कल्लू कुम्हार की उनाकोटी

kullu kumar ki unakoti

के. विक्रम सिंह

के. विक्रम सिंह

कल्लू कुम्हार की उनाकोटी

के. विक्रम सिंह

और अधिकके. विक्रम सिंह

    ध्वनि में यह अद्भुत गुण है कि एक क्षण में ही वह आपको किसी दूसरे समय-संदर्भ में पहुँचा सकती है। मैं उनमें से नहीं हूँ जो सुबह चार बजे उठते हैं, पाँच बजे तक तैयार हो लेते हैं और फिर लोधी गार्डन पहुँचकर मक़बरों और मेम साहबों की सोहबत1 में लंबी सैर पर निकल जाते हैं। मैं आमतौर पर सूर्योदय के साथ उठता हूँ, अपनी चाय ख़ुद बनाता हूँ और फिर चाय और अख़बार लेकर लंबी अलसायी सुबह का आनंद लेता हूँ। अकसर अख़बार की ख़बरों पर मेरा कोई ध्यान नहीं रहता। यह तो सिर्फ़ दिमाग़ को कटी पतंग की तरह यों ही हवा में तैरने देने का एक बहाना है। दरअसल इसे कटी पतंग योग भी कहा जा सकता है। इसे मैं अपने लिए काफ़ी ऊर्जादायी2 पाता हूँ और मेरा दृढ़ विश्वास है कि संभवतः इससे मुझे एक और दिन के लिए दुनिया का सामना करने में मदद मिलती है—एक ऐसी दुनिया का सामना करने में जिसका कोई सिर-पैर समझ पाने में मैं अब ख़ुद को असमर्थ पाता हूँ।
     
    अभी हाल में मेरी इस शांतिपूर्ण दिनचर्या में एक दिन ख़लल3 पड़ गया। मैं जगा एक ऐसी कानफाड़ू4 आवाज़ से, जो तोप दग़ने और बम फटने जैसी थी, गोया जॉर्ज डब्लू. बुश और सद्दाम हुसैन की मेहरबानी से तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी हो। ख़ुदा का शुक्र है कि ऐसी कोई बात नहीं थी। दरअसल यह तो महज़ स्वर्ग में चल रहा देवताओं का कोई खेल था, जिसकी झलक बिजलियों की चमक और बादलों की गरज के रूप में देखने को मिल रही थी।
       
    मैंने खिड़की के बाहर झाँका। आकाश बादलों से भरा था जो सेनापतियों द्वारा त्याग दिए गए सैनिकों की तरह आतंक में एक-दूसरे से टकरा रहे थे। विक्षिप्तों5 की तरह आकाश को भेद-भेद देने वाली तड़ित6 के अलावा जाड़े की अलस्सुबह7 का ठंडा भूरा आकाश भी था, जो प्रकृति के तांडव को एक पृष्ठभूमि मुहैया करा रहा था। इस तांडव के गर्जन-तर्जन ने मुझे तीन साल पहले त्रिपुरा में उनाकोटी की एक शाम में पहुँचा दिया।
     
    दिसंबर 1999 में 'ऑन द रोड' शीर्षक से तीन खंडों वाली एक टीवी शृंखला बनाने के सिलसिले में मैं त्रिपुरा की राजधानी अगरतला गया था। इसके पीछे बुनियादी विचार त्रिपुरा की समूची लंबाई में आर-पार जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 से यात्रा करने और त्रिपुरा की विकास संबंधी गतिविधियों के बारे में जानकारी देने का था।
     
    त्रिपुरा भारत के सबसे छोटे राज्यों में से है। चौंतीस प्रतिशत से ज़्यादा की इसकी जनसंख्या वृद्धि दर भी ख़ासी ऊँची है। तीन तरफ़ से यह बांग्लादेश से घिरा हुआ है और शेष भारत के साथ इसका दुर्गम जुड़ाव उत्तर-पूर्वी सीमा से सटे मिज़ोरम और असम के द्वारा बनता है। सोनामुरा, बेलोनिया, सबरूम और कैलासशहर जैसे त्रिपुरा के ज़्यादातर महत्त्वपूर्ण शहर बांग्लादेश के साथ इसकी सीमा के क़रीब हैं। यहाँ तक कि अगरतला भी सीमा चौकी से महज़ दो किलोमीटर पर है। बांग्लादेश से लोगों की अवैध आवक8 यहाँ ज़बरदस्त है और इसे यहाँ सामाजिक स्वीकृति भी हासिल है। यहाँ की असाधारण जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण यही है। असम और पश्चिम बंगाल से भी लोगों का प्रवास यहाँ होता ही है। कुल मिलाकर बाहरी लोगों की भारी आवक ने जनसंख्या संतुलन को स्थानीय आदिवासियों के ख़िलाफ़ ला खड़ा किया है। यह त्रिपुरा में आदिवासी असंतोष की मुख्य वजह है।
     
    पहले तीन दिनों में मैंने अगरतला और उसके इर्द-गिर्द शूटिंग की, जो कभी मंदिरों और महलों के शहर के रूप में जाना जाता था। उज्जयंत महल अगरतला का मुख्य महल है जिसमें अब वहाँ की राज्य विधानसभा बैठती है। राजाओं से आम जनता को हुए सत्ता हस्तांतरण9 को यह महल अब नाटकीय रूप में प्रतीकित10 करता है। इसे भारत के सबसे सफल शासक वंशों में से एक, लगातार 183 क्रमिक राजाओं वाले त्रिपुरा के माणिक्य वंश का दुखद अंत ही कहेंगे।
     
    त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने से कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं लेकिन इसके चलते यह राज्य बहुधार्मिक समाज का उदाहरण भी बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिधित्व मौजूद है। अगरतला के बाहरी हिस्से पैचारथल में मैंने एक सुंदर बौद्ध मंदिर देखा। पूछने पर मुझे बताया गया कि त्रिपुरा के उन्नीस क़बीलों में से दो, यानी चकमा और मुघ महायानी बौद्ध हैं। ये क़बीले त्रिपुरा में बर्मा या म्यांमार से चटगाँव के रास्ते आए थे। दरअसल इस मंदिर की मुख्य बुद्ध प्रतिमा भी 1930 के दशक में रंगून से लाई गई थी।
     
    अगरतला में शूटिंग के बाद हमने राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पकड़ा और टीलियामुरा क़स्बे में पहुँचे जो दरअसल कुछ ज़्यादा बड़ा हो गया गाँव ही है। यहाँ मेरी मुलाक़ात हेमंत कुमार जमातिया से हुई जो यहाँ के एक प्रसिद्ध लोकगायक हैं और जो 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हो चुके हैं। हेमंत कोकबारोक बोली में गाते हैं जो त्रिपुरा की क़बीलाई11 बोलियों में से है। जवानी के दिनों में वे पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन के कार्यकर्ता थे। लेकिन जब उनसे मेरी मुलाक़ात हुई तब वे हथियारबंद संघर्ष का रास्ता छोड़ चुके थे और चुनाव लड़ने के बाद ज़िला परिषद् के सदस्य बन गए थे।
     
    ज़िला परिषद ने हमारी शूटिंग यूनिट के लिए एक भोज का आयोजन किया। यह एक सीधा-सादा खाना था जिसे सम्मान और लगाव के साथ परोसा गया था। भारत की मुख्य धारा में आई मुँहज़ोर और दिखावेबाज़ संस्कृति ने अभी त्रिपुरा के जन-जीवन को नष्ट नहीं किया है। भोज के बाद मैंने हेमंत कुमार जमातिया से एक गीत सुनाने का अनुरोध किया और उन्होंने अपनी धरती पर बहती शक्तिशाली नदियों, ताज़गी भरी हवाओं और शांति का एक गीत गाया। त्रिपुरा में संगीत की जड़ें काफ़ी गहरी प्रतीत होती हैं। गौरतलब है कि बॉलीवुड के सबसे मौलिक संगीतकारों में एक एस.डी. बर्मन त्रिपुरा से ही आए थे। दरअसल वे त्रिपुरा के राजपरिवार के उत्तराधिकारियों में से थे।
     
    टीलियामुरा शहर के वार्ड नं. 3 में मेरी मुलाक़ात एक और गायक मंजु ऋषिदास से हुई। ऋषिदास मोचियों के एक समुदाय का नाम है। लेकिन जूते बनाने के अलावा इस समुदाय के कुछ लोगों की विशेषज्ञता थाप वाले वाद्यों जैसे तबला और ढोल के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम में भी है। मंजु ऋषिदास आकर्षक महिला थीं और रेडियो कलाकार होने के अलावा नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। वे निरक्षर थीं। लेकिन अपने वार्ड की सबसे बड़ी आवश्यकता यानी स्वच्छ पेयजल के बारे में उन्हें पूरी जानकारी थी। नगर पंचायत को वे अपने वार्ड में नल का पानी पहुँचाने और इसकी मुख्य गलियों में ईंटें बिछाने के लिए राज़ी कर चुकी थीं।
     
    हमारे लिए उन्होंने दो गीत गाए और इसमें उनके पति ने शामिल होने की कोशिश की क्योंकि मैं उस समय उनके गाने की शूटिंग भी कर रहा था। गाने के बाद वे तुरंत एक गृहिणी की भूमिका में भी आ गई और बग़ैर किसी हिचक के हमारे लिए चाय बनाकर ले आईं। मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूँ कि किसी उत्तर भारतीय गाँव में ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि स्वच्छता के नाम पर एक नए क़िस्म की अछूत-प्रथा वहाँ अब भी चलन में है।
     
    त्रिपुरा के हिंसाग्रस्त मुख्य भाग में प्रवेश करने से पहले, अंतिम पड़ाव टीलियामुरा ही है। राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर अगले 83 किलोमीटर यानी मनु तक की यात्रा के दौरान ट्रैफ़िक सी.आर.पी.एफ. की सुरक्षा में क़ाफ़िलों की शक्ल में चलता है। मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ़. से मैंने निवेदन किया था कि वे हमें घेरेबंदी में चलने वाले क़ाफ़िले के आगे-आगे चलने दें। थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे इसके लिए तैयार हो गए लेकिन उनकी शर्त यह थी कि मुझे और मेरे कैमरामैन को सी.आर.पी.एफ़. की हथियारबंद गाड़ी में चलना होगा और यह काम हमें अपने जोखिम पर करना होगा।
     
    क़ाफ़िला दिन में 11 बजे के आसपास चलना शुरू हुआ। मैं अपनी शूटिंग के काम में ही इतना व्यस्त था कि उस समय तक डर के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी जब तक मुझे सुरक्षा प्रदान कर रहे सी.आर.पी.एफ़. कर्मी ने साथ की निचली पहाड़ियों पर इरादतन रखे दो पत्थरों की तरफ़ मेरा ध्यान आकृष्ट नहीं किया। दो दिन पहले हमारा एक जवान यहीं विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया था, उसने कहा। मेरी रीढ़ में एक झुरझुरी सी दौड़ गई। मनु तक की अपनी शेष यात्रा में मैं यह ख़याल अपने दिल से निकाल नहीं पाया कि हमें घेरे हुए सुंदर और अन्यथा शांतिपूर्ण प्रतीत होने वाले जंगलों में किसी जगह बंदूक़ें लिए विद्रोही भी छिपे हो सकते हैं।
     
    त्रिपुरा की प्रमुख नदियों में से एक मनु नदी के किनारे स्थित मनु एक छोटा क़स्बा है। जिस वक़्त हम मनु नदी के पार जाने वाले पुल पर पहुँचे, सूर्य मनु के जल में अपना सोना उँड़ेल रहा था। वहाँ मैंने एक और क़ाफ़िला देखा। एक साथ बँधे हज़ारों बाँसों का एक क़ाफ़िला किसी विशाल ड्रैगन जैसा दिख रहा था और नदी पर बहा चला आ रहा था। डूबते सूरज की सुनहरी रोशनी उसे सुलगा रही थी और हमारे क़ाफ़िले को सुरक्षा दे रही सी.आर.पी.एफ़. की एक समूची कंपनी के उलट इसकी सुरक्षा का काम सिर्फ़ चार व्यक्ति सँभाले हुए थे।
     
    अब हम उत्तरी त्रिपुरा ज़िले में आ गए थे। यहाँ की लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक है अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना। अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है। उत्तरी त्रिपुरा ज़िले का मुख्यालय कैलासशहर है, जो बांग्लादेश की सीमा के काफ़ी क़रीब है।
     
    मैंने यहाँ के ज़िलाधिकारी से मुलाक़ात की, जो केरल से आए एक नौजवान निकले। वे तेज़तर्रार12, मिलनसार और उत्साही व्यक्ति थे। चाय के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, ख़ासकर उत्तरी ज़िले में किस तरह सफलता मिली है। आलू की बुआई के लिए आमतौर पर पारंपरिक आलू के बीजों की ज़रूरत दो मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पड़ती है। इसके बरक्स टी.पी.एस की सिर्फ़ 100 ग्राम मात्रा ही एक हेक्टेयर की बुआई के लिए काफ़ी होती है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. का निर्यात अब न सिर्फ़ असम, मिज़ोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को, बल्कि बांग्लादेश, मलेशिया और वियतनाम को भी किया जा रहा है। कलेक्टर ने अपने एक अधिकारी को हमें मुराई गाँव ले जाने को कहा, जहाँ टी.पी.एस. की खेती की जाती थी।
     
    फिर ज़िलाधिकारी ने अचानक मुझसे पूछा, क्या आप उनाकोटी में शूटिंग करना पसंद करेंगे?
     
    यह नाम मुझे कुछ जाना-पहचाना सा लगा, लेकिन इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। ज़िलाधिकारी ने आगे बताया कि यह भारत का सबसे बड़ा नहीं तो सबसे बड़े शैव तीर्थों में से एक है। संसार के इस हिस्से में जहाँ युगों से स्थानीय आदिवासी धर्म ही फलते-फूलते रहे हैं, एक शैव तीर्थ? ज़िलाधिकारी के लिए मेरी उत्सुकता स्पष्ट थी। 'यह जगह जंगल में काफ़ी भीतर है हालाँकि यहाँ से इसकी दूरी सिर्फ़ नौ किलोमीटर है।' अब तक मेरे ऊपर इस जगह का रंग चढ़ चुका था। टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा कर लेने के बाद मैं ख़ुद को ज़्यादा साहसी भी महसूस करने लगा था। मैंने कहा कि मैं निश्चय ही वहाँ जाना चाहूँगा और यदि संभव हुआ तो इस जगह की शूटिंग करना भी मुझे अच्छा लगेगा।
     
    अगले दिन ज़िलाधिकारी ने सारे सुरक्षा इंतज़ाम किए और यहाँ तक कि उनाकोटी में ही हमें लंच कराने का प्रस्ताव भी रखा। वहाँ हम सुबह नौ बजे के आसपास पहुँच गए लेकिन एक घंटे हमें इंतज़ार करना पड़ा क्योंकि ख़ासे ऊँचे पहाड़ों से घिरी होने के चलते इस जगह सूरज की रोशनी दस बजे ही पहुँच पाती है।
     
    उनाकोटी का मतलब है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। दंतकथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक कोटि से एक कम मूर्तियाँ हैं। विद्वानों का मानना है कि यह जगह दस वर्ग किलोमीटर से कुछ ज़्यादा इलाक़े में फैली है और पाल शासन के दौरान नवीं से बारहवीं सदी तक के तीन सौ वर्षों में यहाँ चहल-पहल रहा करती थी।
     
    पहाड़ों को अंदर से काटकर यहाँ विशाल आधार-मूर्तियाँ बनी हैं। एक विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण के मिथक13 को चित्रित करती है। गंगा अवतरण के धक्के से कहीं पृथ्वी धँसकर पाताल लोक में न चली जाए, लिहाज़ा शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरे-धीरे पृथ्वी पर बहने दें। शिव का चेहरा एक समूची चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। पूरे साल बहने वाला एक जल प्रपात पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है। यह पूरा इलाक़ा ही शब्दश:14 देवियों-देवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है।
     
    इन आधार-मूर्तियों के निर्माता अभी चिह्नित15 नहीं किए जा सके हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह पार्वती का भक्त था और शिव-पार्वती के साथ उनके निवास कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। पार्वती के ज़ोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार हो गए लेकिन इसके लिए शर्त यह रखी कि उसे एक रात में शिव की एक कोटि मूर्तियाँ बनानी होगी। कल्लू अपनी धुन के पक्के व्यक्ति की तरह इस काम में जुट गया। लेकिन जब भोर हुई तो मूर्तियाँ एक कोटि से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को अपनी मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और चलते बने।
     
    इस जगह की शूटिंग पूरी करते शाम के चार बज गए। सूर्य के ऊँचे पहाड़ों के पीछे जाते ही उनाकोटी में अचानक भयावना अंधकार छा गया। मिनटों में जाने कहाँ से बादल भी घिर आए। जब तक हम अपने उपकरण समेटें, बादलों की सेना गर्जन-तर्जन के साथ क़हर बरपाने लगी। शिव का तांडव शुरू हो गया था जो कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा मैंने तीन साल बाद जाड़े की एक सुबह दिल्ली में देखा और जिसने मुझे एक बार फिर उनाकोटी पहुँचा दिया था। 
    स्रोत :
    • पुस्तक : संचयन (भाग-1) (पृष्ठ 18)
    • रचनाकार : के. विक्रम सिंह
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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