नाटक में नाटक

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मंगल सकसेना

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और अधिकमंगल सकसेना

    राकेश का मन तो कह रहा था कि बिना पूरी तैयारी के नाटक नहीं खेलना चाहिए और जब नाटक में अभिनय करने वाले कलाकार भी नए हों, मंच पर आकर डर जाते हों, घबरा जाते हों और कुछ-कुछ बुद्धू भी हों, तब तो अधूरी तैयारी से खेलना ही नहीं चाहिए। उसके साथी मोहन, सोहन और श्याम ऐसे ही थे। राकेश को उनके अभिनय पर बिलकुल भी विश्वास नहीं था। वह स्वयं अभिनय इसलिए नहीं कर रहा था कि फ़ुटबॉल खेलते हुए वह अचानक गिर पड़ा था और उसके हाथ में चोट लग गई थी और हाथ को एक पट्टी में लपेटकर गर्दन के सहारे लटकाए रखना पड़ता था।

    नाटक खेलना बहुत आवश्यक था। मुहल्ले की इज़्ज़त का सवाल था। मुहल्ले के बच्चों ने मिल-जुलकर फ़ालतू पड़े एक छोटे से सार्वजनिक मैदान में दूब फूल-पौधे लगाए थे। वहीं एक मंच भी बना लिया था। राकेश की योग्यता पर सबको बहुत विश्वास भी था।

    समय था केवल एक सप्ताह का। सात दिन ऐसे निकल गए कि पता भी नहीं लगा। मोहन, सोहन और श्याम यूँ तो अच्छी तरह अभिनय करने लगे थे, पर राकेश को उनके बुद्धूपन से डर था। हर एक अपने को दूसरे से अधिक समझदार मानता था। इसलिए यह भूल जाता था कि वह कहाँ क्या कर रहा है बस कहने से मतलब! दूसरे चाहे उनकी मूर्खतापूर्ण बातों पर हँस रहे हों, मगर वे पागलों की तरह आपस में ही उलझने लगते थे।

    राकेश ने पूर्वाभ्यास के सात दिनों में उन्हें बहुत अच्छी तरह समझाया था। निर्देशन उसने इतना अच्छा दिया था कि छोटी-से-छोटी और साधारण-से-साधारण बात भी समझ में जाए।

    ख़ैर प्रदर्शन का दिन और समय भी गया। राकेश साज-सज्जा कक्ष में खड़ा सबको ख़ास-ख़ास हिदायतें फिर से दे रहा था।

    मोहन बोला, मेरा तो दिल बहुत ज़ोरों से धड़क रहा है।

    मेरा भी, सोहन ने सीने पर हाथ रखकर कहा।

    तुम लोग पानी पियो और मन को साहसी बनाओ। राकेश ने फिर हिम्मत बढ़ाई।

    जैसे-तैसे अभी तक तो ठीक-ठाक हो गया। अभिनेता मंच पर गए। पर्दा उठा।

    मोहन बना था चित्रकार। और सोहन बना था उर्दू का शायर। नाटक में दोनों दोस्त होते हैं। चित्रकार कहता है उसकी कला महान, शायर कहता है उसकी कला महान! श्याम बनता है संगीतकार! वह उनसे मुलाक़ात करने उनके उस स्थान पर आता है, जहाँ वे यह बहस कर रहे हैं। बजाय इसके कि वह नए-नए मित्रों से मधुर बातें करे, बड़े-छोटे के इस विवाद में उलझ जाता है। वह कहता है संगीतकार की कला महान!

    अभी तक अभिनय अच्छी तरह चल रहा था। सबको अपना-अपना पार्ट याद रहा था। सब ठीक-ठीक अभिनय करते चले जा रहे थे। अचानक श्याम पार्ट भूल गया!

    पर्दे की आड़ में राकेश स्वयं पूरा नाटक लिए खड़ा था। वह हर एक संवाद का पहला शब्द बोल रहा था, ताकि कलाकारों को संवाद याद आते रहें

    मगर श्याम घबरा गया। वह सहसा चुप हो गया। उसके चुप होने से चित्रकार और शायर महोदय भी चुप हो गए। होना यह चाहिए था कि दोनों कोई बात मन की ही बनाकर बात आगे बढ़ा देते। पर वे घबराकर राकेश की तरफ़ देखने लगे। संगीतकार महोदय भी पलटकर राकेश की ओर देखने लगे।

    राकेश बार-बार संगीतकार जी का संवाद बोल रहा था मगर आवाज़ तेज़ होकर 'माइक' से सबको सुनाई दे जाए, इसलिए धीरे-धीरे फुसफुसाकर बोल रहा था, संगीतकार जी को वह हल्की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी।

    तभी शायर साहब संगीतकार के कंधे पर हाथ मारकर बोले उधर जाकर सुन ले न। संगीतकार अपना वायलिन पकड़े-पकड़े राकेश की ओर खिसक आए!

    दर्शक ठठाकर हँस पड़े। संगीतकार जी और घबरा गए। जो कुछ सुनाई पड़ा उसे ही बिना समझे-बूझे झट से बोलने लगे।

    संवाद था—'जब संगीत की स्वर लहरी गूँजती है, तो पशु-पक्षी तक मुग्ध हो जाते हैं, शायर साहब! आप क्या समझते हैं संगीत को?

    मगर संगीतकार साहब बोल गए यों—जब संगीत की स्वर लहरी गूँजती है तो पशु-पक्षी तक मुँह की खा जाते हैं, गाजर साहब! आप क्या समझते हैं हमें?

    शायर साहब तपाक से बोले, तुम्हारा सर! गाजर साहब हूँ मैं?

    दर्शक फिर उठाकर हँस पड़े।

    चित्रकार महोदय ने मंच पर सूझ और अक़्लमंदी दिखाने की कोशिश की—इनका मतलब है आपकी शायरी गाजर-मूली है और आप गाजर साहब हैं। सो इनकी कला महान है। मगर मेरी कला इनसे भी महान है।

    राकेश दाँत पीस रहा था। उसकी सारी मेहनत पर पानी पड़ गया था। पर इस तरह बात सँभलते देखकर कुछ शांत हुआ।

    इस बार शायर साहब बुद्धूपना दिखा बैठे। ग़ुस्सा होकर बोले, तूने भी ग़लत बोल दिया। मुझे गाजर साहब कहने की बात थी क्या? और मेरी शायरी गाजर-मूली है, तो तेरी चित्रकला झाड़ू फेरना है, पोतना है, झख मारना है।

    चित्रकार महोदय ने हाथ उठाकर कहा, देख, मुँह सँभालकर बोल!

    दर्शक फिर बड़े ज़ोर से हँस पड़े।

    राकेश घबरा रहा था। ग़ुस्सा भी रहा था उसे और रोना भी। सारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गई।

    पर अब क्या हो? वह बार-बार दोनों हथेलियों को मसल रहा था और कोई तरकीब सोच रहा था।

    इधर मंच पर तीनों में ज़ोरों से तू-तू मैं-मैं हो रही थी। चित्रकार महोदय हाथ में कूची पकड़े, आँखें नचा-नचाकर, मटक-मटककर बोल रहे थे—

    अरे चमगादड़ तुझे क्या ख़ाक शायरी करना आता है! ज़बरदस्ती ही तुझे यह पार्ट दे दिया। तूने सारा गड़बड़ कर दिया।

    मुझे चमगादड़ कहता है? अरे आलूबुखारे, शायरी तो मेरी बातों से टपकती है। तूने कभी 'टूथ-ब्रुश' के अलावा कोई ब्रुश उठाया भी है? यहाँ चित्रकार बना दिया तो सचमुच ही अपने को चित्रकार समझ बैठा।

    दर्शक हँसी से लोटपोट हुए जा रहे थे। संगीतकार महोदय कभी उन दोनों लड़ते कलाकरों की ओर हाथ नचाते, कभी दर्शकों की ओर।

    तभी तेज़ी से राकेश मंच पर पहुँच गया। सब चुप हो गए, सकपका गए। राकेश पहुँचते ही एक कुर्सी पर बैठते हुए बोला आज मुझे अस्पताल में हाथ पर पट्टी बँधवाने में देर हो गई, तो तुमने इस तरह 'रिहर्सल' की है! ज़ोर-ज़ोर से लड़ने लगे। अभिनय का दिन बिलकुल पास गया है और हमारी तैयारी का यह हाल है।

    चित्रकार महोदय ने इस समय अक़्लमंदी दिखाई बोले, हम क्या करें, डायरेक्टर साहब? पहले इसी ने ग़लती की।

    राकेश बात काटकर बोला, अरे तो मैंने कह नहीं दिया था कि रिहर्सल में भी यह मानकर चलो कि दर्शक सामने ही बैठे हैं। अगर ग़लती हो गई थी, तो वहीं से दुबारा रिहर्सल शुरू कर देते। यह क्या कि लड़ने लगे। सब गड़बड़ करते हो।

    बात राकेश ने बहुत सँभाल ली थी। पर्दे की आड़ में खड़े अन्य साथी मन-ही-मन राकेश की तुरतबुद्धि की प्रशंसा कर रहे थे। दर्शक सब शांत थे, भौंचक्के थे। वे सोच रहे थे यह क्या हो गया! वे तो समझ रहे थे कि नाटक बिगड़ गया, मगर यहाँ तो नाटक में ही नाटक था। उसकी रिहर्सल ही नाटक था। मानो इस नाटक में नाटक की तैयारी की कठिनाइयों और कमज़ोरियों को ही दिखाया गया था!

    राकेश कह रहा था, देखिए, हमारे नाटक का नाम है बड़ा कलाकार और बड़ा कलाकार वह है, जो दूसरे की त्रुटियों को नहीं अपनी त्रुटियों को देखे और सुधारे। आइए, अब हम फिर से 'रिहर्सल' शुरू करते हैं।

    तभी राकेश के इशारे पर पर्दा गिर गया। दर्शक नाटक की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपने घर चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दुर्वा (भाग-3) (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : मंगल सक्सेना
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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