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जनसंचार माध्यम

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जनसंचार माध्यम

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    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

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    मीडिया जब तक जनता को साथ लेकर नहीं चलेगी, तब तक जनता भी उसका साथ नहीं देगी।

    —प्रभात जोशी

    वरिष्ठ पत्रकार

     

    एक नज़र में...

    संचार के बिना जीवन संभव नहीं है। मानव सभ्यता के विकास में संचार की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। इस तरह संचार एक प्रक्रिया है जिसमें कई तत्त्व शामिल हैं। संचार के कई प्रकार हैं जिनमें मौखिक और अमौखिक संचार के अलावा अंतः वैयक्तिक, अंतरवैयक्तिक, समूह संचार और जनसंचार प्रमुख हैं।

    जनसंचार कई मामलों में संचार के अन्य रूपों से अलग है। जनसंचार सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के अलावा एजेंडा तय करने का काम भी करता है। भारत में जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जनसंचार माध्यमों का लोगों पर सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। इन नकारात्मक प्रभावों के प्रति लोगों का सचेत होना बहुत ज़रूरी है।

     

    संचार—परिभाषा और महत्त्व

    ज़रा सोचिए, क्या आप बिना बात किए रह सकते हैं? शायद नहीं, अकेलेपन और सोने के समय को छोड़ दिया जाए तो हम-आप अधिकांश समय अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को पूरा करने या अपनी भावनाओं और विचारों को प्रकट करने के लिए एक-दूसरे से या समूह में बातचीत या संचार करने में लगा देते हैं। यहाँ तक कि कई बार हम अकेले में ख़ुद से बातें करने लगते हैं। सच तो यह है कि हम बिना बात किए रह ही नहीं सकते। यदि समाज में रहना है और उसके विभिन्न क्रियाकलापों में हिस्सा लेना है तो यह बिना बातचीत या संचार के संभव नहीं है। संचार यानी संदेशों का आदान-प्रदान।

    ज़रा सोचिए कि क्या आप चुप रह सकते हैं? पहली बात तो यह है कि आप बहुत देर तक चुप नहीं रह सकते। लेकिन अगर आप चुप रहना भी चाहें तो क्या आप चुप रहते हुए भी कुछ कह नहीं रहे होते? जैसे अगर आप घर या स्कूल में चुप बैठे हों तो भी आप कुछ कह रहे होते हैं। हो सकता है आप नाराज़ हों या फिर उदास हों या फिर कुछ सोच रहे हों। आपका कोई दोस्त आपको चुप बैठा देख पूछ सकता है कि क्या आप किसी से नाराज़ हैं या किसी बात पर उदास हैं? इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे आप कुछ कहकर संचार कर रहे होते हैं, उसी तरह कुछ न कहकर भी संचार कर रहे होते हैं।

    हम चाहें या न चाहें, अपने दैनिक जीवन में हम संचार किए बिना नहीं रह सकते। वास्तव में संचार जीवन की निशानी है। मनुष्य जब तक जीवित है, वह संचार करता रहता है। यहाँ तक कि एक बच्चा भी संचार के बिना नहीं रह सकता। वह रोकर या चिल्लाकर अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर खींचता है। एक तरह से संचार ख़त्म होने का अर्थ है—मृत्यु। वैसे तो प्रकृति में सभी जीव संचार करते हैं लेकिन मनुष्य की संचार करने की क्षमता और कौशल सबसे बेहतर है। अक्सर यह कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित करने में उसकी संचार क्षमता की सबसे बड़ी भूमिका रही है।

    परिवार और समाज में एक व्यक्ति के रूप में हम अन्य लोगों से संचार के ज़रिए ही संबंध स्थापित करते हैं और रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं। संचार ही हमें एक-दूसरे से जोड़ता है। ग़ौर से देखिए तो सभ्यता के विकास की कहानी संचार और उसके साधनों के विकास की कहानी है। मनुष्य ने चाहे भाषा का विकास किया हो या लिपि का या फिर छपाई का, इसके पीछे मूल इच्छा संदेशों के आदान-प्रदान की ही थी। दरअसल, संदेशों के आदान-प्रदान में लगने वाले समय और दूरी को पाटने के लिए ही मनुष्य ने संचार के माध्यमों की खोज की।

    आज हम जिस संचार क्रांति की बात करते हैं, आख़िर वह क्या है? संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों टेलीफ़ोन, इंटरनेट, फ़ैक्स, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविज़न और सिनेमा आदि के जरिए मनुष्य संदेशों के आदान-प्रदान में एक-दूसरे के बीच की दूरी और समय को लगातार कम से कम करने की कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि आज संचार माध्यमों के विकास के साथ न सिर्फ़ भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं बल्कि सांस्कृतिक और मानसिक रूप से भी हम एक-दूसरे के क़रीब आ रहे हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग मानते हैं कि आज दुनिया एक गाँव में बदल गई है।

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    दुनिया के किसी भी कोने में कोई घटना हो, जनसंचार माध्यमों के जरिए कुछ ही मिनटों में हमें ख़बर मिल जाती है। अगर वहाँ किसी टेलीविज़न समाचार चैनल का संवाददाता मौजूद हो तो हमें वहाँ की तस्वीरें भी तुरंत देखने को मिल जाती हैं। याद कीजिए 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले को पूरी दुनिया ने अपनी आँखों के सामने घटते देखा। इसी तरह आज टेलीविज़न के पर्दे पर हम दुनियाभर के अलग-अलग क्षेत्रों में घट रही घटनाओं को सीधे प्रसारण के ज़रिए ठीक उसी समय देख सकते हैं। आप क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम भले न जाएँ लेकिन आप घर बैठे उस मैच का सीधा प्रसारण (लाइव) देख सकते हैं।

    सच पूछिए तो आज संचार और जनसंचार के माध्यम हमारी अनिवार्य आवश्यकता बन गए हैं। हमारे रोज़मर्रा के जीवन में उनकी बहुत अहम भूमिका हो गई है। उनके बिना हम आज आधुनिक जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे हमारे लिए न सिर्फ़ सूचना के माध्यम हैं बल्कि वे हमें जागरूक बनाने और हमारा मनोरंजन करने में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।

    लेकिन हम जनसंचार माध्यमों की आकर्षक और रोचक दुनिया के बारे में और चर्चा करें, उससे पहले यह ज़रूरी है कि संचार और उसकी प्रक्रिया को बारीकी से समझा जाए, क्योंकि जनसंचार, संचार का ही एक रूप है। 

    संचार क्या है?

    ‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है—चलना या एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। आपने विज्ञान में ताप संचार के बारे में पढ़ा होगा कि कैसे गर्मी एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुँचती है। इसी तरह टेलीफ़ोन के तार या बेतार के ज़रिए मौखिक या लिखित संदेश को एक जगह से दूसरी जगह भेजने को भी संचार ही कहा जाता है। लेकिन हम यहाँ जिस संचार की बात कर रहे हैं, उससे हमारा तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। मशहूर संचारशास्त्री विल्बर श्रम के अनुसार संचार अनुभवों की साझेदारी है।

    दरअसल, एक-दूसरे से संचार करते हुए हम अपने अनुभवों को ही एक-दूसरे से बाँटते हैं। लेकिन संचार सिर्फ़ दो व्यक्तियों तक सीमित परिघटना नहीं है। संचार के तहत सिर्फ़ दो या उससे अधिक व्यक्तियों में ही नहीं, हज़ारों-लाखों लोगों के बीच होने वाले जनसंचार तक को शामिल किया जाता है। इस प्रकार सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के ज़रिए सफलतापूर्वक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना ही संचार है और इस प्रक्रिया को अंजाम देने में मदद करनेवाले तरीक़े संचार माध्यम कहलाते हैं।

    इस तरह हमने देखा कि संचार एक घटना के बजाए प्रक्रिया है। एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया जिसमें सूचना देने और पाने वाले की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। दोनों की सक्रिय भागीदारी से ही यह प्रक्रिया पूरी होती है। अगर दोनों में से कोई संचार के लिए अनिच्छुक है तो संचार-प्रक्रिया का आगे बढ़ना मुश्किल होता है। इस अर्थ में संचार अंतरक्रियात्मक (इंटरएक्टिव) प्रक्रिया है।

     

    संचार के तत्त्व

    जब हम कहते हैं कि संचार एक प्रक्रिया है तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि इस प्रक्रिया में कई चरण या तत्त्व शामिल हैं। संचार की प्रक्रिया में भी कई तत्त्व शामिल हैं। इनमें से कुछ प्रमुख तत्त्वों की हम यहाँ सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।

    संचार प्रक्रिया की शुरुआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत या संचारक एक उद्देश्य के साथ अपने किसी विचार, संदेश या भावना को किसी और तक पहुँचाना चाहता है तो संचार-प्रक्रिया की शुरुआत होती है। जैसे आप स्वयं को स्रोत या संचारक मान लें। आपको इतिहास की एक किताब चाहिए। लेकिन इसके लिए आपको अपनी कक्षा के एक मित्र से आग्रह करना पड़ेगा। इस तरह जैसे ही आप किताब माँगने की सोचते हैं, संचार की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ज़ाहिर है कि किताब माँगने के लिए आप अपने मित्र से बातचीत करेंगे या उसे लिखकर संदेश भेजेंगे। बातचीत या संदेश भेजने के लिए आप भाषा का सहारा लेते हैं।

    भाषा असल में, एक तरह का कूट चिह्न या कोड है। आप अपने संदेश को उस भाषा में कूटीकृत या एनकोडिंग करते हैं। यह संचार की प्रक्रिया का दूसरा चरण है। सफल संचार के लिए यह ज़रूरी है कि आपका मित्र भी उस भाषा यानी कोड से परिचित हो जिसमें आप अपना संदेश भेज रहे हैं। इसके साथ ही संचारक का एनकोडिंग की प्रक्रिया पर भी पूरा अधिकार होना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि सफल संचार के लिए संचारक का भाषा पर पूरा अधिकार होना चाहिए। साथ ही उसे अपने संदेश के मुताबिक़ बोलना या लिखना भी आना चाहिए।

    इसके बाद संचार-प्रक्रिया में अगला चरण स्वयं संदेश का आता है। संचार प्रक्रिया में संदेश का बहुत अधिक महत्त्व है। किसी भी संचारक का सबसे प्रमुख उद्देश्य अपने संदेश को उसी अर्थ के साथ प्राप्तकर्ता तक पहुँचाना है। इसलिए सफल संचार के लिए ज़रूरी है कि संचारक अपने संदेश को लेकर ख़ुद पूरी तरह से स्पष्ट हो। संदेश जितना ही स्पष्ट और सीधा होगा, संदेश के प्राप्तकर्ता को उसे समझना उतना ही आसान होगा।

    लेकिन संदेश को किसी माध्यम (चैनल) के ज़रिए प्राप्तकर्ता तक पहुँचाना होता है। जैसे हमारे बोले हुए शब्द ध्वनि तरंगों के ज़रिए प्राप्तकर्ता तक पहुँचते हैं, जबकि दृश्य संदेश प्रकाश तरंगों के ज़रिए। इसी तरह वायु तरंगों के ज़रिए भी संदेश पहुँचते हैं। जैसे खाने की ख़ुशबू हम तक वायु तरंगों के ज़रिए पहुँचती है। स्पर्श या छूना भी एक तरह का माध्यम है। इसी तरह टेलीफ़ोन, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविज़न, इंटरनेट और फ़िल्म आदि विभिन्न माध्यमों के ज़रिए भी संदेश प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है।

    प्राप्तकर्ता यानी रिसीवर प्राप्त संदेश का कूटवाचन यानी उसकी डीकोडिंग करता है। डीकोडिंग का अर्थ है प्राप्त संदेश में निहित अर्थ को समझने की कोशिश। यह एक तरह से एनकोडिंग की उलटी प्रक्रिया है। इसमें संदेश का प्राप्तकर्ता उन चिह्नों और संकेतों के अर्थ निकालता है। ज़ाहिर है कि संचारक और प्राप्तकर्ता दोनों का उस कोड से परिचित होना ज़रूरी है।

    संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की भी अहम भूमिका होती है, क्योंकि वही संदेश का आख़िरी लक्ष्य होता है। प्राप्तकर्ता कोई भी हो सकता है। वह कोई एक व्यक्ति हो सकता है, एक समूह हो सकता है, या कोई संस्था अथवा एक विशाल जनसमूह भी हो सकता है। प्राप्तकर्ता को जब संदेश मिलता है तो वह उसके मुताबिक़ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह प्रतिक्रिया सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती है। यानी आपका मित्र कह सकता है कि वह किताब देगा या नहीं। संचार प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की इस प्रतिक्रिया को फ़ीडबैक कहते हैं। संचार-प्रक्रिया की सफलता में फ़ीडबैक की अहम भूमिका होती है। फ़ीडबैक से ही पता चलता है कि संचार-प्रक्रिया में कहीं कोई बाधा तो नहीं आ रही है। इसके अलावा फ़ीडबैक से यह भी पता चलता है कि संचारक ने जिस अर्थ के साथ संदेश भेजा था वह उसी अर्थ में प्राप्तकर्ता को मिला है या नहीं? इस फ़ीडबैक के अनुसार ही संचारक अपने संदेश में करता है और इस तरह संचार की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।

    लेकिन वास्तविक जीवन में संचार प्रक्रिया इतनी सुचारू रूप से नहीं चलती। उसमें कई बाधाएँ भी आती हैं। इन बाधाओं को शोर (नॉयज़) कहते हैं। संचार की प्रक्रिया को शोर से बाधा पहुँचती है। यह शोर किसी भी क़िस्म का हो सकता है। यह मानसिक से लेकर तकनीकी और भौतिक शोर तक हो सकता है। शोर के कारण संदेश अपने मूल रूप में प्राप्तकर्ता तक नहीं पहुँच पाता। सफल संचार के लिए संचार प्रक्रिया से शोर को हटाना या कम करना बहुत ज़रूरी है।

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    संचार के प्रकार

    संचार एक जटिल प्रक्रिया है। उसके कई रूप या प्रकार हैं। हम यहाँ अध्ययन की सुविधा के लिए उन्हें अलग-अलग समझने की कोशिश करेंगे। वैसे संचार के विभिन्न रूप या प्रकार एक-दूसरे में भी काफ़ी घुले मिले हैं। उन्हें अलग-अलग देखना काफ़ी मुश्किल है।

    जैसे कभी आप अपने मित्र को इशारे से बुलाते हैं। ज़ाहिर है कि यह इशारा भी संचार है। इसे सांकेतिक संचार कहते हैं। जब हम अपने से बड़ों को सम्मान से प्रणाम करते हैं तो उसमें मौखिक संचार के साथ-साथ दोनों हथेलियाँ जोड़कर प्रणाम का इशारा भी करते हैं। इस तरह एक ही साथ मौखिक और अमौखिक संचार होता है। जैसे हम किसी से बातें करते हुए अपनी आँखों, चेहरे, हाथ की गति और स्वर के उतार-चढ़ाव के ज़रिए मौखिक संचार की अमौखिक क्रियाओं की मदद कर रहे होते हैं। मौखिक संचार की सफलता में अमौखिक संचार की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे जीवन की कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण भावनाएँ मौखिक से कहीं ज़्यादा अमौखिक संचार के ज़रिए व्यक्त होती हैं जैसे-ख़ुशी, दुख, प्रेम, डर, आदि।

    संचार के विभिन्न रूपों को हम एक और तरह से देख सकते हैं। याद कीजिए, जब आप अकेले में होते हैं तो क्या कर रहे होते हैं? आप कुछ सोच रहे होते हैं, कुछ योजना बना रहे होते हैं या किसी को याद कर रहे होते हैं। यह भी एक संचार है। इस संचार प्रक्रिया में संचारक और प्राप्तकर्ता एक ही व्यक्ति होता है। यह संचार का सबसे बुनियादी रूप है। इसे अंतः वैयक्तिक (इंट्रापर्सनल) संचार कहते हैं। हम जब पूजा इबादत या प्रार्थना करते वक़्त ध्यान में होते हैं तो वह भी अंतः वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। किसी भी संचार की शुरुआत यहीं से होती है। हम पहले सोचते हैं, फिर किसी और से संवाद करते हैं। स्पष्ट है कि किसी विषय या मुद्दे पर सोच-विचार करना या विचार-मंथन भी संचार का ही एक रूप है।

    लेकिन जब दो व्यक्ति आपस में और आमने-सामने संचार करते हैं तो इसे अंतरवैयक्तिक (इंटरपर्सनल) संचार कहते हैं। इस संचार में फ़ीडबैक तत्काल प्राप्त होता है। अंतरवैयक्तिक संचार की मदद से ही हम आपसी संबंध विकसित करते हैं और अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं। संचार का यह रूप पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की बुनियाद है। अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता के लिए हमारा अंतरवैयक्तिक संचार का कौशल उन्नत और प्रभावी होना चाहिए। इस कौशल की ज़रूरत हमें क़दम-क़दम पर पड़ती है। नौकरी और दाख़िले के लिए होने वाले इंटरव्यू में आपके इसी कौशल की परख होती है।

    संचार का तीसरा प्रकार है—समूह संचार। इसमें एक समूह आपस में विचार-विमर्श या चर्चा करता है। जैसे आपकी कक्षा समूह संचार का एक अच्छा उदाहरण है। इस संचार में हम जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी एक या दो व्यक्ति के लिए न होकर पूरे समूह के लिए होता है। समूह संचार का उपयोग समाज और देश के सामने उपस्थित समस्याओं को बातचीत और बहस मुबाहिसे के ज़रिए हल करने के लिए होता है। संसद में जब विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती है तो यह भी समूह संचार का ही एक उदाहरण है। इसी तरह गाँव की पंचायत या किसी समिति की बैठक भी समूह संचार का उदाहरण है, जहाँ गाँव के लोग या समिति के सदस्य आपस में चर्चा कर किसी निर्णय तक पहुँचते हैं।

    संचार का सबसे महत्त्वपूर्ण और आख़िरी प्रकार है—जनसंचार (मास कम्युनिकेशन)। जब हम व्यक्तियों के समूह के साथ प्रत्यक्ष संवाद की बजाए किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के ज़रिए समाज के एक विशाल वर्ग से संवाद क़ायम करने की कोशिश करते हैं तो इसे जनसंचार कहते हैं।

    इसमें एक संदेश को यांत्रिक माध्यम के ज़रिए बहुगुणित किया जाता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए हमें किसी उपकरण या माध्यम की मदद लेनी पड़ती है—मसलन अख़बार, रेडियो, टी.वी., सिनेमा या इंटरनेट। अख़बार में प्रकाशित होने वाले समाचार वही होते हैं लेकिन प्रेस के ज़रिए उनकी हज़ारों-लाखों प्रतियाँ प्रकाशित करके विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचाई जाती हैं।

     

    जनसंचार की विशेषताएँ

    जनसंचार में फ़ीडबैक तुरंत नहीं प्राप्त होता है। जनसंचार के श्रोताओं, पाठकों और दर्शकों का दायरा बहुत व्यापक होता है। साथ ही उनका गठन भी बहुत पंचमेल होता है। जैसे किसी टेलीविज़न चैनल के दर्शकों में अमीर वर्ग भी हो सकता है और ग़रीब वर्ग भी, शहरी भी और ग्रामीण भी, पुरुष भी और महिला भी युवा तथा वृद्ध भी। इसके अलावा उनमें कोई दिल्ली में बैठा हो सकता है और कोई पटना में। लेकिन सभी एक ही समय टी.वी. पर अपनी पसंद का कार्यक्रम देख रहे हो सकते हैं। इसी से जुड़ी जनसंचार की एक प्रमुख विशेषता यह है कि जनसंचार माध्यमों के ज़रिए प्रकाशित या प्रसारित संदेशों को प्रकृति सार्वजनिक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतरवैयक्तिक या समूह संचार की तुलना में जनसंचार के संदेश सबके लिए होते हैं।

    जनसंचार का संचार के अन्य रूपों से एक फ़र्क़ यह भी है कि इसमें संचारक और प्राप्तकर्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता है। प्राप्तकर्ता यानी पाठक, श्रोता और दर्शक संचारक को उसकी सार्वजनिक भूमिका के कारण पहचानता है। संचार के अन्य रूपों की तुलना में जनसंचार के लिए एक औपचारिक संगठन की भी ज़रूरत पड़ती है। औपचारिक संगठन के बिना जनसंचार माध्यमों को चलाना मुश्किल है। जैसे समाचारपत्र किसी न किसी संगठन से प्रकाशित होता है या रेडियो का प्रसारण किसी रेडियो संगठन की ओर से किया जाता है।

    जनसंचार माध्यमों की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनमें ढेर सारे द्वारपाल (गेटकीपर) काम करते हैं। द्वारपाल वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह है जो जनसंचार माध्यमों से प्रकाशित या प्रसारित होने वाली सामग्री को नियंत्रित और निर्धारित करता है। किसी जनसंचार माध्यम में काम करने वाले द्वारपाल ही तय करते हैं कि वहाँ किस तरह की सामग्री प्रकाशित या प्रसारित की जाएगी। जैसे किसी समाचारपत्र में संपादक और उसके सहायक समाचार संपादक, सहायक संपादक, उपसंपादक आदि यह तय करते हैं कि समाचारपत्र में क्या छपेगा, कितना छपेगा और किस तरह छपेगा। इसी तरह टी.वी. और रेडियो में भी द्वारपाल होते हैं जो उससे प्रसारित होने वाली सामग्री को निर्धारित करते हैं।

    जनसंचार माध्यमों में द्वारपाल की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह उनकी ही ज़िम्मेदारी है कि वे सार्वजनिक हित, पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और आचार संहिता के अनुसार सामग्री को संपादित करें और उसके बाद ही उनके प्रसारण या प्रकाशन की इजाज़त दें।

     

    संचार के कार्य

    आप अपने रोज़मर्रा के जीवन में संचार का ख़ूब इस्तेमाल करते हैं। निश्चय ही आप उसके उपयोग और कार्यो से बहुत हद तक परिचित हैं। संचार विशेषज्ञों के अनुसार संचार के कई कार्य हैं। इनमें से कुछ कार्यों को हम यहाँ रेखाकिंत कर सकते हैं—

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    जनसंचार के कार्य

    जिस प्रकार संचार के कई कार्य हैं, उसी तरह जनसंचार माध्यमों के भी कई कार्य हैं। उनमें से कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं—

    सूचना देना—जनसंचार माध्यमों का प्रमुख कार्य सूचना देना है। हमें उनके ज़रिए ही दुनियाभर से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। हमारी ज़रूरतों का बड़ा हिस्सा जनसंचार माध्यमों के ज़रिए ही पूरा होता है।

    शिक्षित करना—जनसंचार माध्यम सूचनाओं के ज़रिए हमें जागरूक बनाते हैं। लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका जनता को शिक्षित करने की है। यहाँ शिक्षित करने से आशय उन्हें देश-दुनिया के हाल से परिचित कराने और उसके प्रति सजग बनाने से है।

    मनोरंजन करना—जनसंचार माध्यम मनोरंजन के भी प्रमुख साधन हैं। सिनेमा, टी.वी., रेडियो, संगीत के टेप, वीडियो और किताबें आदि मनोरंजन के प्रमुख माध्यम हैं।

    एजेंडा तय करना—जनसंचार माध्यम सूचनाओं और विचारों के ज़रिए किसी देश और समाज का एजेंडा भी तय करते हैं। जब समाचारपत्र और समाचार चैनल किसी ख़ास घटना या मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हैं या उन्हें व्यापक कवरेज देते हैं तो वे घटनाएँ या मुद्दे आम लोगों में चर्चा के विषय बन जाते हैं। किसी घटना या मुद्दे को चर्चा का विषय बनाकर जनसंचार माध्यम सरकार और समाज को उस पर अनुकूल प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य कर देते हैं। 

    निगरानी करना—किसी लोकतांत्रिक समाज में जनसंचार माध्यमों का एक और प्रमुख कार्य सरकार और संस्थाओं के कामकाज पर निगरानी रखना भी है। अगर सरकार कोई ग़लत क़दम उठाती है या किसी संगठन/संस्था में कोई अनियमितता बरती जा रही है तो उसे लोगों के सामने लाने की ज़िम्मेदारी जनसंचार माध्यमों पर है।

    विचार-विमर्श के मंच—जनसंचार माध्यमों का एक कार्य यह भी है कि वे लोकतंत्र में विभिन्न विचारों को अभिव्यक्ति का मंच उपलब्ध कराते हैं। इसके ज़रिए विभिन्न विचार लोगों के सामने पहुँचते हैं। जैसे किसी समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर किसी घटना या मुद्दे पर विभिन्न विचार रखने वाले लेखक अपनी राय व्यक्त करते हैं। इसी तरह संपादक के नाम चिट्ठी स्तंभ में आम लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का मौक़ा मिलता है। इस तरह जनसंचार माध्यम विचार-विमर्श के मंच के रूप में भी काम करते हैं।

     

    भारत में जनसंचार माध्यमों का विकास

    भारत में आज जनसंचार के आधुनिक माध्यम जिस रूप में मौजूद हैं, उसकी प्रेरणा भले ही पश्चिमी जनसंचार माध्यम रहे हों लेकिन हमारे देश में भी जनसंचार माध्यमों का इतिहास कम पुराना नहीं हैं। बड़ी सहजता के साथ इसके बीज पौराणिक काल के मिथकीय पात्रों में खोजे जा सकते हैं। देवर्षि नारद को भारत का पहला समाचार वाचक माना जाता है जो वीणा की मधुर झंकार वे साथ धरती और देवलोक के बीच संवाद-सेतु थे। उन्हीं की तरह महाभारत काल में महाराज धृतराष्ट्र और रानी गांधारी को युद्ध की झलक दिखाने और उसका विवरण सुनाने के लिए जिस तरह संजय की परिकल्पना की गई है, वह एक अत्यंत समृद्ध संचार व्यवस्था की ओर इशारा करती है।

    जनभावनाओं को राजदरबार तक पहुँचाने और राजा का संदेश जनता के बीच प्रसारित करने की समृद्ध व्यवस्थाओं के उदाहरण बाद में भी दिखाई पड़ते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे सम्राटों के शासन काल में स्थायी महत्त्व के संदेशों के लिए शिलालेखों और सामयिक या तात्कालिक संदेशों के लिए कच्ची स्याही या रंगों से संदेश लिखकर प्रदर्शित करने की व्यवस्था और मज़बूत हुई। तब बाक़ायदा रोज़नामचा लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगे और जनता के बीच संदेश भेजने के लिए भी सही व्यवस्था की गई।

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    लेकिन भारतीय संचार परंपरा की ख़ासियत यह भी रही है कि राजदरबारों के समानांतर हमारे यहाँ लोक माध्यमों की भी सुलझी व्यवस्था मौजूद रही है। इसके संकेत प्रागैतिहासिक काल से ही मिलते हैं। भीमबेटका के गुफाचित्र इसके प्रमाण हैं। यह समानांतर व्यवस्था बाद में कठपुतली और लोकनाटकों की विविध शैलियों के रूप में दिखाई पड़ती है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विविध नाट्यरूपों—कथावाचन, बाउल, सांग, रागनी, तमाशा, लावनी, नौटंकी, जात्रा, गंगा-गौरी, यक्षगान आदि का विशेष महत्त्व है। इन विधाओं के कलाकार मनोरंजन तो करते ही थे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक संदेश पहुँचाने और जनमत निर्माण करने का काम भी करते थे।

    लेकिन जनसंचार के आधुनिक माध्यमों के जो रूप आज हमारे यहाँ हैं, वे निश्चय ही हमें अँग्रेज़ों से मिले हैं। चाहे समाचारपत्र हों या रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, सभी माध्यम पश्चिम से ही आए। हमने शुरुआत में उन्हें उसी रूप में अपनाया लेकिन धीरे-धीरे वे हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग बनते चले गए। चाहे फ़िल्में हों या टी.वी. सीरियल, एक समय के बाद वे भारतीय नाट्य परंपरा से परिचालित होने लगते हैं। इसलिए आज के जनसंचार माध्यमों का खाका भले पश्चिमी हो, लेकिन उनकी विषयवस्तु और रंगरूप भारतीय ही हैं। चूँकि उसकी भूमिका भी कहीं अधिक बढ़ चली है, इसलिए जहाँ वह शासक वर्ग के लिए राष्ट्र निर्माण की दिशा तय करता है, वहीं जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करता है।

    जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में प्रमुख हैं—समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और इंटरनेट। इन माध्यमों के ज़रिए जो भी सामग्री आज जनता तक पहुँच रही है, राष्ट्र के मानस का निर्माण करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

     

    समाचारपत्र-पत्रिकाएँ

    जनसंचार की सबसे मज़बूत कड़ी पत्र-पत्रिकाएँ या प्रिंट मीडिया ही है। हालाँकि अपने विशाल दर्शक वर्ग और तीव्रता के कारण रेडियो और टेलीविज़न की ताक़त ज़्यादा मानी जा सकती है लेकिन वाणी को शब्दों के रूप में रिकार्ड करने वाला आरंभिक माध्यम होने की वजह से प्रिंट मीडिया का महत्त्व हमेशा बना रहेगा। आज भले ही प्रिंट, रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, किसी भी माध्यम से ख़बरों के संचार को पत्रकारिता कहा जाता हो, लेकिन आरंभ में केवल प्रिंट माध्यमों के ज़रिए ख़बरों के आदान-प्रदान को ही पत्रकारिता कहा जाता था। इसके तीन पहलू हैं—पहला समाचारों को संकलित करना, दूसरा उन्हें संपादित कर छपने लायक बनाना और तीसरा पत्र या पत्रिका के रूप में छापकर पाठक तक पहुँचाना। हालाँकि तीनों ही काम आपस में गहरे जुड़े हैं लेकिन पत्रकारिता के तहत हम पहले दो कामों को ही लेते हैं क्योंकि प्रकाशन और वितरण का कार्य तकनीकी और प्रबंधकीय विभागों के अधीन होते हैं जबकि रिपोर्टिंग और संपादन के काम के लिए एक विशेष बौद्धिक और पत्रकारीय कौशल की अपेक्षा होती है।

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    जहाँ बाहर से ख़बरें लाने का काम संवाददाताओं का होता है, वहीं तमाम ख़बरों, लेखों, फ़ीचरों को व्यवस्थित तरीक़े से संपादित करने और सुरुचिपूर्ण ढंग से छापने का काम संपादकीय विभाग में काम करनेवाले संपादकों का होता है। आज पत्रकारिता का क्षेत्र भी बहुत व्यापक हो चला है। ख़बर का संबंध किसी एक या दो विषयों से नहीं होता। दुनिया के किसी भी कोने की घटना समाचार बन सकती है बशर्ते कि उसमें पाठकों की दिलचस्पी हो या उसमें सार्वजनिक हित निहित हो।

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    हालाँकि दुनिया में अख़बारी पत्रकारिता को अस्तित्व में आए 400 साल हो गए हैं, लेकिन भारत में इसकी शुरुआत सन् 1780 में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गजट’ से हुई जो कलकत्ता (कोलकाता) से निकला था जबकि हिंदी का पहला साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ भी कलकत्ता से ही सन् 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकला था। हिंदी भाषा के विकास में शुरुआती अख़बारों और पत्रिकाओं ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस लिहाज़ से भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम हमेशा सम्मान के साथ लिया जाएगा जिन्होंने कई पत्रिकाएँ निकालीं।

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    1. आज़ादी के दिन का 'हिन्दुस्तान' 2. हिंदी के विकास में अग्रणी भूमिका निभाने वाली 'सरस्वती' 3. प्रेमचंद द्वारा संपादित 'हंस' का पहला अंक, 4. बीसवीं सदी के साहित्यिक बदलाव का मुख्य पत्र 'मतवाला' 5. बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित, जुलाई 1947 का 'विशाल भारत'।

    आज़ादी के आंदोलन में भारतीय पत्रों ने अहम भूमिका निभाई। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक और मदनमोहन मालवीय जैसे नेताओं ने लोगों को जागरूक बनाने के लिए पत्रकार की भी भूमिका निभाई। गांधी जी को हम समकालीन भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कह सकते हैं, क्योंकि आज़ादी दिलाने में उनके पत्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ादी के पहले के प्रमुख पत्रकारों में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, प्रताप नारायण मिश्र, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी और बालमुकुंद गुप्त हैं। उस समय के महत्त्वपूर्ण अख़बारों और पत्रिकाओं में ‘केसरी’, ‘हिंदुस्तान’, ‘सरस्वती’, ‘हंस’, ‘कर्मवीर’, ‘आज’, ‘प्रताप’, ‘प्रदीप’ और ‘विशाल भारत’ आदि प्रमुख हैं।

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    लेकिन जहाँ आज़ादी से पहले पत्रकारिता का लक्ष्य स्वाधीनता की प्राप्ति था, वहीं आज़ादी के बाद पत्रकारिता का लक्ष्य बदलने लगा। शुरुआती दो दशकों तक पत्रकारिता राष्ट्र-निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध दिखती थी। लेकिन उसके बाद उसका चरित्र व्यावसायिक और प्रोफ़ेशनल होने लगा। यही कारण है कि कुछ लोग कहते हैं कि आज़ादी से पहले पत्रकारिता एक मिशन थी लेकिन आज़ादी के बाद वह एक व्यवसाय बन गई। आज़ादी के बाद अधिकतर पुरानी पत्रिकाएँ बंद हो गई और कई नए समाचारपत्रों और पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ।

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    आज़ादी के बाद के प्रमुख हिंदी अख़बारों में ‘नवभारत टाइम्स’, ‘जनसत्ता’, ‘नई दुनिया’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’ और पत्रिकाओं में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ का नाम लिया जा सकता है। इनमें से कई पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं। आज़ादी के बाद के हिंदी के प्रमुख पत्रकारों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम लिया जा सकता है। 

     

    रेडियो

    पत्र-पत्रिकाओं के बाद जिस माध्यम ने दुनिया को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, वह रेडियो है। सन् 1895 में जब इटली के इलैक्ट्रिकल इंजीनियर जी. मार्कोनी ने वायरलेस के ज़रिए ध्वनियों और संकेतों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने में कामयाबी हासिल की, तब रेडियो जैसा माध्यम अस्तित्व में आया। पहले विश्वयुद्ध तक यह सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक महत्त्वपूर्ण औज़ार बन चुका था। शुरुआती रेडियो स्टेशन अमेरिकी शहर पिट्सबर्ग, न्यूयॉर्क और शिकागो में खुले। भारत ने 1921 में मुंबई में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने डाक-तार विभाग के सहयोग से पहला संगीत कार्यक्रम प्रसारित किया। 1936 में विधिवत ऑल इंडिया रेडियो की स्थापना हुई और आज़ादी के समय तक देश में कुल नौ रेडियो स्टेशन खुल चुके थे—लखनऊ, दिल्ली, बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चैन्नई), तिरुचिरापल्ली, ढाका, लाहौर और पेशावर। ज़ाहिर है इनमें से तीन रेडियो स्टेशन विभाजन के साथ पाकिस्तान के हिस्से में चले गए।

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    आज़ादी के बाद भारत में रेडियो एक बेहद ताक़तवर माध्यम के रूप में विकसित हुआ। एक धर्मनिरपेक्ष, लोकहितकारी राष्ट्र के जनमाध्यम के तौर पर देश के नवनिर्माण में आकाशवाणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। सूचना और शिक्षा के अलावा देश की सामासिक संस्कृति को उभारने और राष्ट्रीय नवनिर्माण के लिए शुरू किए गए कार्यक्रमों को एक आवाज़ देने का काम रेडियो ने किया।

    आज आकाशवाणी देश की 24 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। देश की 96 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुँच है। 1993 में एफ़एम (फ्रिक्वेंसी मॉड्यूलेशन) की शुरुआत के बाद रेडियो के क्षेत्र में कई निजी कंपनियाँ भी आगे आई हैं। लेकिन अभी उन्हें समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है। 1997 में आकाशवाणी और दूरदर्शन को केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण से निकालकर प्रसार भारती नाम के स्वायत्तशासी निकाय को सौंप दिया गया। असल में, लंबे अर्से तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण रेडियो में आ गई जड़ता को तोड़ने की पहल 1995 में उच्चतम न्यायालय के एक फ़ैसले ने की। इस फ़ैसले में कहा गया कि ध्वनि तरंगों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए। एफ.एम. के दूसरे चरण के साथ देश के 90 शहरों में 350 से अधिक निजी एफ़एम चैनल शुरू हो रहे हैं। इसके साथ ही सामुदायिक या कम्युनिटी रेडियो केंद्रों के आने से देश में रेडियो की नई संस्कृति अस्तित्व में आ रही है।

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    रेडियो एक ध्वनि माध्यम है। इसकी तात्कालिकता, घनिष्ठता और प्रभाव के कारण गांधी जी ने रेडियो को एक अद्भुत शक्ति कहा था। ध्वनि तरंगों के ज़रिए यह देश के कोने-कोने तक पहुँचता है। दूर-दराज के गाँवों में, जहाँ संचार और मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होते, वहाँ रेडियो ही एकमात्र साधन है, बाहरी दुनिया से जुड़ने का। फिर अख़बार और टेलीविज़न की तुलना में यह बहुत सस्ता भी है। इसलिए भारत के दूरदराज़ के इलाक़ों में लोगों ने रेडियो क्लब बना लिए हैं। आकाशवाणी के अलावा सैकड़ों निजी एफ़एम स्टेशनों और बीबीसी, वॉयस ऑफ़ अमेरिका, डोयचे वेले (रेडियो जर्मनी), मास्को रेडियो, रेडियो पेइचिंग, रेडियो आस्ट्रेलिया जैसे कई विदेशी प्रसारण और हैम अमेच्योर रेडियो क्लबों (स्वतंत्र समूह द्वारा संचालित पंजीकृत रेडियो स्टेशन) का जाल बिछा हुआ है।

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    टेलीविज़न

    आज टेलीविज़न जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और ताक़तवर माध्यम बन गया है। प्रिंट मीडिया के शब्द और रेडियो की ध्वनियों के साथ जब टेलीविज़न के दृश्य मिल जाते हैं तो सूचना की विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाती है। पश्चिमी देशों में रेडियो के विकास के साथ ही टेलीविज़न पर भी प्रयोग शुरू हो गए थे। 1927 में बेल टेलीफ़ोन लेबोरेट्रीज़ ने न्यूयॉर्क और वाशिंगटन के बीच प्रायोगिक टेलीविज़न कार्यक्रम का प्रसारण किया। 1936 तक बीबीसी ने भी अपनी टेलीविज़न सेवा शुरू कर दी थी।

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    भारत में टेलीविज़न की शुरुआत यूनेस्को की एक शैक्षिक परियोजना के तहत 15 सितंबर, 1959 को हुई थी। इसका मकसद टेलीविज़न के ज़रिए शिक्षा और सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना था। इसके तहत दिल्ली के आसपास के गाँवों में 2 टी.वी. सेट लगाए गए जिन्हें 200 लोगों ने देखा। यह हफ़्ते में दो बार एक-एक घंटे के लिए दिखाया जाता था। लेकिन 1965 में स्वतंत्रता दिवस से भारत में विधिवत टी.वी. सेवा का आरंभ हुआ। तब रोज़ एक घंटे के लिए टी.वी. कार्यक्रम दिखाया जाने लगा। 1975 तक दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर, अमृतसर, कोलकाता, मद्रास और लखनऊ में टी.वी. सेंटर खुल गए। लेकिन 1976 तक टी.वी. सेवा आकाशवाणी का हिस्सा थी। 1 अप्रैल 1976 से इसे अलग कर दिया गया। इसे दूरदर्शन नाम दिया गया। 1984 में इसकी रजत जयंती मनाई गई।

    स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को दूरदर्शन की ताक़त का एहसास था। वह देशभर में टेलीविज़न केंद्रों का जाल बिछाना चाहती थी। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोफ़ेसर पी.सी. जोशी की अध्यक्षता में दूरदर्शन के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक समिति गठित की। जोशी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, हमारे जैसे समाज में जहाँ पुराने मूल्य टूट रहे हों और नए न बन रहे हों, वहाँ दूरदर्शन बड़ी भूमिका निभाते हुए जनतंत्र को मज़बूत बना सकता है।

    समिति के मुताबिक़ जनसंचार माध्यम के बतौर भारत में दूरदर्शन के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए—

    सामाजिक परिवर्तन

    राष्ट्रीय एकता

    ▶वैज्ञानिक चेतना का विकास

    ▶परिवार कल्याण को प्रोत्साहन

    ▶कृषि विकास

    ▶पर्यावरण संरक्षण

    ▶सामाजिक विकास

    ▶खेल संस्कृति का विकास

    ▶सांस्कृतिक धरोहर को प्रोत्साहन

    दूरदर्शन ने देश की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है, लेकिन लंबे समय तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण इसमें ताज़गी का अभाव खटकने लगा और पत्रकारिता के निष्पक्ष माध्यम के तौर पर यह अपनी जगह नहीं बना पाया। अलबत्ता मनोरंजन के एक लोकप्रिय माध्यम के तौर पर इसने अपनी एक ख़ास जगह बना ली है।

    1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान दुनियाभर के लोगों ने केबल टी.वी. के ज़रिए युद्ध का सीधा प्रसारण देखा। यह एक अलग ही तरह का अनुभव था। बाद में यह भी कहा गया कि यह युद्ध जितना अमेरिकी सेनाओं ने लड़ा, उतना ही सीएनएन केबल न्यूज़ नेटवर्क नाम के टी.वी. चैनल ने लड़ा। इसके बाद भारत में भी टी.वी. की दुनिया में निजी चैनलों की शुरुआत हुई, विदेशी चैनलों को प्रसारण की अनुमति दी गई और इसके साथ ही भारत में सीएनएन, बीबीसी जैसे चैनल दिखाए जाने लगे। जल्दी ही स्टार टी.वी. जैसे चैनलों ने अपने भारत केंद्रित समाचार चैनल भी आरंभ कर दिए। इसके अलावा डिस्कवरी, नेशनल ज्यॉग्राफ़िक जैसे शैक्षिक और मनोरंजन चैनलों के साथ ही एफ़टी.वी., एमटी.वी. व वीटी.वी. जैसे विशुद्ध पश्चिमी क़िस्म के चैनल भी दिखने लगे। कुछ लोगों ने इसे देश पर सांस्कृतिक हमला भी कहा और इन चैनलों का विरोध किया।

    लेकिन टेलीविज़न का असली विस्तार तब हुआ, जब भारत में देशी निजी चैनलों की बाढ़ आने लगी। अक्टूबर, 1993 में जी टी.वी. और स्टार टी.वी. के बीच अनुबंध हुआ। उसके बाद समाचार के क्षेत्र में भी जी न्यूज़ और स्टार न्यूज़ नामक चैनल आए और सन् 2002 में आजतक के स्वतंत्र चैनल के रूप में आने के बाद तो जैसे समाचार चैनलों की बाढ़ ही आ गई। जहाँ पहले हमारे सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण और सामाजिक उन्नयन था, वहीं इन निजी चैनलों का मकसद व्यावसायिक लाभ कमाना रह गया। इससे जहाँ टेलीविजन समाचार को निष्पक्षता की पहचान मिली, उसमें ताज़गी आई और वह पेशेवर हुआ, वहीं एक अंधी होड़ के कारण अनेक बार पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी नैतिकता का भी हनन हुआ। इसके बावजूद आज पूरे भारत में 200 से अधिक चैनल प्रसारित हो रहे हैं और रोज़ नए-नए चैनलों की बाढ़ आ रही है। 

     

    सिनेमा

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    जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली माध्यम है—सिनेमा। हालाँकि यह जनसंचार के अन्य माध्यमों की तरह सीधे तौर पर सूचना देने का काम नहीं करता लेकिन परोक्ष रूप में सूचना, ज्ञान और संदेश देने का काम करता है। सिनेमा को मनोरंजन के एक सशक्त माध्यम के तौर पर देखा जाता रहा है।

    सिनेमा के आविष्कार का श्रेय थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है और यह 1883 में मिनेटिस्कोप को खोज के साथ जुड़ा हुआ है। 1894 में फ़्रांस में पहली फ़िल्म बनी ‘द अराइवल ऑफ़ ट्रेन’। सिनेमा की तकनीक में तेज़ी से विकास हुआ और जल्दी ही यूरोप और अमेरिका में कई अच्छी फ़िल्में बनने लगीं।

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    भारत में पहली मूक फ़िल्म बनाने का श्रेय दादा साहेब फाल्के को जाता है। यह फ़िल्म थी 1913 में बनी ‘राजा हरिश्चंद्र’। इसके बाद के दो दशकों में कई और मूक फ़िल्में बनीं। इनके कथानक धर्म, इतिहास और लोक गाथाओं के इर्द-गिर्द बुने जाते रहे। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म बनी आलम आरा’। इसके बाद बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ। आज़ादी के बाद जहाँ एक तरफ़ भारतीय सिनेमा ने देश के सामाजिक यथार्थ को गहराई से पकड़कर आवाज़ देने की कोशिश की, वहीं लोकप्रिय सिनेमा ने व्यावसायिकता का रास्ता अपनाया। एक तरफ़ पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, सोहराब मोदी, गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकार थे तो दूसरी तरफ़ सत्यजित राय जैसे फ़िल्मकार।

    सत्तर के दशक तक सिनेमा के मूल में प्रेम, फंतासी और एक कभी न हारने वाले सुपर नैचुरल हीरो की परिकल्पना रही। कहानियों में कुछ न कुछ संदेश देने की भी कोशिश हुई लेकिन बहुत ही अव्यावहारिक तरीक़े से। सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ फ़िल्मकारों ने महसूस किया कि सिनेमा जैसे सशक्त संचार माध्यम का इस्तेमाल आम लोगों में चेतना फैलाने, उसे व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से जोड़ने और अन्याय के ख़िलाफ़ एक कलात्मक अभिव्यक्ति के तौर पर किया जाए। यही समानांतर सिनेमा का दौर था और इस दौरान ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘अर्धसत्य’ जैसी फ़िल्में बनी।

    हालाँकि सत्यजित राय ने पचास के दशक में ही ‘पथेर पांचाली’ बनाकर इसकी शुरुआत कर दी थी लेकिन समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन की शक्ल ली साठ के दशक के आख़िरी वर्षों और सत्तर के दशक में। यह आंदोलन अस्सी के दशक में भी जारी रहा। इस धारा में सत्यजित राय के अलावा श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, अदूर गोपालकृष्णन, एम.एस. सथ्यू, गोविंद निहलानी जैसे फ़िल्मकार शामिल हुए।

    लेकिन बाज़ारवाद और व्यावसायिकता के दबाव में समानांतर या कला फ़िल्मों का दौर अस्सी के दशक में ही ख़त्म होने लगा। एक बार फिर लोकप्रिय मुंबइयाँ फ़िल्में छाने लगीं। दरअसल, हिंदी सिनेमा पर शुरू से ही पॉपुलर या लोकप्रिय फ़िल्मों का दबदबा रहा है। कला फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा इसलिए भी कहा गया क्योंकि वे अपनी अंतरवस्तु में लोकप्रिय फ़िल्मों के समानांतर चलती थीं। कला फ़िल्मों के कमज़ोर पड़ने के साथ एक बार फिर पॉपुलर या लोकप्रिय सिनेमा हावी हो गया और तकनीक कथानक पर भारी पड़ने लगी।

    भारतीय सिनेमा में पारिवारिक फ़िल्मों की भी एक धारा लगातार चलती रही है। हलके-फुलके हास्य और एक आम आदमी के परिवार की खट्टी-मीठी कहानी पर बनी इन साफ़-सुथरी फ़िल्मों को भी ख़ूब पसंद किया गया। लोकप्रिय और पारिवारिक फ़िल्मों की पहुँच गाँव और शहर के साधारण दर्शकों तक रहती आई है। इस तरह की फ़िल्मों में दर्शकों को बाँधने वाला कथानक, रोज़मर्रा की समस्याएँ, मधुर संगीत, पारंपरिक नृत्य और संस्कृति के कई आयाम दिखाई देते हैं। इस धारा के फ़िल्मकारों में राज कपूर, गुरुदत्त, बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी जैसे कई नाम हैं।

    लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक में मुंबइयाँ सिनेमा पर व्यावसायिकता का नशा इस क़दर छाता गया कि फ़ॉर्मूला फ़िल्में फ़िल्मकारों के लिए मुनाफ़ा कमाने का सबसे बड़ा हथियार बन गईं। ऐसी फ़िल्मों के केंद्र में रोमांस, हिंसा, सेक्स और एक्शन को रखा जाता रहा है। कहने के लिए हर फ़िल्म में कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की औपचारिकता निभाई जाती है लेकिन इनका मक़सद महज़ पैसा कमाना है। ऐसी फ़िल्मों ने ख़ासकर युवाओं के मन में बहुत ग़लत प्रभाव छोड़ा है।

    इस तरह हम कह सकते हैं कि सिनेमा जनसंचार के एक बेहतरीन और सबसे ताक़तवर माध्यमों में से एक है। इसके कई और आयाम भी हैं। यह मनोरंजन के साथ-साथ समाज को बदलने का, लोगों में नई सोच विकसित करने का और अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को सपनों की दुनिया में ले जाने का माध्यम भी है।

    मौजूदा समय में भारत हर साल लगभग 800 फ़िल्मों का निर्माण करता है और दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म निर्माता देश बन गया है। यहाँ हिंदी के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषा और बोली में फ़िल्में बनती हैं और ख़ूब चलती हैं।

     

    इंटरनेट

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    इंटरनेट जनसंचार का सबसे नया लेकिन तेज़ी से लोकप्रिय हो माध्यम है। एक ऐसा माध्यम जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा यहाँ तक कि पुस्तकालय के सारे गुण मौजूद हैं। उसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है और उसकी रफ़्तार का कोई जवाब नहीं है। उसमें सारे माध्यमों का समागम है। इंटरनेट पर आप दुनिया के किसी भी कोने से छपनेवाले अख़बार या पत्रिका में छपी सामग्री पढ़ सकते हैं। रेडियो सुन सकते हैं। सिनेमा देख सकते हैं। किताब पढ़ सकते हैं और विश्वव्यापी जाल के भीतर जमा करोड़ों पन्नों में से पलभर में अपने मतलब को सामग्री खोज सकते हैं।

    यह एक अंतरक्रियात्मक माध्यम है यानी आप इसमें मुक दर्शक नहीं हैं। आप सवाल-जवाब, बहस मुबाहिसों में भाग लेते हैं, आप चैट कर सकते हैं और मन हो तो अपना ब्लॉग बनाकर पत्रकारिता की किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। इंटरनेट ने हमें मीडिया समागम यानी कंवर्जेंस के युग में पहुँचा दिया है और संचार की नई संभावनाएँ जगा दी हैं। हर माध्यम में कुछ गुण और कुछ अवगुण होते हैं। इंटरनेट ने जहाँ पढ़ने-लिखने वालों के लिए, शोधकर्ताओं के लिए संभावनाओं के नए कपाट खोले हैं, हमें विश्वग्राम का सदस्य बना दिया है, वहीं इसमें कुछ खामियाँ भी हैं। पहली ख़ामी तो यही है कि उसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं जिसका बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ सकता है। दूसरी ख़ामी यह है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। हाल के वर्षों में इंटरनेट के दुरुपयोग की कई घटनाएँ सामने आई हैं।

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    जनसंचार माध्यमों का प्रभाव

    आज के संचार प्रधान समाज में जनसंचार माध्यमों के बिना हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। हमारी जीवनशैली पर संचार माध्यमों का ज़बरदस्त असर है। अख़बार पढ़े बिना हमारी सुबह नहीं होती। जो अख़बार नहीं पड़ते, वे रोज़मर्रा की ख़बरों के लिए रेडियो या टी.वी. पर निर्भर रहते हैं। हमारी महानगरीय युवा पीढ़ी समाचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का उपयोग करने लगी है। ख़रीद-फ़रोख़्त के हमारे फ़ैसलों तक पर विज्ञापनों का असर साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ तक कि शादी-ब्याह के लिए भी लोगों की अख़बार या इंटरनेट के मैट्रिमोनियल पर निर्भरता बढ़ने लगी है। टिकट बुक कराने और टेलीफ़ोन का बिल जमा कराने से लेकर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ा है। इसी तरह फ़ुर्सत के क्षणों में टी.वी. सिनेमा पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों और फ़िल्मों के ज़रिए हम अपना मनोरंजन करते हैं।

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    अपनी सेहत से लेकर धर्म-अध्यात्म तक के बारे में जानकारी जनसंचार माध्यमों से मिल रही है। आप माने या न माने, जनसंचार माध्यम आज एक उत्पाद की तरह हमारे घरों में घुस आए हैं। वे हमारी जीवनशैली को प्रभावित कर रहे हैं और हम उन्हें चाहते हुए भी रोक नहीं सकते। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जनसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन को और ज़्यादा सरल, हमारी क्षमताओं को और ज़्यादा समर्थ, हमारे सामाजिक जीवन को और अधिक सक्रिय बनाया है। साथ ही उन्होंने हमारे राष्ट्रीय जीवन को गतिशील और पारदर्शी बनाया है। सूचनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से लेकर लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने तक और बहस तथा विचार-विमर्श से लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत बनाने तक में जनसंचार माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

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    जनसंचार माध्यम—संभावनाएँ और ख़तरे

    सामाजिक विकास और आधुनिकीकरण के संदर्भ में यदि संचार के इन प्रकारों पर हम विचार करें तो इस क्षेत्र में उसकी कई संभावनाएँ स्पष्ट होंगी। संचार-साधनों को उचित दिशा देकर नए मूल्य प्रतिष्ठित कराए जा सकते हैं, समाज को परंपरा से प्रगति की ओर मोड़ा जा सकता है। उनकी सहायता से जन-मानस को आधुनिकीकरण के लक्ष्यों और कार्यक्रमों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। जनसंचार के साधन उनके सम्मुख नए जीवन का एक आकर्षक विकल्प प्रस्तुत कर उन्हें जड़ता का मार्ग छोड़ सक्रियता की राह अपनाने की प्रेरणा दे सकते हैं। जाग्रत जनमत प्रगति की अनिवार्य शर्त है और इसे तैयार करने में जनसंचार के साधनों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मनोरंजन के साथ-साथ विकास का संदेश बड़े सार्थक ढंग से जनसाधारण तक पहुँचाया जा सकता है।

    इन प्रभावशाली संभावनाओं के साथ की सीमाओं पर ध्यान रखना भी आवश्यक है। संचार एक अस्त्र है, उसका सदुपयोग भी हो सकता है, दुरुपयोग भी। मूल प्रश्न है यह अस्त्र किसके हाथ में है? क्या उनमें इन साधनों का कल्पनाशील और सार्थक उपयोग करने की कितनी क्षमता है? दूसरे शब्दों में इन साधनों का उपयोग कौन, किस उद्देश्य से और कितनी क्षमता से कर रहा है? कुछ हाथों में यदि संचार प्रगति का प्रेरक बन सकता है, तो दूसरे हाथ उसे परंपरा का पोषक बना सकते हैं। उनका उपयोग देश का ध्यान महत्त्वपूर्ण समस्याओं से हटाकर अर्थहीन प्रश्नों में उलझाए रखने के लिए भी किया जा सकता है। कभी-कभी संचार प्रगति का स्थान ले लेता है, वास्तविक प्रगति कम होती है। पर उसे और काल्पनिक प्रगति को संचार के साधन इतने आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि जनता शब्दों के मोहक इंद्रजाल में दिशा भ्रमित हो जाती है। इसके विपरीत अयोग्य संचारकतों आशायुक्त संदेशों को कल्पनाहीन तथा अनाकर्षक ढंग से प्रस्तुत कर उनकी हत्या कर सकते हैं। संचार वस्तुतः दुधारी अस्त्र है, जिसका उपयोग बड़ी ही सावधानी से होना चाहिए।

    (प्रो. श्यामाचरण दुबे के भाषण पर आधारित पुस्तिका संचार और विकास, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से साभार)

     

    आज राष्ट्रीय स्तर पर हमारी राजनीति और हमारी अर्थनीति तक जनसंचार माध्यमों से प्रभावित होती है। ख़ासकर आपातकाल के बाद जनसंचार माध्यमों की ताक़त लगातार बढ़ी है और राष्ट्रीय जीवन में उनका हस्तक्षेप भी बढ़ा है। वे न सिर्फ़ सरकार के कामकाज की निगरानी करते हैं बल्कि सरकार के ग़लत फ़ैसलों के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर फैलते भ्रष्टाचार, मानवाधिकार हनन और सांप्रदायिकता जैसे मामलों को जनसंचार माध्यमों ने लगातार उठाया है और लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश ही है। हाल के वर्षों में स्टिंग आपरेशन के जरिए सामने आया ‘तहलका कांड’ हो या ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ या ‘चक्रव्यूह’, सबने यही साबित किया है कि यदि चाहे तो जनसंचार माध्यम सत्ता के शिखर को भी हिला सकते हैं।

    लेकिन जनसंचार माध्यमों के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। अगर सावधानी से इस्तेमाल न किया जाए तो लोगों पर उनका बुरा प्रभाव भी पड़ता है। सबसे पहली बात तो यह है कि सिनेमा और टी.वी. जैसे जनसंचार माध्यम काल्पनिक और लुभावनी कथाओं के ज़रिए लोगों को एक नक़ली दुनिया में पहुँचा देते हैं जिसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता है। इस कारण लोग उसके वैसे ही व्यसनी बन जाते हैं, जैसे किसी मादक पदार्थ के। नतीजा यह होता है कि वे अपनी वास्तविक समस्याओं का समाधान काल्पनिक दुनिया में ढूँढ़ने लगते हैं। इससे लोगों में पलायनवादी प्रवृत्ति पैदा होती है।

    जनसंचार माध्यमों ख़ासकर सिनेमा पर यह आरोप भी लगता रहा है कि उन्होंने समाज में हिंसा, अश्लीलता और असामाजिक व्यवहार को प्रोत्साहित करने में अगुआ की भूमिका निभाई है। हालाँकि, विशेषज्ञों का यह मानना है कि जनसंचार माध्यमों का लोगों पर उतना वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता जितना कि उसके बारे में समझा जाता है। लेकिन जनसंचार माध्यमों के प्रभाव को लेकर कुछ धारणाएँ इस प्रकार हैं—जनसंचार माध्यम लोगों के व्यवहार और आदतों में परिवर्तन के बजाए उनमें थोड़ा-बहुत फेरबदल और उन्हें और ज़्यादा मज़बूत करने का काम करते हैं।

    इसी तरह यह माना जाता है कि जनसंचार माध्यमों का उन लोगों पर अधिक प्रभाव पड़ता है जो किसी चीज़ के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं या अनिश्चय में हैं। जनसंचार माध्यमों का प्रभाव तब और अधिक बढ़ जाता है जब लगभग सारे माध्यम एक ही समय में एक ही बात कहने लगते हैं। साथ ही जब वे कई मुद्दों के बजाए किसी एक मुद्दे को बहुत अधिक उछालने लगते हैं और बार-बार उन्हीं संदेशों, छवियों, विचारों को दोहराने लगते हैं, तब भी उनका गहरा प्रभाव पड़ता है।

    आप अक्सर देखते होंगे कि अख़बारों और टेलीविज़न चैनलों में किसी ख़ास बर या मुद्दे को ज़रूरत से ज़्यादा उछाला जाता है। जबकि कुछ अन्य मुद्दों और ख़बरों को बिलकुल जगह नहीं मिलती है। यह देखा गया है कि अक्सर उन मुद्दों और सवालों को अधिक उछाला जाता है जिनसे समाज के ताक़तवर वर्गों के हित जुड़े हुए हैं या जो निहायत सतही और अनावश्यक हैं। इसके साथ ही अकसर उन मुद्दों और सवालों को नज़रअंदाज किया जाता है जिनका संबंध व्यापक जनसमुदाय ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों से होता है। पिछले एक-डेढ़ दशक में भारत में कई ऐसे मौक़े आए जब जनसंचार माध्यमों ने उन मुद्दों को ख़ूब हवा दी जो कहीं न कहीं बहुसंख्यकों या समाज के ताक़तवर वर्गों के हितों से जुड़े हुए थे।

    जनसंचार माध्यमों के प्रभाव के संदर्भ में यह सवाल भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उन पर किसका नियंत्रण है? यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि जनसंचार माध्यमों का संबंध सार्वजनिक हित से जुड़ा हुआ है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक हित को आगे बढ़ाएँगे, लेकिन यह एक तथ्य है कि अधिकांश जनसंचार माध्यमों पर कंपनियों या व्यक्तियों का स्वामित्व है।

    वे उन्हें सार्वजनिक हित से ज़्यादा अपने व्यावसायिक मुनाफ़े को ध्यान में रखकर संचालित करते हैं। इसका सीधा असर जनसंचार माध्यम की अंतरवस्तु पर पड़‌ता है। कई मौक़ों पर विज्ञापनदाताओं के हितों को प्राथमिकता दी जाती है। इसके लिए तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ और सचाई को छुपाने की कोशिश की जाती है।

    मीडिया के ज़रिए लोगों को एक ख़ास तरह की जीवनशैली में भी ढालने की कोशिश की जाती है। बहुतेरे विश्लेषकों का मानना है कि उपभोक्तावाद के विकास और फैलाव में जनसंचार माध्यमों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। फ़ैशन से लेकर खानपान तक में लोगों की रुचियों और आदतों को बदलने में जनसंचार माध्यमों की भूमिका देखी जा सकती है। ख़ासकर बच्चों और युवाओं पर जनसंचार माध्यमों के ज़रिए पेश की जा रही आधुनिक उपभोक्तावादी जीवनशैली का गहरा प्रभाव पड़ रहा है।

    कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जनसंचार माध्यमों ने जहाँ एक ओर लोगों को सचेत और जागरूक बनाने में अहम भूमिका निभाई है, वहीं उसके नकारात्मक प्रभावों से भी इंकार नहीं किया जा सकता। यह भी स्पष्ट है कि जनसंचार माध्यमों के बिना आज सामाजिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे में यह ज़रूरी है कि हम जनसंचार माध्यमों से प्रसारित और प्रकाशित सामग्री को निष्क्रिय तरीक़े से ग्रहण करने के बजाए उसे सक्रिय तरीक़े से सोच-विचार करके और आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद ही स्वीकार करें। एक जागरूक पाठक, दर्शक और श्रोता के बतौर हमें अपनी आँखें, कान और दिमाग़ हमेशा खुले रखने चाहिए।

     

    लिपि से मुद्रण तक का सफ़र

    लिपि का आविष्कार संचार के क्षेत्र में दूसरी बड़ी क्रांति थी। ध्वनि पर अवलंबित लिपि के विकास के पूर्व मानव ने भाषा के अतिरिक्त अभिव्यक्ति के कई अन्य माध्यमों के प्रयोग किए थे। चित्रलिपि या पिक्टोग्राफ़ी इसी तरह का एक प्रयोग था। यह लेखन विधि चित्रों की एक श्रृंखला द्वारा किसी घटना या स्थिति का स्वरूप प्रस्तुत करती थी। चित्रलिपि भाषा से जुड़ी नहीं होती, इसलिए उसकी मौखिक अभिव्यक्ति किसी भी भाषा में संभव होती है। आवश्यक होता है, चित्र को समझना। प्रागैतिहासिक मानव ने संसार के विभिन्न भागों में इस लेखन शैली का प्रयोग किया। पिक्टोग्राफ़ी के कुछ रूपों ने विकसित होकर ऑडियोग्राफ़ी का रूप लिया। यह चित्रलिपि का संवर्धित रूप था और उसमें स्थितियों और घटनाओं के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ अमूर्त विचारों की अभिव्यक्ति की असीमित शक्ति भी थी। प्रतीक अब केवल वस्तुओं और स्थितियों का चित्रण नहीं करते थे, वे उनसे संबंधित विचारों और संबंधों को भी अभिव्यक्त करते थे। चित्रलिपि में छोटा-सा वृत्त सूर्य का प्रतिनिधित्व करता था, ऑडियोग्राफ़ी में, संदर्भ के अनुसार, उससे ताप, प्रकाश और दिन का बोध भी होने लगा। इस लिपि में भी प्रस्तुत प्रतीक और उसके बोले हुए में प्रत्यक्ष संबंध नहीं था, चित्रलिपि की तरह यह भी भाषा संबद्ध नहीं थी। ध्वनि पर आधारित लिपियों के विकास के पहले कई संक्रमणकालीन लिपियाँ आईं, जो मूलतः ऑडियोग्राफ़ी थीं, पर जिनमें धीरे-धीरे ध्वनि आधारित तत्त्व सम्मिलित हो रहे थे। प्राचीन मेसोपोटामिया और कौट की तथा हिट्टीआइट लिपियाँ इस वर्ग की हैं। लिपियों के विकास के अगले चरण और भी महत्त्वपूर्ण थे। एक और ‘लोगोग्राफ़ी’ का विकास हुआ, जिसमें प्रत्येक शब्द के लिए एक स्वतंत्र चिह्नथा। इस लिपि को शब्द लेखन भी कह सकते हैं। दूसरी धारा थी ध्वनियों के आधार पर लिपियों के विकास की, जिसका चरम उत्कर्ष अक्षरों के आविष्कार में हुआ। इन लिपियों ने लेखन के स्वतंत्र रूप का अंत कर उसे केवल भाषा की अभिव्यक्ति का एक माध्यम बना दिया।

    इस क्रांति के प्रभाव बड़े व्यापक थे। लिपिविहीन भाषाओं ने ज्ञान-विज्ञान की परंपरा का वहन किया था, उनमें साहित्य के विभिन्न रूपों की रचना हुई थी और सूक्ष्म दार्शनिक चिंतन भी किया गया था। उस साहित्य को स्थायित्त्व देने में कठिनाइयाँ थीं। लिपि ने उन्हें बड़ी मात्रा में दूर किया। पत्तों, मिट्टी की पतली ईटों, पत्थर, चमड़े, वस्त्र आदि पर लिखकर मनुष्य ने अपने सचित ज्ञान को आने वाली पौड़ियों के लिए बचाने का यत्न किया। लिपि एक रहस्यमय और चमत्कारी शक्ति थी, जिस पर अधिकार रखने वाले थोड़े से लोगों को समाज में ऊँचा स्थान मिला। इस तरह ज्ञान एक छोटे-से वर्ग के हाथ में आ गया, जिसने उसका उपयोग बहुत कुछ अपने हितों में किया। यह दूसरी बात है कि आगे चल कर इसी ज्ञान का व्यापक प्रसार हुआ।

    यह स्थिति संसार की चौथी क्रांति ने बदली जिसे काग़ज़ और मुद्रण की संयुक्त क्रांति मानना उचित होगा। काग़ज़ का आविष्कार मुद्रण के आविष्कार के बहुत पहले हो गया था, पर क्रांतिकारी सामाजिक परिणाम उसी समय स्पष्ट हुए जब काग़ज़ और छपाई का मिलन हुआ। काग़ज़ के आविष्कार का श्रेय चीन के साईं लुन को दिया जाता है, जिसने ईसवी सन् 105 में वृक्षों की कूटी हुई छाल, सन, पुराने कपड़े और मछली पकड़ने के पुराने जालों के उपयोग से काग़ज़ बनाया। पाँच सौ वर्षों तक यह शिल्प चीन में ही रहा। सातवीं सदी के आरंभ में यह कला जापान पहुँची और बौद्ध भिक्षुओं ने मलबरी वृक्ष की छाल से काग़ज़ बनाना आरंभ किया। इसी देश में सन् 770 में साँचों से मुद्रण आरंभ हुआ। साम्राज्ञी शोटोकु की आज्ञा से दस लाख प्रार्थना पत्र छापे गए। इस योजना को पूरा करने में छह वर्ष का समय लगा। ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने की क्रिया का आरंभ इसी प्रकार के प्रयत्नों से हुआ। धीरे-धीरे छपाई के प्राथमिक रूप, संसार के दूसरे भागों में भी पहुँचे। काग़ज़ बनाने की कला वहाँ पहले ही जा चुकी थी। चल-टाइप के आविष्कार ने मुद्रण को नया स्वरूप दिया। इसका श्रेय जर्मनी के गुटेनबर्ग को दिया जाता है, जिसने सन् 1400 और 1468 के बीच चल-टाइप का आविष्कार किया। उसकी 428 पंक्तियों की बाइविल-गुटेनबर्ग बाइबिल को कई विद्वान दुनिया की पहली छपी हुई पुस्तक मानते हैं। वैसे यह दावा दूसरी पुस्तकों के लिए भी किया गया है। संभवतः सन् 1300 के आसपास छपी एक कोरियाई धार्मिक पुस्तक अब तक उपलब्ध पुस्तकों में सबसे पुरानी है। इस पुस्तक में चल-टाइप का उपयोग नहीं हुआ था।

    मुद्रण के आविष्कार से पुस्तकों और समाचार पत्रों के प्रकाशन का रास्ता खुला। इस तरह ज्ञान के प्रसार और स्थायित्व की संभावनाएँ बढ़ीं। ज्ञान अब तक एक छोटे-से वर्ग के हाथ में था। पुस्तकों और समाचारपत्रों ने उसका दायरा बढ़ाया और वह क्रमशः सर्वसुलभ होने लगा। मुद्रण की क्रांति विचारों की क्रांति की शुरुआत थी।

    (प्रो. श्यामाचरण दुबे के भाषण पर आधारित पुस्तिका संचार और विकास, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से साभार)

    स्रोत :
    • पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 1)
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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