जंगला

jangla

अजित दत्त

अजित दत्त

जंगला

अजित दत्त

और अधिकअजित दत्त

    तो संपूर्ण धरा, समस्त आकाश,

    नहीं दिगंत तक फैला हुआ मैदान, और सिंधु-गिरि-माला,

    प्रभाहीन नयनों में केवल एकखंड विश्वरूप—

    काठ की सीमा में आवद्ध एक जंगला।

    संपूर्ण दृश्य ढँक जाता है चारों ओर की ठोस दीवारों से,

    उत्सुक नयन फिर भी मलिन संधानी शिखा जलाते।

    आकाश का एक नील खंड कुछ-एक तारे और फूल,

    या कभी झंझा के वेग से वृक्षों की शाखाएँ आकुल।

    अथवा कभी मुहूर्त-भर में विलुप्त होता हुआ पक्षियों का एक झुंड;

    विश्व का अनन्त रूप कुछ दिखाई देता

    और कुछ छल जाता है।

    इस छोटी-सी कोठरी में आज

    केवल एक जंगला है फिर भी हे सुंदर धरा

    तुम हो इंद्रियों के निकट।

    नयनों में बुझता-सा प्रकाश

    धीरे-धीरे बादल जमते काले,

    प्लावन की तरह प्रबल

    वह सुनहरी धूप कहाँ?

    तुम्हारी स्तुति करने का मेरा

    सारा उद्देश्य ही व्यर्थ हो गया

    तुमने सब कुछ ले लिया निःशेष

    क्या कुछ दे सकता और?

    आकांक्षा, वासना, लोभ की एक अतृप्त ज्वाला-सा

    तो भी आज खुला हुआ है एक जंगला।

    सब कुछ समाप्त हो जाता

    मन की उज्ज्वलता और

    विश्व की दया माया का सारा अंश—

    सभी अंधकार में विलीन हो जाता है।

    केवल तृष्णा बढ़ती ही जाती,

    जब तक कि यह जंगला बिल्कुल बंद नहीं हो जाता।

    जब तक इंद्रियों की दीपशिखा पर

    छोटी-सी लौ दावाग्नि के समान

    विश्वग्रासी होना चाहे,

    तब तक हे पृथ्वी, याद रखना,

    किसी एक जंगले के निकट

    कोई एक पुराना परिचित है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 491)
    • रचनाकार : अजित दत्त
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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