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इकाई- IX हिंदी निबंध

ikaee- ix hindi nibandh

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इकाई- IX हिंदी निबंध

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    भारतेंदु : दिल्ली दरबार दर्पण, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है

    प्रताप नारायण मिश्र : शिवमूर्ति

    बाल कृष्ण भट्ट : शिवशंभु के चिट्ठे

    विद्यानिवास मित्र : मेरे राम का मुकुट भीग रहा है

    रामचंद्र शुक्ल : कविता क्या है

    हजारी प्रसाद द्विवेदी : नाख़ून क्यों बढ़ते हैं

    अध्यापक पूर्ण सिंह : मज़दूरी और प्रेम

    नामवर सिंह : संस्कृति और सौंदर्य

    कुबेरनाथ राय : उत्तराफाल्गुनी के आस-पास, विवेकी राय उठ जाग मुसाफ़िर

     

    भारतेंदु : दिल्ली दरबार दर्पण, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है

    भारतेंदु हरिश्चंद्र 

    जन्म : 09 सितंबर 1850, काशी में।

    निबंध संग्रह :- परिहास-वंचक, सुलोचना, मदालसा, लीलावती, दिल्ली दरबार-दर्पण

    भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इतिहास, पुरातत्व, धर्म, समाज-सुधार, जीवनी, यात्रा वर्णन, भाषा आदि विषयों पर व्यंग्यात्मक शैली में निबंध लिखे।

    विषयों की विविधता उनके विस्तृत अध्ययन और व्यापक जीवनानुभवों का परिणाम थी।

    उनके निबंधों में जहाँ इतिहास, धर्म, संस्कृति और साहित्य की गहरी जानकारी का परिचय मिलता है, वहीं देशप्रेम, समाज सुधार की चिंता और गौरवशाली अतीत के प्रति निष्ठा का भाव भी प्रकट होता है।

    'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है', 'लेवी प्राण लेवी' और 'जातीय संगीत' में राष्ट्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा व्यक्त हुई है तो 'स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन', 'पाँचवें पैग़म्बर', 'कानून ताजीरात शौहर', 'ज्ञात विवेकिनी सभा', 'अँग्रेज़ स्तोत्र', 'कंकड़ स्तोत्र' जैसे निबंधों में उनकी राजनीतिक चेतना के साथ ही व्यंग्य-विनोद की क्षमता का पता लगता है।

    भारतेंदु के निबंधों की भाषा में उर्दू, संस्कृत और बोलचाल की हिंदी के शब्दों का प्रयोग हुआ है।

    लंबे समय तक पराधीन रहने वाले देश के लोगों में आत्मचेतना तथा समाजसुधार की भावना को प्रोत्साहित करने में भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंधों की भूमिका महत्वपूर्ण है।

    दिल्ली दरबार दर्पण (1877 ई.) :

    इस निबंध में 1877 ई. में लगे दिल्ली दरबार का वर्णन मिलता है।

    यहाँ भारतेंदु की राजभक्ति और देशभक्ति की मिश्रित भावना देखी जा सकती है।

    'दिल्ली दरवार दर्पण' वर्णनात्मक शैली का श्रेष्ठ निबंध है।

    भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है (3 दिसंबर 1884 ई.) :

    'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' निबंध दिसंबर सन् 1884 ई. में बलिया के ददरी मेले के अवसर पर आर्यदेशोपकारणी सभा में भाषण देने के लिए लिखा गया था। जो बाद में 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' में प्रकाशित हुआ।

    इसमें लेखक ने कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्यागकर अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग-धंधों को विकसित करने, सहयोग एवं एकता पर बल देने तथा सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दी है।

    'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' निबंध में भारतेंदु भारतीय अतीत के गौरव, वर्तमान की पीड़ाएँ और भविष्य के स्वप्न को रेखांकित करते हैं। इसके साथ ही इस निबंध में 'निज भाषा' और स्वदेश हित के प्रश्न को भी उठाते हैं।

    भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने निबंध में स्पष्ट किया है कि भारत के लोगों में आलस्य पैदा हो गया है। इस कारण उनकी दुर्गति हो रही है। उन्हें हिंदुस्तानियों की क्षमता पर कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका मानना है कि हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी की तरह हैं। इन्हें चलाने के लिए कोई इंजन चाहिए लेकिन समस्या यह हैं कि नेतृत्व क्षमता का अभाव है।

     

    प्रताप नारायण मिश्र : शिवमूर्ति

    प्रताप नारायण मिश्र

    जन्म- 24 सितंबर, 1856 ई.

    जन्म- भूमि उन्नाव, उत्तर प्रदेश

    संपादन- ब्राह्मण पत्रिका (1883 ई.)

    उनमें तीखे व्यंग्य और विनोद की वृत्ति थी, जिसका उल्लेख स्वयं रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में किया है। इनकी भाषा में 'व्यंगपूर्ण वक्रता' की मात्रा अधिक है। इसके लिए वे लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रयोग करते हैं। मिश्र जी ने जहाँ एक ओर 'भौं', 'बुढ़ापा', 'होली', 'धोखा', 'मरे को मारे शाहमवार', जैसे विनोद और सूझपूर्ण निबंध लिखे हैं, वहाँ दूसरी ओर 'शिवमूर्ति', 'काल', 'स्वार्थ', 'विश्वास', 'नास्तिक' जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है।

    प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में नवनिर्माण, भारतीयता, जागरण, संस्कृति, आस्तिकता, प्रतीकीकरण, सौमनस्य और बंधुता आदि विषय उभर कर आते हैं।

    भारतेंदु जैसी रचना शैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण ही प्रताप नारायण मिश्र को 'प्रतिभारतेन्दु' या 'द्वितीयचंद्र' आदि कहा जाने लगा था।

    मिश्र जी द्वारा लिखे हुए निबंधों में विषय की पर्याप्त विविधता है। देश-प्रेम, समाज-सुधार एवं साधारण मनोरंजन आदि उनके निबंधों के मुख्य विषय थे। उन्होंने 'ब्राह्मण' नामक मासिक पत्र में हर प्रकार के विषयों पर निबंध लिखे थे।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बालकृष्ण भट्ट के साथ प्रताप नारायण मिश्र को भी महत्व देते हुए अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लिखा है—पंडित प्रताप नारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया, जो अँग्रेज़ी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है—पं. प्रताप नारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत ही स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगी लिए चलती है। हास्य विनोद की उमंग में वह कभी-कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास)।

    गुलाब राय के अनुसार—प्रताप नारायण मिश्र की शैली में संस्कृत शब्दों का प्राचुर्य-सा प्रतीत होता है, परंतु हरिश्चंद्र की भाँति इन्होंने भी उर्दू के उन्हीं शब्दों को लिया है जिनका चलन हिंदी में बहुत काल से था। इनकी भाषा में विशेष सजीवता और बोलचाल का चलतापन है। इनमें विनोद-प्रियता अधिक है। इसी विनोद-प्रियता के कारण ये पूर्वीपन की परवाह न करके बैसवारे की ग्रामीण कहावतों और शब्दों का भी प्रयोग निस्संकोच करते थे।” (हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास)

    'शिवमूर्ति' निबंध को प्रताप नारायण मिश्र ने उन लोगों के लिए लिखा है जो अपने विचार से ईश्वर के प्रति लगाव रखते हैं और आनंद से भर जाते हैं। इसके अलावा ख़ुद से परे जाकर दूसरों का भी भला सोचते हैं।

    इस निबंध में प्रतीकों के माध्यम से बड़े सरल और सहज ढंग से इस बात को रेखांकित किया गया है कि भारत का शिक्षित वर्ग भारतीयता, भारतीय संस्कृति और भारतीय प्रतीकों के प्रति कितना उदासीन है।

     

    बालमुकुंद गुप्त : शिवशंभु के चिट्ठे 

    बालमुकुंद गुप्त

    जन्म- सन् 1865 ग्राम गुड़ियानी, ज़िला रोहतक (हरियाणा)

    प्रमुख संपादन :- अख़बार-ए-चुनार, हिंदुस्तान, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र आदि।

    प्रमुख रचनाएँ :- शिवशंभु के चिट्ठे, चिट्ठे और ख़त, खेल तमाशा, उर्दू बीबी के नाम चिट्ठी।

    वे खड़ी बोली और आधुनिक हिंदी साहित्य को स्थापित करने वाले लेखकों में से एक थे। उन्हें भारतेंदु युग और द्विवेदी युग के बीच की कड़ी के रूप में देखा जाता है।

    बालमुकुंद गुप्त राष्ट्रीय नवजागरण के सक्रिय पत्रकार थे। पत्रकारिता उनके लिए स्वाधीनता संग्राम का हथियार थी।

    यही कारण है कि उनके लेखन में निर्भीकता पूरी तरह मौजूद है। साथ ही उसमें व्यंग्य-विनोद का भी पुट दिखाई पड़ता है। उन्होंने बांग्ला और संस्कृत की कुछ रचनाओं के अनुवाद भी किए। वे शब्दों के अद्भुत पारखी थे।

    अनस्थिरता शब्द की शुद्धता को लेकर उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी से लंबी बहस की। इस तरह के अन्य अनेक शब्दों पर उन्होंने बहस चलाई।

    बाबू गुलाब राय—यह प्रवाहमयी भाषा लिखने वाले उत्तम निबंधकार थे।

    शिवदान सिंह चौहान—गद्य शैली की निर्माताओं में गुप्त जी उत्तम हैं।

    रामचंद्र शुक्ल—गुप्त जी की भाषा बड़ी चलती सजीव और विनोद पूर्ण होती थी। किसी प्रकार का विषय हो गुप्त जी की लेखनी उस पर विनोद का रंग चढ़ा देती थी।

    'शिवशंभु के चिट्ठे' सभी चिट्ठे और ख़त सन् 1903 से लेकर 1907 ई. के दौरान 'भारतमित्र' में प्रकाशित हुए थे, जिसका संपादन स्वयं बालमुकुंद गुप्त कर रहे थे।

    'शिव शंभु शर्मा' के कल्पित नाम से लार्ड कर्जन के अहंकार पर उग्र, व्यंग्यपूर्ण और सांकेतिक प्रहार करते हुए आठ—'बनाम लार्ड कर्जन', 'श्रीमान् का स्वागत', 'वैसराय के कर्तव्य', 'पीछे मत फेकिये', 'आशा का अंत', 'एक दुराशा', 'विदाई सम्भाषण', 'बंग विच्छेद' खुली चिट्ठियाँ लिखी थीं। ये चिट्ठियाँ पूरे एक वर्ष तक (सन् 1904-1905 ई०) 'भारत मित्र' और 'ज़माना' में प्रकाशित होती रहीं।

    बालमुकुंद गुप्त के मित्र ज्योतींद्र नाथ बैनर्जी ने इनका अँग्रेज़ी भाषा में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित किया था।

    'शिवशंभु के चिट्ठे' में बालमुकुंद गुप्त ने अँग्रेज़ी शासन की आलोचना की है। ये निबंध प्रतीकात्मक शैली में लिखा गए हैं। निबंध की शुरुआत स्वप्न के ज़रिए होती है।

    इनमें से आठ चिट्ठे लार्ड कर्जन के नाम लिखे गए हैं और दो लार्ड मिंटो तथा भारत सचिव मिस्टर मार्ली के नाम। ख़तों में एक ख़त गुप्तजी ने शाइस्ता ख़ाँ के नाम से फुलर साहब को तथा एक सर सय्यद अहमद के नाम से अलीगढ़ कॉलेज के छात्रों को लिखा है।

    रामविलास शर्मा ने—‘शैलीकार बालमुकुंद गुप्त’ में लिखा है वे (बालमुकुंद गुप्त) शब्दों के अनुपम पारखी थे। हिंदी के साधारण शब्द उनके वाक्यों में नई अभिव्यंजना शक्ति से दीप्त हो उठते थे। इसके अलावे उनके वाक्यों में सहज बाँकपन रहता है। उपमान ढूँढ़ने में उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता। व्यंग्यपूर्ण गद्य में उनके उपमान विरोधी पक्ष को परम हास्यास्पद बना देते हैं।

    मूल शब्द के साथ ही विभक्तियों के प्रयोग की पुरातन पद्धति को अपनाया गया है।

    गुप्त जी ने साधारण बोलचाल की भाषा अपनाई जिसमें हिंदी-उर्दू के शब्दों का एक साथ निराग्रह भाव से प्रयोग किया गया। इस भाषा में खुलापन और लचक थी। उसमें संस्कृत निष्ठ हिंदी और अरबी शब्दों से भरी उर्दू दोनों से बचने की कोशिश रही।

     

    रामचंद्र शुक्ल : कविता क्या है? (1939 ई.) 

    रामचन्द्र शुक्ल

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 04 अक्टूबर, 1884 को बस्ती के अगौना नामक गाँव में हुआ। सन् 1903-08 तक वे 'आनंद कादंबिनी' पत्रिका के सहायक संपादक थे।

    उन्होंने नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन किया। वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा की महत्वाकांक्षी परियोजना हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक थे।

    उन्होंने 'हिंदी साहित्य का इतिहास', 'रस मीमांसा' और 'चिंतामणि जैसी प्रतिष्ठित पुस्तकें लिखीं। 'चिंतामणि' पुस्तक पर इन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ।

    'चिंतामणि' में उन्होंने भाव और मनोविकार संबंधी निबंध लिखे। ये ललित निबंध तो हैं ही, उनके काव्यशास्त्रीय चिंतन के आधार भी हैं।

    'कविता क्या है'

    'कविता क्या है' आचार्य शुक्ल का सबसे महत्त्वपूर्ण निबंध है। इस निबंध के माध्यम से शुक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं। उनकी कविता संबंधी मान्यताओं के साथ-साथ इस निबंध का स्वरूप भी परिवर्तित होता गया है। 1909 के निबंध और 1939 के निबंध में कई वैचारिक परिवर्तन दिखाई देते हैं।

    काव्यशास्त्रीय मान्यताओं में रसवाद और लोकमंगलवाद को यह निबंध मूर्त रूप देता है।

     

    हजारीप्रसाद द्विवेदी : नाख़ून क्यों बढ़ते हैं? 

    माना जाता है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध से ही हिंदी में ललित निबंधों की एक सशक्त विधा के रूप में शुरुआत हुई।

    ललित निबंध में कहानी जैसा आनंद आता है। इन निबंधों की शैली बहुत सहज, अनौपचारिक और आत्मीय होती है।

    ललित निबंध सृजनात्मक साहित्य की कोटि में आते हैं।

    इस निबंध में द्विवेदीजी के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ मानवतावाद, पांडित्य, गहन चिंतन, संवेदनशीलता और सौंदर्य दृष्टि उभर कर सामने आती है। इस निबंध की भाषा सहज स्वाभाविक, सरस रोचक और भावप्रवण है।

    इस निबंध में निम्नलिखित बिंदुओं पर गंभीरता से विचार किया गया है— 

    मानव प्रगति और हथियारों का विकास

    विलास वृत्ति का उदात्तीकरण

    मनुष्य की अभ्यास जन्य सहज वृत्तियाँ

    मनुष्य और पशु में अंतर :

    भौतिक उन्नति और मनुष्यता का मार्ग

    ये सभी विचार बिंदु जिस एक लक्ष्य से प्रेरित है, वह है विश्व शांति का प्रश्न।

    'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं' शीर्षक निबंध में वे मनुष्य की दुर्बलताओं को जहाँ लक्षित करते हैं, वहीं उसकी शक्ति और रचनाशील प्रवृत्ति का दर्शन भी कराते हैं। वे मनुष्य को करुणा, दया, मैत्री, बंधुत्व एवं भाईचारे की भावना में रत होने की शिक्षा देते हैं और इन्हीं भावों के संरक्षण में उसका बड़प्पन देखते हैं।

     

    विद्यानिवास मिश्र : मेरे राम का मुकुट भीग रहा है 

    विद्यानिवास मिश्र के निबंध में भावना की एकरूपता होती है, साथ ही निबंध के दौरान कई विचार उठते हुए भी दिखाई देते हैं।

    'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है' नामक निबंध में मिश्र जी आधुनिक चिंताओं के बरक्स भारतीय लोक संस्कृति की व्याख्या करते हैं।

    यह निबंध आत्मपरक शैली में लिखा गया है और लेखक की आत्मीयता, संवेदनशीलता तथा लोकमानस के प्रति उसका गहरा लगाव व्यक्त हुआ है।

    लेखक की रुचि प्राचीन भारतीय संस्कृति और साहित्य में बहुत गहरी है। जितनी रुचि लेखक की प्राचीन भारतीय साहित्य में है उतनी ही लोक संस्कृति में भी है। यही कारण है कि मोरे राम का भीजे मुकुटवा लोकगीत की विशद व्याख्या जहाँ भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व मनुष्य की श्रेष्ठता की भारतीय परिकल्पना को प्रकट करती है वहीं लोक मानस से लेखक के गहरे जुड़ाव को भी उजागर करती है। पौराणिक चरित्रों और कथाओं की लोकवादी व्याख्या का प्रयास इस ललित निबंध में किया गया है।

    'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है' निबंध का केंद्रीय भाव तो मनुष्य मन का वात्सल्य है, लेकिन इसका विस्तार कई अन्य भावनाओं और विचारों को भी अपने में समेटे हुए है। मनुष्य की बाहरी दशा में चाहे जितना भी परिवर्तन क्यों न हो, उसके आंतरिक मनोभावों में परिवर्तन नहीं होता। आज से हज़ारों साल पहले जिस प्रकार राम, सीता, लक्ष्मण के वन जाने पर कौशल्या का मन तड़पता होगा, क्या आज भी अपनी संतान के लिए माता-पिता का मन नहीं तड़पता है? मनुष्य के आंतरिक मनोभावों की एकता का यह सूत्र ही उसे आज भी रामकथा से जोड़े हुए हैं, इसीलिए वह आज भी दर्द से विकल होकर गा उठता है मोरे राम का भीजे मुकुटवा।

     

    अध्यापक पूर्ण सिंह : मज़दूरी और प्रेम 

    अध्यापक पूर्ण सिंह

    जन्म : 17 फ़रवरी 1831, एबटाबाद (पाकिस्तान)

    निबंध :- सच्ची वीरता, कन्यादान, पवित्रता, आचरण की सभ्यता, मज़दूरी और प्रेम, अमरीका का मस्ताना योगी वाल्ट विटमैन।

    द्विवेदी युगीन निबंधकारों में सरदार पूर्ण सिंह के व्यक्तित्वव्यंजक ललित निबंध महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

    सरदार पूर्ण सिंह के अधिकतर निबंध सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

    इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति और समाज की चिंता है। इन्होने अपने निबंधों में मनुष्य जीवन के आचरण और व्यवहार के साथ मनुष्य होना और मनुष्यता के बचे रहने पर विशेष ज़ोर दिया है।

    रामचंद्र शुक्ल ने पूर्णसिंह की शैली के विषय में लिखा है—उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य-साहित्य में नई चीज़ थी।...भाषा और भाव की एक नई विभूति उन्होंने सामने रखी। (हिंदी साहित्य का इतिहास)।

    यूरोप की मशीनी सभ्यता की जो प्रतिक्रिया हमें टाल्स्टॉय, रस्किन एवं बाद को गांधी में प्राप्त होती है, वही पूर्णसिंह के निबंधों की वास्तविक भूमिका है।

    पूँजीवाद के प्रारंभिक युग में ही श्रम और श्रमिक को जो महत्त्व उन्होंने प्रदान किया, उसे बाद में राष्ट्रीय आंदोलन ने एक प्रमुख मूल्य के रूप में स्वीकार किया। वस्तुतः भौतिक जीवन की समृद्धि के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन को वे संपन्न और सशक्त बनाना चाहते थे।

    मज़दूरी और प्रेम :

    मज़दूरी और प्रेम निबंध श्रमिक/किसान जीवन पर आधारित है।

    निबंध अपने विस्तृत कलेवर में हल चलाने वाले की समस्या से शुरू होता है और गड़ेरिये के अनिश्चित जीवन और विसंगतियों का मार्मिक उल्लेख करते हुए आगे बढ़ता है। लेखक मज़दूरी और मज़दूर की चर्चा करते हुए मज़दूर की अँगुलियों में श्रम की ताक़त को रेखांकित करता है। लेखक श्रम करती उँगुलियों से दूध की धारा की संकल्पना करता है। मेहनत में मिठास लेखक के लिए सर्वप्रिय है चाहे वह लालो की मोटी रोटी हो या गडेरिये के घर बनती रोटी।

    लेखक भारतीय मज़दूर और उसकी कला का बहुत बारीकी से ज़िक्र करता है, उसका मानना है कि श्रमिक का श्रम उस जिल्दसाज़ की तरह होता है की जब भी आप किताब उठाते हैं, उसकी मेहनत आपको महसूस होने लगती है। लेखक श्रम को जितना महत्त्व देता हैं, पाखंड को उतना ही विरोध करता है उसने भारतीय समाज में मज़दूरी और फकीरी को बहुत तार्किक ढंग से समझाता है। आज के ढोंग पूर्ण फकीरी से अलग लेखक टॉलस्टॉय, कबीर, रैदास में फकीरी को देखता है। साथ ही लेखक मशीनी सभ्यता से भी चिंतित है कि मशीनों की अधिकता कहीं मज़दूरों की मौत का कारण न बन जाए।


    कुबेर नाथ राय : उत्तराफाल्गुनी के आसपास 

    कुबेर नाथ राय

    जन्म- 26 मार्च 1933

    गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)

    निबंध संग्रह :- प्रिया नीलकंठी, गंधमादन, रस आखेटक, विषाद योग, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, महाकवि की तर्जनी, कामधेनु, मराल, अगम की नाव, रामायण महातीर्थम, चिन्मय भारत आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि अभिसार, वाणी का क्षीरसागर, उत्तरकुरु।

    'कामधेनु' निबंध संग्रह पर ज्ञानपीठ की ओर से साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला महत्त्वपूर्ण 'मूर्तिदेवी पुरस्कार' से वे सम्मानित किए गए थे।

    उत्तराफाल्गुनी के आसपास :

    उत्तराफाल्गुनी शब्द का प्रयोग नक्षत्र के लिए नहीं बल्कि मनुष्य की एक अवस्था विशेष के संदर्भ में किया गया है। 40-45 वर्ष की उत्तराफाल्गुनी आयु को कहा है। उत्तराफाल्गुनी के माध्यम से मनुष्य जीवन की उत्तरावस्था पर व्यंग्य किया गया है।

     

    विवेकी राय : उठ जाग मुसाफ़िर 

    जन्म : 19 नवंबर 1924, भरौली, बलिया (उत्तर प्रदेश)।

    प्रमुख निबंध संग्रह :- फिर बैतलवा डाल पर, जलूस रुका है, गँवई गंध गुलाब, मनबोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनामा, आम रास्ता नहीं है, उठ जाग मुसाफ़िर।

    उठ जाग मुसाफ़िर :

    प्रस्तुत निबंध में निबंधकार द्वारा गाँवों में शहरी संस्कृति के अनुचित हस्तक्षेप और गाँवों के आर्थिक विकास के दौरान सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के विघटन पर चिंता व्यक्त की गई है।

     

    नामवर सिंह : संस्कृति और सौंदर्य   

    नामवर सिंह

    जन्म : 28 जुलाई 1927, जीयनपुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

    कृतियाँ :- बकलमखुद (1951), हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग (1952), आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ (1954), छायावाद (1955), पृथ्वीराज रासो की भाषा (1956), इतिहास और आलोचना (1957), कहानी नई कहानी (1966), कविता के नए प्रतिमान (1968), दूसरी परंपरा की खोज (1982), वाद विवाद संवाद (1989), कहना न होगा (साक्षात्कारों का संग्रह-1965), आलोचक के मुख से (2005), काशी के नाम (पत्र; 2006), हिंदी का गद्यपर्व, ज़माने से दो-दो हाथ, कविता की ज़मीन, ज़मीन की कविता, प्रेमचंद और भारतीय समाज (2010)।

    संस्कृति और सौंदर्य (1982 ई.) :

    निबंध में नामवर सिंह ने हजारीप्रसाद द्विवेदी की संस्कृति और सौंदर्यात्मक दृष्टि को सम्यक रूप से सामने रखा है।

    संस्कृति और सौंदर्य निबंध दूसरी परंपरा की खोज (1982) पुस्तक में संकलित है।

    निबंध के अनुसार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारतीय संस्कृति की विविधता, जटिलता, परस्पर विरोधी जीवंतता और समृद्धि का पुनः सृजन किया।

    हजारीप्रसाद द्विवेदी के सौंदर्यबोध में रूप, शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य आदि का सूक्ष्म परिज्ञान और संवेदन है।

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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