खोए हुए जंगल

khoye hue jangal

जोहान्स विल्हेम जेन्सेन

और अधिकजोहान्स विल्हेम जेन्सेन

    कोरा नाम एक आदमी का था, जो भूमि जोतता था। जब उसने कुछ पैसे बचा लिए तो वह एक ग़ुलाम ख़रीदने शहर गया।

    ग़ुलामों का व्यापार करने वाले ने उसे कई ग़ुलाम दिखाए, लेकिन कोरा को तसल्ली नहीं हुई।

    “लगता है कि तुम चाहते हो मैं सारे ग़ुलामों को यहाँ बाहर घसीट लाऊँ,” व्यापारी ने भुनभुनाते हुए कहा। दुपहर का समय था और सारे ग़ुलाम सोए हुए थे।

    “मैं और कहीं तो जा ही सकता हूँ।” कोरा ने आराम से कह दिया।

    “ठीक है, ठीक है!” व्यापारी ने ज़ंजीर खींची और ग़ुलाम नींद में चलते हुए बाहर निकल पड़े। कोरा ने उन सबको देखा और बड़ी सावधानी से उन्हें परखा।

    “इसे टटोलकर देखो, यह बढ़िया तगड़ा आदमी है,” कहते हुए व्यापारी ने एक ग़ुलाम को धकेलकर आगे कर दिया, “क्या सोचते हो इसके बारे में? है कड़ियल सीना? इसे ठोककर देखो। और ये कलाइयाँ देखो; नसें ऐसी हैं, जैसे किसी वायलिन के तार! अपना मुँह खोलो!”

    व्यापारी ने ग़ुलाम के मुँह में एक उँगली घुसेड़ी और उसे रोशनी की ओर घुमा दिया, “अब तुम इसके मज़बूत दाँत देखो।” उसने डींग हाँकी। उसने ग़ुलाम के दाँतों पर उलटा चाकू घुमाया, “देखो! ये दाँत लोहे जैसे हैं। ये कील के दो टुकड़े कर सकते हैं।”

    कोरा ने फिर भी अपने मन में कुछ विचार किया। उसने ग़ुलाम का मूल्य आँकने के लिए उसके जिस्म पर हाथ फेरा। चिकनी मांसपेशियों को अपनी उँगलियों के पोरों से दबा-दबाकर देखा कि वे कसी हुई हैं या नहीं। आख़िर उसने उसे ख़रीदने का मन बना लिया। मुँह बिचकाकर उसका दाम चुकाया और उसकी ज़ंजीर खुलवाकर उसे अपने घर ले आया।

    अभी कुछ ही दिन हुए थे कि ग़ुलाम बीमार पड़ गया और व्यथित होकर सूखने लगा। अब क्योंकि वह बाज़ार में नहीं रह गया था बल्कि हमेशा के लिए एक जगह जम गया था, सो उसे उन जंगलों की याद सताने लगी, जहाँ से वह आया था। यह अत्यंत शुभ संकेत था; कोरा को इन लक्षणों की जानकारी थी। एक दिन जीवन में निराश ग़ुलाम पीठ के बल लेटा हुआ था तो वह उसकी बगल में आकर बैठ गया और सोच में भरकर उससे बातें करने लगा।

    “तुम अपने जंगलों को वापस जाओगे, डरो मत। मैं तुमसे यह वादा करता हूँ और मेरे वादों पर भरोसा करो। तुम अभी भी जवान हो, तुम्हें पता है...अगर तुम मन से और मेहनत से पाँच साल तक मेरे खेत जोतोगे तो मैं तुम्हें तुम्हारी आज़ादी दे दूँगा, भले ही मैं तुम्हारा पैसा दे चुका हूँ। पाँच साल। सौदा अच्छा है?”

    और ग़ुलाम ने काम किया। किसी दैत्य की तरह वह डट गया। कोरा अपने दरवाज़े पर बैठकर साँवली चमड़ी के नीचे ग़ुलाम की उन मांसपेशियों को गठते और थरथराते देखता और उसे इसमें आनंद आता, और वह दिन में कई-कई घंटे यह आनंद लेता क्योंकि और करने के लिए उसके पास कोई काम था भी नहीं। उसे यह समझ में आने लगा कि शरीर एक सुंदर और आँखों को आनंद देने वाली चीज़ है।

    पाँच साल ग़ुलाम ने हिसाब लगाया—यानी उतने अयनकाल, जितनी कि उसके हाथों में उँगलियाँ थीं। सूरज को दस बार घूमना था। हर शाम वह सूरज को डूबता देखता और पत्थरों और टेकरियों पर निशान लगाकर समय की गिनती का हिसाब रखता। जब सूरज पहली बार घूमा तो उसने अपने दाहिने हाथ के अँगूठे पर गिनती की। एक और अयनकाल बीतने पर। और यह उसे अनंत काल लगा—तर्जनी स्वतंत्र हो गई। दूसरी उँगलियों की अपेक्षा उसे इन दो उँगलियों से अधिक प्रेम था। दूसरी उँगलियाँ अभी भी उसकी दासता की गिनती कर रही थीं।

    इस तरह दिनों तक हिसाब रखना और समय बीतने के निशान लगाना, उस ग़ुलाम का धर्म, उसकी आंतरिक संपदा और उसका आत्मिक ख़ज़ाना हो गई, जिसे तो कोई उससे ले सकता था और इसे लेकर उससे विवाद कर सकता था।

    जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसकी गणनाएँ बढ़ती गईं, और भी व्यापक तथा गहन होती गईं। साल ऐसी असीम अमूर्तताओं के समान निकलते चले गए, जिन्हें वह थामकर नहीं रख सकता था; सृजन करता और अपनी आस्था की पुनः प्रतिष्ठा करता। समय, जो वर्तमान में क्षणभंगुर था, वही अतीत होने पर अनंत दिखाई देता; और भविष्य अनंत रूप से दूर दिखता।

    इस तरह से उस ग़ुलाम की आत्मा गहन हो गई। जैसे उसकी उत्कंठा ने समय को अनंतता प्रदान की, वैसे ही उसका संसार अनंत और उसके विचार असीम हो गए। हर शाम वह ग़ुलाम विचारमग्न होकर सुदूर पश्चिम को ताकता, और हरेक सूर्यास्त उसकी आत्मा में अधिकाधिक गहनता लेकर आता।

    जब अंतत: पाँच साल की अवधि बीत गई—शब्दों में कहना बहुत आसान है—तो वह ग़ुलाम अपने मालिक के पास आया और अपनी आज़ादी की माँग की। वह जंगलों में अपने घर को जाना चाहता था।

    “तुमने बहुत वफ़ादारी से काम किया है,” कोरा ने मनन करते हुए स्वीकार किया।

    “मुझे बताओ तुम्हारा घर कहाँ है? क्या पश्चिम में है? मैंने अकसर तुम्हें उस दिशा में ताकते देखा है।”

    हाँ, उसका घर पश्चिम में है।

    “तब तो वह बहुत दूर है?” कोरा ने कहा...ग़ुलाम ने सिर हिलाया...बहुत दूर।

    “और तुम्हारे पास बिल्कुल भी पैसा नहीं है, क्यों?”

    ग़ुलाम ख़ामोश था, वह निराश हो गया था। नहीं, यह सच था, उसके पास बिल्कुल भी पैसा नहीं था।

    “देखो, तुम पैसे के बिना कहीं भी नहीं जा सकते। अगर तुम तीन साल और मेरे लिए काम करो...नहीं, चलो दो साल के लिए...तो मैं तुम्हें तुम्हारे सफ़र लायक काफ़ी पैसे दे दूँगा।”

    ग़ुलाम ने अपना सिर झुकाया और फिर जुत गया। उसने बहुत अच्छी तरह से काम किया, लेकिन पहले की तरह उसने दिनों के बीतने का कोई हिसाब अब नहीं रखा। इसके विपरीत वह दिवास्वप्न देखने लगा; कोरा को नींद में उसके कराहने और बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई देती। कुछ समय बाद वह फिर बीमार पड़ गया।

    तब कोरा उसकी बगल में बैठा और उसने बहुत देर तक गंभीर होकर उससे बातें की। उसकी बातचीत में सूझबूझ और बुद्धिमानी की झलक मिलती थी, मानो ईमानदारी भरे अनुभव में पगी हो।

    “मैं बूढ़ा आदमी हूँ,” वह बोला,” अपनी जवानी के दिनों में मैं भी पश्चिम के लिए तड़पता था; विराट जंगल मुझे बुलाते थे। लेकिन मेरे पास कभी भी सफ़र लायक पैसा नहीं हुआ। अब मैं वहाँ कभी नहीं जाऊँगा—अब तो मेरे मरने के बाद मेरी आत्मा ही वहाँ जाएगी। तुम तो जवान और योग्य हो, और तुम मेहनती भी हो, लेकिन क्या तुम उससे भी ज़्यादा मज़बूत और योग्य हो जितना कि अपनी जवानी के दिनों में मैं था? इस सब पर विचार करो, और एक बूढ़े आदमी की सलाह पर कान दो। और फिर से स्वस्थ हो जाने की जुगत करो।”

    लेकिन वह ग़ुलाम धीरे-धीरे सुधरा, और जब उसने फिर से काम सँभाला तो उसमें वह पहले वाला जोश नहीं था। अब वह आसानी से समर्पण कर देता, उसकी महत्त्वाकांक्षा मर चुकी थी और उसको काम के बीच में लेटना और सोना अच्छा लगने लगा था। तब एक दिन कोरा ने उसे कोड़े लगाए। इससे उसका भला हुआ और वह रोया।

    इस तरह वे दो साल निकल गए।

    तब कोरा ने सचमुच उस ग़ुलाम को उसकी आज़ादी दे दी। वह पश्चिम दिशा में चला गया; लेकिन महीनों बाद वह अत्यंत दयनीय स्थिति में वापस गया। वह अपने जंगलों को ढूँढ़ने में असमर्थ रहा था।

    “देखा तुमने?” कोरा ने कहा, “मैंने तुमको चेताया था न? लेकिन कोई यह नहीं कहेगा कि मैं तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हूँ। एक बार फिर कोशिश करो और इस बार पूर्व दिशा में जाओ। हो सकता है तुम्हारे जंगल उसी दिशा में हों।”

    एक बार फिर वह ग़ुलाम चल दिया, इस बार उसका मुँह उगते सूरज की ओर था और अंत में, इधर-उधर खूब भटक लेने के बाद, वह अपने जंगलों में पहुँचा। लेकिन वह तो उन्हें जानता ही नहीं था। थके-माँदे और परास्त! ग़ुलाम ने अपना मुँह पश्चिम की ओर किया और अपने मालिक के पास वापस गया; और उसने अपने मालिक से कहा कि हालाँकि उसे जंगल मिल गए थे, बड़े जंगल भी और छोटे भी, फिर भी वे उसके अपने जंगल नहीं थे।

    'हुक्म!” कोरा खाँसा।

    “मेरे पास रहो,” फिर उसने गरमजोशी से कहा, “जब तक मैं ज़िंदा हूँ, तुम्हें इस धरती पर कभी घर की कमी नहीं होगी। और जब मैं अपने पुरखों में जा मिलूँगा तो मेरा बेटा इस बात का ध्यान रखेगा कि तुम्हें किसी बात की परेशानी हो।” इस तरह वह ग़ुलाम अपने मालिक के पास ही ठहर गया।

    कोरा बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका ग़ुलाम अभी भी जवान था। कोरा उसे अच्छी तरह खिलाता-पिलाता था, ताकि वह अधिक दिन तक जी सके और उसे साफ़ रखता था ताकि उसका स्वास्थ्य बना रहे, और बीच-बीच में उसे कोड़े भी मारता रहता था ताकि वह विनम्र और आदरपूर्ण रहे। वह उसे विश्राम देने में भी कोताही नहीं करता था; हर इतवार को ग़ुलाम को इस बात की आज़ादी होती थी कि वह किसी टीले पर बैठकर पश्चिम को ताके।

    कोरा के खेतों में बहुतायत से फ़सल होने लगी। वह जंगल ख़रीदकर उन्हें साफ़ करवाता और फिर उनमें हल चलवाता ताकि उसके ग़ुलाम के पास काम की कमी नहीं हो; और वह ग़ुलाम मन से पेड़ गिराता। कोरा अब पैसे वाला हो गया था और एक दिन वह एक ग़ुलाम औरत को घर लेकर आया।

    साल बीतते गए और कोरा के मकान में छ: तगड़े ग़ुलाम लड़के पलकर बड़े हुए। अपने पिता के समान ही वे भी कड़ी मेहनत करते थे। काम करने से ही व्यक्ति का समय कटता है, उनके पिता ने उन्हें बताया, और जब समय कट जाता है तो थकान हमें अनंत जंगलों में उड़ा ले जाती है। हर विश्राम के दिन वह अपने बेटों को टीले के ऊपर ले जाता, जहाँ से वे डूबते सूरज को देख सकते थे और वह उन्हें सिखाता कि उत्कंठित कैसे रहा जाता है।

    कोरा बूढ़ा और जीर्ण हो गया था। सच में तो वह हमेशा से बूढ़ा ही था, लेकिन अब उसमें बुढ़ापे को छोड़ और कुछ नहीं बचा था। उसका बेटा कभी मज़बूत नहीं रहा था, लेकिन उन्हें किसी से डरने की ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि उनमें से एक-एक ग़ुलाम ऐसा था कि किसी भी आदमी को लाठी के एक वार में ही गिरा सकता था। वे शानदार लोग थे; उनकी इस्पाती मांसपेशियों पर मांस कसा हुआ था और उनके दाँत चीते जैसे थे। लेकिन ज़माना काफ़ी सुरक्षित था। ये ग़ुलाम अपनी कुल्हाड़ियाँ चलाते और पेड़ गिराते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 148-152)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : जोहान्स विल्हेम जेन्सेन
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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