंध

    कालखंड

    अपभ्रंश का काल लगभग 7वीं से 9वीं शताब्दी है।

    अवहट्ट का काल लगभग 9वीं से 11वीं शताब्दी है।

    पुरानी हिंदी का काल लगभग 12वीं से 14वीं शताब्दी है।

     

    ध्वनियों के आधार पर अपभ्रंश

    अपभ्रंश में ऐ और औ का अभाव है।

    ऋ का अ, इ, उ, ए में परिवर्तन होता है।

    जैसे—गृह>गेह

    अपभ्रंश में स्वरभक्ति (व्यंजन संयोग को सरल बनाने के लिए व्यंजन संयोग के मध्य स्वर लाने की प्रक्रिया) दिखाई देने लगती है। जैसे—क्रिया>किरिया

    अपभ्रंश में स्वर संयोग (जहाँ दो स्वर एक साथ हो) की प्रक्रिया काफ़ी मात्रा में दिखाई देती है। जैसे—अंधकार>अंधआर

    स्वरलोप (स्वर का समाप्त हो जाना)

    आरंभिक व अंतिम स्वरों के लुप्त होने की प्रवृत्ति है। जैसे—लज्जा>लाज

    अपभ्रंश एक ‘ट’ वर्ग प्रधान भाषा है।

    अपभ्रंश में केवल ‘ण’ मिलता है, ‘न’ का अभाव है।

    अपभ्रंश में ‘क्ष’ का ‘ख्ख’ में परिवर्तन हो गया।

    अल्पप्राण व्यंजन (जैसे क, ग, च, ज, त, द) का अ या य में परिवर्तन हो गया। जैसे वचन का वयण

    अवहट्ट

    ‘ऐ’ और ‘औ’ मिलने लगते हैं, जैसे चौड़ा।

    अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति मिलती है।

    स्वरभक्ति अधिक मात्रा में मिलती है।

    स्वर संयोग से शब्दों को समझने में कठिनाई पैदा होने के कारण स्वरगुच्छों में संकोच की प्रवृत्ति पैदा हुई।

    जैसे—अंधआर>अंधार

    क्षतिपूरक दीर्घीकरण का आरंभ होता है‌। जैसे—धम्म>धाम

    अल्पप्राण व्यंजनों तथा महाप्राण ध्वनियों में परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ती गई।

    ‘क्ष’ में परिवर्तन की प्रवृत्ति बनी रही।

    केवल ण की उपस्थिति रही, न नहीं मिलता।

    पुरानी हिंदी

    ऐ’ और ‘औ’ का अत्यधिक प्रयोग हुआ है।

    ऋ के अ, इ, उ, ए में परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रही

    अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति कम मात्रा में बनी रही।

    स्वरभक्ति अधिक मात्रा में मिलने लगती है।

    स्वर संयोग और स्वरलोप की कोई विशेष प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती।।

    क्षतिपूरक दीर्घीकरण का और अधिक विकास होता है।

    श, ष के अलावा शेष सभी व्यंजनों का विकास हुआ।

    अल्पप्राण व्यंजनों तथा महाप्राण ध्वनियों में परिवर्तन की प्रवृत्ति और अधिक बढ़ गई।

    ‘क्ष’ में परिवर्तन दो रूपों में हुआ—

    पश्चिम में ‘ख’ के रूप में तथा पूर्व में ‘छ’ के रूप में। जैसे पश्चिमी रूप में लक्ष्मण लखन के रूप में तथा पूर्व में लछमन के रूप में विकसित हुआ।

    ‘न’ और ‘ण’ दोनों मिलने लगते हैं।

     

    व्याकरण के स्तर पर अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी का संबंध

    अपभ्रंश में संस्कृत के तीन लिंगों के स्थान पर दो लिंगों की व्यवस्था आरंभ हुई जो अवहट्ट और पुरानी हिंदी हिंदी में भी बनी रही साथ ही पुरानी हिंदी में स्त्रीलिंग शब्द अकारांत होने लगे।

    अपभ्रंश में संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर दो ही वचन एकवचन एवं बहुवचन बचे। द्विवचन का लोप हो गया। अवहट्ट में यही व्यवस्था बनी रही साथ ही संज्ञा बहुवचन के लिए न्ह,नि्ह परसर्गों का प्रयोग होने लगा। पुरानी हिंदी में इसके साथ ही बहुवचन बनाने के नियम निश्चित होने लगे। पुल्लिंग संख्याओं के लिए ए, व, अन, न्ह  का प्रयोग व्यापक रूप से होने लगा।

    अपभ्रंश में हिंदी के सर्वनामों के आरंभिक चिह्न दिखाई देने लगे, अवहट्ट में मेरा, मैं, तुम, वह जैसे सर्वनाम भी दिखाई देने लगे पुरानी हिंदी के समय सर्वनामों का अत्यधिक विकास हुआ। इस काल में आधुनिक हिंदी के प्राय सभी सर्वनाम दिखाई देते हैं।

    संज्ञा तथा कारक व्यवस्था के स्तर पर

    अपभ्रंश के समय निर्विभक्तिक प्रयोग आरंभ हो गए। अवहट्ट तथा पुरानी हिंदी के समय भी यही प्रवृत्ति बनी रही।

    अपभ्रंश के समय परसर्गों का आरंभिक विकास होने लगा तथा संबंध कारक में ‘का’ परसर्ग का विकास अपभ्रंश की प्रमुख घटना है। 

    अवहट्ट के समय कर्ता कारक के लिए ‘ने’ तथा करण व अपादान के लिए ‘से’ परसर्ग का विकास हुआ।

    पुरानी हिंदी के समय कर्म कारक के लिए ‘को’ तथा अधिकरण के लिए ‘पर’ परसर्ग का विकास प्रमुख घटना है।

    अपभ्रंश के समय संख्यावाची विशेषणों का विकास हुआ।

    अवहट्ट के समय कृदन्तीय विशेषणों की परंपरा का विकास होने लगा। 

    पुरानी हिंदी के समय कृदन्तीय विशेषणों की वृद्धि होने लगी।

     

    शब्दकोश के आधार पर अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी का संबंध—

    अपभ्रंश में तद्भव शब्द सबसे अधिक हैं जिनका अनुपात अवहट्ट और पुरानी हिंदी में कुछ कम होने लगा।

    अपभ्रंश के साथ देशज शब्दों का विकास आरंभ हुआ जो अवहट्ट और पुरानी हिंदी के साथ आगे बढ़ा।

    अपभ्रंश में अरबी-फ़ारसी परंपरा के विदेशज शब्दों का आगमन होना आरंभ हुआ। अवहट्ट और पुरानी हिंदी के साथ विदेशज शब्दों की मात्रा और बढ़ी।

     

    आधुनिक भारतीय आर्यभाषा

    आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश से हुआ है।

    आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का सर्वप्रथम वर्गीकरण डॉ. ए. एफ. और डॉ. हार्नले ने सन् 1880 ई. में किया।

    डॉ. हार्नले ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को 4 वर्गों में विभाजित किया।

    (1) पूर्वी गौडियन—पूर्वी हिंदी, बंगला, असमी, उड़िया।

    (2) पश्चिमी गौडियन—पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी, पंजाबी। 

    (3) उत्तरी गौडियन—गढ़वाली, नेपाली, पहाड़ी। (4) दक्षिणी गौडियन-मराठी।

    डॉ. हार्नले के अनुसार जो आर्य मध्यदेश अथवा केंद्र में थे ‘भीतरी आर्य’ कहलाए और जो चारों ओर फैले हुए थे ‘बाहरी आर्य’ कहलाए।

    डॉ. जार्ज ग्रियर्सन ने (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया—भाग तथा बुलेटिन ऑफ़ द स्कूल ऑफ़ ओरियंटल स्टडीज़, लंडन इंस्टिट्यूशन— भाग 1 खंड 3 1920) अपना पहला वर्गीकरण निम्नांकित ढंग से प्रस्तुत किया है—

    (1) बाहरी उपशाखा— (क) उत्तरी-पश्चिमी समुदाय— (i) लहँदा (ii) सिन्धी।

    (ख) दक्षिणी समुदाय— (i) मराठी

    (ग) पूर्वी समुदाय— (i) उडिया, (ii) बिहारी, (iii) बंगला, (iv) असमिया।

    (2) मध्य उपशाखा— (क) मध्यवर्ती समुदाय— (i) पूर्वी हिंदी। 

    (3) भीतरी उपशाखा— (क) केंद्रीय समुदाय— (i) पश्चिमी हिंदी, (ii) पंजाबी,(iii) गुजराती, (iv) भीरनी, (v) खानदेशी, (vi) राजस्थानी। 

    (ख) पहाड़ी समुदाय— (i) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली, (ii) मध्य या केंद्रीय पहाड़ी, (iii) पश्चिमी-पहाड़ी।

    डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के वर्गीकरण की आलोचना ध्वनिगत एवं व्याकरणगत आधारों पर करते हुए अपना वैज्ञानिक वर्गीकरण निम्न वर्गों में प्रस्तुत किया—

    (1) उदीच्य- सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।

    (2) प्रतीच्य- राजस्थानी, गुजराती।

    (3) मध्य देशीय- पश्चिमी हिंदी।

    (4) प्राच्य- पूर्वी हिंदी, बिहारी, उड़िया, असमिया, बंगला।

    (5) दाक्षिणात्य- मराठी।

    डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने डॉ० चटर्जी के वर्गीकरण में सुधार करते हुए अपना निम्नांकित वर्गीकरण प्रस्तुत किया—

    (1) उदीच्य- सिन्धी, लहँदा, पंजाबी। 

    (2) प्रतीच्य- गुजराती।

    (3) मध्य देशीय- राजस्थानी, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी।

    (4) प्राच्य- उड़िया, असमिया, बंगला।

    (5) दाक्षिणात्य- मराठी।

    भोलानाथ तिवारी ने क्षेत्रीय तथा सम्बद्ध अपभ्रंशों के आधार पर अपना वर्गीकरण निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है— 

    शौरसेनी (मध्यवर्ती) अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती आधुनिक भाषाओं का विकास हुआ।

    मागधी (पूर्वीय) अपभ्रंश से बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमिया भाषाओं का विकास हुआ।

    अर्धमागधी (मध्य पूर्वीय) अपभ्रंश से पूर्वी हिंदी विकसित हुई।

    महाराष्ट्री (दक्षिणी) अपभ्रंश से मराठी का विकास हुआ।

    व्राचड-पैशाची (पश्चिमोत्तरी) अपभ्रंश से सिंधी, लहँदा, पंजाबी भाषा विकसित हुई।

    डॉ. हरदेव बाहरी ने आधुनिक आर्य भाषाओं को दो वर्गों में बाँटा:-

    हिंदी वर्ग

    मध्य पहाड़ी, राजस्थानी, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी (ये सभी हिंदी की उपभाषाएँ हैं)।

    हिंदीतर (अ-हिंदी) वर्ग

    उत्तरी- (नेपाली)

    पश्चिमी- (पंजाबी, सिंधी, गुजराती)

    दक्षिणी- (सिंहली, मराठी)।

    पूर्वी- (उड़िया, बंगला, असमिया)।

    प्रमुख आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताएँ

    सिंधी शब्द का संबंध संस्कृत सिंधु से है। सिंधु देश में सिंधु नदी के दोनों किनारों पर सिंधी भाषा बोली जाती है।

    सिंधी की मुख्यतः 5 बोलियाँ:- विचोली, सिराइकी, थरेली, लासी, लाड़ी है। 

    सिंधी की अपनी लिपि का नाम ‘लंडा’ है, किंतु यह गुरुमुखी तथा फ़ारसी लिपि में भी लिखी जाती है।

    →लहँदा का शब्दगत अर्थ है ‘पश्चिमी’। इसके अन्य नाम पश्चिमी पंजाबी, हिंद की, जटकी, मुल्तानी, चिभाली, पोठवारी आदि हैं।

    लहँदा की भी सिंधी की भाँति अपनी लिपि ‘लंडा’ है, जो कश्मीर में प्रचलित शारदा लिपि की ही एक उपशाखा है।

    पंजाबी शब्द ‘पंजाब’ से बना है जिसका अर्थ हैं पाँच नदियों का देश।

    पंजाबी की लिपि लंडा थी जिसमें सुधार कर गुरु अंगद ने गुरुमुखी लिपि बनाई।

    पंजाबी की मुख्य बोलियाँ माझी, डोगरी, दोआबी, राठी आदि है।

    गुजराती की अपनी लिपि है जो गुजराती नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुतः गुजराती कैथी से मिलती जुलती लिपि में लिखी जाती है। इसमें शिरोरेखा नहीं लगती।

    मराठी महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा है। इसकी प्रमुख बोलियाँ कोंकणी, नागपुरी, कोष्टी, माहारी आदि है।

    मराठी की अपनी लिपि देवनागरी है किंतु कुछ लोग मोड़ी लिपि का भी प्रयोग करते हैं।

    बंगला संस्कृत शब्द बंग+आल (प्रत्यय) से बना है। यह बंगाल प्रदेश की भाषा है।

    नवीन यूरोपीय विचार-धारा का सर्वप्रथम प्रभाव बंगला भाषा और साहित्य पर पड़ा।

    बंगला प्राचीन देवनागरी से विकसित बंगला लिपि में लिखी जाती है।

    असमी (असमिया) असम प्रदेश की भाषा है। इसकी मुख्य बोली विष्णुपुरिया है। असमी की अपनी लिपि बंगला है।

    उड़िया प्राचीन उत्कल अथवा वर्तमान उड़ीसा (ओड़ीसा) की भाषा है। इसकी प्रमुख बोली गंजामी, सम्भलपुरी, भत्री आदि है। इसकी लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली से विकसित है।

    उपभाषा

    उपभाषा सामान्य रूप से बोलियों के उस वर्ग को कहते हैं जिनमें समान ऐतिहासिक विरासत के कारण गहरे संबंध होते हैं तथा जिनकी भाषिक प्रवृत्तियाँ प्रायः एक सी होती हैं।

    एक भाषा की बहुत सी बोलियाँ होती हैं तथा उन बोलियों के बीच अलग-अलग मात्रा में निकटता और दूरी दिखाई देती है।

    निकटवर्ती बोलियाँ परस्पर गहराई से जुड़ी होती हैं, जबकि दूर की बोलियों में उतना आंतरिक तारतम्य नहीं होता।

    बोलियों के निकट संबंध वस्तुतः समान ऐतिहासिक उद्भव पर आधारित होते हैं। हिंदी में पाँच प्रकार की प्राकृतों से ही पहले अपभ्रंशों तथा बाद में हिंदी की उपभाषाओं का विकास हुआ है। विकास की यह प्रक्रिया इस प्रकार है—

    राजस्थानी प्राकृत → अपभ्रंश → राजस्थानी हिंदी (उपभाषा)

    शौरसेनी प्राकृत → शौरसेनी अपभ्रंश → पश्चिमी हिंदी (उपभाषा) 

    अर्धमागधी प्राकृत → अर्धमागधी अपभ्रंश → पूर्वी हिंदी (उपभाषा) 

    मागधी प्राकृत → मागधी अपभ्रंश → बिहारी हिंदी (उपभाषा) 

    खस प्राकृत → खस अपभ्रंश → पहाड़ी हिंदी (उपभाषा)

     

    हिंदी की उपभाषाएँ

    हिंदी भाषा का वर्गीकरण पाँच उपभाषाओं में किया जाता हैं—राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी, पहाड़ी हिंदी, पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी।

     

    हिंदी की प्रमुख बोलियों के नामकरण कर्ता निम्नांकित हैं:-

    कौरवी बोली नाम राहुल सांकृत्यायन ने दिया।

    ब्रजबुलि बोली के नामकरणकर्ता हैं ईश्वरचंद्र गुप्त

    राजस्थानी (भाषा) के नामकरणकर्ता हैं ग्रियर्सन

    डिंगल बोली का नामकरण बाँकीदास ने किया।

    बिहारी बोली का नामकरण भी ग्रियर्सन ने किया।

    भोजपुरी के नामकरणकर्ता हैं रेमंड

    मैथिली का नामकरण कोलब्रुक ने किया।

     

    उच्चारण के आधार पर हिंदी की प्रमुख बोलियों का वर्गीकरण:-

    ओकार बहुला- ब्रजभाषा, बुंदेली, कन्नौजी, मारवाड़ी, कुमाऊँनी, गढ़वाली, मालवी

    आकार बहुला- कौरवी, दक्खिनी

    उदासीन आकार बहुला- अवधी, बघेली

    इकार बहुला- भोजपुरी

     

    राजस्थानी हिंदी

    इस उपभाषा का क्षेत्र संपूर्ण राजस्थान तथा मालवा जनपद के साथ-साथ सिंध के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ है।

    इस वर्ग की बोलियाँ बोलने वालों की संख्या चार करोड़ से कुछ अधिक है।

    इस उपभाषा के अंतर्गत चार बोलियाँ आती हैं मारवाड़ी, मेवाती, मालवी तथा जयपुरी/ढूँढ़ाणी

    राजस्थानी हिंदी उपभाषा ‘ट’ वर्ग बहुला उपभाषा है।

    इन ध्वनियों के साथ मराठी में विशेष रूप से प्रयुक्त होने वाली ‘ळ’ ध्वनि भी इसमें प्रयुक्त होती है। 

    पुल्लिंग एकवचन शब्द इसमें प्रायः अकारांत होते हैं, जैसे हुक्को, तारो, इत्यादि। 

    पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों के बहुवचन के अंत में आँ का प्रयोग इस उपवर्ग की एक विशेष प्रवृत्ति है जैसे तारों, राताँ इत्यादि। 

    हिंदी के ‘को’ उपसर्ग के स्थान पर ‘नै’ तथा ‘से’ परसर्ग के स्थान पर ‘सूँ’ का प्रयोग इसमें किया जाता है।

     

    मारवाड़ी

    भौगोलिक क्षेत्र : जोधपुर, अजमेर, मेवाड़, सिरोही, बीकानेर, जैसलमेर, उदयपुर, चुरू, नागौर, पाली, जालौर, बाड़मेर, पाकिस्तान के सिंध प्रांत के पूर्वी भाग में।

    राजस्थानी हिंदी की चारों बोलियों में मारवाड़ी प्रमुख बोली है।

    मेवाड़ी, सिरोही, बागड़ी, थली, शेखावटी आदि ‘मारवाड़ी’ की प्रमुख उपबोलियाँ हैं।

    पुरानी मारवाड़ी को ही ‘डिंगल’ कहा जाता है।

    मीरा के पद कहीं ‘ब्रजभाषा’ और कहीं ‘मारवाड़ी’ में हैं।

     

    ढूँढ़ाणी/जयपुरी

    ढूँढ़ाणी मुख्यतः पूर्वी राजस्थान में बोली जाती है।

    जयपुर का पुराना नाम ढूँढ़ाण है, इस कारण से जयपुरी को ढूँढ़ाणी भी कहते हैं।

    तोरावटी, काठँड़ा, चौरासी, अजमेरी, हाड़ौती जयपुरी की उपबोलियाँ हैं।

    ढूँढ़ाणी में ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ का प्रयोग दिखाई देता है, यथा- मणै - मनै, तूणे - तूने, वाणे - वाने आदि। 

     

    मालवी

    भौगोलिक क्षेत्र : उज्जैन, इंदौर, देवास, रतलाम, भोपाल, होशंगाबाद, प्रतापगढ़, गुना, नीमच, टोंक

    लंबे समय तक उज्जैन के आस-पास का क्षेत्र मालव या मालवा नाम से प्रसिद्ध रहा, इस कारण यहाँ की बोली को मालवी कहते हैं। सोंडवाड़ी, राँगड़ी, पाटबी, रतलामी आदि मालवी की मुख्य उपबोलियाँ हैं।

    इसमें शब्द के शुरू के अक्षर में स्वर का दीर्घीकरण किया जाता है, यथा—लकड़ी–लाकड़ी, कपड़ा–कापड़ा आदि।

    ‘ऐ’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘ए’ तथा ‘ओ’ का प्रयोग।

    मालवी के प्रमुख सर्वनाम हैं:- के (कौन), कीने (किसने), के (क्या) आदि।

    कारकों में कर्म के साथ ‘खे’ तथा करण के साथ ‘ती’ का प्रयोग होता है।

     

    मेवाती

    मेवाती बोली मेव जाति के निवास स्थान मेवात क्षेत्र की बोली है।

    मेवाती की एक मिश्रित उपबोली ‘अहीरवाटी’ है, जो गुड़गाँव, दिल्ली, करनाल के पश्चिमी क्षेत्र आदि में बोली जाती है।

    राठी, नहरे, कठर, गुजरी आदि मेवाती की अन्य उपबोलियाँ हैं।

    मेवाती की हरियाणी से निकटता प्रायः विद्वानों ने स्वीकार की है।

     

    ‘बिहारी हिंदी’ उपभाषा

    इस उपभाषा में तीन प्रमुख बोलियाँ आती हैं—भोजपुरी, मगही और मैथिली।

     

    भोजपुरी

    भोजपुरी का बोली के अर्थ में सर्वप्रथम प्रयोग में राजा चेतसिंह के सिपाहियों की बोली के लिए हुआ।

    बिहारी हिंदी उपभाषा की सबसे अधिक बोले जानेवाली बोली भोजपुरी है।

    बिहारी हिंदी उपवर्ग की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बोली भोजपुरी है। 

    लोकप्रचलन की दृष्टि से यह हिंदी की सबसे बड़ी बोली है।

    भारत के बाहर भी मॉरिशस, फ़िजी आदि देशों में यह अत्यधिक प्रचलित है।

    भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का ‘शेक्सपियर’ कहा जाता है। उन्होंने ‘बिदेसिया’ सहित बारह नाटकों की रचना की है।

     

    मगही

    मगही या मागधी का अर्थ है मगध की भाषा। मगही शब्द मागधी का विकसित रूप है।

    मगही का परिनिष्ठित रूप 'गया' ज़िले में प्रयुक्त होता है। 

    मगही में पर्याप्त लोकसाहित्य उपलब्ध है। गोपीचंद और लोरिक के लोकगीत प्रसिद्ध हैं।

    अधिकरण कारक में ‘मों’ का प्रयोग तथा सर्वनाम में ‘आप’ का प्रयोग होता है।

     

    मैथिली

    मैथिली का उद्भव मागधी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है। मिथिला की बोली को मैथिली कहा जाता है। 

    उत्तरी मैथिली, दक्षिणी मैथिली, पूर्वी मैथिली, पश्चिमी मैथिली, छिकाछिकी और जोलहा बोली मैथिली की छः उपबोलियाँ हैं। 

    साहित्यिक दृष्टि से मैथिली बिहारी हिंदी की सबसे संपन्न बोली है। 

    मैथिली में ‘छ’ और ‘ल’ ध्वनियों का अत्यधिक प्रयोग होता है।

    एकवचन और बहुवचन रूपों में अंतर दिखाने के लिए सब, सबहि, लोकन जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

    मैथिली में प्रयुक्त सर्वनाम हैं:- अहाँ, ओकर, एकर आदि।

    इसकी क्रियाओं में कोई लिंगभेद नहीं होता। 

    मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है।

     

    ‘पहाड़ी हिंदी’ उपभाषा

    पहाड़ी हिंदी उत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्रों मुख्यतः कुमाऊँ तथा गढ़वाल में बोली जाती है।

    ‘पहाड़ी हिंदी’ पर आर्यभाषा संस्कृत, तिब्बती चीनी तथा खस का भी प्रभाव रहा है। इसकी साहित्यिक परंपरा नहीं मिलती है।

    इस उपवर्ग की बोलियों में सानुनासिक स्वरों की प्रधानता है।

    इसकी बोलियाँ प्रायः अकारांत है, यथा— घोड़ो, कालो, चल्यो आदि। 

    ‘पहाड़ी हिंदी’ के अंतर्गत दो बोलियाँ आती हैं:- कुमाऊँनी और गढ़वाली।

     

    कुमाऊँनी

    नैनीताल, अल्मोड़ा तथा पिथौरागढ़ क्षेत्र का पारंपरिक नाम कूर्मांचल है जिसे कुमाऊँ कहते हैं। इसकी बोली कुमाऊँनी बोली है।

    खसपरजिया, कुमैयाँ, फल्दकोटिया, पछाईं, चौगरखिया, गंगोला, दानपुरिया, सीराली, सोरियाली, अस्कोटी, जोहारी, रउचो भैंसी, भोटिया आदि कुमाऊँनी की उपबोलियाँ हैं।

    इस पर राजस्थानी का प्रभाव है। इस प्रभाव के कारण ‘ण’ और ‘ळ’ ध्वनियाँ भी शामिल हैं। कौरवी के प्रभाव के कारण अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है।

    पुल्लिंग एक वचन में ‘ओ’ का बहुवचन रूप कुमाऊँनी में ‘न’ होता है, यथा- घोड़ो घोड़न आदि। 

    कुमाऊँनी में कारक चिह्नों के रूप में कर्त्ता के साथ ‘ले’ कर्म के साथ ‘कणि’ तथा करण के साथ ‘थे’ का प्रयोग होता है।

    सहायक क्रिया ‘छ’ रूप में प्रयुक्त होती है।

     

    गढ़वाली

    बावन गढ़ियों में बँटे होने के कारण ‘केदारखंड’ क्षेत्र को गढ़वाल कहा जाता है और यहाँ की बोली गढ़वाली कहलाती है।

    उत्तराखंड राज्य के टिहरी गढ़वाल की बोली गढ़वाली का आदर्श रूप मानी जाती है।

    गढ़वाली बोली में भोटिया, शक, किरात, नागा और खस जातियों की भाषाओं के अनेक तत्त्व शामिल हैं।

    इस पर पंजाबी और राजस्थानी का प्रभाव दिखाई पड़ता है।

    स्वरों के अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति इसमें बहुतायत दिखाई पड़ती है, यथा- छायाँ देत, पैंसा आदि।

    कारक चिह्नों के रूप में कर्त्ता के साथ ‘ल’, कर्म के साथ ‘कूँ’, ‘कुणी’ तथा करण के साथ ‘से’, ‘ती’ परसर्गों का प्रयोग होता है। पूर्वी हिंदी’ उपभाषा पूर्वी हिंदी का क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ तक फैला हुआ है। 

    प्राचीन समय में जिस क्षेत्र को उत्तरी कोसल तथा दक्षिणी कोसल कहा जाता था, वही क्षेत्र पूर्वी हिंदी का क्षेत्र है।

    इसकी सीमाओं का निर्धारण कानपुर से मिर्ज़ापुर तथा लखीमपुर से बस्तर तक किया जाता है।

    ‘पूर्वी हिंदी’ के अंतर्गत तीन बोलियाँ हैं:– अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी।

     

    अवधी

    ‘अवधी’ अवध क्षेत्र में बोली जाती है। 

    अवध अयोध्या का तद्भव रूप है। 

    इस बोली के लिए ‘कोसली’, ‘बैसवाड़ी’ शब्दों का प्रयोग भी होता है।

    ‘प्राकृत पैंगलम’ में पुरानी अवधी के रूप मिलते हैं।

    डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार बैसवाड़ी, मिर्जापुरी तथा बघौनी अवधी की मुख्य उपबोलियाँ हैं।

    फ़िजी, त्रिनिदाद, गुयाना, मॉरिशस, दुबई आदि देशों में कुछ जनसंख्या अवधी में बातचीत भी करते हैं।  

    अवधी के विकास को तीन कालों में विभाजित किया गया है—

    प्रारंभ से 1400 ई. तक ‘आदिकाल’, 

    1400 ई. से 1700 ई. तक ‘मध्यकाल’ और 1700 ई. से आज तक ‘आधुनिक काल।

     

    बघेली

    रीवा के आसपास का क्षेत्र बघेल राजपूतों के वर्चस्व के कारण बघेलखंड कहलाया और यहाँ पर बोली जाने वाली बोली ‘बघेलखंडी’ या बघेली कहलाई।

    जुड़ार, गहोरा, तिरहारी बघेली की उपबोलियाँ हैं। 

    बाबूराम सक्सेना ‘बघेली’ को ‘अवधी’ की ही एक उपबोली मानते हैं।

    अवधी और बघेली में बहुत-सी समानताएँ हैं।

     

    छत्तीसगढ़ी

    छत्तीसगढ़ी बोली वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य की भाषा है।

    इतिहास में इस क्षेत्र को दक्षिणी कोसल भी कहा गया है। 

    छत्तीसगढ़ी को ‘लरिया’ या ‘खल्टाही’ भी कहते हैं।

    सरगुजिया, सदरी, बैगानी, बिंझवाली मुख्य उपबोलियाँ हैं। भोजपुरी, मगही, बघेली, मराठी, उड़िया भाषी क्षेत्रों से घिरा होने के कारण इनका प्रभाव स्पष्ट रूप से छत्तीसगढ़ी पर देखा जा सकता है।

     

    ‘पश्चिमी हिंदी’ उपभाषा

    ‘पश्चिमी हिंदी’ हिंदी भाषा का सबसे बड़ा उपवर्ग है, जिसका क्षेत्र अंबाला से कानपुर तक तथा देहरादून से महाराष्ट्र के आरंभ तक विकसित है। इसकी बोलियाँ निम्नलिखित हैं:-

     

    ब्रजभाषा

    ब्रज का अर्थ है—‘पशुओं या गायों का समूह’ या चरागाह।

    पशुपालन की अधिकता के कारण यह क्षेत्र ब्रज कहलाया और इसकी बोली ब्रजभाषा।

    ब्रज या ब्रजी एक बोली होने पर भी मध्ययुग में हिंदी प्रदेश से बाहर पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में इसका प्रयोग हुआ और साहित्य रचा जाता रहा, इस कारण भाषा शब्द ब्रज के साथ जुड़ गया और ‘ब्रजभाषा’ शब्द बना।

    इस बोली का आरंभिक रूप आदिकालीन साहित्य में ‘पिंगल’ तथा मध्यकाल में ‘भाखा’ नाम से मिलता है। 

    भूक्सा, अंतर्वेदी, भरतपुरी, डांगी, माथुरी आदि ब्रजभाषा की मुख्य उपबोलियाँ हैं।

    बंगाली कवि ईश्वरचंद्र गुप्त ने ‘ब्रजबुलि’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था।

    ब्रजभाषा का विकास तीन कालों में विभाजित किया गया है।

    आरंभ से 1525 ई. तक ‘आदिकाल’, 1525 से 1800 ई. तक ‘मध्यकाल’ और 1800 ई. से अबतक ‘आधुनिक काल’।

     

    खड़ी बोली

    खड़ी बोली का दूसरा नाम कौरवी है। ‘कौरवी’ का प्रयोग राहुल सांकृत्यायन ने किया था।

    बीम्स, सुनीति कुमार चटर्जी, धीरेंद्र वर्मा आदि भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार खड़ी बोली का आधार कौरवी है।

    खड़ी बोली मानक हिंदी का आधार कोलबुक ने ‘कन्नौजी’ को माना, इस्टाविक तथा मुहम्मद हुसैन ने ‘ब्रजभाषा’ को माना और मसऊद हसन खाँ ने ‘हरियाणी’ को माना है।

     

    विद्वानों के अनुसार खड़ी बोली का अर्थ

    सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार खड़ी बोली का अर्थ है—‘सीधी’।

    कामताप्रसाद गुरु खड़ी बोली का अर्थ ‘कर्कश’ से लेते हैं।

    गिलक्राइस्ट की मान्यता है कि खड़ी बोली का संबंध ‘गँवारू’ से है।

    किशोरीदास वाजपेयी खड़ी बोली के अर्थ को खड़ी ‘पाई’ से संबंधित मानते हैं।

    अन्य भाषा वैज्ञानिक खड़ी बोली से खरी या शुद्ध का संबंध जोड़ते हैं।

    वर्तमान हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी और दक्खिनी कुछ सीमा तक खड़ी बोली पर आधारित हैं।

     

    बुंदेली

    बुंदेली बुंदेलखंड की बोली है। बुंदेलखंड नाम बुंदेला राजपूतों के आधिपत्य के कारण पड़ा।

    भू-भाग की व्यापकता की दृष्टि से बुंदेली पश्चिमी हिंदी की सबसे व्यापक बोली है।

    बुंदेली में लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में है। ‘ईशुरी के फाग’ बहुत प्रसिद्ध है।

    ‘आल्हा’ एक प्रसिद्ध लोकगाथा है, जिसे बुंदेली की ही एक उपबोली ‘बनाफरी’ में लिखा गया था।

    धीरेंद्र वर्मा मानते हैं कि ‘बुंदेली’, कन्नौजी के समान ही ब्रज की एक उपबोली है। 

    इसके उच्चारण में अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति मिलती है, जैसे—आधा> आदा, दूध> दूद आदि।

     

    कन्नौजी

    कन्नौजी शब्द संस्कृत के कान्यकुब्ज शब्द से विकसित हुआ है। (कान्यकुब्ज कण्णउज्ज → कन्नौज)

    कुछ विद्वान कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही रूप मानते हैं।

    ग्रियर्सन ने इसे अलग बोली माना है।

    कन्नौज जनपद का पुराना नाम पांचाल था।

    इस बोली में मध्यम ‘ह’ का लोप हो जाता है, जैसे- जाहि>जाइ, करहुकरठ आदि।

    हिंदी की अंतिम महाप्राण ध्वनि का यहाँ अल्पप्राणीकरण हो जाता है, जैसे- हाथ > हाँत आदि। 

    कन्नौजी में अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति अत्यधिक मात्रा में मिलती है, जैसे- बात> बाँत आदि।

     

    हरियाणी (हरियाणवी) 

    इसका मूल संबंध हरियाणा राज्य से है। ग्रियर्सन ने इसे बांगरु कहा।

    धीरेंद्र वर्मा ने हरियाणी को स्वतंत्र बोली नहीं माना और खड़ी बोली का ही एक रूप माना है।

    हरियाणी को ‘जाटू’ भी कहते हैं।

    हरियाणी में ‘लोक साहित्य’ पर्याप्त मात्रा में है।

     

    दक्खिनी

    दक्खिनी हिंदी का अन्य नाम है:- दकनी, देहलवी, हिन्दवी, गूजरी।

    हैदराबाद में दक्खिनी हिंदी का एक विशिष्ट रूप प्रचलित है जिसे ‘हैदराबादी हिंदी’ कहा जाता है।

    ‘गूजरी’ इसका वह रूप है जो गुजरात के कवियों के साहित्य में प्रयुक्त है, यथा- मुहम्मद शाह कादिरी के काव्य में।

    दक्खिनी हिंदी के प्रमुख स्थान आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व मद्रास हैं। दक्खिनी हिंदी की मुख्य उपबोलियाँ हैं- गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी, हैदराबादी।

    दक्खिनी हिंदी की विशेषताएँ

    खड़ी बोली के सभी स्वर दक्खिनी हिंदी में मिलते हैं।

    खड़ी बोली के सभी व्यंजन इसमें भी मिलते हैं। इनके अतिरिक्त, ‘गु’ तथा ‘फ’ जैसी ध्वनियाँ अत्यधिक मात्रा में दिखाई देती हैं। 

    ड़ के स्थान पर ड प्रयोग करने की प्रवृत्ति मिलती है, जैसे- पड़ा>पडा आदि।

    महाप्राण ध्वनियों का अल्पप्राणीकरण काफ़ी ध्वनियों में दिखाई देता है, जैसे—मूरख>मूरक, मुझे>मुजे।

    कहीं-कहीं अल्पप्राण ध्वनियों का महाप्राणीकरण भी होता है।

    उदाहरण के लिए पलक>पलख, पहचान>पछान आदि।

    एक शब्द की विभिन्न ध्वनियों के विपर्यय की प्रवृत्ति दक्खिनी की एक प्रमुख विशेषता है। उदाहरण के लिए— लखनऊ>नखलऊ, 

    सर्वनाम व्यवस्था इस प्रकार है:-

    उत्तम पुरुष - मेरेकूँ, हमन, मंज, मुज

    मध्यम पुरुष – तुज, तुमें, आप हिं

    अन्य पुरुष - उनन, उनने

    अन्य सर्वनाम - जित्ता, जित्ती, उत्ता, उत्ती।

    क्रिया व्यवस्था के प्रमुख प्रयोग इस प्रकार हैं:-

    वर्तमानकाल- अहै, है, हैं, हूँ, हैगा  

    भूतकाल- कह्या, बोल्या, था, थ्या।

    भूतकाल की क्रियाओं में ‘यकर’ प्रत्यय का प्रयोग भी काफ़ी मात्रा में होता है, जैसे—आकर>आयकर, रोकर>रोयकर आदि।

    दक्खिनी हिंदी में आरंभिक काल में खड़ी बोली की शब्दावली हो सर्वाधिक प्रचलित रही। इसमें फ़ारसीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती गई। 

    इसके अतिरिक्त, मराठी, तेलुगू और कन्नड़ के स्थानीय शब्द भी सीमित मात्रा में शामिल होते गए।

     

    हिंदुस्तानी

    हिंदुस्तानी शब्द दो शब्दों के मेल से बना है—‘हिंदुस्तान+ई’।

    धीरेंद्र वर्मा, ग्रियर्सन आदि विद्वानों का मत है कि यह नाम अँग्रेज़ों ने दिया है।

    ‘तुजुक ए बाबरी’ में भाषा के अर्थ में हिंदुस्तानी शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रारंभ में यह शब्द ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ का समानार्थी था, किंतु आगे चलकर इसका वह अर्थ हो गया जो आज उर्दू का है।

    हिंदुस्तानी में तद्भव तथा बहुप्रचलित संस्कृत तत्सम और अरबी-फ़ारसी के वे शब्द होते हैं, जो बोलचाल में भी प्रयुक्त होते हैं।

     

    खड़ी बोली, ब्रज और अवधी की विशेषताएँ

    खड़ी बोली

    उद्भव—शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से।

    उपभाषा वर्ग—पश्चिमी हिंदी का प्रतिनिधि रूप।

    भौगोलिक विस्तार-मेरठ केंद्र है, दिल्ली से देहरादून तक तथा अंबाला से हिमाचल के आरंभ तक का संपूर्ण क्षेत्र।

    साहित्यिक विकास-19वीं सदी से पूर्व विशेष नहीं- सिद्ध, नाथ, खुसरों, रहीम, संत काव्य, दक्खिनी हिंदी में आरंभिक रूप; 19वीं सदी से तीव्र आरंभ। मानक हिंदी का मूल आधार।

    इसकी प्रमुख उपबोलियाँ पश्चिमी, पूर्वी और बिजनौरी मानी गई है। 

    हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी तथा दक्खिनी एक सीमा तक खड़ी बोली पर ही आधारित है।

    उच्चारण संबंधी प्रमुख विशेषताएँ

    दीर्घस्वर के बात द्वित्व व्यंजन (राज्जा, बेट्टा, गाड्डी) शब्दों की अकारांतता, ’ह’ का लोप (बहु-बऊ, पहलवान पैलवान, साहब-साब, कहाँ-कां)

    ‘न’ के स्थान पर’ण’. (मनुष्य-माणस, नहीं-णीं, भाग्नवान-भागामाण)

    ल का प्रयोग (निकाल, बदल)  

    अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति

    जैसे—धोखा>धोका

    प्रारंभिक स्वर का लुप्त होना

    जैसे—इकट्ठा>कट्टा

    व्याकरण संबंधी विशेषताएँ

    संज्ञा का एक रूप (प्राय: आकारांत) पाया जाता है।

    स्त्रीलिंग के लिए ई, अन, नी प्रत्यय प्रमुख हैं।

    कारक व्यवस्था में निर्विभक्तिक प्रयोग नहीं के बराबर हैं।

    आकारांत विशेषण विकारी हैं।

    जैसे—छोटा>छोटी

    अन्य विशेषण अविकारी बने रहते हैं।

    ब्रजभाषा

    उद्भव- शौरसेनी अपभ्रंश से

    उपभाषा वर्ग-पश्चिमी हिंदी से संबंधित पर अवधी से अत्यंत निकटता

    भौगोलिक विस्तार- ब्रज मंडल का संपूर्ण क्षेत्र। मूलतः मथुरा, वृंदावन, आगरा में प्रयुक्त। हरियाणा का भी कुछ भाग, जैसे—पलवल, होडल इत्यादि।

    साहित्यिक विकास

    आदिकाल में ‘पिंगल’ की परंपरा में उपस्थित। प्राकृत पैंगलम, उक्तिव्यक्तिप्रकरण, पृथ्वीराज रासो में आरंभिक रूप। नाथ साहित्य व खुसरो की कविताओं में भी उपस्थिति। भक्तिकाल में कृष्ण काव्यधारा में प्रचुरता। रीतिकाल के समय अखिल भारतीय साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित।

    ब्रजभाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ

    ‘ऐ’ और ‘औ’ ब्रजभाषा की विशेष ध्वनियाँ हैं। जैसे करै (करे), ऊधौ (ऊधो), तौ (तो)। 

    ब्रजभाषा में अकारांत बहुलता है।

    जैसे—आयो (आया) होतो (होता)। 

    अवधी की भांति ब्रजभाषा में भी व्यंजन के अल्पप्राणीकरण की प्रवृति है, जैसे बारा (बारह), तुमारो (तुम्हारा)।  

    ज़्यादातर ‘ण’ का रूप ‘न’ ही मिलता है, जैसे—गनपति।

    ‘ल’ और ‘द’ को ‘र’ करने की प्रवृति ब्रजभाषा में काफ़ी है, जैसे—पीरो (पीला) दुबरो (दुबला)।

    संयुक्त व्यंजन मिलते तो है, लेकिन प्रायः उन्हें तोड़कर सरल करने की प्रवृति ज़्यादा है, जैसे-  सबद (शब्द), सुरग (स्वर्ग), मारग (मार्ग)। 

    प्रायः पुल्लिंग एकवचन शब्द रूप ओकारांत है, जैसे—‘डांडो’, जिसका तिर्यक रूप डांड़े भी मिलता है। 

    स्त्रीलिंग एकवचन प्रायः ईकारांत मिलते हैं, जैसे—थारी

    पूर्वी हिंदी अवधी से पश्चिमी हिंदी ब्रजभाषा की विशिष्ट पहचान उसमें कर्त्ता के ‘नै’ चिह्न का होना है।

    ‘ने’ प्रायः ब्रजभाषा में ‘नै’ रूप में मिलता है। हालाँकि प्राचीन ब्रजभाषा में यदा-कदा कारकों के कुछ विभक्ति रूप मिल जाते हैं जो ‘हिं’ ‘ए’ और ‘ऐ’ आदि प्रत्यय लगाकर बनते है।

    संज्ञा का एक ही रूप पाया जाता है।

    स्त्रीलिंग के लिए ई, इया, आइन तथा आनी प्रत्यय- गौरी, ललाइन, देवरानी, अखियाँ/बिटिया। कहीं-कहीं नपुंसकलिंग का प्रयोग भी, जैसे- सोना>सोनो। 

    वचन व्यवस्था में एँ, अन, इन प्रत्ययों का प्रयोग

    किताब>किताबें, किताबन

    विशेषण विशेष्यानुसार विकारी होते हैं, जैसे—कालो छोरो>काले छोरे

     

    अवधी

    उद्भव-अर्धमागधी अपभ्रंश से उपभाषा वर्ग-पूर्वी हिंदी उपभाषा का प्रतिनिधि रूप।

    भौगोलिक विस्तार-लखनऊ, फ़ैज़ैबाद, अयोध्या ,सीतापुर, सुल्तानपुर, रायबरेली तथा आसपास का क्षेत्र। विदेशों में भी प्रयुक्त- फ़ीजी त्रिनिदाद आदि में।

    साहित्यिक विकास-राउलवेल, उक्तिव्यक्तिप्रकरण में आरंभिक रूप। 

    सूफ़ी काव्यधारा में ठेठ अवधी का प्रयोग। रामकाव्यधारा में अवधी का विस्तार।

    हिंदू प्रेमाख्यानकारों ने अवधी का प्रयोग किया।

    कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित आदि कुछ कवि अभी भी अवधी में सक्रिय हैं।

    अवधी की व्याकरणिक विशेषताएँ

    उच्चारण के स्तर पर अवधी उकारांतता प्रधान भाषा है।

    ‘ऐ’ और औ का उच्चारण संध्यक्षरों के रूप में होता है। (चौउड़ा, आदि)

    ‘ण’, ’ड़’, ’ष’ तथा ‘व’ के स्थान पर क्रमशः ‘न’, ’र’, ’स’ तथा ‘ब’ का प्रयोग। कौण>कौन, सड़क>सरक, ऋषि>रिषि, विश्व>बिस्व।

    संज्ञा के तीन रूप मिलते हैं, जैसे—नदी-नदीय-नदीवा।

    लिंग व्यवस्था में प्रायः इया परसर्ग का प्रयोग होता है।

    वचन व्यवस्था में एँ, न तथा न्ह प्रत्ययों का प्रयोग होता है।

    निर्विभक्तिक प्रयोग कहीं-कहीं दिखते हैं।

    विशेषण प्रायः अविकारी बने रहते हैं।

     

    हिंदी की शब्द संपदा 

    हिंदी की शब्द संपदा का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है। ऐसे प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:-

    (क) स्रोत की दृष्टि से

    (ख) निर्माण या गठन की दृष्टि से

    (ग) प्रयोग के संदर्भ की दृष्टि से

    (घ) परिवर्तनशीलता या परिवर्तनीयता की दृष्टि से।

     

    (क) स्रोत की दृष्टि से शब्द भंडार

    स्रोत की दृष्टि से शब्द भंडार के विश्लेषण का अर्थ है कि विभिन्न शब्द भाषा में किस प्रक्रिया से शामिल हुए हैं। हिंदी के शब्द भंडार को स्रोत की दृष्टि से प्रायः चार भागों में बाँटा जाता है।

    1. तत्सम शब्द 2. तद्भव शब्द 3. देशज शब्द 4. विदेशज शब्द

     

    1) तत्सम शब्द

    तत्सम अर्थात् तत् (उस के)+सम (समान)। यहाँ उस का तात्पर्य है ‘संस्कृत’।

    तत्सम शब्द वे शब्द हैं जो संस्कृत से लिए गए हैं, और ठीक उसी रूप में लिए गए हैं जैसे वे संस्कृत में मिलते थे। 

    हिंदी चूँकि संस्कृत से ही विकसित हुई भाषा है, अतः स्वाभाविक रूप से संस्कृत शब्द—हिंदी के शब्द भंडार में काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

    तत्सम शब्द अपनी जटिलता के कारण प्रायः बोलचाल की भाषा में कम प्रयुक्त होते हैं और लिखित भाषा में अधिक। 

    हिंदी साहित्य के इतिहास में तत्सम शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति मुख्यतः छायावादी काव्य में मिलती है। 

    तत्सम शब्दों के आधार पर रचित गद्य साहित्य में शुक्ल जी के निबंधों को,आचार्य द्विवेदी व अन्य लेखकों के ऐतिहासिक पौराणिक उपन्यासों (जैसे बाणभट्ट की आत्मकथा) तथा नाटकों और सैद्धांतिक आलोचना को महत्त्वपूर्ण रूप में रखा जा सकता है। 

    2) तद्भव शब्द

    तद्भव का अर्थ है तत् (उससे)+भव(निर्मित)। 

    संस्कृत के जो शब्द समय के साथ कुछ परिवर्तित होकर हिंदी भाषा में आ गए हैं, वे ही तद्भव कहलाते हैं। 

    संस्कृत से हिंदी तक के भाषिक विकास को सरलीकरण की जिस परंपरा के रूप में विश्लेषित किया जाता है, तद्भव शब्द उसी परंपरा के आधार स्तंभ हैं।

    तदभव शब्दों का प्रयोग प्रायः लोक-अनुभवों में आने वाले तथ्यों, विचारों, घटनाओं तथा वस्तुओं आदि के लिए किया जाता है। 

    3) देशज शब्द : देशज शब्द वे शब्द हैं जिनका जन्म देश में ही हुआ है। यहाँ देश का अर्थ भाषा के अपने क्षेत्र से है। ये वे शब्द हैं जो लोक-परंपरा में ही पैदा हुए हैं।

    देश का अर्थ यहाँ भाषिक इकाई के रूप में नहीं, राजनीतिक इकाई के रूप में ही लिया जाना चाहिए।

    हिंदी के देशज शब्द प्राय: दो प्रकार के हैं। एक वे जो प्रसिद्ध तथा मुंडा/कोल परिवार की भाषाओं से स्वीकार किए गए हैं तथा दूसरे वे जो आम जन-जीवन में स्वतः विकसित हुए हैं। स्वतः विकसित होने वाले देशज शब्द प्रायः ध्वन्यात्मक होते हैं तथा ध्वनि के अनुकरण में ही बन जाते हैं, दोनों प्रकार के देशज शब्दों के उदाहरण इस प्रकार हैं—

    द्रविड़ या मुंडा भाषाओं से—डोसा, उड़द, टोपी, डंका, पापड़, लाठी, मुकुट इत्यादि।

    स्वतः विकसित शब्द—ख़र्राटा, भोपू, हिनहिनाना, घरघर, चिड़चिड़ाना, किलकारी इत्यादि। 

    देशज शब्दों की मूल विशेषता यह मानी गई है कि उनमें किसी अँचल की लोक-संस्कृति पूरी गहराई से व्यक्त होती है। किसी भी संस्कृति के विशेष तत्व प्रायः देशज भाषा का निर्माण करते हैं क्योंकि वे शब्द अन्य संस्कृतियों के लिए समान अर्थ में प्रयुक्त होने की क्षमता नहीं रखते। ये शब्द प्रायः ध्वन्यात्मक तो होते ही हैं, अर्थ-व्यंजकता भी इनमें गज़ब की होती है। साहित्य में इनका सर्वश्रेष्ठ प्रयोग उन रचनाओं में होता है जो किसी विशेष क्षेत्र या अँचल से संबंधित होती हैं। 

    द) विदेशज शब्द : विदेशी शब्द वे हैं जो हमारे देश में नहीं जन्मे हैं बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया में हिंदी भाषा में स्वीकार किए गए हैं। यहाँ देश राजनीतिक इकाई के रूप में है, अत: भारत के बाहर जन्मे ये शब्द जो हिंदी भाषा की शब्द-संपदा के अंग बन चुके हैं; विदेशी शब्द कहलाते हैं।

    हिंदी में विदेशी शब्द मूलत: दो परंपराओं के हैं। एक परंपरा अरबी-फ़ारसी की है तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं की।

    भारतीय समाज में मध्यकालीन संक्रमण की प्रक्रिया में अरबी-फ़ारसी परंपरा के शब्द हिंदी में आए तथा आधुनिक काल के संक्रमण में यूरोपीय शब्द तेज़ी से आने लगे। संक्रमण के इन दोनों युगों में कई-कई भाषाओं के शब्द हिंदी ने स्वीकार किए जिनके उदाहरण निम्नलिखित हैं—

     

    फ़ारसी परंपरा—

    फ़ारसी—नापसंद, चश्मा, कुश्ती, सितार, सरकार, हज़ार, उम्मीद

    तुर्की- कालीन, कैंची, बेगम, चेचक, तोप, बहादुर

    अरबी- अजीब, अदालत, आदमी, शराब, दुकान, दुनिया

    यूरोपीय परंपरा

    अँग्रेज़ी- कैलक्टर, पेंशन, ऑपरेशन, लैम्प, सूटकेस, साइकिल, स्कूटर

    फ़्रेंच- कूपन, कारतूस

    पुर्तगाली- गमला, चाबी, नीलाम, बाल्टी, पादरी

    अन्य एशियाई परंपराएँ

    जापानी-रिक्शा

    चीनी-चाय, लीची

     

    संकर शब्द

    कुछ शब्द दो भाषाओं के मिलने से बन जाते हैं, जिन्हें संकर शब्द कहा जाता है। सामान्यतः इनका विवेचन कम ही किया जाता है किंतु कुछ विद्वान इन्हें स्वीकृति प्रदान करते हैं। ऐसे कुछ शब्द इस प्रकार हैं—

    थानेदार (हिंदी+फ़ारसी)

    परदानशीन (अरबी+फ़ारसी) 

    वोटदाता (अँग्रेज़ी+तत्सम) 

    लाजशरम (हिंदी+फ़ारसी)

    फ़ैशन परस्त (अँग्रेज़ी+फ़ारसी)

    मोटरगाड़ी (अँग्रेज़ी+देशज) 

    बदहज़मी (फ़ारसी+अरबी)

     

    (ख) निर्माण या गठन की दृष्टि से शब्द भंडार

    निर्माण या गठन की दृष्टि से शब्दों के तीन भेद किए जाते हैं—रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़ शब्द।

    रूढ़ शब्द : ये वे शब्द हैं जिनकी ध्वनियों को अलग करके कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता या जिनकी व्युत्पत्ति ज्ञात न हो, जैसे हाथ, पेट, किताब इत्यादि।

    यौगिक शब्द : ये वे शब्द हैं जो दो या दो से अधिक रूढ़ शब्दों से मिलकर बनते हैं तथा जिनका अर्थ दोनों के अर्थ जुड़ने से निर्धारित होता हैं, जैसे पुस्तकालय, हथगोला, जलज इत्यादि।

    योगरूढ़ शब्द—ये ऐसे शब्द हैं जो संरचना की दृष्टि से यौगिक हैं किंतु जिनका अर्थ एक विशेष रूप में रूढ़ हो चुका है। उदाहरण के लिए पंकज शब्द का यौगिक दृष्टि से अर्थ होगा—कीचड़ में जन्म लेने वाला, किंतु इसका प्रचलित अर्थ है कमल, जो कि रूढ़ हो चुका है। इसी प्रकार नीलकंठ इत्यादि शब्द भी इसी प्रकार के हैं।

     

    प्रयोग के संदर्भ की दृष्टि से शब्द भंडार

    प्रयोग क्षेत्र के आधार पर शब्दों को प्रायः सभी भाषाओं में दो भागों में विभाजित किया जाता है—सामान्य शब्द तथा पारिभाषिक शब्द

    सामान्य शब्द

    सामान्य शब्द वे शब्द हैं जो सामान्य व्यवहार की भाषा में प्रयुक्त होते हैं। इन शब्दों का निश्चित और वस्तुनिष्ठ अर्थ होना आवश्यक नहीं होता है। संदर्भ के परिवर्तन के साथ ये शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त इनके संबंध में एक और विशेष बात यह भी है कि इनका अपने नज़दीकी शब्दों से अंतर निश्चित नहीं होता है।

    एक ही शब्द का बहुआयामी प्रयोग उसे सामान्य शब्द बनाता है।

    सामान्य शब्द आमतौर पर एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त हो सकते हैं। 

    ब) पारिभाषिक शब्द—पारिभाषिक शब्द वे शब्द हैं जिनका अर्थ और संदर्भ पूर्णतः परिभाषित होता है। ये शब्द किसी ख़ास संदर्भ में प्रयुक्त होते हैं किंतु प्रयुक्ति के संदर्भ में इनका अर्थ एकदम निश्चित व वस्तुनिष्ठ होता है। प्रत्येक विषय या क्षेत्र के अपने पारिभाषिक शब्द होते हैं। इनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं—

    अर्थशास्त्र-संपत्ति, मांग, आपूर्ति

    राजनीतिशास्त्र- सत्ता, प्राधिकार, गणतंत्र, नियम, अधिनियम

    दर्शनशास्त्र- रहस्यवाद, तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा

    इतिहास- सामंतवाद, राष्ट्रवाद, मनसबदारी, पूँजीवाद

    भौतिकी- बल, ऊर्जा, ध्वनि

    अर्द्ध-पारिभाषिक शब्द

    वे शब्द जो किसी संदर्भ में पारिभाषिक शब्द बन जाते हैं और किसी संदर्भ में सामान्य शब्दों-सा व्यवहार करते हैं, यथा- रस, मांग, बल, तेज़, धातु, ऊर्जा।

     

    (घ) परिवर्तनशीलता या परिवर्तनीयता की दृष्टि से शब्द भंडार

    परिवर्तनीयता का अर्थ है परिवर्तित होने की क्षमताएँ। इस दृष्टि से भाषा के सभी शब्दों को दो भागों में बाँट दिया जाता है—विकारी शब्द तथा अविकारी शब्द।

    (i) विकारी शब्द—ये वे शब्द हैं जो लिंग, वचन या काल आदि के परिवर्तन से बदल जाते हैं। हिंदी में चार प्रकार के विकारी पद मिलते हैं। 

    संज्ञा : लड़का, लड़के, लड़कियाँ इत्यादि।

    विशेषण : काला, काले, काली इत्यादि

    सर्वनाम: वह, वे, वही इत्यादि।

    क्रिया : जाता है, जाते हैं, जाती है इत्यादि।

    अविकारी शब्द— ये वे शब्द हैं जो किसी भी स्थिति में परिवर्तित नहीं होते हैं। प्रत्येक लिंग, वचन तथा काल में इनकी एक सी संरचना बनी रहती है। अविकारी पद निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किए गए हैं:-

     

    क्रियाविशेषण : ये वे विशेषण हैं जो संज्ञा की नहीं, क्रिया की विशेषता बताते हैं, जैसे : ‘धीरे चलना’ में ‘धीरे’ शब्द ‘चलना’ क्रिया का विशेषण है।

    योजक या समुच्चयबोधक शब्द : ये वे शब्द हैं जो दो वाक्यों या उपवाक्यों या शब्दों को जोड़ते हैं, जैसे : और, तथा, या, किंतु इत्यादि।

    सम्बन्धबोधक शब्द : ये वे शब्द हैं जो वस्तुओं या व्यक्तियों के आपसी संबंधों को व्यक्त करते हैं, जैसे के लिए, के बिना इत्यादि।

    विस्मयादिबोधक शब्द : ये वे शब्द हैं जो विस्मय को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होते हैं, जैसेः अरे, उफ, वाह इत्यादि।

     

    शब्द निर्माण की प्रमुख युक्तियाँ

    हिंदी भाषा शब्द निर्माण हेतु मुख्यत: चार युक्तियाँ हैं।

    उपसर्ग

    प्रत्यय

    संधि 

    समास

    उपसर्ग :

    ‘उपसर्ग’ शब्द दो पदों के योग से बना है—उप (समीप) तथा सर्ग (सृष्टि करना)। इस प्रकार उपसर्ग शब्द का आशय हुआ—निकट आकर सृष्टि करना। उपसर्गों की शब्द की तरह अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है, किंतु वह जिस शब्द के पूर्व जुड़ता है उसमें पर्याप्त परिवर्तन या नूतन अर्थ का समन्वय कर देता है। 
    उपसर्ग वह वर्ण या वर्णसमूह है जो किसी शब्द के प्रारम्भ में जुड़कर उसके अर्थ में विशिष्टता, चमत्कार या परिवर्तन पैदा कर देता है।

    महत्त्व

    एक उपसर्ग अनेक धातुओं या एक धातु अनेक उपसर्गों के संयोग से शब्द-निर्माण कर सकते हैं। जैसे—हृ धातु से बने शब्द हार से उपसर्ग अनु, आ, वि, परि, उप, सम, प्र, प्रति के संयोग से क्रमशः अनुहार (प्रतिरूप), आहार (भोजन), विहार (भ्रमण), परिहार (त्यागना), उपहार (भेंट), संहार (नष्ट करना), प्रहार (चोट करना), प्रतिहार (द्वारपाल) शब्द बनते हैं।

    हिंदी उपसर्ग—हिंदी भाषा में निम्न तीन प्रकार के उपसर्ग प्रचलित हैं:- (1) तत्सम उपसर्ग, (2) तद्भव उपसर्ग, (3) विदेशी उपसर्ग।

     

    प्रत्यय : 

    ‘प्रत्यय’ शब्द ‘प्रति+अय’ के योग से बना है, जिसका अर्थ है—पास में (पीछे) चलना। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रत्यय वे वर्ण या वर्णसमूह हैं जो किसी शब्द के अंत में जुड़कर उसके अर्थ में चमत्कार या परिवर्तन प्रस्तुत कर देते हैं।

    भेद-प्रत्यय दो प्रकार के माने गए हैं—

    (1) कृत प्रत्यय, (2) तद्धित प्रत्यय 

    (1) कृत प्रत्यय- क्रिया या धातु के साथ जो प्रत्यय लगाए जाते हैं, उनको कृत प्रत्यय कहते हैं और इनसे बनने वाले शब्दों को कृदंत कहते हैं। कृदंत शब्दों के पाँच प्रकार माने गए हैं जो निम्नवत् हैं:—

    (1) कर्तृवाचक- ये वे शब्द हैं जो क्रिया के कर्ता का बोध कराते हैं। 

    (2) कर्मवाचक- ये वे शब्द हैं जो कर्म का बोध कराते हैं। 

    (3) करणवाचक- ये वे शब्द हैं जो साधन (करण) का बोध कराते हैं। 

    (4) भाववाचक- ये वे शब्द हैं जो किसी भाव या क्रिया के व्यापार का बोध कराते हैं। 

    (5) क्रियाबोधक- वे शब्द जो क्रिया के संपन्न होने का बोध कराते हैं।

     

    (2)तद्धित : ये वे प्रत्यय हैं जो क्रियाओं के अतिरिक्त संज्ञा, विशेषण आदि में जुड़ते हैं, जैसे: पा, पन, आ इत्यादि। इनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं—

    पा : बुढ़ापा, बहनापा

    आ- प्यासा, निराशा

    पन- बचपन

    हिंदी के अपने प्रत्यय भी काफ़ी मात्रा में हैं। इस संदर्भ में एक विशेष बात यह भी है कि संस्कृत से हिंदी के विकास की प्रक्रिया में जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक विकास हुआ है, उनमें से एक क्षेत्र प्रत्ययों का भी है। ऐसे प्रत्ययों में आरी, आहट, अक्कड़ इत्यादि प्रमुख हैं। इनके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-

    अक्कड़- भुलक्कड़, पियक्कड़

    आहट- फुसफुसाहट

    आरी- पुजारी, बीमारी

     

    संधि एवं संधि-विच्छेद

    संधि

    संधि शब्द का सामान्य आशय-मेल, योग या जोड़ है। 

    व्याकरण के नियमानुसार दो समीपवर्ती ध्वनियों का संयुक्त होना या जुड़ना ही संधि है।

    हिंदी व्याकरण (कामता प्रसाद गुरु) के अनुसार, “दो निर्दिष्ट अक्षरों के पास-पास आने पर उनके मेल से जो विकार होता है, उसे संधि कहते हैं।”


    भेद-वर्णों की प्रकृति के आधार पर संधि तीन प्रकार की मानी गई है:— 

    1. स्वर संधि,

    2. व्यंजन संधि,

    3. विसर्ग संधि।


    1. स्वर संधि 

    संधि-निकटवर्ती दो स्वरों के मिलने से उत्पन्न विकार को स्वर संधि कहते हैं। जैसे—छात्र+आवास = छात्रावास [यहाँ अ तथा आ की संधि से आ विकार हुआ है।]

    भेद- स्वरों के परस्पर संयोग से विविध प्रकार के विकार प्रस्तुत होते हैं। इनमें पाँच प्रकार के विकार विशिष्ट माने गए हैं। अतः इन्हीं के आधार पर स्वर संधि के 5 प्रमुख भेद माने जाते हैं, जो निम्नवत् हैं:—

    (1) दीर्घ संधि - जब हृस्व या दीर्घ स्वर (अ, इ, उ, ऋ) के साथ समान हृस्व या दीर्घ स्वर का संयोग होता है तो दोनों के स्थान पर उसी वर्ग का दीर्घ हो जाता है। (हिंदी में ऋ के संयोग वाले शब्द प्रायः अप्रचलित हैं।) जैसे:- अस्त+अचल=अस्ताचल (अ+अ=आ)

    (2) गुण संधि - जब अ या आ से इ, ई, उ, ऊ अथवा ऋ का संयोग होता है तो दोनों के योग से क्रमशः ए, ओ या अर् विकार उत्पन्न होते हैं। जैसे:- देव+इन्द्र=देवेन्द्र (अ+इ=ए)

    (3) वृद्धि संधि-जब अ या आ से ए/ऐ अथवा ओ/और स्वर का संयोग होता है तो दोनों के योग से क्रमशः ऐ या औ स्वर का आगम होता है। जैसे:— एक+एक=एकैक (अ+ए=ऐ)

    (4) यण संधि-यदि इ/ई, उ/ऊ या ऋ का किसी भिन्न स्वर से संयोग होता है। उनके स्थान पर क्रमशः य् (इ/ई), व् (उ/ऊ) या र् (ऋ) का आगम होता है। जैसे:- अति+अधिक=अत्यधिक (इ +अ=य)

    (5) अयादि संधि-यदि ए, ऐ, ओ, औ के साथ किसी भिन्न स्वर का संयोग होता है तो ये क्रमशः अय्, आय्, अव् तथा आव् रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। जैसे:- चे+अन=चयन (ए+अ=अय)

     

    2. व्यंजन संधि : व्यंजन के साथ स्वर अथवा व्यंजन की संधि, व्यंजन संधि कहलाती है; जैसे- जगत्+नाथ = जगन्नाथ आदि।

     

    3. विसर्ग संधि : विसर्ग के साथ स्वर अथवा व्यंजन की संधि, विसर्ग संधि कहलाती है; जैसे- दुः+शासन = दुःशासन या दुश्शासन आदि।

    समास

    जब दो शब्द अपनी विभक्ति को छोड़कर आपस में मिल जाते हैं तो इसे समास कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित शब्द को सामासिक शब्द कहा जाता है। सामासिक शब्द को उनकी विभक्ति के साथ पुनः लिखना विग्रह कहलाता है। समास के मुख्यतः चार भेद हैं—

    (क) अव्ययीभाव समास

    (ख) तत्पुरुष समास

    (ग) द्वंद्व समास

    (घ) बहुब्रीहि समास


    अव्ययीभाव समास : जिस समास का पहला पद प्रधान हो और अव्यय हो तथा उत्तर गौण हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं, यथा—यथाविधि, आजन्म, परोक्ष, यथाशक्ति।

    तत्पुरुष समास : जिस समास का दूसरा पद प्रधान हो, उसे तत्पुरुष समास कहते हैं, यथा—घुड़सवार, हस्तलिखित। इस समास का पहला पद बहुधा संज्ञा अथवा विशेषण होता है।

    तत्पुरुष समास के दो भेद हैंव्याधिकरण तत्पुरुष और समानाधिकरण तत्पुरुष

    व्याधिकरण तत्पुरुष ही तत्पुरुष समास है। द्विगु समास इसी तत्पुरुष का उदाहरण है।

    द्विगु समास :

    जिस समास का पहला पद संख्यावाचक हो, उसे द्विगु समास कहते हैं। यथा—चौराहा, सतसई, पंचवटी, चतुर्भुज।

    समानाधिकरण तत्पुरुष का प्रचलित नाम कर्मधारय समास है।

    कर्मधारय समास का पहला पद विशेषण तथा दूसरा पर दल विशेष्य होता है, यथा- पीतांबर, तलघर, चन्द्रमुख।

    तत्पुरुष समास के प्रकारों में एक ‘नञ् तत्पुरुष समास’ भी होता है जिसका पहला पद निषेधात्मक होता है। इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं—अकर्मक, अनाथ।

    द्वंद्व समास : जिस समास का दोनों पद प्रधान हो अर्थात् पूर्वपद और उत्तर पद बराबर महत्त्व के हों, उसे द्वंद्व समास कहते हैं, यथा—गाय-बैल, दाल-भात, घटी-बढ़ी।

    बहुब्रीहि समास : जिस समास का कोई भी पद प्रधान नहीं होता और जो अपने-अपने पदों से भिन्न तीसरे अर्थ की व्यंजना करता है, बहुब्रीहि समास कहलाता है, यथा—लम्बोदर ,पीताम्बर, नीलकंठ।

    योगरूढ़ शब्द बहुब्रीहि समास कहलाते हैं।

     

    मानक हिंदी की रूप संरचना/व्याकरण संरचना

    किसी भाषा में निहित व्यवस्था उसके व्याकरण पर निर्भर होती है। व्याकरण का अध्ययन चार भागों में बाँटकर किया जाता है—

    1. पदसंरचना

    2. कारक व्यवस्था

    3. विकारोत्पादक तत्त्व

    4. वाक्य संरचना

     

    पद संरचना : शब्द और पद प्रायः समानार्थक शब्द हैं। इनमें अंतर यह है कि व्याकरण की व्यवस्था से युक्त होने पर शब्द को ‘पद’ कहा जाता है। पद के दो प्रकार है—विकारी और अविकारी।

    विकारी पदों में चार चीज़ें शमिल हैं—

    1. संज्ञा

    2. सर्वनाम

    3. विशेषण

    4. क्रिया

    संज्ञा : किसी भी वस्तु, व्यक्ति, भाव, विचार, द्रव्य, समूह आदि के नाम को व्यक्त करने वाला पद (शब्द) संज्ञा कहलाता है।

    वाक्य में प्रयुक्त होने से पहले संज्ञा पद ‘प्रातिपदिक’ कहलाता है फिर कारक की विभक्ति या परसर्ग से जुड़कर ‘संज्ञापद’ कहलाता है।

    संज्ञा के मुख्यतः तीन भेद हैं—

    1. व्यक्तिवाचक संज्ञा

    2. जातिवाचक संज्ञा

    3. भाववाचक संज्ञा

    कुछ विद्वान इनके अतिरिक्त दो भेद और मानते हैं—

    (1) द्रव्यवाचक संज्ञा

    (2) समूहवाचक संज्ञा।

    लेकिन अब इसे स्वतंत्र संज्ञा का भेद न मानकर इसे जातिवाचक संज्ञा का उपभेद मानते हैं।

    1. व्यक्तिवाचक संज्ञाः जिस संज्ञा से किसी ख़ास व्यक्ति, वस्तु स्थान, प्राणी आदि के नाम का बोध हो, उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं, यथा—राम, श्याम, सीता, राधा, दिल्ली, बिहार, नर्मदा, गंगा, चेतक इत्यादि।

    2. जातिवाचक संज्ञा: जिस संज्ञा से किसी वर्ग विशेष का बोध हो, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं, यथा- मनुष्य, पशु, पक्षी आदि। जातिवाचक संज्ञा के दो भेद हैं—

    (i) द्रव्यवाचक संज्ञाः जब कोई संज्ञा द्रव्य पदार्थ का बोध करवाती है तो उसे द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं, यथा—पानी, तेल, दूध आदि।

    (ii) समूहवाचक संज्ञाः जब कोई शब्द किसी व्यक्ति, वस्तु, प्राणी आदि के समूह का बोध करवाए तो उसे समूहवाचक संज्ञा कहते हैं, यथा—सेना, विद्यार्थी, पुलिस, शिक्षक आदि।

    3. भाववाचक संज्ञाः जिस शब्द से किसी व्यक्ति या वस्तु के स्वभाव गुण या स्थिति का पता चलता है, भाववाचक संज्ञा कहलाता है, यथा—विनम्रता, प्रेम, घृणा, मानवता, बचपन, बुढ़ापा आदि।

    सर्वनाम : संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं, यथा—मैं, वह, तुम, वे आदि।


    सर्वनाम के 6 भेद हैं—

    1. पुरुषवाचक सर्वनामः हिंदी तथा अन्य भाषाओं में 3 पुरुष स्वीकार किए गए हैं—उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष व अन्य पुरुष। इन तीनों के लिए हिंदी में निम्नलिखित सर्वनाम प्रचलित हैं—

    पुरुष               एकवचन             बहुवचन

    उत्तम पुरुष           मैं                  हम

    मध्यम पुरुष          तू                  तुम

    अन्य पुरुष           वह                  वे

    2. निजवाचक सर्वनामः जो सर्वनाम उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष या अन्य पुरुष के संबंध में अपनेपन का बोध कराते हैं, वे निजवाचक सर्वनाम कहलाते हैं, जैसे—“यह मेरा अपना काम है” वाक्य में ‘अपना’ निजवाचक सर्वनाम है। ‘अपना’, ‘अपनी’, ‘अपने लिए’, ‘अपने आप का’ जैसी शब्दावली का प्रयोग निजवाचक सर्वनाम में प्रायः किया जाता है।

    3. निश्चयवाचक सर्वनामः ये सर्वनाम किसी संज्ञा की निश्चयात्मकता को व्यक्त करते हैं। ये प्रायः अकारांत (यह वह) होते हैं परंतु इनमें प्रायः ईकारांत होने की गहरी प्रवृत्ति विद्यमान होती है, जैसे— यही, वही, यहीं, वहीं इत्यादि।

    4. अनिश्चयवाचक सर्वनाम: ये सर्वनाम संज्ञा पद की अनिश्चितता को व्यक्त करते हैं, जैसे—“कोई है” वाक्य में ‘कोई’ पद। ‘कभी’ और ‘कहीं’ भी अनिश्चयवाचक सर्वनामों की तरह प्रयुक्त होते हैं।

    5. प्रश्नवाचक सर्वनामः ये वे सर्वनाम हैं जो किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में प्रश्नवाचकता को व्यक्त करते हैं, जैसे- “राम कहाँ गया” में ‘कहाँ’ प्रश्नवाचक सर्वनाम है, जो कि “राम अयोध्या गया” की व्यक्तिवाचक संज्ञा ‘अयोध्या’ के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है।

    6. संबंधवाचक सर्वनामः इस सर्वनाम का प्रयोग प्रायः मिश्र वाक्यों में होता है जहाँ एक से अधिक वाक्यों के संबंध जोड़ने के लिए इनकी आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, “जो पढ़ेगा, वह सफल होगा” वाक्य में ‘जो’ व ‘वह’ संबंधवाचक सर्वनाम हैं।

    विशेषण : जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाता है, विशेषण कहलाता है, यथा—काला, पीला, लंबा, नाटा आदि। 

    हिंदी व्याकरण में प्रायः 4 प्रकार के विशेषण स्वीकृत हैं—

    1. गुणवाचक विशेषणः जो विशेषण संज्ञा के गुणों (जैसे—रंग, आकार, स्थान, काल आदि) का बोध कराते हैं, गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं। ध्यातव्य है कि यहाँ गुण का अर्थ विशेषता से है, अच्छाई से नहीं। उदाहरण के लिए ‘मोटा’, ‘पतला’, ‘बुरा’. ‘ऊँचा’, ‘नीचा’, ‘काला’, ‘पुराना’ आदि गुणवाचक विशेषण हैं।

    2. सार्वनामिक विशेषणः वे विशेषण जो अपने सार्वनामिक रूप में ही संज्ञा की विशेषता बताते हैं, ‘सार्वनामिक विशेषण’ कहलाते हैं। 

    सार्वनामिक विशेषण के चार उपभेद हैं—

    (i) निश्चयवाचक सार्वनामिक विशेषण- वह किताब दो।

    (ii) अनिश्चयवाचक सार्वनामिक विशेषण- कोई किताब दो।

    (iii) प्रश्नवाचक सार्वनामिक विशेषण- कौन सी किताब चाहिए?

    (iv) संबंधवाचक सार्वनामिक विशेषण-जो कल माँगी थी ‘वही’ दो।

    3. परिमाणबोधक विशेषणः ये विशेषण प्रायः तब आते हैं जब विशेष्य के रूप में कोई द्रव्यवाचक संज्ञा हो। ये भी दो प्रकार के हैं—

    (i) निश्चित परिमाणबोधक- एक मीटर कपड़ा दो।

    (ii) अनिश्चित परिमाणबोधक- थोड़ा पानी पिलाओ।

    4. संख्यावाचक विशेषणः यह विशेषण भी लगभग परिमाणबोधक विशेषण के समान है किंतु यह तब आता है जब विशेष्य के रूप में कोई जातिवाचक संज्ञा हो। ये भी दो प्रकार के हैं—

    (i) निश्चित संख्यावाचक- दस देवता आए थे।

    (ii) अनिश्चित संख्यावाचक- कुछ राक्षस आए थे। 

    विकारी तथा अविकारी विशेषण

    विशेषण के इन चारों प्रकारों में से पहले दो प्रकार के विशेषण विकारी हैं जबकि अंतिम दो अविकारी। गुणवाचक व सार्वनामिक विशेषण लिंग—वचनानुसार परिवर्तित होते हैं जबकि परिमाणबोधक व संख्यावाचक विशेषण परिवर्तित नहीं होते।

    हिंदी की विशेषण व्यवस्था की कुछ और विशेषताएँ-

    विशेषणों के दो भेद ‘उद्देश्य विशेषण’ व ‘विधेय विशेषण’ भी किए जाते हैं। यदि विशेषण विशेष्य से पूर्व आता है तो उद्देश्य विशेषण कहलाता है, यदि विशेषण विशेष्य के बाद आए तो उसे विधेय विशेषण कहते हैं।

    ध्यातव्य है कि विधेय विशेषण भी तार्किक रूप से संज्ञा की ही विशेषता बताते हैं।

    कभी-कभी कुछ विशेषण, विशेषण की ही विशेषता बताते हैं, ऐसे विशेषणों को ‘प्रविशेषण’ कहते हैं। उदाहरण के लिए “वह बहुत चालाक है” में ‘चालाक’ विशेषण व ‘बहुत’ प्रविशेषण है।

    कहीं-कहीं विशेषण का प्रयोग संज्ञा रूप में किया जाता है। उदाहरण के लिए “उस लंबू को देखो” व “बड़ों की बात माननी चाहिए”—वाक्यों में ‘लंबू’ व ‘बड़ों’ का संज्ञावत् प्रयोग किया गया है।

    हिंदी में कुछ विशेषण तो मूलतः विशेषण शब्द ही हैं, जैसे—सुंदर, काला, मोटा इत्यादि। शेष विशेषण संज्ञा, सर्वनाम व क्रिया से निर्मित होते हैं। उदाहरण के लिए—

    संज्ञा से विशेषण- बनारस>बनारसी

    सर्वनाम से विशेषण मैं>मेरा


    क्रिया : क्रिया भाषा का वह विकारी पद है जिसके माध्यम से कुछ करना या होना सूचित होता है। व्याकरणिक दृष्टि से क्रिया किसी भी भाषा की मूल इकाई मानी जाती है क्योंकि कोई भी स्वतंत्र वाक्य सर्वनाम, विशेषण आदि के अभाव में तो हो सकता है, किंतु क्रिया के अभाव में नहीं।

    क्रिया के भेदः अकर्मक व सकर्मक क्रिया।

    हिंदी में क्रिया का वर्गीकरण कई आधारों पर किया गया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है—‘अकर्मक’ तथा ‘सकर्मक क्रिया के मध्य किया गया विभाजन।

    अकर्मक क्रिया : जब कोई क्रिया बिना कर्म की अपेक्षा के हो तो अकर्मक क्रिया कहलाती है। उदाहरण के लिए—‘राम हँसा’, ‘पक्षी उड़ रहे हैं’ आदि।

    सकर्मक क्रिया : यह वह क्रिया है जिसके साथ कर्ता ही नहीं कर्म भी विद्यमान होता है। उदाहरण के लिए ‘राम ने रावण को मारा वाक्य में कर्ता ‘राम’ व क्रिया ‘मारा’ के साथ कर्म के रूप में ‘रावण’ भी विद्यमान है। यदि कर्म व्यक्त न हो, किंतु कर्म की अपेक्षा विद्यमान हो तो भी क्रिया सकर्मक भी होगी। जैसे—राम ने खाया’ में ‘खाना’ कर्म की अपेक्षा विद्यमान है।

    कारक

    कारक का अर्थ है ‘क्रिया को करने वाला’। कारक विभिन्न संज्ञाओं-सर्वनामों को क्रिया के साथ किसी न किसी भूमिका में जोड़ते हैं, जैसे—“राम ने सत्य को पाने के लिए रावण से युद्ध किया।” यहाँ ‘ने’ ‘को’ ‘के लिए’ ‘से’ आदि कारक क्रमशः राम, सत्य, पानी, रावण को युद्ध करने की क्रिया से जोड़ रहे हैं। अतः ये कारक हैं। ये क्रिया कराने में संज्ञा, सर्वनाम आदि की भूमिका निश्चित कर रहे हैं। संक्षेप में, कारक संज्ञा आदि शब्दों को क्रिया के साथ किसी न किसी भूमिका में जोड़ने का कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में संज्ञा या सर्वनाम की क्रिया के साथ भूमिका निश्चित करने वाले कारक कहलाते हैं।

    विभक्ति चिह्न/परसर्ग-संज्ञा सर्वनाम आदि शब्दों को क्रिया से जोड़ने वाले शब्दों जैसे- ‘ने, द्वारा, से, का, के, की’ को कारक चिह्न या परसर्ग कहते हैं।

    कारक के प्रकार

    हिंदी में मुख्य रूप से आठ प्रकार के कारक होते हैं।

    प्रायः इन कारकों के चिह्न साथ लगते हैं। इन चिह्नों को परसर्ग या विभक्ति कहा जाता है। कुछ स्थलों पर विभक्ति चिह्न नहीं लगाते। कुछ विद्वान् कारक के छ: भेद मानते हैं कुछ आठ; किंतु हम यहाँ कारक के आठ भेदों की चर्चा करेंगे।

    कारक संबंधी नियम :-

    1. कर्त्ता कारक : क्रिया करने वाले को कर्त्ता कहते हैं। बिना कर्त्ता के क्रिया संभव नहीं है। यह कर्त्ता प्रायः चेतन रहता है, जैसे—मोहन लिख रहा है।
    प्राकृतिक शक्ति या पदार्थ भी कर्त्ता के रूप में हो सकते हैं, जैसे—सूर्य चमकता है, बादल गरजते हैं, आदि।

    2. कर्म कारक : क्रिया का प्रभाव या फल जिस संज्ञा/सर्वनाम पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। यथा—रंजन पुस्तक पढ़ रहा है। रजनी ढोलक बजा रही है।
    कर्म की पहचान- वाक्य में कर्म की पहचान करने का उपाय यह है कि क्रिया के साथ ‘क्या’ ‘किसे’ लगाकर देखिए। जो उत्तर मिलेगा, वह ‘कर्म’ होगा।
    मुख्य और गौण- कभी-कभी वाक्य में एक साथ दो कर्म मिलते हैं। यथा—दूधिया ग्राहकों को दूध दे रहा था। माँ बच्चे को खाना खिला रही थी।

    3. करण कारक : करण कारक का अर्थ है- साधन संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप की सहायता से क्रिया संपन्न होती है, उसे करण कारक कहते हैं। इसकी विभक्तियाँ है—’से’ तथा ‘के द्वारा’ उदाहरणार्थ—उसने पेंसिल से चित्र बनाया।

    4. सम्प्रदान कारक : जिसके लिए क्रिया की जाती है, या जिसे कुछ दिया जाता है, उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। इसके परसर्ग को, के लिए, के हेतु, के वास्ते हैं। यथा—अध्यापक ने छात्रों के लिए पुस्तक लिखी।

    विशेष ध्यातव्य- जहाँ ‘देने’ का उल्लेख वाक्य में हो, वहाँ परसर्ग ‘को’, हो या अन्य कोई भी परसर्ग हो, किंतु वहाँ सम्प्रदान कारक ही होता है। जैसे—राम ने भिक्षुक को भोजन दिया। इस वाक्य में ‘को’ परसर्ग होने पर भी सम्प्रदान कारक प्रयुक्त होगा।

    5. अपादान कारक : ‘अपादान’ अलगाव के भाव को प्रकट करता है। संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से अलग होने के भाव प्रकट हों, उसे अपादान कारक कहते हैं। अपादान की विभक्ति ‘से’ ’अलग’ है। उदाहरणतया—मोहन छत से कूद पड़ा।

    6. संबंध कारक :  जहाँ संज्ञा व सर्वनाम शब्दों का संबंध वाक्य के अन्य शब्दों के साथ प्रकट किया जाए, वहाँ संबंध कारक होता है। इसके विभक्ति चिह्न हैं—का, के, की, य, रे, री, ना, ने, नी। जैसे—राम मोहन का मित्र है।

    करण और अपादान कारक में अंतर

    करण और अपादान दोनों कारकों में ‘से’ परसर्ग प्रयुक्त होता है। जहाँ साधन (करण) के अर्थ में ‘से’ का प्रयोग है, वहाँ करण कारक और जहाँ अलग होने के अर्थ में ‘से’ का प्रयोग होता है, वहाँ अपादान कारक होता है, जैसे—सुनील हम शहर से आए हैं। (अपादान), हम बस से आए हैं। (करण)

    अधिकरण कारक 

    क्रिया के होने के स्थान और काल को बताने वाला कारक ‘अधिकरण कारक’ कहलाता है। इसकी विभक्तियाँ हैं—में, घर के ऊपर, के अंदर, के बीच, के मध्य के भीतर आदि। उदाहरणतया—स्थान बोधक—चिड़िया पेड़ पर बैठी है।

    काल बोधक—मैं शाम को आऊँगा।

    विभक्ति-रहित-अधिकरण-कई स्थलों पर अधिकरण कारक की विभक्ति लुप्त हो जाती है, जैसे—

    वह अगले साल आएगा।

    इस जगह पूर्ण शांति है।

    संबोधन

    संज्ञा के जिस रूप में किसी को पुकारा, बुलाया, सुनाया या सावधान किया जाए, उसे संबोधन कारक कहते हैं। जैसे—हे भगवान! मुझे दुष्टों से बचाइए।

    लिंग-शब्द के जिस लिंग रूप से यह ज्ञात हो कि वह पुरुष जाति का है अथवा स्त्री जाति का, उसे लिंग कहते हैं।

    हिंदी में दो प्रकार के लिंग होते हैं।

    (i) पुल्लिंग- पुरुषत्व का बोध कराने वाले शब्द पुल्लिंग कहलाते हैं, जैसे—लड़का, घोड़ा, देश।

    (ii) स्त्रीलिंग- स्त्रीत्व का बोध कराने वाले शब्द स्त्रीलिंग कहलाते हैं, जैसे—लड़की, देवी, घोड़ी, गायिका।

    लिंग-भेद संबंधी नियम :-

    हिंदी में तीन प्रकार के शब्द हैं। पहले, जो शारीरिक रूप से पुरुष जाति के हैं। दूसरे, जो शारीरिक लक्षणों से ही स्त्रीजाति के हैं। तीसरे, जिनमें पुरुष या स्त्री जैसे—कुछ नहीं है, जैसे—पहाड़, नदी, कंकड़, पुस्तक, क़लम आदि।

    प्राणिवाचक संज्ञाओं का लिंग-निर्णय

    सामान्यतः पुरुषत्व का बोध कराने वाली संज्ञाएँ पुल्लिंग कहलाती हैं तथा स्त्रीत्व का बोध कराने वाली संज्ञाएँ ‘स्त्रीलिंग’ कहलाती हैं। किंतु कुछ संज्ञाएँ नित्य पुल्लिंग के रूप में प्रचलित हैं तथा कुछ संज्ञाएँ नित्य स्त्रीलिंग के रूप में प्रचलित हैं। यथा—नित्य पुल्लिंग शब्द-उल्लू, कीड़ा, तोता, ख़रगोश, कौआ, गैंडा, खटमल, पक्षी, भेड़िया, मच्छर, चीता, गीदड़, कौआ आदि पशु।

    नित्य स्त्रीलिंग शब्द-संतान, सवारी, मछली, मक्खी, मकड़ी, मैना, लोमड़ी, गिलहरी, कोयल, भेड़, बुलबुल, छिपकली, तितली।

    उभयलिंगी शब्द- कुछ शब्द पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों रूपों में प्रचलित हैं। यदि वे स्त्रीलिंग के लिए प्रयुक्त हों तो स्त्रीलिंग कहलाते हैं। तथा पुरुष के लिए प्रयुक्त हो तो पुल्लिंग कहलाते हैं, जैसे—राजदूत, डॉक्टर, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, अध्यक्ष, मैनेजर, प्रोफ़ेसर, सचिव, सभापति, निदेशक।

    उभयलिंगी शब्दों में लिंग की पहचान क्रिया से होती है, जैसे—डॉक्टर आ चुके हैं। डॉक्टर आ चुकी हैं।

    पुल्लिंग 

    1. देशों के नाम- प्रायः पुल्लिंग होते हैं, जैसे—चीन, जापान, भारत, पाकिस्तान, अमेरिका, इंग्लैंड आदि।

    2. पर्वतों के नाम-हिमालय, कैलाश, हिंदुकुश, अरावली, सह्याद्रि, आदि।

    3. अनाजों के नाम- गेहूँ, चावल, बाजरा, चना, जौ, आटा आदि (अपवाद-मक्का, सरसों, अरहर)

    4. पेड़ों के नाम- पीपल, बड़, आम, जामुन, नीम, गुलमोहर, सफ़ेदा आदि। (अपवाद-चंपा + बेकाइन)

    5. धातुओं के नाम- सोना, पीतल, ताँबा, लोहा आदि। (अपवाद-चाँदी)

    6. ग्रहों के नाम- मंगल, शनि, चन्द्र, सूर्य, तारा, ध्रुव आदि। (अपवाद-पृथ्वी)

    स्त्रीलिंग

    1. ईकारांत शब्द प्रायः स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे-नदी, रोटी, टोपी, उदासी, बोली, चिट्ठी, पत्री, लेखनी, पोथी आदि। (अपवाद-दही, घी, पानी, मोती)

    2. भाषाओं के नाम- प्रायः स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे—मराठी, गुजराती, मद्रासी, हिंदी, अँग्रेज़ी, कश्मीरी, असमिया आदि।

    3. लिपियों के नाम-देवनागरी, रोमन, ब्राह्मी, शारदा आदि।

    4. नदियों के नाम-रावी, गंगा, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी, चंबल आदि।

    वचन 

    शब्द के जिस रूप से उसके एक अथवा अनेक होने का बोध हो, उसे वचन कहते हैं।

    हिंदी में दो प्रकार के वचन होते हैं-एकवचन और बहुवचन।

    एक वचन : शब्द के जिस रूप में उसके एक (संख्या में) होने का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं, जैसे—लड़का, पतंग, पुस्तक, गाड़ी, पुरुष आदि।

    बहुवचन : शब्द के जिस रूप से एक से अधिक व्यक्तियों अथवा वस्तुओं का बोध हो, उसे बहुवचन कहते हैं, जैसे—लड़के, पतंगे, पुस्तकें, गाड़ियाँ, पुरुषों आदि गणनीय और अगणनीय संज्ञाएँ।

    वचन का एक भेद गणनीय और अगणनीय भी है। कुछ संज्ञाएँ गिनी जा सकती हैं। जैसे—मेज़ें, पुस्तकें, सेब, संतरे, मकान आदि। इन्हें गणनीय संज्ञाएँ कहते हैं। इनके बहुवचन रूप एकवचन से भिन्न होते हैं। 

    कुछ संज्ञाएँ गिनी नहीं जा सकतीं। उनका माप-तोल हो सकता है। जैसे—सोना, चाँदी, आटा, तेल, घी आदि। इन्हें अगणनीय संज्ञाएँ कहते हैं। इनके एकवचन तथा बहुवचन रूप एक जैसे होते हैं।

    वचन संबंधी नियम

    साधारणत: एक संख्या के लिए एकवचन का और अधिक के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जाता है, लेकिन-आदर प्रकट करने के लिए एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग किया जाता है, जैसे : महात्मा बुद्ध महान थे।

    अपना अधिकार, अभिमान, या बड़प्पन जताने के लिए भी ‘मैं’ के स्थान पर कभी-कभी लोग ‘हम’ बहुवचन का प्रयोग करते हैं।  

    अकबर ने कहा- हमें शांति चाहिए।

    कुछ संज्ञा शब्द सदा बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं, जैसे—लोग, दर्शन, प्रजा, रोम, प्राण, बाल, होश, आँसू, हस्ताक्षर आदि।

    जनता, वर्षा, पानी, दूध, आग, पुलिस, भीड़ आदि शब्द सदा एकवचन में प्रयुक्त होते हैं।

    कुछ एकवचन शब्द गण, लोग, जन, वृंद आदि समूहवाचक शब्दों के साथ जुड़कर बहुवचन के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे—अध्यापकगण यहाँ बैठें।

    वाक्य-रचना 

    परिभाषा- ऐसा सार्थक शब्द समूह, जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट कर सके, वाक्य कहलाता है। अर्थात् जिस शब्द-समूह से वक्ता का आशय व्यक्त होता है, वह वाक्य कहलाता है।

    उदाहरणतया- राम ने धर्म की स्थापना की। यह शब्द-समूह सार्थक है; व्याकरण के नियमों के अनुसार व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अत: यह एक वाक्य है। 

    पद

    शब्द का प्रयोग जब वाक्य में हो जाता है तब वह शब्द न होकर ‘पद’ बन जाता है। जैसे—राम पत्र लिखता है। इसमें राम, पत्र, लिखता है, ये पद है।

    वाक्य के घटक- जिन अवयवों को मिलाकर वाक्य की रचना होती है, उन्हें वाक्य के अंग या घटक कहते हैं। वाक्य के मूल एवं अनिवार्य घटक हैं-कर्त्ता एवं क्रिया इनके बिना वाक्य की रचना संभव नहीं। 

    इनके अतिरिक्त वाक्य के अन्य घटक भी होते हैं, जैसे—विशेषण, क्रिया-विशेषण, कारक आदि ये घटक आवश्यकतानुसार आते हैं। इन्हें ऐच्छिक घटक कहा जाता है।

    वाक्य के अंग

    उद्देश्य और विधेय

    कर्त्ता और क्रिया- पक्ष के अनुसार वाक्य के दो पक्ष हो जाते हैं—उद्देश्य और विधेय। 

    उद्देश्य- वाक्य में जिसके बारे में कुछ कहा गया हो, उसे उद्देश्य कहते हैं। इसके अंतर्गत कर्त्ता तथा कर्ता-विस्तार (विशेषण संबंधबोधक, भावबोधक आदि) आ जाते हैं। 

    विधेय- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाए, उसे विधेय कहते हैं। इसके अंतर्गत क्रिया, क्रिया-विस्तार कर्म-विस्तार, आदि आ जाते हैं। 

    अन्वय (Concord)

    ‘अन्वय’ का तात्पर्य है-मेल या अनुरूपता। वाक्य के पदों की क्रिया का उसके लिंग, वचन, काल, तथा पुरुष के अनुरूप होना ‘अन्वय’ कहलाता है। अन्वय को ‘अन्विति’ भी कहते हैं। अन्वय संबंधी महत्त्वपूर्ण नियम इस प्रकार हैं—(क) कर्त्ता-क्रिया अन्वय जैसे—जिस कार्य में कर्त्ता विभक्ति-रहित हो वहाँ, क्रियाकर्त्ता के रूप में प्रयुक्त होती है, बच्चे फ़ुटबॉल खेलते हैं। 

    कर्म क्रिया अन्वयजिन कर्त्ता- पदों के साथ ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग होता है, वहाँ क्रिया कर्म के अनुसार प्रयुक्त होती है, यथा—मोहिनी ने रोटी बेली। (कर्म के अनुसार)

    निरपेक्ष अन्वय

    जहाँ कर्त्ता और कर्म दोनों विभक्ति-सहित होते हैं, वहाँ क्रिया पुल्लिंग एकवचन में होती है, यथा—प्राचार्य ने चपरासी को धमकाया। 

    संबंध संबंधी अन्वय

    संबंध कारक का लिंग उसके संबंधी के लिंग के अनुसार प्रयुक्त होता है, जैसे—यह मोहिनी का लड़का है।

    विशेष्य-विशेषण अन्वय

    आकारांत विशेषण का लिंग, वचन अपने विशेष्य के अनुसार परिवर्तित होता है, जैसे—अच्छा लड़का, अच्छी लड़की, अच्छे लड़के।

    शेष विशेषण यथावत रहते हैं, जैसे—सुंदर लड़का, सुंदर लड़की, सुंदर लड़के।

    वाक्य के भेद

    सामान्यतः दो दृष्टियों से वाक्यों के भेद किए जाते हैं—

    1. अर्थ की दृष्टि से।

    2. रचना की दृष्टि से।

    अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद।

    अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं—

    1. विधानवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है, जैसे—सूर्य पश्चिम में अस्त होता है।

    2. निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें नकारात्मक वाक्य कहते हैं,  जैसे—माला नहीं नाचेगी।

    3. प्रश्नवाचक वाक्य : जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं, जैसे—क्या तुम खेलोगे?

    4. विस्मयादिवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा, आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं, जैसे— अरे! इतनी लंभी रेलगाड़ी!

    5. आज्ञावाचक वाक्य : जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं, जैसे—आप चुप रहिए। 

    6. इच्छावाचक वाक्य : वक्ता की इच्छा, या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं। जैसे—ईश्वर तुम्हें चिरायु करे।

    7. संदेहवाचक वाक्य : जिन वाक्यों में कार्य के होने में संदेह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं, जैसे—संभवत: वह सुधर जाए। 

    8. संकेतवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से एक क्रिया का दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण शर्त आदि का बोध होता है, जैसे—वर्षा होती, तो फ़सल अच्छी होती।

    रचना के आधार पर वाक्य के भेद

    1. साधारण वाक्य/सरल वाक्य : ये वे वाक्य हैं जिनमें एक उद्देश्य तथा एक विधेय होता है, जैसे—‘पानी बरस रहा है’। ऐसे वाक्यों में सामान्यतः उद्देश्य के रूप में कर्ता तथा विधेय के रूप में गुण या क्रिया विद्यमान होते हैं।

    2. संयुक्त वाक्य : जहाँ दो या दो से अधिक उपवाक्य किसी समुच्चयबोधक (योजक) अव्यय शब्द से जुड़े होते हैं, वे संयुक्त वाक्य कहलाते हैं, जैसे—हमने सुबह से शाम तक बाज़ार की ख़ाक छानी, किंतु काम नहीं बना। 

    यदि इन योजक अव्यय शब्दों को हटा दिए जाएँ, तो प्रत्येक में दो-दो स्वतंत्र वाक्य बनते हैं। योजकों की सहायता से जुड़े हुए होने के कारण इन्हें संयुक्त वाक्य कहते हैं।

    3. मिश्र वाक्य : जिन वाक्यों की रचना एक से अधिक ऐसे उपवाक्यों से हुई हो, जिनमें एक प्रधान तथा अन्य वाक्य गौण हो, उन्हें मिश्र वाक्य कहते हैं, जैसे—श्यामलाल जो गाँधी गली में रहता है, मेरा मित्र है।

     

    हिंदी भाषा-प्रयोग के विविध रूप

    भारत की स्वाधीनता से पहले, हिंदी में ‘राजभाषा’ शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं मिलता।

    सबसे पहले सन 1949 ई. में भारत के महान् नेता श्री राजगोपालाचारी ने भारतीय संविधान सभा में ‘नैशनल लैंग्वेज’ के समानांतर ‘स्टेट लैंग्वेज’ शब्द का इस उद्देश्य प्रयोग से किया कि ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ में अंतर रहे और दोनों के स्वरूप को अलगाने वाली विभेदक रेखा को समझा जा सके। 

    संविधान सभा की कार्रवाई के हिंदी-प्रारूप में ‘स्टेट लैंग्वेज’ का हिंदी अनुवाद ‘राजभाषा’ किया गया और इस प्रकार पहली बार यह शब्द प्रयोग में आया।

    बाद में संविधान का प्रारूप तैयार करते समय, ‘स्टेट लैंग्वेज’ के स्थान पर ‘ऑफ़िशियल लैंग्वेज’ शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझा गया और ‘ऑफ़िशियल लैंग्वेज’ का हिंदी अनुवाद ‘राजभाषा’ ही किया गया। (सरकारी या कार्यलयी भाषा नहीं) इस परिप्रेक्ष्य में, राजभाषा शब्द का तात्पर्य है—

    (क) राजा (शासक) अथवा राज्य (सरकार) द्वारा प्राधिकृत भाषा। भारतीय लोकतंत्र में शासन या सरकार का गठन संविधान की प्रक्रिया के अंतर्गत होता है। अतः दूसरे शब्दों में ‘राजभाषा’ का तात्पर्य है।

    (ख) संविधान द्वारा सरकारी कामकाज, प्रशासन, संसद और विधान-मंडलों तथा न्यायायिक कार्यकलाप के लिए स्वीकृत भाषा।

    राजभाषा हिंदी के प्रयोग की प्रगति संविधान के लागू होने के बाद राजभाषा के प्रयोग के संबंध में जो प्रमुख घटनाएँ घटीं, वे इस प्रकार हैं।

    (क) राष्ट्रपति का आदेश 1955 में यह आदेश जारी किया गया कि जहाँ तक संभव हो, जनता के साथ पत्र-व्यवहार में तथा प्रशासनिक कार्यों में हिंदी के प्रयोग को अँग्रेज़ी के साथ बढ़ावा दिया जाए, पर साथ ही यह बात भी लिख दी जाए कि अँग्रेज़ी पाठ ही प्रामाणिक माना जाएगा।

    (ख) राजभाषा आयोग 1955 में राष्ट्रपति ने संविधान के प्रावधानों के अनुसार एक आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने राजभाषा के प्रयोग के बारे में जो सुझाव दिए, उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं— 

    पारिभाषिक शब्दावली निर्माण की गति तीव्र होनी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली को थोड़े हेर-फेर के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए।

    हिंदी क्षेत्र के विद्यार्थियों को एक और भाषा, विशेषतः दक्षिण भारत की भाषा, अवश्य सीखनी चाहिए। 

    चौदह वर्ष की आयु तक प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी का ज्ञान करा दिया जाना चाहिए। 

    प्रशासनिक कर्मचारियों को निश्चित अवधि के अंदर हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त होना चाहिए। इसके लिए पुरस्कार और दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए।

    प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी का एक अनिवार्य प्रश्न-पत्र रखा जाना चाहिए।

    देवनागरी लिपि को अखिल भारतीय लिपि के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। 

    हिंदी के विकास का दायित्व सरकार की एक प्रशासकीय इकाई पर डालना चाहिए।

    उच्च न्यायालयों में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होना चाहिए।

    इन सुझावों का परीक्षण करने का दायित्व संसद की राजभाषा समिति को सौंपा गया। समिति ने 1959 ई. में जो सुझाव दिए, वे इस प्रकार हैं—

    जब तक कर्मचारी और अधिकारी हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त न कर लें, तब तक वे अँग्रेज़ी में कार्य करते रहें।

    पैंतालीस वर्ष के ऊपर की उम्र वाले सरकारी कर्मचारियों को हिंदी के प्रशिक्षण से छूट दे देनी चाहिए।

    उच्च न्यायालयों के निर्णयों, आदेशों आदि को अँग्रेज़ी में ही रहना चाहिए।

    केंद्रीय सेवाओं में परीक्षाओं के माध्यम के रूप में अँग्रेज़ी को ही बने रहने देना चाहिए।

    1965 के बाद हिंदी प्रधान भाषा हो जाए।

    राजभाषा आयोग तथा संसदीय समिति की सिफ़ारिशों पर विचार करने के उपरांत राष्ट्रपति ने जो आदेश जारी किया, उसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं—

    (i) पैंतालीस वर्ष से कम उम्र वाले कर्मचारियों के लिए हिंदी का प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाए।

    (ii) अखिल भारतीय सेवाओं में भर्ती के लिए परीक्षा का माध्यम अँग्रेज़ी बना रहे। धीरे-धीरे हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को माध्यम बनाने की व्यवस्था की जाए।

    (iii) हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के विकास के लिए एक स्थायी आयोग का निर्माण किया जाए।

    (iv) ‘विधायी आयोग’ की स्थापना की जाए जो विधिकोश का निर्माण करे ताकि विधि संबंधी शब्द हिंदी में अनूदित हो सकें। 

    (v) शिक्षा मंत्रालय हिंदी के प्रचार की व्यवस्था करे। इस कार्य में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है।

    (vi) राजकाज में हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए गृहमंत्रालय योजना तैयार करें।

    इस आदेश के तहत दो आयोगों की स्थापना कर दी गई (क) वैज्ञानिक व तकनीकी शब्दावली आयोग, (ख) विधायी आयोग। 

    प्रशासनिक तथा विधि-साहित्य का अनुवाद होने लगा तथा कर्मचारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी होनी आरंभ हो गई।

    (ग) राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में यथासंशोधित)  

    संविधान के उपबंधों के अनुसार 1965 में हिंदी को भारत की एकमात्र राजभाषा बनना था, पर इससे ठीक पहले अहिंदी क्षेत्रों, विशेषतः पश्चिमी बंगाल तथा तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन प्रारंभ हो गए। ऐसी स्थिति में पंडित नेहरू ने अहिंदी भाषी क्षेत्रों को आश्वासन दिया कि हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिंदी क्षेत्रों की सहमति प्राप्त की जाएगी। इसी आश्वासन की पूर्ति के लिए यह अधिनियम बनाया गया जिसके प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं—

    26 जनवरी, 1965 के बाद भी हिंदी के अतिरिक्त अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग यथावत् चलता रहेगा। 

    उच्च न्यायालयों के निर्णयों में हिंदी या किसी राज्यस्तरीय राजभाषा का प्रयोग किया जा सकेगा। 

    संघ के संकल्पों, अधिसूचनाओं, विज्ञापनों आदि दस्तावेज़ों को हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में जारी करना अनिवार्य होगा। 

    जब तक अहिंदी भाषी राज्य अँग्रेज़ी को समाप्त करने का संकल्प नहीं ले लेंगे, तब तक अँग्रेज़ी का प्रयोग चलता रहेगा।

    संकल्प 1968

    1967 के संशोधन के बाद अहिंदी भाषी राज्यों की चिंता तो समाप्त हो गई, किंतु उन लोगों की चिंता बढ़ने लगी जो देश की एकता के लिए हिंदी को एकमात्र राजभाषा के रूप में स्वीकार करना चाहते थे। ऐसी जटिल स्थिति में संसद के दोनों सदनों में एक संकल्प पारित किया गया जो इस प्रकार है—

    सरकार हिंदी के तीव्र विकास और प्रयोग के लिए एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करेगी जिसकी प्रगति की रिपोर्ट प्रति वर्ष संसद में प्रस्तुत की जाएगी।

    भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र लागू करेगी। इसके अंतर्गत हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी और अँग्रेज़ी के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा (विशेषतः दक्षिण भारतीय भाषा) का अध्ययन अनिवार्य होगा तथा अहिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषा और अँग्रेज़ी के अतिरिक्त हिंदी का अध्ययन अनिवार्य होगा।

    केंद्रीय सेवा में भर्ती के लिए हिंदी अथवा दोनों भाषाओं का ज्ञान आवश्यक होगा। सरकार आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी भाषाओं के समन्वित विकास के लिए कार्यक्रम तैयार करेगी।

    राजभाषा नियम, 1976

    भारत सरकार ने राजभाषा अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने का दायित्व गृह मंत्रालय को सौंपा।

    इसके लिए गृह मंत्रालय के अधीन एक राजभाषा अनुभाग की स्थापना हुई जो बाद में स्वतंत्र राजभाषा विभाग हो गया। 

    राजभाषा विभाग ने सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को सुनिश्चित करने के लिए 12 नियम निर्धारित किए जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं—

    देश भर के केंद्रीय सरकार के कार्यालयों को तीन वर्गों में बाँटा गया।

    क वर्ग, ख वर्ग, ग वर्ग।

    क वर्ग में वे राज्य आते हैं जिनकी पहली भाषा हिंदी है। 

    ये राज्य है उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली।

    ख वर्ग में प्रायः वे राज्य आते हैं जिनमें हिंदी समझी जाती है किंतु पहली भाषा के रूप में प्रयुक्त नहीं होती। इनमें प्रमुख हैं—पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और केंद्रशासित प्रदेशों में चंडीगढ़ और अंडमान-निकोबार।

    ग वर्ग में शेष सब राज्य आते हैं। इन राज्यों में प्रायः हिंदी नहीं समझी जाती है। ये राज्य हैं—पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सभी राज्य तथा दक्षिण भारत के चारों राज्य।

    क क्षेत्र के पत्रों आदि के लिए निश्चित किया गया कि उनमें हिंदी का प्रयोग हो। अगर अँग्रेज़ी का प्रयोग किया जाए तो साथ में हिंदी अनुवाद भी भेजा जाए।

    ख क्षेत्र के साथ पत्राचार समान्यतः हिंदी में हो तथा ग क्षेत्र के साथ पत्राचार अँग्रेज़ी में ही होता रहे।

    हिंदी में कहीं से प्राप्त पत्र का उत्तर हिंदी में ही देना होगा। सभी दस्तावेज़ हिंदी व अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में साथ-साथ निकाले जाएँगे। इसका उत्तरदायित्व दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी का होगा।

    केंद्र सरकार के सभी फ़ॉर्म, नामपट्ट, सूचनापट्ट, पत्रशीर्ष, मुहरें आदि हिंदी व अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में होंगी। 

    प्रत्येक कार्यालय के प्रधान का यह दायित्व होगा कि वह भाषा संबंधी नियमों और आदेशों का अनुपालन कराए और जाँच पड़ताल करता रहे।

    1976 के बाद राजभाषा की प्रगति 

    1976 से अब तक राजभाषा की प्रगति का विश्लेषण विभिन्न मंत्रालयों के अनुसार किया जा सकता है। 

    भारत सरकार के तीन मंत्रालय राजभाषा संबंधी कार्यों में संलग्न हैं—गृह मंत्रालय (राजभाषा विभाग), विधि मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय का राजभाषा विभाग- राजभाषा विभाग प्रत्येक वर्ष अपने उद्देश्य तय करता है तथा सभी मंत्रालयों पर उद्देश्य पूरे करने के लिए दबाव बनाता है।

    यह विभाग हिंदी नहीं जानने वाले अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाता है, जिसके लिए इस विभाग के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की गई है। 

    कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए तीन पाठ्यक्रम प्रबोध, प्रवीण और प्राज्ञ बनाए गए हैं।

    इसी विभाग के अंतर्गत केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो की स्थापना भी की गई है जिसका कार्य प्रशासनिक प्रकार के प्रत्येक साहित्य का अनुवाद करना है।

    ब्यूरो सरकारी सामग्री के अतिरिक्त सार्वजनिक उपकरणों, प्रतिष्ठानों तथा बैंकों की सामग्री का अनुवाद भी करता है। इनके अतिरिक्त अनुवादकों को प्रशिक्षित करने का कार्य भी इसी को सौंपा गया है।

    राजभाषा विभाग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह केंद्रीय हिंदी समिति और मंत्रालयों की हिंदी समितियों की बैठकों का आयोजन करके उनमें तालमेल बैठाता है, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों के कामकाज को निर्धारित करता है।

    इसके अतिरिक्त जो अन्य मंत्रालय राजभाषा के क्षेत्र में काम कर रह है उनके साथ संपर्क बनाए रखकर राजभाषा के विकास में आने वाली सभी बाधाओं दूर करता है।

    विधि मंत्रालय

    विधि मंत्रालय का विधायी विभाग मूलतः विधि साहित्य अनुवाद से संबंधित कार्य करता है। यह विभाग लगभग सारे विधि साहित्य का अनुवाद कर चुका है। इसके अतिरिक्त संसद में आने वाले सभी विधेयक पहले से हिंदी अनुवाद तैयार करके पेश किए जाते हैं। 

    अपनी एक और योजना के तहत अब यह विभाग समस्त विधि-अनुवाद को इंटरनेट या ‘निकनेट’ के माध्यम से पूरे भारत में उपलब्ध कराने में सक्षम हो गया है।

    शिक्षा मंत्रालय

    शिक्षा मंत्रालय और इसके अंतर्गत स्थापित केंद्रीय हिंदी निदेशालय मुख्य रूप से शिक्षा के क्षेत्र में राजभाषा हिंदी की संभावनाओं को तलाशने और तराशने में जुटा है। 

    उच्च शिक्षा में प्रयुक्त होने वाली पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, स्तरीय पुस्तकों का हिंदी में प्रकाशन, द्विभाषी व त्रिभाषी कोशों का निर्माण आदि तो इसके कार्य है ही, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का निर्माण भी इसका एक प्रमुख कार्य है।

    हिंदी की संवैधानिक स्थिति

    14 सितंबर, 1949 ई. को भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा अनुच्छेद—344 का दर्ज़ा दिया गया।

    भारतीय संविधान के भाग 5, 6 और 17 में राजभाषा संबंधी उपबंध हैं। भाग 17 का शीर्षक राजभाषा है। इस भाग में चार अध्याय हैं जो अनुच्छेद-343 से 351 के अंतर्गत समाहित हैं। यह मुंशी-आयंगर फ़ार्मूला के नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद—120 (1) और 210 हैं जिनमें संसद एवं विधान मंडलों के भाषा संबंधी विवरण हैं। 

    अनुच्छेद—120 (1), (2)

    संविधान के अनुच्छेद-120 (1) में कहा गया है- “संसद में कार्य हिंदी में या अँग्रेज़ी में किया जाएगा।” आगे कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति हिंदी में या अँग्रेज़ी में विचार प्रकट करने में असमर्थ है तो लोकसभा का अध्यक्ष या राज्यसभा का सभापति उसे अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है।

    अनुच्छेद- 120 (2) में उपबंध है, “जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ के पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात् यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो ‘या अँग्रेज़ी में शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो।” (अर्थात् 26 जनवरी, 1965 से संसद का कार्य केवल हिंदी में होगा।)

    अनुच्छेद- 210

    संविधान के अनुच्छेद 210 (1) में कहा गया है- “राज्य के विधानमंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी में या अँग्रेज़ी में किया जाएगा।” आगे कहा गया है कि विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति ऐसे किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है जो उपर्युक्त भाषाओं में से किसी में भी विचार प्रकट नहीं कर सकता।

    अनुच्छेद- 343

    संविधान के अनुच्छेद 343 में कहा गया है “संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।” इसके अतिरिक्त “संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।” इसी अनुच्छेद में यह भी संकेत किया गया है कि शासकीय प्रयोजनों के लिए अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग 15 वर्षों तक होता रहेगा।

    संविधान के अनुच्छेद-344 के अंतर्गत व्यवस्था की गई है कि संविधान के आरंभ के पाँच वर्ष बाद राष्ट्रपति एक आयोग गठित करेगा जो हिंदी के प्रयोग के विस्तार पर सुझाव देगा, जैसे—किन कार्यों के लिए हिंदी का प्रयोग किया जा सकता है, न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग कैसे बढ़ाया जा सकता है, अँग्रेज़ी का प्रयोग कहाँ व किस प्रकार सीमित किया जा सकता है आदि। इसी प्रकार का आयोग संविधान के आरंभ से 10 वर्षों के बाद भी गठित किया जाएगा। ये आयोग भारत की उन्नति की प्रक्रिया तथा अहिंदी भाषी वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए अनुशंसा करेंगे। आयोग की सिफारिशों पर संसद की एक विशेष समिति राष्ट्रपति को राय देगी। राष्ट्रपति पूरी रिपोर्ट या उसके कुछ अंशों को लागू करने के लिए निर्देश जारी कर सकेगा।

    अनुच्छेद-345

    अनुच्छेद- 345 के अनुसार किसी राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली या किन्हीं अन्य भाषाओं को या हिंदी को शासकीय प्रयोजनों के लिए स्वीकार कर सकेगा। यदि किसी राज्य का विधानमंडल ऐसा नहीं कर पाएगा तो अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग यथावत किया जाता रहेगा।

    अनुच्छेद- 346

    अनुच्छेद- 346 के अनुसार संघ द्वारा निर्धारित भाषा एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच में तथा किसी राज्य और संघ की सरकार के बीच पत्र आदि की राजभाषा होगी। यदि दो या अधिक राज्य परस्पर हिंदी भाषा को स्वीकार करना चाहें तो उसका प्रयोग किया जा सकेगा।

    अनुच्छेद-347

    अनुछेद- 347 के अनुसार यदि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता हो कि उसके द्वारा बोली जानेवाली भाषा को उस राज्य में (दूसरी भाषा के रूप में) मान्यता दी जाए और इसके लिए लोकप्रिय माँग की जाए, तो राष्ट्रपति यह निर्देश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए।

    अनुच्छेद-348

    अनुच्छेद 348 में कहा गया है कि जब तक संसद विधि द्वारा कोई और उपबंध न करे, तब तक उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की सभी कार्यवाहियों अँग्रेज़ी में ही होंगी। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित विषयों के प्राधिकृत पाठ अँग्रेज़ी में होंगे—

    • संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधानमंडल के प्रत्येक सदन में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी विधेयक या उनके प्रस्तावित संशोधन।

    • संसद या किसी राज्य के विधानमंडल द्वारा पारित सभी अधिनियम और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा जारी किए गए अध्यादेश।

    • संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधानमंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन जारी किए गए सभी आदेश, नियम, विनियम और उपविधियो इसी अनुच्छेद में यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से उच्च न्यायालय की कार्यवाही के लिए हिंदी भाषा या उस राज्य में मान्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा, पर यह बात उस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगी।

    अनुच्छेद-349

    अनुच्छेद- 349 के अनुसार संसद यदि राजभाषा से संबंधित कोई विधेयक या संशोधन प्रस्तावित करना चाहे तो राष्ट्रपति की पूर्व मंज़ूरी लेनी पड़ेगी और राष्ट्रपति आयोग की सिफ़ारिशों पर और उन सिफ़ारिशों पर गठित रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् ही अपनी मंज़ूरी देगा, अन्यथा नहीं।

    अनुच्छेद- 350

    अनुच्छेद- 350 के अंतर्गत उन वर्गों पर विशेष ध्यान दिया गया है। जो भाषायी आधार पर अल्पसंख्यक वर्ग में आते हैं। इस अनुच्छेद के अनुसार राष्ट्रपति एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति करेगा जो इन वर्गों से संबंधित विषयों पर रक्षा के उपाय करेगा। इसके साथ ही, अल्पसंख्यक बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिए जाने की पर्याप्त सुविधा सुनिश्चित की जाएगी।

    अनुच्छेद- 351

    अनुच्छेद- 351 में कहा गया है—“संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में बताई गई अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए, और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो, वहाँ उसके शब्द–भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।”

    संविधान में कुल भाषाएँ

    • संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी सहित 14 भारतीय भाषाएँ थीं।

    • संविधान के 21वें संशोधन (1967) के अंतगर्त सिंधी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

    • संविधान के 71 वें संशोधन अधिनियम (1992) के द्वारा आठवीं अनुसूची में ‘नेपाली’, ‘मणिपुरी’ और ‘कोंकणी’ को जोड़ा गया।

    • संविधान के 92वें संशोधन अधिनियम (2003) के द्वारा आठवीं अनुसूची में ‘मैथिली’, ‘डोगरी’, ‘बोडो’ और ‘संथाली’ को शामिल किया गया।

    • संविधान के अनुच्छेद-344 (1) और अनुच्छेद- 351 में आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारतीय भाषाओं का संदर्भ आया है, जो संख्या में बाईस हैं— 1. असमिया, 2. नेपाली, 3. मणिपुरी, 4. बांग्ला, 5. ओड़िया, 6. कश्मीरी, 7. सिंधी, 8. पंजाबी, 9. संस्कृत, 10. हिंदी, 11. उर्दू, 12. गुजराती, 13. मराठी, 14. कन्नड़, 15. कोंकणी, 16. मलयालम, 17. तेलुगू, 18. तमिल, 19. बोडो, 20. मैथिली, 21. संथाली और 22. डोगरी।

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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