ईज़ू नर्तकी

izu nartaki

यासुनारी कावाबाता

यासुनारी कावाबाता

ईज़ू नर्तकी

यासुनारी कावाबाता

और अधिकयासुनारी कावाबाता

    जैसे ही सड़क दर्रे की तरफ़ मोड़ लेने वाली थी कि पहाड़ी की तलहटी से बारिश का एक झपेटा देवदार के वन को सफ़ेद करता हुआ मेरी तरफ़ आया। मैं उन्नीस साल का था और ईजू प्रायद्वीप की यात्रा अकेले कर रहा था। मैंने एक विद्यार्थी के से ही कपड़े पहन रखे थे। गहरे रंग का किमोन, लकड़ी की ऊँची खड़ाऊँ, स्कूली टोपी और कंधे से लटकता किताबी बस्ता। तीन रातें मैंने प्रायद्वीप के मध्य भाग के निकटवर्ती गरम पानी के स्रोतों के पास बिताई थी। टोकियो से आए आज चौथा दिन था और मैं आमामी दर्रे की चढ़ाई तय करता दक्षिणी ईजू की तरफ़ बढ़ रहा था। शरत का दृश्य लुभावना था, एक पर एक उठती पर्वत शृंखलाएँ, वन-प्रांतर, गहरी घाटियाँ, किंतु यह दृश्य उतना नहीं, जितना कि मुझे एक अन्य प्रत्याशा अधिक प्रोत्साहित कर रही थी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें पड़ने लगीं। मैंने दौड़कर सामने की खड़ी चढ़ाई वाली घुमावदार सड़क पार की। ऊपर, दर्रे के मुहाने पर एक चाय की दुकान थी। भाग्य का चमत्कार नहीं तो और क्या कहूँ? नाटक मंडली वहाँ विश्राम कर रही थी।

    जिस गद्दी पर वह छोटी नर्तकी बैठी थी, उसे उठाकर, उसने विनम्रतापूर्वक मेरी ओर बढ़ा दिया। मूर्ख की तरह 'अच्छा-अच्छा' बुदबुदाकर मैं उस पर बैठ गया। भौंचक्का और साँस फूला होने की वजह से मुझे कहने को और कुछ नहीं सूझा। वह मेरे पास ही बैठ गई। हम दोनों के चेहरे आमने-सामने थे। मैं तंबाकू झाड़ने के लिए कुछ ढूँढ़ने-सा लगा तो उसने दूसरी स्त्री के सामने से ऐशट्रे उठाकर मुझे दे दी। फिर भी मैं कुछ बोल पाया।

    वह शायद सोलह साल की थी। उसकी केश-राशि, बालों के लपेटों से ऊँचा जूड़ा बनाकर पुराने ढंग से सँवारी हुई थी। केश सँवारने की इस शैली का नाम मैं नहीं जानता। उसका सौम्य लंबी तराश का चेहरा, ऊँचे उठे जूड़े के नीचे और भी छोटा हो आया था। पर फिर भी केश-सज्जा चेहरे पर पूरी तरह फबती थी। बल्कि कुछ ऐसी जैसे प्राचीन चित्रों में सुंदर नारियों के केशों को अतिरंजित सज्जा के साथ दिखाया जाता था।

    उसके साथ दो और युवतियाँ थीं और एक चौबीस-पच्चीस वर्ष का युवक। चालीस वर्ष की कठोर मुख-मुद्रावाली एक स्त्री, उस मंडली की मुखिया थी।

    मैंने छोटी नर्तकी को दो बार पहले भी देखा था, एक बार प्रायद्वीप के आधे रास्ते में, एक लंबे पुल पर, दो युवतियों के साथ। उसने एक बड़ा-सा ढोल उठाया हुआ था। मैंने बार-बार पीछे मुड़कर देखा था। और अंत में यात्रा के रसास्वादन का यह ठिकाना पाने पर अपने आपको बधाई दी थी।

    उसके बाद सराय में बिताई तीसरी रात में उसे नाचते देखा था। वह सराय के फाटक के पास ही नाच रही थी और मैं मुग्ध हो, सीढ़ियों पर बैठा रहा। और फिर आज रात पुल पर। मैंने अपने से कहा था कि कल दर्रे को पार कर युगानों जाते समय, पंद्रह मील के रास्ते में, वे कहीं कहीं ज़रूर मिलेंगी और इसी प्रत्याशा ने मुझे पहाड़ी सड़क की तरफ़ तेज़ क़दमों से चलाया था, किंतु चाय की दुकान पर मिल जाना इतना अकस्मात् हुआ कि मेरे पाँव धरती पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे।

    कुछ मिनट बाद, चाय की दुकानदारिन मुझे एक दूसरे कमरे में ले गई, जो बहुत कम इस्तेमाल में आता होगा। वह एक इतनी नीची घाटी की तरफ़ खुलता था कि उसकी तलहटी भी नज़र नहीं आती थी। मेरे दाँत कटकटा रहे थे और बाँहों के रोंगटे खड़े हो गए।

    “मुझे थोड़ी-सी सर्दी लग रही है। जिस समय वृद्धा मेरे लिए चाय बनाकर लाई, मेरे मुँह से बोल निकले।

    पर तुम तो बिलकुल तर हो। अंदर आओ, अपने को सुखाओ। कहती हुई वह मुझे अपने निजी कमरे की तरफ़ ले चली।

    उस कमरे का दरवाज़ा खोलते ही मुझे सुलगती आग का गरम थपेड़ा लगा। मैं अंदर जाकर आग के पास बैठ गया। मेरे किमोनू से भाप उठी। आग की तपिश इतनी ज़्यादा थी कि मेरा सिर दुखने लगा।

    इस बीच वृद्धा, नर्तकियों से बात करने बाहर चली गई।

    “अच्छा तो, हाँ! यह है वह छोटी-सी लड़की, जो पहले तुम्हारे साथ आई थी। अभी से इतनी बड़ी हो गई। अरे, यह तो पूरी औरत हो गई है! बहुत अच्छी बात है न? ऊपर से इतनी सुंदर भी, लड़कियाँ जल्दी बढ़ान लेती हैं। लेती हैं न?

    शायद एक घंटा बीता होगा कि मुझे ऐसा सुनाई दिया, जैसे वे जाने की तैयारी में हों। मेरा दिल ज़ोर से धड़का और छाती पर खिंचाव-सा महसूस हुआ। पर फिर भी इतनी हिम्मत हुई कि उठू और उनके साथ चल पड़ूँ। मैं आग के पास बैठा कुलबुलाता रहा। आख़िर औरतें ही तो हैं, मान लिया कि वे पैदल चलने की आदी हैं—पर अगर मैं एक-आध मील पीछे छूट भी जाऊँ, तो भी उन तक पहुँचने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी, मेरा मन उनके साथ-साथ नाचता हुआ चला गया। मानो उनके प्रस्थान ने मन को ऐसा करने की स्वछंदता प्रदान की हो।

    “वे आज रात कहाँ ठहरेंगे? स्त्री के वापिस आने पर मैंने पूछा।

    “इस तरह के लोग कहाँ ठहरेंगे, कौन बता सकता है? जहाँ उन्हें पैसा देने वाले मिलेंगे, वहीं रह जाएँगे, उन्हें क्या यह बात पहले से मालूम होती है कि वे कहाँ रुकेंगे? उसके स्पष्ट तिरस्कार भाव ने मुझमें आवेश भर दिया। मैंने स्वयं से कहा, 'अगर इसका कथन सत्य है तो वह नर्तकी आज की रात मेरे कमरे में बिताएगी!'

    बारिश, बूँदाबाँदी में बदल गई थी। दर्रे के ऊपर का आसमान साफ़ हो गया था। मेरे लिए वहाँ और अधिक देर रुकना मुश्किल हो गया। यद्यपि वृद्धा ने पूरी उम्मीद बँधाई कि दस मिनट में धूप खिल जाएगी, नौजवान! नौजवान! कहती वृद्ध मेरे पीछे सड़क तक दौड़ती आई, यह बहुत है, जो तुमने मुझे दिया है। मैं इतना नहीं ले सकती। मेरे पैसे वापिस करने को रोकने के लिए उसने मेरा झोला ज़ोर से पकड़कर खींचा, मैंने पैसे वापिस लेने से मना कर दिया। तब भी वह मेरे साथ क़दम घसीटती चली आई। उसने ज़िद की कि वह कम से कम सड़क तक मुझे छोड़ने आएगी ही। वह कहती रही, ये बहुत ज़्यादा हैं, मैंने कुछ भी तो नहीं किया इसके बदले। मगर मैं यह बात याद रखूँगी और अब तुम इस रास्ते से फिर गुज़रोगे, तो तुम्हारे लिए कुछ कुछ सहेज रखूँगी। तुम फिर आओगे न? आओगे ज़रूर? मैं नहीं भूलूँगी।

    एक सौ पचास येन के सिक्कों के लिए इतनी कृतज्ञ भावना मर्मस्पर्शी थी। पर मुझ पर छोटी नर्तकी तक पहुँचने का जुनून सवार था और उसकी बूढ़ी धीमी चाल मुझे देर करा रही थी।

    अंत में सुरंग के मुहाने तक पहुँचकर, मैंने उसे झटककर अलग किया। सड़क, जिसके एक तरफ़ सफ़ेद रंग की रोक-बाड़ किनारे-किनारे लगी हुई थी, सुरंग के मुँह से विद्युत रेखा-सी बलखाती नीचे को जा रही थी। झंकाड़ी आकृति के नीचे, पास ही वह नर्तकी और उसके साथी थे। आधा मील और चलकर मैं उनके पास पहुँच गया। उनके पास पहुँचते ही, एकदम अपनी चाल को धीमी कर, उनकी चाल से मिलाकर चलना अटपटा लगता, इसलिए मैं उन स्त्रियों के पास से बहुत शांत तटस्थ भाव का दिखावा करता गुज़र गया। मुझे आता देख, उनसे कोई दस गज़ आगे चलता व्यक्ति मेरी तरफ़ मुड़ा, पैदल चलने में काफ़ी माहिर हो तुम। क़िस्मत अच्छी है कि बारिश रुक गई!

    इस तरह अपना बचाव पा, मैं उसके साथ चल पड़ा। वह इधर-उधर के प्रश्न पूछने लगा और जब स्त्रियों ने हमें बातें करते देखा तो वे भी धीरे-धीरे चलतीं, हमारे पीछे हो लीं। पुरुष की कमर से बेंत का बना एक बहुत बड़ा बक्सा बँधा था। बड़ी वाली स्त्री की बाँहों में एक पिल्ला था और दोनों युवतियाँ गठरियाँ उठाए थीं। लड़की के पास उसका ढोल और ढोल का साँचा था, जाने कब बड़ी वाली स्त्री, बातचीत में शामिल हो गई।

    वह एक स्कूल में पढ़ने वाला लड़का है। उनमें से एक युवती ने छोटी नर्तकी से फुसफुसाकर कहा और मेरे मुड़कर देखते ही खिल-खिल हँसने लगी।

    हाँ, यही बात है, इतना तो मैं भी जानती हूँ, लड़की ने पलटकर कहा, “विद्यार्थी बहुधा द्वीप आते हैं।

    पुरुष ने बताया कि वे ईजू द्वीपसमूह के नगर ओशिमा के हैं, वे वसंत ऋतु में प्रायद्वीप पर घूमने-फिरने निकली थीं और अब सर्दी शुरू हो गई थी और जाड़ों के कपड़े उनके पास नहीं थे। दक्षिण में शिमोदा में आठ-दस दिन बिताकर वे नाव से अपने द्वीप को लौट जाएँगे।

    लड़की ने पास वाली युवती से बात की, तुम्हें मालूम है कि विद्यार्थी ओशिमा में तैराकी करने आते हैं?

    'गर्मी में, मेरी समझ से। मैंने पीछे देखते हुए कहा। वह अकबका गई।

    'जाड़ों में भी। उसने ऐसी हल्की नन्ही आवाज़ में जवाब दिया कि सुनाई भी मुश्किल से दे।

    जाड़ों में भी। उसने दूसरी स्त्री की तरफ़ देखा और कुछ अनिश्चित-सी हँसी।

    उसका चेहरा लाल हो गया, 'हाँ में ज़रा-सी गर्दन हिलाई और मुख-मुद्रा सौम्य हो गई। ‘‘बच्ची पगली है, बड़ी वाली स्त्री हँसी।

    युगानों से ऊपर छ:-सात मील तक सड़क का रास्ता नदी के साथ-साथ चलता है। दर्रे से उतरते ही पहाड़ों ने दक्षिणी रूप ले लिया था। मैं और वह व्यक्ति मित्र बन गए थे। और जैसे ही नीचे की तरफ़ युगानों की खपरैल की छतें नज़र आईं, मैंने कह डाला कि मैं उनके साथ शिमोदा भी जाऊँगा। वह बेहद ख़ुश नज़र आया।

    एक पुरानी-धुरानी सराय के सामने पहुँचकर बड़ी वाली स्त्री ने मेरी तरफ़ अपनी दृष्टि इस तरह ठहराई जैसे कि अब हम परस्पर विदा लेंगे।

    पर वह सज्जन तो हमारे साथ चलना चाहते है। पुरुष ने कहा।

    “ओह! क्या सचमुच? उसने बड़ी सरल हार्दिकता से कहा, कहते हैं यात्रा का साथी जीवन नाती। लगता है हम जैसे ग़रीब भी भ्रमण-यात्रा में जान डाल सकते हैं। ज़रूर, अंदर आओ! हम सब एक प्याला चाय पीएँ और आराम कर लें।

    हमने दूसरी मंज़िल पर जाकर अपना सामान रख दिया। तिनकों की बिछी चटाइयाँ और दरवाज़े गंदे, टूटे-फूटे थे। छोटी नर्तकी नीचे से चाय लाई। मेरे पास चाय लाते समय चाय का प्याला प्लेट में खड़खड़ाया। अपने बचाव की कोशिश में उसने तेज़ी से प्याला टिकाया, पर वह चाय बिखराने में ही सफल हुई। इस हद तक की गड़बड़ के लिए मैं ज़रा कम ही तैयार था।

    हाय रे मैं! बच्ची अब ख़तरनाक उम्र में पैर रख रही है। बड़ी स्त्री ने भौंहें चढ़ाकर, झाड़न को उसकी तरफ़ फेंकते हुए कहा।

    तमककर लड़की चाय समेटती रही। ऊपर कही गई बात ने मुझे चौंका दिया। चाय-घर में बूढ़ी स्त्री द्वारा कही गई बात से जगी उत्तेजना और तीव्रतर होती महसूस हुई।

    लगभग एक घंटे बाद, वह व्यक्ति मुझे दूसरी सराय में लेकर गया। तब तक मैं यही माने बैठा था कि मुझे उन्हीं के साथ ठहरना है।

    हम, सड़क से कोई सौ गज़ दूर, चट्टानों और पत्थर की कटी सीढ़ियों से नीचे उतरे। नदी के तल में गरम पानी का सार्वजनिक स्रोत था और उससे ज़रा आगे एक पुल, जो सराय के बग़ीचे की तरफ़ जाता था।

    हम दोनों इकट्ठे नहाने गए। उसने बताया कि वह तेईस वर्ष का है और उसकी पत्नी के दो बार गर्भपात हो चुके हैं। वह होशियार हो ऐसा नहीं था। मैंने धारणा बना ली कि वह भी मेरी तरह नर्तकी के समीप रहने के ख़ातिर साथ-साथ पैदल चलता रहा था।

    सूर्यास्त होते-होते ज़ोर की बारिश होने लगी। भूरे और सफ़ेद पहाड़ दो दिशाओं में चपटे हो फैल गए और नदी क्षण-क्षण में अधिक पीली और मटमैली होने लगी। मुझे विश्वास था कि ऐसी रात को नृत्य-मंडली बाहर नहीं निकलेगी, फिर भी मैं निश्चिंत बैठ सका। मैं दो-तीन बार स्नानघर के पास गया और फिर बेचैन होकर अपने कमरे में गया।

    इतने में दूर से बारिश में ढोलक की एक मंद थाप सुनाई दी। मैंने खिड़की को, सींखचे खींचकर ज़ोर का धक्का देकर ऐसे खोला कि जैसे उसे उखाड़ फेंकूँगा और खिड़की से बाहर झुककर झाँका। ढोलक की थाप पर अपना ध्यान जमाने की कोशिश की कि वह कहाँ से रही है और इस तरफ़ रही है या नहीं। इतने में सामीसेन की झंकार सुनाई पड़ी और बीच-बीच में एक स्त्री-कंठ किसी को पुकारता और ज़ोर की हँसी का ठहाका। ऐसा लगा कि नर्तकी को, उनकी सराय के पास एक रेस्तराँ में पार्टी में बुलाया गया था। मैं इतना अंदाज़ लगा पाया कि दो-तीन स्त्रियों और तीन-चार पुरुषों की आवाज़ें हैं। अपने आप को धीरज बँधाया कि वहाँ सब ख़त्म होने वाला है और वे सब जल्दी ही यहाँ आएँगे। पार्टी अब सीधे-सीधे हँसी-मज़ाक़ के समाँ से हुल्लड़बाज़ी पर उतरती मालूम हुई। एक तीखा स्त्री-स्वर अँधेरे को चीरता हुआ चाबुक की झन्नाहट-सा आया।

    मैंने खुले जंगले से बाहर को झाँका तथा और भी किनारे के पास सरककर तनकर बैठ गया। ढोलक की एक-एक थाप मुझे राहत की हिलोर की प्रतीति कराती। अरे! वह अब भी वहाँ है...वह वहाँ है और ढोलक बजा रही है और हर बार जैसे ही ढोलक की थाप रुकती कि चुप्पी को सहना कठिन हो जाता। ऐसी अनुभूति होती, जैसे बारिश मुझे अपनी बौछारों के नीचे उठाए ले जा रही है।

    थोड़ी-सी देर में पैरों के ऊबड़-खाबड़ पड़ने की आवाज़ आई। क्या वे लुका-छिपी खेल रहे हैं? क्या वे नाच रहे हैं? और फिर शांत निस्तब्धता में अँधेरे में आँखें फाड़कर देखता रहा। वह क्या कर रही होगी? शेष पूरी रात उसके साथ कौन होगा?

    मैंने सींखचे बंद किए और बिस्तर पर लेट गया। मेरी छाती में तनाव के कारण टीस उठ रही थी। मैं फिर स्नानघर गया और ज़ोर-ज़ोर से पानी को छपछपाया। बारिश रुक गई। चाँद निकल आया। शरत का आकाश बारिश से धुला हुआ, स्वच्छ स्फटिक-सा दूर चमक रहा था। मेरा मन, एक क्षण को नंगे पैर जाकर उसे ढूँढ़ने का हुआ। अब दो बज चुके थे।

    वह पुरुष अगले दिन सुबह मेरी सराय में आया। मैं तभी सोकर उठा था। मैंने उसे नहाने को निमंत्रित किया। स्नानघर के नीचे, बारिश से चढ़ी हुई नदी दक्षिणी ईजू के शारदीय सूर्य में गरमाई बह रही थी। पिछली रात की मनोव्यथित व्यग्रता अब बहुत वास्तविक नहीं रह गई थी। फिर भी मैं सुनना चाहता था कि क्या हुआ था।

    तुम्हारी रात की पार्टी में ख़ूब चहल-पहल थी?

    तुम तक हमारी आवाज़ पहुँच रही थी?

    हाँ, बिलकुल।

    “यहीं के मूल निवासी हैं। वे बहुत शोर मचाते हैं। पर असल में कुछ ज़्यादा ऐसा नहीं है उनमें।

    उसके लिए वह घटना जैसे प्रतिदिन की बिलकुल साधारण-सी बात थी। मैंने भी कुछ और नहीं कहा।

    देखो, वे सब नहाने गए हैं, नदी के पार! लानत है उन पर, अगर उन्होंने हमें नहीं देखा है। ज़रा उनका हँसना तो देखो।

    उसने एक सार्वजनिक स्नानघर की तरफ़ इशारा किया, जहाँ पानी से उठती भाप के बीच से छह-सात आकार दिखाई दे रहे थे।

    एक छोटा आकार धूप की रोशनी में भागकर आया और उसने चबूतरे की मुँडेर पर एक मिनट खड़े होकर, इस तरह बाँहें ऊपर उठाकर जैसे नदी में कूदने को तैयार हो, हमसे कुछ कहा। यह, वह छोटी नर्तकी थी। मैंने उसे देखा। उसकी किशोर टाँगें, शिल्प-निर्मित गोरी देह। और मुझे प्रतीति हुई जैसे ताज़े पानी का एक झोंका मेरे हृदय पर से प्रक्षालन करता हुआ, चला गया। मैं ख़ुशी से हँस पड़ा। वह एक बच्ची थी। केवल एक बच्ची, एक ऐसी बच्ची, जो अपने मित्र को देखकर ख़ुशी में नंगे बदन, धूप में भागकर पंजों के बल खड़ी हुई, मैं हँसता ही रहा। एक स्निग्ध प्रसन्न हँसी। जैसे मेरे सिर पर से एक धूल की तरह साफ़ हो गई हो। और मैं हँसता ही चला गया। अपनी घनी केश राशि के कारण, वह बड़ी दिखाई देती थी और इसलिए भी कि उसका पहनावा और शृंगार पंद्रह-सोलह साल की लड़की का-सा किया गया था। मैं वास्तव में बहुत बड़ी भूल कर बैठा था।

    जब दोनों स्त्रियों में से बड़ी वाली बग़ीचे के फूलों को देखने उधर आई, उससे पहले हम दोनों मेरे कमरे में वापस पहुँच चुके थे। छोटी नर्तकी पुल पार के आधे रास्ते तक उसके पीछे आई थी कि वृद्धा स्त्री, त्योरी चढ़ाए स्नानघर से बाहर निकली। नर्तकी ने अपने कंधे उचकाए और हँसती हुई वापस भाग गई, जैसे कह रही हो कि अगर और नज़दीक आएगी, तो उसे डाँट पड़ेगी। बड़ी वाली युवती पुल तक आई।

    उधर की तरफ़ आओ। उसने मुझसे कहा।

    उधर की तरफ़ आओ। छोटी वाली युवती ने भी उसकी बात दोहराई। और वे दोनों अपनी सराय की तरफ़ मुड़ गईं।

    पुरुष, संध्या होने तक मेरी सराय में ठहरा रहा।

    उस रात जब मैं एक यात्री विक्रेता के साथ शतरंज खेल रहा था, बग़ीचे में ढोलक सुनाई दी। मैं बरामदे की तरफ़ जाने को उठा तो विक्रेता ने पूछा, “एक और हो जाए? एक बाज़ी और खेलें? मैंने टालने की हँसी हँसी। कुछ देर बाद बात को आई-गई समझ वह कमरे में चला गया।

    इसके तुरंत बाद ही दोनों युवतियाँ और पुरुष अंदर आए, मैंने पूछा, “क्या आज रात को तुम्हें और कहीं जाना है?

    चाहने पर भी आज ग्राहक नहीं मिलेंगे।

    वे आधी रात बीतने के बाद तक वहीं बैठे चैकर्ज खेलते रहे। जब वे चले गए तो मेरा दिमाग़ साफ़ हुआ और जान में जान आई। मैं जानता था कि मुझे नींद नहीं आएगी। मैंने हॉल से उस विक्रेता को बुलाया।

    वाह ख़ूब! वह फ़ौरन बाज़ी लेने गया।

    “आज सारी रात की बाज़ी है। हम रात-भर खेलेंगे। मैं अपराजित अनुभव कर रहा था। हमें अगले दिन सुबह आठ बजे युगानों से चलना था। मैंने अपनी स्कूली टोपी किताबों के झोले में रखी। एक शिकारी टोपी पहनी, जो सार्वजनिक स्नानघर के पास ही दुकान से ख़रीदी थी और सराय तक राजमार्ग से पहुँचा। मैं निश्चित भाव से ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता गया। दूसरी मंज़िल की झिलमिली खुली थीं। मगर मैं हॉल में पहुँचते ही रुक गया। वे सब अभी बिस्तर में ही थे।

    नाचनेवाली लड़की, सबसे छोटी वाली स्त्री की बग़ल में, बिलकुल मेरे पाँवों के पास लेटी थी। वह एकदम लाल हो गई और हड़बड़ाकर एकदम से अपने हाथों से चेहरे को दबा लिया। पहली शाम के कुछ शृंगार-चिह्न अभी तक चेहरे पर शेष थे। एकदम मनमोहक छोटा-सा आकार, मेरी निगाह जैसे ही नीचे को उस पर पड़ी कि आनंद की एक चमकीली हिलोर प्राणों में दौड़ गई। वह एकाएक, मुँह ढके-ढके पलटा लेकर, बिस्तर से बाहर हो गई और हॉल में मेरे सामने प्रणाम करने झुक गई। मैं गूँगा बना भौंचक्का खड़ा रह गया। यही सोचता कि क्या करूँ!

    वह आदमी और बड़ी युवती एक साथ सो रहे थे। वह परस्पर विवाहित हैं, यह बात पहले से ध्यान में नहीं आई थी।

    बिस्तर में से उठकर बैठती हुई बड़ी युवती बोली, “आपको हमें क्षमा करना होगा, हम आज ही चल देना चाहते हैं, लेकिन सुना है कि आज रात को यहाँ एक पार्टी है। हमने सोचा है कि देखें क्या कर सकते हैं उसमें! यदि आपको जाना ज़रूरी है तो, तब तो फिर हम शायद शिमोदा में ही मिल पाएँ। हम हमेशा कोशिया सराय में ठहरते हैं। उसे ढूँढ़ने में मुश्किल नहीं होगी। मुझे लगा, जैसे मैं निर्वासित कर दिया गया।

    या ऐसा करो कि कल तक ठहर जाओ, पुरुष ने सुझाया, यह कह रही है कि हमें आज रुकना है। मगर रास्ता काटने में बातचीत करने वाला साथी हो तो अच्छा रहता है। चलो, कल सब साथ चलें।

    बहुत बढ़िया ख़्याल है! स्त्री ने हाँ में हाँ मिलाई, “कल तो चाहे कुछ भी हो, हम ज़रूर चल पड़ेंगे। परसों, बच्चे को गुज़रे उन्चास दिन होंगे। बराबर यह बात मन में रही है कि शिमोदा में अनुष्ठान करना है, जिससे यह ज़ाहिर हो कि कम से कम हमें याद है और हम वहाँ समय पर पहुँचने की जल्दी में रहे हैं। आपकी सचमुच बड़ी कृपा होगी—मेरे मन में यह बात बिना आए नहीं रहती कि इस सबके पीछे ज़रूर कुछ कारण है कि हम परस्पर इस तरह मित्र बन गए।

    मैं एक दिन और रुकने को तैयार हो गया और अपनी सराय वापिस चला गया। उनके तैयार होकर आने के इंतज़ार में मैं गंदे छोटे-से दफ़्तर में बैठकर प्रबंधक से बात करता रहा। थोड़ी देर में वह पुरुष आया और हम दोनों शहर से थोड़ी दूर एक रमणीय पुल तक गए। वह रेलिंग के सहारे टिककर अपने बारे में बताने लगा। वह काफ़ी अरसे तक टोकियो की एक नाटक-मंडली में रहा था। कभी-कभी वह अब भी ओशिमा के नाटकों में अभिनय करता था और वैसे सड़कों पर होती पार्टियों में अगर बुलाया जाता था, तो अभिनेताओं की नक़ल उतारकर दिखा सकता था।

    उसने बताया कि उसकी गठरी में जो एक अजीब-सा उभार था, वह मंच-तलवार है और बेंत के संदूक में पोशाकें घर-गृहस्थी का सामान है। मैंने ग़लती की और ख़ुद को बरबाद कर लिया। मेरे भाई ने कोकू में घर-परिवार सँभाल लिया और सचमुच वहाँ के लिए बेकार हो गया।

    'मेरा ख़्याल था कि तुम नागाओका की सराय के हो।

    नहीं, ऐसा नहीं है। दोनों स्त्रियों में जो बड़ी है, वह मेरी पत्नी है। वह तुमसे एक साल छोटी है। वह अपना दूसरा बच्चा, इन्हीं गर्मियों में पैदल यात्रा करते समय, खो बैठी। वह सिर्फ़ एक सप्ताह जीवित रहा। अभी यह पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हुई है। बूढ़ी स्त्री, उसकी माँ और लड़की मेरी बहिन है।

    तुमने बताया था कि तुम्हारी एक तेरह साल की बहिन है।

    हाँ, यह वही है। मैंने बहुत जतन किया कि उसे इस धंधे में पड़ने दूँ। मगर कई कारणों से वह बात सध सकी।

    उसने बताया कि उसका नाम ईंकिची, उसकी पत्नी का चियोको और नर्तकी-बहन का नाम काओरू है। दूसरी लड़की यूरिको सहायक की तरह है। वह सोलह साल की है और उन सबमें वही एक असल में ओशिमा की है। ईंकिची बहुत भावुक हो उठा। वह नदी की तरफ़ टकटकी लगाकर देखता रहा, और एक बार मुझे लगा कि रोनेवाला है।

    वापस आते हुए, सड़क से कुछ दूर, हमने छोटी नर्तकी को एक कुत्ते को दुलारते देखा। उसने अपना बनाव-शृंगार धो डाला था।

    “सराय आओ न?” मैंने उधर से गुज़रते हुए कहा।

    “मैं अपने आप नहीं सकती।

    “अपने भाई को ले आना।

    “धन्यवाद! मैं अभी आती हूँ।

    थोड़ी देर बाद ईंकिची खड़ा हुआ।

    और सब कहाँ हैं?

    वे माँ से छुट्टी पा सके।

    मगर उनमें से तीन, पुल को खट-खट पार करती हुई आईं और ज़ीने के ऊपर चढ़कर जहाँ हम चैकर्ज खेल रहे थे, पहुँचीं।

    विस्तार से झुक-झुककर अभिवादन कर वे झिझकती-सी हॉल में खड़ी रहीं। चियोको सबसे पहले कमरे में आई। उसने प्रफुल्लता से औरों को बुलाया, जाओ, आओ। इसके कमरे में औपचारिकता की ज़रूरत नहीं।

    उसके लगभग एक घंटे बाद, वे सब नीचे नहाने गईं। उन्होंने मुझे भी साथ नहाने के लिए ज़ोर दिया। पर तीन युवा स्त्रियों के साथ नहाने का विचार कुछ ज़्यादा ही उत्तेजक था। मैंने कह दिया कि मैं कुछ देर में आऊँगा। एक मिनट बाद वह छोटी नर्तकी ऊपर आई।

    “चियोको कहती है, अगर तुम अभी नीचे आकर स्नान करो तो वह तुम्हारी पीठ धो देगी।

    पर हुआ यह कि वह मेरे पास रुक गई और हम दोनों चैकर्ज खेलते रहे। खेलने में वह बहुत तेज़ निकली। मैं खेलने में बहुतों से होशियार हूँ और ईंकिची औरों के साथ खेलने में मुझे ज़रा भी दिक़्क़त नहीं हुई, पर ये तो मुझे हरा देने की हद तक पहुँच गई। इससे बड़ी राहत महसूस हुई कि जानबूझकर घटिया खेल नहीं खेलना पड़ा। शुरू में एकदम तनी कायदे की मूर्ति बनी, पासा फेंकने को हाथ बढ़ाती हुई, वह जल्दी ही अपने को भूल गई और बोर्ड के ऊपर पूरे ग़ौर से झुक गई। उसकी इतनी घनी केश-राशि जो नक़ली-सी लगती थी, मेरी छाती को छू रही थी। अचानक उसका चेहरा लाल हो गया।

    मुझे क्षमा करें, मुझे इस बात पर डाँट पड़ेगी, कहती हुई वह आधा खेल छोड़कर भाग गई। बड़ी स्त्री नदी के पार सार्वजनिक स्नानगृह के पास खड़ी थी। चियोको और यूरिको नीचे वाले स्नानघर से लगभग उसी समय खटखट करती बाहर आईं और विदा का नमस्कार कहने की चिंता कर, पुल पार, वापस हो लीं।

    ईंकिची ने फिर दिन-भर मेरी सराय में बिताया, यद्यपि प्रबंधक की पत्नी, जो सबकी चिंता करने वाले स्वभाव की-सी थी, मुझे इस बात से सावधान कर चुकी थी कि ऐसे लोगों को खाना खिलाना, अच्छे खाने को बरबाद करना है।

    जब मैं संध्या को राजपथ से होता हुआ उनकी सराय पहुँचा तो नर्तकी सैमीसेन का अभ्यास कर रही थी। मुझे देखकर उसने साज नीचे रख दिया, पर बड़ी स्त्री के कहने पर फिर उठा लिया।

    मालूम हुआ कि गली के पार वाले रेस्तराँ की दूसरी मंज़िल पर हो रही पार्टी में ईंकिची कुछ पाठ करके सुना रहा था।

    “दुनिया की क्या अजूबा चीज़ है वह?

    “वह? वह एक नोह नाटक पढ़कर सुना रहा है।

    कुछ विचित्र-सी बात कर रहा है, तुम अनुमान नहीं लगा सकते कि अगले क्षण वह क्या करेगा! उसके पास पूरा भानुमती का पिटारा है।

    लड़की ने सकुचाते हुए मुझसे कहानी-संग्रह में से एक कहानी सुनाने को कहा।

    मैंने ख़ुशी से एक आशा मन में सँजोए किताब को उठा लिया। जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो उसका सिर लगभग मेरे कंधे पर था और उसने बड़े ध्यान और ग़ौर की भावमुद्रा से ऊपर मेरी तरफ़, चमकदार बेझपकी आँखों से देखा। उसके नाक-नक़्शे में सबसे सुंदर वस्तु थी—उसकी बड़ी और कजरारी आँखें। भारी पलकों की रेखाएँ इतनी मनोहर कि कहा जाए और उसकी हँसी! एक फूल की हँसी, जब उसके बारे में सोचता हूँ तो उसकी हँसी को फूल की-सी हँसी कहना, ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं लगती।

    पढ़कर सुनाते कुछ ही मिनट बीते होंगे कि गली के पार वाले रेस्तराँ से एक सहायिका उसे बुलाने आई।

    “मैं अभी वापिस आई, अपने कपड़ों को सँवारती वह बोली, “जाना नहीं। मैं बाक़ी भी सुनना चाहती हूँ।

    हॉल में घुटनों के बल बैठकर, उसने बाकायदा जाने की आज्ञा ली।

    हम लड़की को ऐसे देख पा रहे थे, जैसे बग़लवाले कमरे में हो, हमारी तरफ़ पीठकर उसने ढोलक के सामने घुटने टिकाए। मंद गति लय ने मुझे एक निर्मल उच्छ्वास से भर दिया।

    स्त्री ने कहा, “पार्टी में तभी जान आती है, जब ढोलक शुरू होती है। चियोको और यूरिको कुछ देर बाद रेस्तराँ में गईं और लगभग एक घंटे में चारों वापस गईं।

    उन्होंने बस इतना ही दिया। नर्तकी ने लापरवाही से पचास येन अपनी भिंची मुट्ठी से बड़ी स्त्री के हाथ में डाल दिए। मैंने बाक़ी कहानी पढ़कर सुनाई, और उस बच्चे की बातें करते रहे, जो गुज़र गया था। मैं उनके साथ जिज्ञासावश रुका हुआ था और ही उनके प्रति किसी प्रकार की कृपालु भावना की प्रतीति थी। असल में मेरे चित्त से यह बात उतर चुकी थी कि वे निम्न वर्ग के हैं—पथ-यात्री रंगकर्मी। उन्हें इसका एहसास था और यह बात उनके मर्म को स्पर्श करती थी। उन्होंने यह पूर्ण निश्चय कर लिया था कि मैं ओशिमा में ज़रूर मिलूँ।

    हम इन्हें बूढ़े के घर में ठहराएँगे।

    उन्होंने प्रत्येक बात सोच-विचार कर तय कर ली। “वह काफ़ी बड़ा रहेगा। और अगर हम बूढ़े को कहीं और रख देंगे, तब तो ये जितने दिन चाहें, वहीं रहकर शांति से पढ़ाई-लिखाई कर सकते हैं।

    “हमारे दो छोटे-छोटे घर हैं, वे हम तुम्हें दे सकते हैं। यह भी निश्चय हो गया कि नए वर्ष के उपलक्ष्य में ओशिमा में जो नाटक वे करेंगे, उसमें मैं उन्हें सहयोग दूँगा।

    मैंने पाया कि पथ-यात्री रंगकर्मियों का जीवन कष्टसाध्य नहीं था, जैसी मैंने कल्पना की थी। बल्कि सहज-सुगम-सुविधाजनक विश्रांति का, पर्वतों और घाटियों की सुगंध साथ लिए। तिस पर यह मंडली तो घनिष्ठ पारिवारिक प्रेम से जुड़ी थी। केवल वेतन पर नियुक्त लड़की यूरिको, लजीली आयु में पैर रख चुकी थी, इसीलिए मेरी उपस्थिति में संकोच अनुभव करती थी।

    आधी रात बीत चुकी थी, जब मैंने उनकी सराय छोड़ी। लड़कियाँ मुझे दरवाज़े तक विदा करने आईं और छोटी नर्तकी ने मेरी सैंडल पलटकर ऐसे रुख रखीं कि मैं बिना मुड़े, उनमें पैर रख सकूँ। वह बाहर को झाँकी और स्वच्छ आकाश की तरफ़ ऊपर ताका।

    “आह! चाँद निकल आया है और कल हम शिमोदा में होंगे। मुझे शिमोदा बहुत अच्छा लगता है। हम बच्चे के लिए प्रार्थना करेंगे और माँ ने वायदा किया था कि वह मुझे कंघी देंगी। और उसके बाद कितनी तरह की चीज़ें हैं जो हम कर सकेंगे। क्या आप मुझे मूवी ले चलेंगे?

    लगता है कि कुछ ऐसा है वहाँ, जिसने शिमोदा की सड़क की पटरियों को, ईजू और आमागी के गरम जलस्रोतों के इलाक़े में घूमने वाले ख़ानाबदोश रंगकर्मियों के लिए उनका घरनुमा ठिकाना बना दिया है।

    सामान उसी तरह अलग-अलग बाँट दिया गया, जैसा आमागी दर्रे को पार करते दिन किया था। पिल्ला एक अभ्यस्त यात्री की तरह शांतचित्त अपने अगले पंजे बड़ी स्त्री की बाँहों पर रखे लेटा था। आमागी से हम फिर पर्वतीय प्रांत में पहुँचे। हमने समुद्र के ऊपर चमकते प्रात: काल के सूर्य को देखा, जो हमारी पर्वतीय घाटी को उष्णता प्रदान कर रहा था। नदी के मुहाने पर एक समुद्रीतट श्वेत और खुलता हुआ दिखाई दिया।

    यह है होशिमा, कितना विशाल! तुम सचमुच आओगे न? ज़रूर आओगे न? नर्तकी ने कहा।

    किसी कारण से—क्या शरत के आकाश की स्वच्छता थी, जिसके कारण ऐसा लगा? वह समुद्र जिसके ऊपर सूर्य उग रहा था, झरने की फुहारों जैसे कुहरे से आच्छादित था। शिमोदा कोई दस मील पर था। कुछ देर के लिए पहाड़ों ने समुद्र को ओट में कर दिया। चियोको ने मंद अलसाए स्वर में एक गाना गुनगुनाया।

    सड़क दो शाखाओं में बँटी हुई थी। एक कुछ चढ़ाई का रास्ता था, जो दूसरे से एक मील छोटा था। मैं छोटा खड़ी चढ़ाई वाला रास्ता पकडूँ या लंबा सीधा रास्ता? मैंने छोटा रास्ता पकड़ा।

    सड़क, एक जंगल में से घूमकर जाती थी। और एक जगह चढ़ाई इतनी सीधी आई कि उस पर चढ़ना ऐसा था, जैसे हाथ पर हाथ रखकर दीवार पर चढ़ना। इस पर भरे हुए पत्तों ने एक फिसलनी तह बिछा दी थी। जब साँस लेने में ज़्यादा तकलीफ़ हुई तो एक अविचारी दुःसाहस उभर आया। और मैं तेज़ से तेज़ चाल से अपने को धकेलता, हर क़दम पर घुटने को मुट्ठी से दबाता, आगे बढ़ा। और सब इतने पीछे छूट गए कि मुझे पेड़ों से छनकर आती, सिर्फ़ उनकी आवाज़ सुनाई दे रही थी, लेकिन वह नर्तकी अपने घाघरे को ऊँचा खोसे, छोटे नन्हें क़दमों से मेरे पीछे रही थी। वह मुझसे कुछ गज़ पीछे ही रहती, वह कोशिश करती कि मेरे और नज़दीक हो जाए और ये कि बहुत पीछे हट जाए। कभी-कभी मैं उससे बात करता और वह रुककर अपनी छोटी-सी चौंकी-चौंकी हँसी से जवाब देती। और जब वह बोलती तो मैं भी रुक जाता कि शायद वह चलती हुई मेरे पास तक आकर मेरे साथ हो ले, पर जब तक मैं आगे चल पड़ता, वह रुकी रहती और वही दो गज़ का फ़ासला रखकर पीछे-पीछे चलती।

    सड़क और भी खड़ी चढ़ाई वाली और चक्करदार हो गई। मैं अपने को तेज़ी से आगे ले जा रहा था और वह भी पीछे-पीछे आती रही, वही दो गज़ की दूरी रखे, पूरे मनोयोग और दृढ़ संकल्प के साथ। पहाड़ सन्नाटे में थे। अब औरों की आवाज़ मुझे सुनाई नहीं दे रही थी।

    “आप टोकियो में कहाँ रहते हैं?

    एक शयनशाला (डार्मिटरी) में, असल में मैं टोकियो में नहीं रहता।

    मैं टोकियो गई हूँ। मैं एक बार नृत्य करने गई थी। जिन दिनों चेरी फूल रही थी, पर मैं बहुत छोटी थी उस समय, मुझे वहाँ का कुछ याद नहीं।

    आपके माता-पिता जीवित हैं? वह फिर बात शुरू करती है, आप कभी कोफू गए हैं?

    वह बातें करती, या तो शिमोदा की मूवीज के बारे में, या मरे हुए बच्चे की।

    हम चोटी पर पहुँच गए। अपनी ढोलक को एक बेंच पर, झड़े पत्तों के बीच टिकाकर, उसने अपना मुँह रुमाल से पोंछा। उसके बाद उसका ध्यान अपने पैरों की तरफ़ गया, पर उसने अपना इरादा बदल लिया। और उसकी जगह मेरे किमोनू के घाघरे को झाड़ा, मैं अचकचाकर पीछे को हटा और वह घुटनों के बल गिर पड़ी। मेरे सामने झुके-झुके जब उसने आगे और पीछे से मुझे अच्छी तरह झाड़ दिया, तो खड़ी होकर अपने घाघरे को नीचे किया, घाघरा अभी तक जैसे चलने के समय ऊपर को खोस रखा था, वैसा ही था। मैं हाँफ रहा था, उसने मुझे नीचे बैठ जाने को कहा।

    बेंच के पास से नन्हें पक्षियों का एक झुंड उड़ा। हवा इतनी गर्म थी कि पक्षीदल बैठा तो सूखी पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। मैंने अपनी उँगली से एक-दो बार ढोलक को थपथपाया तो पक्षी चौंककर उड़ गए।

    मुझे प्यास लग रही है।

    देखूँ, अगर पास में कहीं पानी मिल जाए?

    पर थोड़ी देर बाद वह पीले पड़े पत्तों के बीच से ख़ाली हाथ लौट आई।

    “आशिमा में क्या करती रहती हो?

    उसने दो-तीन लड़कियों के नाम लिए, जिनका मेरे लिए कुछ अर्थ था और पुरानी यादों की बेसिर-पैर की बातें सुनाती रही। वह आशिमा के नहीं, बल्कि कोफू के बारे में बताती रही, जिससे ज़ाहिर था कि उसने ग्रैमर स्कूल में पहली दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की थी। अपनी सहेलियों की स्मृतियाँ जैसे-जैसे उसके मन में तिरती आतीं, वह भोले-भोलेपन से उनके बारे में बोलती चली जाती।

    ईंकिची और दोनों नवयुवतियाँ दस मिनट बाद वहाँ पहुँचीं और उनसे बड़ी वाली महिला और भी दस मिनट बाद। नीचे उतरते समय मैं जानबूझकर ईंकिची से बातें करता, पीछे रहा। मगर लगभग दो सौ गज़ आगे से, वह छोटी नर्तकी दौड़ती हुई पीछे आई।

    नीचे एक पानी का झरना है। वे तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं कि तुम पहले पानी पियो।”

    मैं उसके साथ नीचे की तरफ़ दौड़ा। छायादार चट्टानों में से स्वच्छ निर्मल जल छलछला रहा था। स्त्रियाँ उसके चारों ओर खड़ी थीं।

    “पानी पियो। हमें लगा कि शायद हमारे झकोल देने के बाद तुम पानी पियो।

    मैंने हाथों की ओक बनाकर पानी पिया। स्त्रियाँ थोड़ी देर बाद वहाँ से चलीं। उन्होंने अपने स्माल गीले किए और चेहरे पर आया पसीना धोया।

    ढलान से उतरकर हम शिमोदा राजमार्ग पर निकल आए। राजमार्ग से नीचे, जहाँ-तहाँ, कोयला बनाने वालों की भट्ठियों से धुएँ की लपटें ऊपर उठ रही थीं। हम लोग एक लकड़ियों के ढेर पर सुस्ताने बैठ गए। नर्तकी, पिल्ले के झबरे बालों को गुलाबी कंघी से साफ़ करने लगी।

    बड़ी स्त्री ने टोका, “तुम दाँतें तोड़ दोगी।'

    सब ठीक है। शिमोदा में मुझे नई मिलने वाली है। यह कंघी वह अपने जूड़े में लगाए रखती थी। मैंने सोचा हुआ था कि युगानो पहुँचने के बाद यह कंघी उससे माँग लूँगा। कुत्ते पर कंघी को फेरते देख मुझे कुछ परेशानी हुई।

    उसमें क्या है? बस एक सोने का दाँत ही तो उसे लगवाना पड़ेगा। फिर उस तरफ़ ध्यान ही नहीं जाएगा, एकाएक नर्तकी की आवाज़ सुनाई दी।

    मैंने मुड़कर पीछे देखा।

    ज़ाहिर था कि वे मेरे टेढ़े दाँत के बारे में बात कर रही थीं। चियोको ने बात उठाई होगी और नन्हीं नर्तकी ने सोने का दाँत लगाने का सुझाव दिया होगा। मुझे यह बुरा लगा कि वे मेरे बारे में बात कर रही हैं और कोई विशेष चाहना हुई कि अपने बारे में उनकी बातें सुनूँ।

    वह भला है। है बहुत भला? लड़की की आवाज़ फिर आई।

    वह बहुत ही अच्छा लगता है।

    वह सचमुच ही बहुत अच्छा लगता है।

    मुझे तो कोई ऐसा ही मिले, यह जी चाहता है।

    उसके बोलने का ढंग मुक्त था, तरुण और मन:पूत, ऐसा कि जो आया, सो कह दिया जिससे मेरे लिए अपने को वास्तव में स्पष्ट अच्छा मानना संभव हुआ। मैंने नवीन भाव से भर ऊपर पहाड़ों को देखा। इतने चमकीले कि मेरी आँखों में कुछ चुभन-सी हुई। मैं उन्नीस वर्ष की उम्र में ही अपने को मानव विद्वेषी, एकाकी, कहीं खपने वाला व्यक्ति मानने लगा था। और इस धारणा की निराशा ने ही मुझे ईजू की तरफ़ धकेला था। और अब मैंने अपने को प्रतिदिन की भाषा में अच्छा इंसान कहाने के योग्य अनुभव किया। इसका अर्थ मेरे लिए क्या था, यह अभिव्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। पहाड़ और भी चमकीले होते गए। हम शिमोदा और समुद्र के समीप पहुँच गए थे।

    जब-तब गाँव की चौहद्दी के बाहर एक सूचना लिखी दिखाई देती—'ख़ानाबदोश रंगकर्मी बाहर रहें!”

    शिमोदा के उत्तरी सिरे पर कोशिया एक सस्ती सराय थी। मैं औरों के पीछे दूसरी मंज़िल पर एक अटारीनुमा कमरे में पहुँचा। उस पर कोई भीतरी छत नहीं पड़ी थी। बाहरी छत इतनी ढलवाँ थी कि जिस खिड़की से बाहर की तरफ़ झाँका जा सकता था, उसके पास सीधे होकर आराम से बैठना असंभव था।

    बड़ी वाली स्त्री ने लड़की के विषय में परेशानी-सी जताते हुए पूछा, तेरा कंधा तो नहीं अकड़ गया? हाथों में दर्द तो नहीं है?

    लड़की ने ढोलक बजाने की अत्यंत सुघड़, सुडौल मुद्राओं को प्रदर्शित किया।

    बिलकुल नहीं दुख रहे। मुझे कुछ तकलीफ़ नहीं होगी। ज़रा भी नहीं थक रहे।

    बड़ी अच्छी बात है। मुझे फ़िकर-सा हो रहा था।

    मैंने ढोलक को उठाया, भारी है यह।

    हाँ, जितना तुमने समझा था उससे अधिक भारी है। कहती हुई वह हँसी।

    तुम्हारी जो पोटली है, उससे अधिक बोझ है इसका। उन्होंने अन्य ठहरे हुए अतिथियों से परस्पर अभिवादन किया। फेरी लगाने वालों और यात्री-रंगकर्मियों से होटल भरा था। लगता था कि शिमोदा स्थानांतरण करने वालों का बसेरा है। नर्तकी ने बाहर-अंदर लपकते-झपकते बच्चों के हाथों में पैसे दिए। जैसे ही मैं जाने को तैयार हुआ, वह मेरी ख़ातिर सैंडिलों को दरवाज़े में ठीक ढंग से रखने दौड़ी।

    मुझे मूवी ले जाओगे न! उसने जैसे अपने से ही फुसफुसाकर कहा। थोड़ी दूर तक कोशिया सराय के एक बदनाम-से दिखने वाले आदमी के बताए रास्ते चलकर मैं और ईंकिची एक सराय में गए, जो वहाँ के भूतपूर्व मेयर की कही जाती थी। हम दोनों ने इकट्ठे स्नान किया और दुपहर का खाना खाया, जिसमें समुद्र से आई ताज़ी मछली थी।

    जब वह जाने लगा, मैंने उसे कुछ पैसे पकड़ाए, कुल के अनुष्ठान के लिए कुछ फूल ख़रीद लेना।'' मैंने उसे बता दिया था कि मुझे कल सुबह की नाव से टोकियो जाना है। असल में मेरे पैसे ख़त्म हो गए थे, पर उनको यही जताया कि मुझे स्कूल जाना है।

    ठीक है, पर इन सर्दियों में तो तुमसे हर हालत में मिलना होगा ही, बड़ी वाली स्त्री ने कहा, हम सब तुम्हें जहाज़ पर लेने आएँगे। तुम ज़रूर ख़बर करना कि कब रहे हो। हमारे पास ही ठहरोगे। यह तो हम सोच ही नहीं सकते कि हम तुम्हें होटल में जाने देंगे। याद रखना कि हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे और सब तुम्हें नाव पर लेने जाएँगे।

    जब सब कमरे से चले गए तो मैंने चियोको और यूरिको से अपने साथ मूवी चलने को कहा। चियोको पीली थकी-माँदी पेट को हाथों से दबाए लेटी हुई थी, मैं नहीं जा सकूँगी। धन्यवाद, असल में मैं अभी इतना चलने लायक़ नहीं हुई हूँ।

    यूरिको स्तंभित-सी ज़मीन की ओर ताक़ती रही। छोटी नर्तकी नीचे, सराय के बच्चों के साथ खेल रही थी। जब उसने मुझे नीचे उतरते देखा तो वह दौड़ी और बड़ी वाली स्त्री से मूवी जाने की आज्ञा लेने की साँठ-गाँठ बैठाने लगी। किंतु वह वापिस आई तो दूर-दूर और हतोत्साहित थी।

    मुझे तो इसमें कुछ ख़राबी नज़र नहीं आती। वह क्यों नहीं उसके साथ अकेली जा सकती? ईंकिची ने तर्क किया। मुझे इस बात को समझने में कठिनाई हो रही थी, पर स्त्री झुकी नहीं। जब मैं सराय से बाहर निकला तो नर्तकी बाहर हॉल में बैठी कुत्ते को थपथपा रही थी। यह नई औपचारिकता इतनी भाव-शून्य रूखी-सूखी थी कि मैं अपने को उससे बात करने को उकसा नहीं पाया और लगा, जैसे उसमें भी आँख उठाने की शक्ति नहीं थी।

    मैं अकेला मूवी देखने गया। एक स्त्री, छोटी कौंध बत्ती की रोशनी में संवाद पढ़ रही थी। मैं तत्काल ही वहाँ से चल पड़ा और वापिस अपनी सराय गया। बहुत देर तक मैं खिड़की की चौखट पर कोहनियाँ टिकाए बाहर की तरफ़ ताक़ता रहा। शहर अँधेरे में डूब गया था। मुझे लगा, जैसे कहीं दूर से आती ढोलक की आवाज़ सुन रहा हूँ। बिना किसी समुचित कारण के मैंने पाया कि मैं रो रहा हूँ।

    अगली सुबह सात बजे जब मैं नाश्ता कर रहा था, ईंकिची ने नीचे सड़क पर से मुझे पुकारा। ऐसा लगा कि वह मेरी ख़ातिर में शिष्टाचारी किमोनू पहनकर आया था। स्त्रियाँ उसके साथ नहीं थीं। मैं सहसा एकाकी हो गया। उसने कहा, वे सब तुम्हें विदाई देने आना चाहती थीं। पर कल रात हम इतनी देर तक बाहर रहे कि वे सुबह बिस्तर से जल्दी उठने में असमर्थ थीं। उन्होंने मुझसे कहा है कि उनकी तरफ़ से क्षमा माँग लूँ। वे इन सर्दियों में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगी।

    शरत की ठंडी हवा शहर में बह रही थी। जहाज़ पर पहुँचने के रास्ते से उसने मेरे लिए कुछ फल और तंबाकू ख़रीदा और 'काओरो' नाम की एक कोलोन की शीशी।

    उसका नाम 'काओरो' है न? उसने मुस्कराते हुए कहा।

    जहाज़ पर संतरे खाना ठीक नहीं रहता, पर (पसीमैन) खाकी खा सकते हो। वे समुद्री मितली से फ़ायदा करते हैं।

    मैं क्यों तुम्हें दे दूँ। अपने सामान से स्कूली टोपी निकालकर उसकी कुछ सलवटें निकालते हुए मैंने कहा और अपनी शिकारी टोपी उसे पहना दी और हम दोनों हँस पड़े। जैसे ही हम जहाज़ी घाट पर आए कि मेरे दिल ने एक तेज़ उछाल लिया। देखा कि वह छोटी नर्तकी पानी के किनारे बैठी है। जब तक हम उस तरफ़ ऊपर बढ़ते रहे, वह बिना हिले-डुले वहीं बैठी रही, सिर्फ़ सिर झुकाकर, चुपचाप अभिवादन जताया। उसके चेहरे पर शृंगार के कुछ निशान ही शेष थे, जो मुझे बहुत मनोरम लगे और आँखों के कोओं में लगा चटक लाल रंग उसे एक नवीन यौवन प्रदान करता प्रतीत हुआ।

    “और सब भी रही हैं? ईंकिची ने पूछा।

    उसने 'न' में अपना सिर हिलाया।

    वे सब अभी बिस्तर में हैं?

    उसने 'हाँ' में सिर हिलाया।

    ईंकिची जहाज़ और माल-नौका के टिकट ख़रीदने गया। मैंने बातचीत करने की कोशिश की, मगर वह चुपचाप उस बिंदु पर नज़र टिकाए रही, जहाँ नहर बंदरगाह में जाकर मिल रही थी। बीच-बीच में, इससे पहले कि मैं बात ख़त्म करूँ, वह जल्दी से ज़रा-सा सिर हिला देती थी। माल-नौका ज़ोर से उछली। नर्तकी अपने होंठों को कसकर दबाए सामने की तरफ़ ताक़ती रही। जैसे ही मैंने रस्सी की सीढ़ी पर पैर रखा, तो मुड़कर देखा। मैं अलविदा कहना चाहता था, पर सिर्फ़ सिर ही झुका पाया। माल-नौका खींच ली गई। ईंकिची ने शिकारी टोपी हिलाई और जैसे-जैसे शहर दूर और दूर होता गया, लड़की ने कोई सफ़ेद-सी चीज़ हिलानी शुरू की।

    मैं रेलिंग के सहारे खड़ा, ओशिमा की तरफ़ तब तक ताक़ता रहा, जब तक ईजू प्रायद्वीप का दक्षिणी कोना, निगाहों से ओझल नहीं हो गया। ऐसी प्रतीति हुई, जैसे मैंने बहुत देर पहले नर्तकी से विदा ली थी। मैं अंदर गया और अपने कमरे में घुसा। समुद्र इतना तूफ़ानी था कि सीधा बैठना भी मुश्किल था। एक जहाज़ी कर्मचारी आकर समुद्री मितली के लिए धातु के तसले दे गया। मैं निर्मल और रिक्त मन लिए, किताबी झोले को सिरहाना लगाकर लेट गया। अब मैं समय बीतने के प्रति सचेत नहीं रहा था। मैं चुपचाप रोता रहा और जब गीले गालों पर ठंडक का एहसास हुआ, तो झोले को ऊपर उलट लिया। एक किशोर लड़का मेरे पास लेटा था, वह ईजू के किसी फ़ैक्टरी मालिक का लड़का था और हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करके टोकियो जा रहा था। मेरी स्कूल की टोपी ने उसका ध्यान आकर्षित किया था।

    कुछ देर बाद उसने पूछा, क्या कुछ बुरा घट गया है?

    नहीं, मैंने किसी से विदा ली है। सच्ची बात छिपाने की कोई तुक दिखाई नहीं दी और आँसुओं के कारण कोई शर्म नहीं आई। मैं कुछ नहीं सोच रहा था। ऐसा लगा, जैसे मैं शांत-परितोष की गहरी नींद में हूँ। मुझे पता नहीं चला, कब संध्या हो आई, किंतु जब आतामी से गुज़रे तो बत्तियाँ जल चुकी थीं। मुझे भूख लग रही थी और कुछ सर्दी भी। लड़के ने अपना खाना निकाला और मैंने उसके साथ ऐसे खा लिया, जैसे मेरा ही हो। बाद में उसके ही लबादे के थोड़े-से हिस्से से अपने को ढक लिया। मैं एक मोहक शून्य में तैर रहा था और मुझे यह सहज स्वाभाविक लगा कि उसकी सहृदयता को अपनाकर लाभ ले लूँ। प्रत्येक वस्तु एक आलिंगन करती समस्वरता में निमग्न थी।

    बत्तियाँ बुझ गईं और समुद्र में पड़ी मछलियों और फलके में रखी मछलियों की गंध तेज़ हो गई। अँधियारे में, लड़के के पार्श्व में होने की गरमाई पा, स्वयं को आँसुओं के हवाले कर दिया। मेरा सिर, जैसे स्वच्छ जल उन्मुख हो, आनंदसिक्त बूँद-बूँद टपक रहा था, शीघ्र ही सब निःशेष हो जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 277-294)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : यासुनारी कावाबाता
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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