टोपी शुक्ला

topi shukla

राही मासूम रज़ा

राही मासूम रज़ा

टोपी शुक्ला

राही मासूम रज़ा

और अधिकराही मासूम रज़ा

    इफ़्फ़न के बारे में कुछ जान लेना इसलिए ज़रूरी है कि इफ़्फ़न टोपी का पहला दोस्त था। इस इफ़्फ़न को टोपी ने सदा इफ्फन कहा। इफ़्फ़न ने इसका बुरा माना। परंतु वह इफ्फन पुकारने पर बोलता रहा। इसी बोलते रहने में उसकी बड़ाई थी। यह नामों का चक्कर भी अजीब होता है। उर्दू और हिंदी एक ही भाषा, हिंदवी के दो नाम हैं। परंतु आप ख़ुद देख लीजिए कि नाम बदल जाने से कैसे-कैसे घपले हो रहे हैं। नाम कृष्ण हो तो उसे अवतार कहते हैं और मुहम्मद हो तो पैग़ंबर। नामों के चक्कर में पड़कर लोग यह भूल गए कि दोनों ही दूध देने वाले जानवर चराया करते थे। दोनों ही पशुपति, गोबरधन और ब्रज कुमार थे। इसीलिए तो कहता हूँ कि टोपी के बिना इफ़्फ़न और इफ़्फ़न के बिना टोपी न केवल यह कि अधूरे हैं बल्कि बेमानी हैं। इसलिए इफ़्फ़न के घर चलना ज़रूरी है। यह देखना ज़रूरी है कि उसकी आत्मा के आँगन में कैसी हवाएँ चल रही हैं और परंपराओं के पेड़ पर कैसे फल आ रहे हैं।

    दो

    इफ़्फ़न की कहानी भी बहुत लंबी है। परंतु हम लोग टोपी की कहानी कह-सुन रहे हैं। इसीलिए मैं इफ़्फ़न की पूरी कहानी नहीं सुनाऊँगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाऊँगा जितनी टोपी की कहानी के लिए ज़रूरी है। 

    मैने इसे ज़रूरी जाना कि इफ़्फ़न के बारे में आपको कुछ बता दूँ क्योंकि इफ़्फ़न आपको इस कहानी में जगह-जगह दिखाई देगा। न टोपी इफ़्फ़न की परछाई है और न इफ़्फ़न टोपी की। ये दोनों दो आज़ाद व्यक्ति है। इन दोनों व्यक्तियों का डेवलपमेंट1 एक-दूसरे से आज़ाद तौर पर हुआ। इन दोनों को दो तरह की घरेलू परंपराएँ मिलीं। इन दोनों ने जीवन के बारे में अलग-अलग सोचा। फिर भी इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट2 हिस्सा है। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक अटूट हिस्सा है।

    मैं हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यह बेवक़ूफ़ी क्यों करूँ! क्या मैं रोज़ अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता हूँ कि हम दोनों भाई-भाई हैं? यदि मैं नहीं कहता तो क्या आप कहते है? हिंदू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा। मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नहीं है।

    मैं तो एक कथाकार हूँ और एक कथा सुना रहा हूँ। मैं टोपी और इफ़्फ़न की बात कर रहा हूँ। ये इस कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इफ़्फ़न।

    इफ़्फ़न के दादा और परदादा बहुत प्रसिद्ध मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परंतु वसीयत3 करके मरे कि लाश कर्बला4 ले जाई जाए। उनकी आत्मा ने इस देश में एक साँस तक न ली। उस ख़ानदान में जो पहला हिंदुस्तानी बच्चा पैदा हुआ वह बढ़कर इफ़्फ़न का बाप हुआ।

    जब इफ़्फ़न के पिता सय्यद मुरतुज़ा हुसैन मरे तो उन्होंने यह वसीयत नहीं की कि उनकी लाश कर्बला ले जाई जाए। वह एक हिंदुस्तानी क़ब्रिस्तान में दफ़न किए गए।

    इफ़्फ़न की परदादी भी बड़ी नमाज़ी5 बीबी थीं। कर्बला, नजफ़ ख़ुरासान, काजमैन और जाने कहाँ की यात्रा कर आई थीं। परंतु जब कोई घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा ज़रूर रखवाती और माश का सदक़ा6 भी ज़रूर उतरवातीं।

    इफ़्फ़न की दादी भी नमाज़-रोज़े की पाबंद थी परंतु जब इकलौते बेटे को चेचक7 निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी हुईं और बोलीं, “माता मोरे बच्चे को माफ़ करद्यो। पूरब की रहने वाली थीं। नौ या दस बरस की थीं जब ब्याह कर लखनऊ आईं, परंतु जब तक ज़िंदा रही पूरबी8 बोलती रहीं। लखनऊ की उर्दू ससुराली थी। वह तो मायके की भाषा को गले लगाए रहीं क्योंकि इस भाषा के सिवा इधर-उधर कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझता। जब बेटे की शादी के दिन आए तो गाने-बजाने के लिए उनका दिल फड़का परंतु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था! बेचारी दिल मसोसकर रह गईं। हाँ, इफ़्फ़न की छठी9...पर उन्होंने जी भरकर जश्न10 मना लिया।

    बात यह थी कि इफ़्फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा हुआ था। मर्दों और औरतों के इस फ़र्क़ को ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि इस बात को ध्यान में रखे बग़ैर इफ़्फ़न की आत्मा का नाक-नक़्शा11 समझ में नहीं आ सकता।

    इफ़्फ़न की दादी किसी मौलवी की बेटी नहीं थी बल्कि एक ज़मींदार को बेटी थीं। दूध-घी खाती हुई आई थी परंतु लखनऊ आकर वह उस दही के लिए तरस गईं जो घी पिलाई हुई काली हाँडियों में असामियों के यहाँ से आया करता था। बस मायके जातीं तो लड़-शपड़ जी भर के खा लेतीं। लखनऊ आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता। अपने मियाँ से उन्हें यहीं तो एक शिकायत थी कि वक़्त देखें न मौक़ा, बस मौलवी ही बने रहते हैं।

    ससुराल में उनकी आत्मा सदा बेचैन रहीं। जब मरने लगीं तो बेटे ने पूछा कि लाश कर्बला जाएगी या नजफ़ तो बिगड़ गईं। बोलीं, ए बेटा जउन तू से हमरी लाश ना सँभाली जाए त हमरे घर भेज दिहो।

    मौत सिर पर भी इसलिए उन्हें यह याद नहीं रह गया कि अब घर कहाँ है। घरवाले कराची में है और घर कस्टोडियन12 का हो चुका है। मरते वक़्त किसी को ऐसी छोटी-छोटी बातें भला कैसे याद रह सकती है। उस वक़्त तो मनुष्य अपने सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत सपने देखता है (यह कथाकार का ख़याल है, क्योंकि वह अभी तक मरा नहीं है!) इफ़्फ़न की दादी को भी अपना घर याद आया। उस घर का नाम कच्ची हवेली था कच्ची इसलिए कि वह मिट्टी की बनी थी। उन्हें दसहरी आम का वह बीजू पेड़13 याद आया जो उन्होंने अपने हाथ से लगाया था और जो उन्हीं की तरह बूढ़ा हो चुका था। ऐसी ही छोटी-छोटी और मीठी-मीठी बेशुमार14 चीज़ें याद आईं। वह इन चीज़ों को छोड़कर भला करबला या नजफ़ कैसे जा सकती थीं!

    वह बनारस के 'फ़ातमैन' में दफ़न की गई क्योंकि मुरतुज़ा हुसैन की पोस्टिंग उन दिनों वहीं थी। इफ़्फ़न स्कूल गया हुआ था। नौकर ने आकर ख़बर दी कि बीबी का देहांत हो गया। इफ़्फ़न की दादी बीबी कही जाती थीं। 

    इफ़्फ़न तब चौथे में पढ़ता था और टोपी से उसकी मुलाक़ात हो चुकी थी।

    इफ़्फ़न को अपनी दादी से बड़ा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अपनी अम्मी, अपनी बाजी15 और छोटी बहन नुज़हत से भी था परंतु दादी से वह ज़रा ज़्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार डाँट मार लिया करती थी। बाजी का भी यही हाल था। अब्बू भी कभी-कभार घर की कचहरी16 समझकर फ़ैसला सुनाने लगते थे। नुज़हत को जब मौक़ा मिलता उसकी कॉपियों पर तस्वीरें बनाने लगती थीं। बस एक दादी थी जिन्होंने कभी उसका दिल नहीं दुखाया। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

    “सोता है संसार जागता है पाक17 परवरदिगार। आँखों की देखी नहीं कहती। कानों की सुनी कहती हैं कि एक मुलुक18 में एक बादशाह रहा...

    दादी की भाषा पर वह कभी नहीं मुस्कुराया। उसे तो अच्छी लगती थी। परंतु अब्बू नहीं बोलने देते थे। और जब वह दादी से इसकी शिकायत करता तो वह हँस पड़ती, अ मोरा का है बेटा! अनपढ़ गँवारन की बोली तूँ काहे को बोले लग्यो। तूँ अपने अब्बा ही की बोली बोलौ। बात ख़त्म हो जाती और कहानी शुरू हो जाती—

    त ऊ बादशा का किहिस कि तुरंते ऐक ठो हिरन मार लिआवा...।”

    यही बोली टोपी के दिल में उतर गई थी। इफ़्फ़न की दादी उसे अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दीं। अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत। जाने कैसी भाषा बोलती थीं। इफ़्फ़न के अब्बू और उसकी भाषा एक थी। 

    वह जब इफ़्फ़न के घर जाता तो उसकी दादी ही के पास बैठने की कोशिश करता। इफ़्फ़न की अम्मी और बाजी से वह बातचीत करने को कभी कोशिश ही न करता। वे दोनों अलबत्ता19 उसकी बोली पर हँसने के लिए उसे छेड़तीं परंतु जब बात बढ़ने लगती तो दादी बीच-बचाव करवा देतीं—

    तैं काहे को जाथै उन सभन के पास मुँह पिटावे को झाड़ू मारे। चल इधिर आ... वह डाँटकर कहती। परंतु हर शब्द शक्कर का खिलौना बन जाता। अमावट20 बन जाता। तिलवा21 बन जाता..और वह चुपचाप उनके पास चला जाता।

    तोरी अम्माँ का कर रही... दादी हमेशा यहाँ से बात शुरू करतीं। पहले तो वह चकरा जाता कि यह अम्माँ क्या होता है। फिर वह समझ गया कि माता जी को कहते हैं। 

    यह शब्द उसे अच्छा लगा। अम्माँ। वह इस शब्द को गुड़ की डली की तरह चुभलाता रहा।

    अम्माँ। अब्बू। बाजी। 

    फिर एक दिन ग़ज़ब हो गया।

    डॉक्टर भृगु नारायण शुक्ला नीले तेलवाले के घर में भी बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी। यानी खाना मेज़-कुर्सी पर होता था। लगती तो थालियाँ ही थी परंतु चौके पर नहीं। 

    उस दिन ऐसा हुआ कि बैंगन का भुरता उसे ज़रा ज़्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी खाना परोस रही थी। टोपी ने कहा—

    अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता।

    अम्मी!

    मेज़ पर जितने हाथ थे रुक गए। जितनी आँखें थीं वो टोपी के चेहरे पर जम गईं। 

    अम्मी! यह शब्द इस घर में कैसे आया। अम्मी! परंपराओं की दीवार डोलने लगी।

    ये लफ़्ज़22 तुमने कहाँ सीखा? सुभद्रादेवी ने सवाल किया।

    लफ़्ज़ टोपी ने आँखें नचाईं। लफ़्ज़ का होता है माँ?

    ये अम्मी कहना तुमको किसने सिखाया है? दादी गरजीं।

    ई हम इफ़्फ़न से सीखा है।

    उसका पूरा नाम क्या है?

    ई हम ना जानते।

    “तैं कउनो मियाँ के लइका से दोस्ती कर लिहले बाय का रे?

    रामदुलारी की आत्मा गनगना गई।

    बहू, तुमसे कितनी बार कहूँ कि मेरे सामने गँवारों की यह ज़बान न बोला करो। सुभद्रादेवी रामदुलारी पर बरस पड़ीं।

    लड़ाई का मोरचा बदल गया।

    दूसरी लड़ाई के दिन थे। इसलिए जब डॉक्टर भृगु नारायण नीले तेलवाले को यह पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से दोस्ती गाँठ ली है तो वह अपना ग़ुस्सा पी गए और तीसरे ही दिन कपड़े और शक्कर के परमिट ले आए।

    परंतु उस दिन टोपी की बड़ी दुर्गति23 बनी। सुभद्रादेवी तो उसी वक़्त खाने की मेज़ से उठ गईं और रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा।

    “तैं फिर जय्यबे ओकरा घरे?

    “हाँ”

    अरे तोहरा हाँ में लुकारा आगे माटी मिलऊ।”

    ...रामदुलारी मारते-मारते थक गई। परंतु टोपी ने यह नहीं कहा कि वह इफ़्फ़न के घर नहीं जाएगा। मुन्नी बाबू और भैरव उसकी कुटाई24 का तमाशा देखते रहे।

    “हम एक दिन एको रहीम कबाबची25 की दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा। मुन्नी बाबू ने टुकड़ा लगाया।

    कबाब! 

    राम राम राम! रामदुलारी घिन्ना के दो क़दम पीछे हट गईं। टोपी मुन्नी की तरफ़ देखने लगा। क्योंकि असलियत यह थी कि टोपी ने मुन्नी बाबू को कबाब खाते देख लिया था और मुन्नी बाबू ने उसे एक इकन्नी रिश्वत की दी थी। टोपी को यह मालूम था परंतु वह चुग़लख़ोर नहीं था। उसने अब तक मुन्नी बाबू की कोई बात इफ़्फ़न के सिवा किसी और को नहीं बताई थी।

    तूँ हम्में कबाब खाते देख रह्यो?

    ना देखा रहा ओह दिन? मुन्नी बाबू ने कहा।

    तो तुमने उसी दिन क्यों नहीं बताया? सुभद्रादेवी ने सवाल किया।

    इ झुट्टा है दादी! टोपी ने कहा।

    उस दिन टोपी बहुत उदास रहा। वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि झूठ और सच के क़िस्से में पड़ता—और सच्ची बात तो यह है कि वह इतना बड़ा कभी नहीं हो सका। उस दिन तो वह इतना पिट गया था कि उसका सारा बदन दु:ख रहा था। वह बस लगातार एक ही बात सोचता रहा कि अगर एक दिन के वास्ते वह मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ लेता उनसे। परंतु मुन्नी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस में तो था नहीं। वह मुन्नी बाबू से छोटा पैदा हुआ था और उनसे छोटा ही रहा। 

    दूसरे दिन वह जब स्कूल में इफ़्फ़न से मिला तो उसने उसे सारी बातें बता दीं। दोनों जुगराफ़िया26 का घंटा छोड़कर सरक गए। पंचम की दुकान से इफ़्फ़न ने केले ख़रीदे। बात यह है कि टोपी फल के अलावा और किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाता था।

    “अय्यसा ना हो सकता का की हम लोग दादी बदल ले,” टोपी ने कहा। तोहरी दादी हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ। हमरी दादी त बोलियों तूँहीं लोगन को बो-ल-थीं।

    यह नहीं हो सकता। इफ़्फ़न ने कहा, अब्बू यह बात नहीं मानेंगे। और मुझे कहानी कौन सुनाएगा? तुम्हारी दादी को बारह बुर्ज की कहानी आती है?

    तूँ हम्में एक ठो दादियों ना दे सकत्यो? टोपी ने ख़ुद अपने दिल के टूटने की आवाज़ सुनी।

    जो मेरी दादी है यह मेरे अब्बू की अम्माँ भी तो हैं। इफ़्फ़न ने कहा।

    यह बात टोपी की समझ में आ गई।

    तुम्हारी दादी मेरी दादी की तरह बूढ़ी होंगी?

    हाँ

    तो फ़िकर न करो। इफ़्फ़न ने कहा, मेरी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं।

    “हमरी दादी ना मरिहे।

    “मरेगी कैसे नहीं? क्या मेरी दादी झूठी हैं?

    ठीक उसी वक़्त नौकर आया और पता चला कि इफ़्फ़न की दादी मर गईं।

    इफ़्फ़न चला गया। टोपी अकेला रह गया। वह मुँह लटकाए हुए जिमनेज़ियम में चला गया। बूढ़ा चपरासी एक तरफ़ बैठा बीड़ी पी रहा था। वह एक कोने में बैठकर रोने लगा।

    शाम को वह इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा था। घर भरा हुआ था। रोज़ जितने लोग हुआ करते थे उससे ज़्यादा ही लोग थे। परंतु एक दादी के न होने से टोपी के लिए घर ख़ाली हो चुका था। जबकि उसे दादी का नाम तक नहीं मालूम था। उसने दादी के हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ की कोई चीज़ नहीं खाई थी। प्रेम इन बातों का पाबंद नहीं होता। टोपी और दादी में एक ऐसा ही संबंध हो चुका था। इफ़्फ़न के दादा जीवित होते तो वह भी इस संबंध को बिलकुल उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे। दोनों अलग-अलग अधूरे थे। एक ने दूसरे को पूरा कर दिया था। दोनों प्यासे थे। एक ने दूसरे की प्यास बुझा दी थी। दोनों अपने घरों में अजनबी और भरे घर में अकेले थे। दोनों ने एक-दूसरे का अकेलापन मिटा दिया था। एक बहत्तर बरस की थी और दूसरा आठ साल का।

    तोरी दादी की जगह हमरी दादी मर गई होतीं त ठीक भया होता। टोपी ने इफ़्फ़न को पुरसा27 दिया।

    इफ़्फ़न ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे इस बात का जवाब आता ही नहीं था। दोनों दोस्त चुपचाप रोने लगे। 

    तीन

    टोपी ने दस अक्तूबर सन् पैंतालीस को क़सम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसका बाप ऐसी नौकरी करता हो जिसमें बदली होती रहती है।

    दस अक्तूबर सन् पैंतालीस का यूँ तो कोई महत्त्व नहीं परंतु टोपी के आत्म-इतिहास में इस तारीख़ का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसी तारीख़ को इफ़्फ़न के पिता बदली पर मुरादाबाद चले गए। इफ़्फ़न की दादी के मरने के थोड़े ही दिनों बाद यह तबादला28 हुआ था, इसलिए टोपी और अकेला हो गया क्योंकि दूसरे कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिंह के तीन लड़कों में से कोई उसका दोस्त न बन सका। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू था तो बराबर का परंतु केवल अँग्रेज़ी बोलता था। और यह बात भी थी कि उन तीनों को इसका एहसास29 30 था कि वे कलेक्टर के बेटे हैं। किसी ने टोपी को मुँह नहीं लगाया।

    माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे। इसलिए वह बँगले में चला गया। बीलू, गुड्डू और डब्बू उस समय क्रिकेट खेल रहे थे। डब्बू ने हिट किया। गेंद सीधी टोपी के मुँह पर आई। उसने घबराकर हाथ उठाया। गेंद उसके हाथों में आ गई।

    'हाउज़ दैट!

    हेड माली अंपायर था। उसने उँगली उठा दी। वह बेचारा केवल यह समझ सका कि जब 'हाउज़ दैट' का शोर हो तो उसे उँगली उठा देनी चाहिए।

    हू आर यू? डब्बू ने सवाल किया।

    बलभद्दर नरायन टोपी ने जवाब दिया।

    हू इज़ योर फ़ादर? यह सवाल गुडू ने किया।

    भृगु नरायण।

    ऐं। बीलू ने अंपायर को आवाज़ दी, ई भिरगू नरायण कौन ऐ? एनी ऑफ़ अवर चपरासीज़?

    नाहीं साहब। अंपायर ने कहा, “सहर के मसहूर दागदर हैं।

    यू मीन डॉक्टर? डब्बू ने सवाल किया।

    यस सर! हेड माली को इतनी अँग्रेज़ी आ गई थी।

    “बट ही लुक्स सो क्लम्ज़ी। बीलू बोला।

    ए! टोपी अकड़ गया। तनी जबनिया सँभाल के बोलो। एक लप्पड़ में नाचे लगिहो।

    ओह यू... बीलू ने हाथ चला दिया। टोपी लुढ़क गया। फिर वह गालियाँ बकता हुआ उठा। परंतु हेड माली बीच में आ गया और डब्बू ने अपने अलसेशियन को शुशकार30 दिया।

    पेट में सात सुइयाँ भुकीं तो टोपी के होश ठिकाने आए। और फिर उसने कलेक्टर साहब के बँगले का रुख़ नहीं किया। परंतु प्रश्न यह खड़ा हो गया कि फिर आख़िर वह करे क्या? घर में ले-देकर बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दुख-दर्द समझती थी तो वह उसी के पल्लू में चला गया और सीता की छाया में जाने के बाद उसकी आत्मा भी छोटी हो गई। सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट लिया करते थे। टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े डाँटे लिया करते थे। इसलिए दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगे।

    टेक मत किया करो बाबू! एक रात जब मुन्नी बाबू और भैरव का दाज31 करने पर वह बहुत पिटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी में ले जाकर समझाना शुरू किया।

    बात यह हुई कि जाड़ों के दिन थे। मुन्नी बाबू के लिए कोट का नया कपड़ा आया। भैरव के लिए भी नया कोट बना। टोपी को मुन्नी बाबू का कोट मिला। कोट बिलकुल नया था। मुन्नी बाबू को पसंद नहीं आया था। फिर भी बना तो था उन्हीं के लिए। था तो उत्तरन। टोपी ने वह कोट उसी वक़्त दूसरी नौकरानी केतकी के बेटे को दे दिया। वह ख़ुश हो गया। नौकरानी के बच्चे को दे दी जाने वाली चीज़ वापस तो लो नहीं जा सकती थी, इसलिए तय हुआ कि टोपी जाड़ा खाए।

    हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे। भात खाएँगे। टोपी ने कहा।

    तुम जूते खाओगे। सुभद्रादेवी बोलीं।

    'आपको इहो ना मालूम की जूता खाया ना जात पहिना जात है।

    दादी से बदतमीज़ी करते हो। मुन्नी बाबू ने बिगड़कर कहा।

    त का हम इनकी पूजा करें।

    फिर क्या था! दादी ने आसमान सिर पर उठा लिया। रामदुलारी ने उसे पीटना शुरू किया...

    तूँ दसवाँ में पहुँच गइल बाड़। सीता ने कहा, तूँहें दादी से टर्राव32 के त ना न चाही। किनों ऊ तोहार दादी बाडिन।

    सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि वह दसवें में पहुँच गया है, परंतु यह बात इतनी आसान नहीं थी। दसवें में पहुँचने के लिए उसे बड़े पापड़ बेलने पड़े। दो साल तो वह फ़ेल ही हुआ। नवें में तो वह सन् उनचास ही में पहुँच गया था, परंतु दसवें में वह सन् बावन में पहुँच सका। 

    जब वह पहली बार फ़ेल हुआ तो मुन्नी बाबू इंटरमीडिएट में फ़र्स्ट आए और भैरव छठे में। सारे घर ने उसे ज़बान की नोक पर रख लिया। वह बहुत रोया। बात यह नहीं थी कि वह गाउदी33 था। वह काफ़ी तेज़ था परंतु उसे कोई पढ़ने ही नहीं देता था। वह जब पढ़ने बैठता मुन्नी बाबू को कोई काम निकल आता या रामदुलारी को कोई ऐसी चीज़ मँगवानी पड़ जाती जो नौकरों से नहीं मँगवाई जा सकती थी—यह सब कुछ न होता तो पता चलता कि भैरव ने उसकी कॉपियों के हवाई जहाज़ उड़ा डाले हैं।

    दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया।

    तीसरे साल वह थर्ड डिवीज़न में पास हो गया। यह डिवीज़न कलंक के टीके को तरह उसके माथे से चिपल गया।

    परंतु हमें उसकी मुश्किलों को भी ध्यान में रखना चाहिए। सन् उनचास में वह अपने साथियों के साथ था। वह फ़ेल हो गया। साथी आगे निकल गए। वह रह गया। सन् पचास में उसे उसी दर्जे में उन लड़कों के साथ बैठना पड़ा जो पिछले साल आठवें में थे।

    पीछे वालों के साथ एक ही दर्ज में बैठना कोई आसान काम नहीं है। उसके दोस्त दसवें में थे। वह उन्हीं से मिलता, उन्हीं के साथ खेलता। अपने साथ हो जाने वालों में से किसी के साथ उसकी दोस्ती न हो सकी। वह जब भी क्लास में बैठता उसे अपना बैठना अजीब लगता। उस पर सितम34 यह हुआ कि कमज़ोर लड़कों को मास्टर जी समझाते तो उसकी मिसाल देते—

    क्या मतलब है साम अवतार (या मुहम्मद अली?) बलभद्र की तरह इसी दर्जे में टिके रहना चाहते हो क्या? 

    यह सुनकर सारा दर्जा हँस पड़ता। हँसने वाले वे होते जो पिछले साल आठवें में थे।

    वह किसी-न-किसी तरह इस साल को झेल गया। परंतु जब सन् इक्यावन में भी उसे नवें दर्जे में ही बैठना पड़ा तो वह बिलकुल गीली मिट्टी का लौंदा35 हो गया क्योंकि अब तो दसवें में भी कोई उसका दोस्त नहीं रह गया था। आठवें वाले दसवें में थे। सातवें वाले उसके साथ! उनके बीच में वह अच्छा-ख़ासा बूढ़ा दिखाई देता था।

    वह अपने भरे-पूरे घर ही की तरह अपने स्कूल में भी अकेला हो गया था। मास्टरों ने उसका नोटिस लेना बिलकुल ही छोड़ दिया था। कोई सवाल किया जाता और जवाब देने के लिए वह भी हाथ उठाता तो कोई मास्टर उससे जवाब ना पूछता। परंतु जब उसका हाथ उठता ही रहा तो एक दिन अँग्रेज़ी-साहित्य के मास्टर साहब ने कहा—

    तीन बरस से यही किताब पढ़ रहे हो, तुम्हें तो सारे जवाब ज़बानी याद हो गए होंगे! इन लड़कों को अगले साल हाई स्कूल का इम्तहान देना है। तुमसे पारसाल पूछ लूँगा।

    टोपी इतना शर्माया कि उसके काले रंग पर लाली दौड़ गई। और जब तमाम बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े तो वह बिलकुल मर गया। जब वह पहली बार नवें में आया था तो वह भी इन्हीं बच्चों की तरह बिलकुल बच्चा था।

    फिर उसी दिन अबदुल वहीद ने रिसेज़ में वह तीर मारा कि टोपी बिलकुल बिलबिला उठा। 

    वहीद क्लास का सबसे तेज़ लड़का था। मॉनीटर भी था। और सबसे बड़ी बात यह है कि वह लाल तेलवाले डॉक्टर शरफ़ुद्दीन का बेटा था। 

    उसने कहा, “बलभद्दर! अबे तो हम लोगन36 में का घुसता है। एड्थ वालन से दोस्ती कर। हम लोग तो निकल जाएँगे, बाक़ी तुहें त उन्हीं सभन के साथ रहे को हुईहै।

    यह बात टोपी के दिल के आर-पार हो गई और उसने क़सम खाई कि टाइफ़ाइड हो या टाइफ़ाइड का बाप, उसे पास होना है।

    परंतु बीच में चुनाव आ गए।

    डॉक्टर भृगु नारायण नील तेलवाले खड़े हो गए। अब जिस घर में कोई चुनाव के लिए खड़ा हो गया हो उसमें कोई पढ़-लिख कैसे सकता है।

    वह तो जब डॉक्टर साहब की ज़मानत ज़ब्त हो गई तब घर में ज़रा सन्नाटा हुआ और टोपी ने देखा कि इम्तहान सिर पर खड़ा है।

    वह पढ़ाई में जुट गया। परंतु ऐसे वातावरण में क्या कोई पढ़ सकता था? इसलिए उसका पास ही हो जाना बहुत था।

    वाह! दादी बोलीं भगवान नज़रे-बंद37 से बचाए। रफ़्तार अच्छी है। तीसरे बरस तीसरे दर्जे में पास तो हो गए।...”

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचयन (भाग-2) (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : राही मासूम रज़ा
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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