जानकी पुल

janki pul

प्रभात रंजन

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जानकी पुल

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    ऐसा लगा जैसे कोई भूली कहानी याद गई हो। सारा क़िस्सा नंदू भाई के ई-मेल से शुरू हुआ। नंदू भाई पिछले कई वर्षों से इंडोनेशिया के रमणीय द्वीप सुमात्रा में रह रहे हैं। वहाँ नंदू भाई एक प्रसिद्ध काग़ज़-निर्माण कंपनी में इंजीनियर हैं। सुमात्रा से नंदू भाई ई-मेल से ही रिश्तेदारी निभा लिया करते..

    पिछली बार दीपावली पर जब नंदू भाई का 'हैप्पी दीपावली' की ई-मेल आया तो जाने क्यों इस बार नंदू भाई को बीस वर्ष पहले अपनी नानी और मेरी दादी के गाँव में मनाई गई उस दीपावली का स्मरण हो आया था जब हमने आख़िरी बार दीपावली पर साथ-साथ पटाखे छोड़े थे। लगे हाथ नंदू भाई ने उस जानकीपुल का भी स्मरण कर लिया था, जो उसी साल बनना शुरू हुआ था या कम-से-कम उसका शिलान्यास तो हुआ ही था जो मेरे गाँव मधुवन और शहर सीतामढ़ी के बीच की दूरी को मिटा देने वाला था।...

    बीस साल पहले उस गाँव के सपने में एक पुल लहराया था...

    नंदू भाई भले मेरे सगे भाई नहीं है। मेरी सगी बुआ के लड़के हैं। मैं उन दिनों अपने गाँव में रहता था। और अपनी साइकिल पर बैठे दस किलोमीटर दूर शहर पढ़ने जाया करता था। दरअसल मेरे गाँव और शहर के बीच एक बाधा थी। नेपाल की नदी बागमती की एक धारा मेरे गाँव और शहर को अलग करती थी। पुल बनते ही वह दूरी घटकर एकाध किलोमीटर रह जाने वाली थी। नदी होने के कारण शहर दूसरी तरफ़ से जाना पड़ता। गर्मियों में जब नदी में पानी कुछ कम होता तो गाँव के कुछ बहादुर नदी तैरकर पार कर जाते और उस पार सीतामढ़ी बाज़ार पहुँच जाते।

    उसी साल देश में टेलिविज़न का रंगीन प्रसारण शुरू हुआ था और गाँव के जो लोग शहरों में मारवाड़ी सेठों या साहबों के यहाँ काम करते थे वे बताया करते कि किस तरह रंगीन टी.वी. पर 'हम लोग' देखना या ‘चित्रहार’ देखना बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे सेठ भागचंद गोवर्द्धनमल के 'किरण टॉकीज' में सिनेमा देखना लगता है...। सच कहता हूँ तब मुझे अपना गाँव में रहना बेहद सालता था।

    बुआजी हर साल दीपावली में एक महीने की छुट्टी मनाने आया करती। नंदू भाई भी साथ में होते। जिस समय मुझे यह ख़बर मिली कि पुल बनने वाला है उस वक़्त नवंबर की दुपहर बुआजी दादी के सफ़ेद बालों को कंघी से सीधा करने में लगी थी। माँ बुआजी के लिए तुलसी का काढ़ा बनाने में लगी थी और मैं नंदू भाई के लिए अमरूद तोड़ने में लगा था। तरह-तरह के अमरूदों के पेड़ थे—कोई ऊपर से तो हरा होता था और अंदर उसका गूदा गुलाबी होता, किसी अमरूद में बीज ही बीज होते तो किसी में बीज ढूँढ़े नहीं मिलते। मैं अमरूदों के उस विचित्र संसार की सैर कर नंदू भाई के साथ कच्चे-पक्के अमरूदों को जेबों में भरकर लौटा तो मैंने देखा दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र, रिटायर्ड हेडमास्टर अपनी आराम-कुर्सी पर उठंगे हुए थे और उनके बग़ल में एक कुर्सी पर मुखियाजी बैठे हुए थे।

    “आज पुल का शिलान्यास हो गया।

    मैंने सुना मुखिया जी कह रहे थे। दादाजी ने जवाब में टँगी जवाहर लाल नेहरू की धुँधलाई सी तस्वीर की ओर बस देख भर लिया था। मानो उनके प्रति कृतज्ञताज्ञापन कर रहे हों। मैंने नंदू भाई की ओर देखा था, मेरे लिए तब जीवन की सबसे बड़ी ख़बर थी यह, उस पुल के बन जाने के बाद मुझे किसी से भी शरमाने की ज़रूरत नहीं पड़ती यह बताने में कि भले ही मैं शहर के बेहतरीन स्कूल में पढ़ता था और दिन-दिन भर रोज़ाना अपनी एटलस साइकिल से शहर की गलियों की ही ख़ाक छानता रहता लेकिन रहता मैं मधुवन में था—मधुवन जो शहर का कोई मोहल्ला नहीं था बल्कि नदी की दूसरी तरफ़ बसा छोटा-सा गाँव था।

    मैं बेहद ख़ुश था। उस रात सोते समय जब नंदू भाई टेलीविज़न पर आने वाले धारावाहिक 'हम लोग' के क़िस्से सुना रहे थे तो मैंने उस रात उनसे कहा था कि उस साल वे मेरे लिए जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी लेकर आए थे...अगले दिन मैं नंदू भाई के साथ शिलान्यास का वह पत्थर देखने भी गया। उस पर लिखा था। 'माननीय सिंचाई मंत्री श्री अशफ़ाक़ ख़ाँ जी के कर-कमलों द्वारा जानकीपुल का शिलान्यास किया गया।' हम दोनों ने काफ़ी देर तक पत्थर छू-छूकर देखा और यह अंदाज़ा लगाते रहे कि कितने दिनों में पुल बन जाएगा।

    उन दिनों मैं यानी आदित्य मिश्र शहर के प्रसिद्ध श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में बारहवीं में पढ़ता था। उन दिनों मेरे कई छोटे-छोटे सपने होते थे। जैसे एक सपना यह था कि मेरे पास सीतामढ़ी में रहने के लिए एक घर हो जाए। एक सपना यह था कि मेरे पास भी सही रंगीन, ब्लैक एंड व्हाइट टेलिविज़न सेट ही हो जाए ताकि मैं भी उस पर किरण टॉकिज की तरह 'हम लोग' और 'चित्रहार' देख सकूँ। मेरे इन सपनों में अक्सर कुछ सपने जुड़ते-घूमते रहते थे। उन दिनों जो सपना मेरे सपनों में जुड़ा था वह इला का सपना था—इला चुतुर्वेदी।

    इला मेरे ऐसे सपनों में रही जिसे मेरे सिवा सिर्फ़ नंदू भाई ही जानते थे। मैं राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में कला विषय का छात्र था और मेरे टयूशन गुरु मुरली मनोहर झा की उन दिनों इतिहास, राजनीति-विज्ञान, अँगेज़ी जैसे विषयों के पारंगत शिक्षक के रूप में धूम मची थी। उन्हीं दिनों शहर की मशहूर जच्चा-बच्चा विशेषज्ञ डॉक्टरनी मालिनी चतुर्वेदी ने जब प्रोफ़ेसर साहब से अपनी ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की इला को परीक्षाओं तक घर आकर इतिहास और राजनीति विज्ञान पढ़ा जाने का आग्रह किया तो प्रोफ़ेसर साहब ने अपनी व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उनके घर आने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। लेकिन साथ-ही-साथ प्रोफ़ेसर साहब ने उन्हें इस बात का पक्का भरोसा दिलाया कि वे गेस पेपर और नोट्स अपने किसी प्रतिभाशाली, योग्य शिष्य के हाथों भिजवा दिया करेंगे। प्रोफ़ेसर साहब ने वह मौक़ा मुझे यह कहते हुए दिया था कि तुम पर बड़ा विश्वास करता हूँ।

    सच कहता हूँ मैंने उनका विश्वास कभी नहीं तोड़ा। मैं इला के घर कभी वीरेश्वर प्रसाद सिंह की राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत या बी.एन. पांडे का भारत का इतिहास या राय रवींद्र कुमार सिन्हा की पुस्तक भारतीय शासन एवं राजनीति देने-लेने जाया करता या गेस पेपर और नोट्स लेकर जाता। यहाँ मुझे शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए कि जिस समय की मैं बात कर रहा हूँ उस वक़्त तो फ़ोटोस्टेट जैसी सुविधा दिल्ली जैसे शहर में भी इतनी आम नहीं हुआ करती थी। मैं जिस शहर सीतामढ़ी की बात कर रहा हूँ साहब, उस समय पूरे शहर में कुल एक फ़ोटोस्टेट मशीन हुआ करती थी और फ़ोटोस्टेट करवाना तब इतना महँगा पड़ता था कि बड़े-बड़े मारवाड़ी सेठों के लड़के ही उसका लाभ उठाने की अय्याशी कर सकते थे।

    इला के घर आने-जाने का मेरा सिलसिला चल पड़ा। मैं एक बार उसके घर नोट्स देने जाता और एक बार नोट्स वापस लेने और फिर नए नोट्स या कोई पुस्तक देने जाता रहता।

    इला ने शुरू में दो-एक बार ग्यारह से एक बजे के बीच आने की हिदायत दी लेकिन मैं समझ गया कि उसके घर जाने का सबसे मुफ़ीद समय यही होता था जब उसकी डॉक्टर माँ या तो क्लीनिक में होती थी या अपने पब्लिक प्रासीक्यूटर प्रेमी वाई.एन. निषाद के साथ होती जिसके बारे में शहर भर में अफ़वाह फैली रहती कि कल काले रंग की फिएट में सुरसंड रोड में देखी गई थी या परसों होटल सीतायन में, वग़ैरह-वग़ैरह। इस दौरान उसके वकील पापा विनोद चतुर्वेदी सिविल कोर्ट में मुवक्किल फँसाने में लगे रहते थे...मैं उसी दरम्यान कभी राजनीति विज्ञान, कभी इतिहास के नोट्स या तो देने या लेने जाया करता। वह इसका एहतियात रखती कि चिट्ठी मेरे नोट्स के ही बचे हिस्से पर लिख दिया करती। कभी अलग से उसने कुछ नहीं लिखा।

    वह आम तौर पर चिट्ठी-पत्री कुछ इस तरह से लिखती थी जैसे मेरे कपड़ों, मेरी चाल-ढाल, लिखने-पढ़ने आदि की तारीफ़ कर रही हो। वह इसी तरह के कुछ वाक्य अँगेज़ी में लिख दिया करती थी जो कि अक्सर अँगेज़ी के मुहावरे हुआ करते थे ताकि कोई अगर उसे पढ़ भी ले तो कुछ और समझ ले। मैं ही उसे और-और समझाता रहा...उसके उन मुहावरेनुमा पत्रों को पढ़ने के चक्कर में उन्हीं-उन्हीं नोट्स को बार-बार पढ़ता रहा मानो मुझे बारहवीं का नहीं ग्यारहवीं का पर्चा देना हो।

    उन सारे सपनों में जुड़ा सबसे नया सपना था—जानकीपुल।

    शहर के एस.डी.ओ. साहब के अर्दली रामप्रकाश, जो हमारे ही गाँव का था, ने जो ख़बर दी थी उसके मुताबिक पुल का शिलान्यास भले ही सिंचाई मंत्री अशफ़ाक़ ख़ाँ के हाथों हुआ हो लेकिन इस पुल के बनाने की असल ज़िद तो शहर के कलेक्टर साहब ए.के. सिन्हा की पत्नी डॉ. रेखा सिन्हा ने ठानी थी। रेखा सिन्हा असल में तो साहित्य की डॉक्टर थी यानी हिंदी साहित्य की पी.एच.डी. थी और स्त्रीवादी रुझानों के कारण माँ जानकी या सीता की अनन्य भक्तिनी थी। माँ सीता की जन्मभूमि में ही अपने पति के पदस्थापन को वे माँ जानकी की असीम अनुकंपा ही मानती थीं और इसलिए एक भी दिन वे बिना उनके दर्शन के नहीं बिताना चाहती थीं। उन्होंने ही एक दिन अपने पति को नाश्ते के वक़्त यह सुझाव दिया था कि इस नदी पर अगर एक छोटा-सा पुल बन जाए तो माँ सीता की जन्मभूमि जाकर दर्शन करने में बड़ी सुविधा हो जाएगी।

    माँ जानकी की जन्मस्थली नदी के दूसरी ओर तो दो किलोमीटर ही थी, लेकिन दूसरी ओर से आने में लगभग एक घंटा लग जाता था और रोज़-रोज़ आना संभव नहीं हो पाता था...

    कलेक्टर साहब को सुझाव पसंद गया था। उन्होंने आनन-फ़ानन में शिलान्यास करवा दिया था। योजना थी अगले बजट तक पुल बनाने का काम शुरू हो जाएगा...

    सारा मधुवन गाँव जानकीपुल के सपने में जीने लगा था। पक्की सड़क कुछ साल पहले ही बन चुकी थी और तभी से गाँव वालों की उम्मीद जगी थी कि अब उनके गाँव और शहर की दूरी ख़त्म हो जाएगी...

    पुल के शिलान्यास की ख़बर के बाद मेरे दादाजी बड़े आशावादी हो चले थे। सतहत्तर के चुनाव में वहाँ महंत केशवानंद गिरि सांसद बने, जिनके बारे में बाद में यह कहा गया ‘वे आँधी की तरह आए और तूफ़ान की तरह चले गए'। उन्हीं महंत जी ने और कुछ किया हो या किया हो पर जाने क्यों चुनाव-प्रसार के दौरान मधुवन गाँव के निवासियों से यह वादा कर आए थे कि अगर वे चुनाव जीत गए तो उस गाँव में ज़रूर पक्की कोलतार की सड़क बनवा देंगे और सबसे आश्चर्यजनक रहा कि जाने क्यों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जाते-जाते सड़क बनवाने का अपना वादा पूरा भी कर दिया। अगर वे कुछ दिन और सांसद रहे होते तो उन्होंने ज़रूर वहाँ पुल भी बनवा दिया होता। लेकिन एक तो चुनाव जल्दी हो गए और दूसरे वे चुनाव भी नहीं जीत पाए।

    जब तक पक्की सड़क नहीं बनी थी। मधुवन गाँव के लोग बड़े संतोषपूर्वक रहते और नदी के उस पार के जीवन को शहर का जीवन मानते और अपने जीवन को ग्रामीण और बड़े संतोषपूर्वक अपना सुख-दुख जीते। कोलतार की उस पक्की सड़क ने उनके मन को उम्मीदों से भर दिया था। दादाजी से मिलने कभी-कभी जब गाँव के एकमात्र रायबहादुर अलख नारायण सिंह आते तो यह चर्चा उनके बीच होती कि अब बस पुल की कमी है और हमारा गाँव किस मामले में शहर सीतामढ़ी से कम रह जाएगा? राय साहब चाय की चुस्कियों के बीच कहते, मेरे जीते-जी बिजली आई। पानी पटाने का बोरिंग आया, अब सड़क भी ही गई है तो तो पुल भी बन ही जाएगा।” दादाजी भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते।

    भले ही महंत जी संसद का चुनाव हार गए लेकिन मधुवन वालों की आँखों में उम्मीद छोड़ गए थे। सपना छोड़ गए थे...

    अब पुल का शिलायान्स तो जैसे उस सपने को सच में ही बदलने वाला था। मैंने पढ़ रखा था कि ऐसा सपना जिसे बहुत सारी आँखें एक साथ देखने लगें तो वह सपना नहीं रहता। वह सच हो जाता है...

    जानकीपुल उस गाँव का ऐसा सपना बन गया था जो बस सच होने ही वाला था।

    गाँव के बीचोंबीच एक पीपल का पेड़ था—पक्की सड़के के ठीक किनारे। गाँववाले पीपल को पाकड़ कहते थे और भविष्य के शहर का ख़याल करके उस जगह को उन्होंने चौक बना डाला और उसका नाम रख दिया—पाकड़ चौक। वहाँ पर बरसों से गाँव के रिक्शा चलानेवालों, बाज़ार में दिहाड़ी कमाने वालों को काशी चायवाला चाय पिलाया करता था और चाय के साथ खाने के लिए बिस्कुट वग़ैरह भी रखा करता था। उसने अपनी बाँस की खपच्चियों की जोड़ी हुई दुकान के बाहर शहर सीतामढ़ी के दूकानदारों की तर्ज़ पर टिन का साइनबोर्ड लगवा लिया था और उस पर लिखवा लिया था—'काशी की प्रसिद्ध चाय की दुकान, मेन रोड, मधुवन।' बस इंतिज़ार इसी का था कि एक बार जानकीपुल बन जाए और मेन रोड, मधुवन मेन रोड, सीतामढ़ी का हिस्सा बन जाए।

    गाँव भर में पुल बन जाने के बाद के जीवन को लेकर चर्चाएँ चलती रहती थीं, योजनाएँ बनती रहती थीं। कोई अपनी ज़मीन पर मार्केट बनवाना चाहता था, कोई अपनी दुकान के आगे और पीछे घर बनवाना चाहता था। कभी ख़बर आती कि पटना के एक प्रसिद्ध स्कूल के मालिक आए थे, स्कूल के लिए ज़मीन ख़रीदने। कभी ख़बर आती कि शहर के एक प्रसिद्ध डॉक्टर वहाँ ज़मीन देखने आए थे, शायद नर्सिंग होम खोलना चाहते थे।

    कुल मिलाकर, यही लग रहा था कि बस पुल बन जाए उसके बाद देखिए क्या-क्या होता है मधुवन में। दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र ने अपनी कुछ अलग ही योजना बना रखी थी। मेरे पशु-चिकित्सा अधिकारी पिता जब छुट्टियों में आते तो दादाजी समझाते कि 'एक एकड़ ज़मीन है नदी के पास सड़क किनारे अपनी। बेच के बैंक में रख देंगे पैसा। दो-एक पीढ़ी तो बैठकर खाएगी ही।'

    मैं उस दरम्यान जब भी इला के यहाँ नोट्स लेने-देने जाता या डायमंड क्रिकेट क्लब के बाक़ायदा सदस्य की हैसियत से क्रिकेट खेलने जाता तो बात-बात में उन सबको अपने गाँव में बन रहे पुल के बारे में बताता। इला अक्सर कहती कि अच्छा है एक बार पुल बन जाए तो मैं तुम्हारे गाँव गन्ना खाने आऊँगी या कभी आँवले का पेड़ देखने की बात कहती। जवाब में मैं कहता तब हमारा गाँव, गाँव थोड़े ही रह जाएगा। इला आश्चर्य से पूछती कि जब यह भी नहीं रह जाएगा तुम्हारे गाँव में तो क्या बाक़ी रह जाएगा वहाँ? मैं सोचता रह जाता था।

    मेरी बारहवीं की परीक्षा गई। इला की ग्यारहवीं की। दोनों ही अच्छे नंबरों से पास हुए। इला बारहवीं में गई लेकिन उसकी बारहवीं में नोट्स पहुँचाने, किताब पहुँचाने के लिए मैं सीतामढ़ी में नहीं रह पाया। मैं आगे की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली गया।

    यह बात बीस साल पहले की है।

    अब मैं नंदू भाई को क्या बताता कि इन बीस सालों में क्या-क्या हुआ! पुल के बारे में तो मैं भी भूल चुका था। उनको पता नहीं कैसे सुमात्रा में बैठे-बैठे जानकीपुल की याद गई थी।

    हुआ यह कि कलेक्टर ए.के. सिन्हा साहब का तबादला हो गया और उनकी पत्नी पुल पारकर जानकी जन्मभूमि देखने का सपना सँजोए ही रह गईं। उसके बाद जब भी मैं दीपावली के आस-पास छुट्टियाँ बिताने गाँव आता तो यही ख़बर सुनता कि अगले बजट में पुल ज़रूर बन जाएगा। हर साल जब बजट का पैसा आता तो नदी में बाढ़ जाती और जब बाढ़ का पानी उतरता तो बजट समाप्त हो चुका होता था। इस प्रकार हर साल जानकीपुल का निर्माण कार्य अगले बजट तक के लिए टल जाता।

    छुट्टियों में जाता तो इला से मिलने का कोई बहाना नहीं रहता था। उसके पास तो फ़ोन था लेकिन तब आज की तरह गली-गली पी.सी.ओ. बूथ नहीं खुले हुए थे कि आप गए दो रुपए दिए और फ़ोन पर बात हो गई। तब फ़ोन बड़े-बड़े लोगों के ही पास होता था। मैं गाँव में रहता था और मेरे पास फ़ोन होने का सवाल ही नहीं उठता था। दिल्ली जाने के कुछ साल बाद जब मैंने अपने दोस्त श्रीवल्लभ के घर से पहली बार इला को फ़ोन किया तो पता चला उसकी

    शादी अमेरिका में रह रहे किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर से तय हो गई थी। उसने मुझे मिलने के लिए बुलाया। समय तब भी ग्यारह से एक का ही रहा। उसे शायद अच्छा लगा हो कि इतने साल दिल्ली रहने के बाद भी मैं उसे भूला नहीं था और उसके एक बार कहने पर ही तत्काल उससे मिलने पहुँच गया। उस मुलाक़ात में मैंने उससे कुछ निशानी माँगी थी। आख़िरी ताकि उसकी याद रहे। उसने अपनी तस्वीर पीछे 'विद बेस्ट विशेज़' लिखकर मुझे दिया। मैंने भी अपनी तस्वीर उसे देनी चाही तो उसने हँसते हुए कहा, इतना छोटा-सा तो तुम्हारा चेहरा है, हमेशा मेरे दिल में बसा रहेगा। मैं जेब में उसकी तस्वीर सँभाले लौट आया था।

    वह इला से मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी। मेरे गाँव में पुल बना वह उसे पार कर गन्ना खाने, आँवला खाने वहाँ पाई। वह अमेरिका चली गई। हडसन और मिसीसीपी नदी पर बने पुलों को पार करते हुए...

    नंदू भाई हाँगकाँग चले गए थे। इसी बीच दादाजी का देहांत हो गया था और मरते वक़्त उन्होंने मेरे रिटायर्ड हो चुके पशु-चिकित्सक पिता की आँखों को अपना सपना दे दिया था। उन्होंने कहा था कि पुल बनेगा ज़रूर इसलिए ज़मीन बेचने में हड़बड़ी मत करना। इन दिनों पिताजी गाँव में रहते थे और आस-पास के इलाक़े में पशुओं के अचूक चिकित्सक के रूप में जाने जाते थे।

    बुआजी नागपुर में बस गई थीं, चाचाजी लखनऊ में, मामा कलकत्ता में, दीदी बिलासपुर में। सब टेलीफ़ोन से रिश्तेदारी निभाते रहते थे। नदी पर पुल नहीं बना तो क्या उन्होंने टेलीफ़ोन के ही पुल बना लिए थे।

    नंदू भाई से काफ़ी दिनों तक कोई संपर्क नहीं रह गया था। भला हो इंटरनेट का, पिछले चार-पाँच सालों से उसने हम भाई-बहनों को फिर से जोड़ दिया था। मैंने नंदू भाई को ई-मेल किया था कि दिल्ली में पिछले चार-पाँच सालों में इतने फ्लाईओवर बन चुके हैं कि पहचानना मुश्किल पड़ जाएगा।

    ऐसा नहीं है कि इन बीस सालों में मधुवन गाँव के लोग उस पुल को भूल गए हों। इस बीच गाँव में हाथ-हाथ मोबाइल गया था, रंगीन टेलीविज़न गया था, सामूहिक जेनेरेटर गया था, स्कूल खुल चुका था और जानकीपुल...

    कई बरसों बाद जब मैं पिछली बार दीपावली पर घर गया था तो पिताजी ने बताया था कि अगले बजट में पक्का बन जाएगा...

    सोच रहा हूँ नंदू भाई को यही ई-मेल कर दूँ। गाँव में अब भी लोग पाकड़ चौक पर बैठते हैं तो जानकीपुल की चर्चा चल पड़ती है। भले ही उसका शिलान्यास का पत्थर अब पहचाना नहीं जाता और वह सड़क जिसने पुल का सपना गाँववालों की आँखों में भरा था, वह भी जगह-जगह से टूटकर बदशक्ल हो चुकी थी। गाँववाले अब भी यही सोचते हैं कि एक बार पुल बन जाए सब ठीक हो जाएगा—जानकीपुल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010) (पृष्ठ 93)
    • संपादक : कमला प्रसाद
    • रचनाकार : प्रभात रंजन
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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