डूब रही भद्रा

Doob rahi bhadra

चंचला पाठक

चंचला पाठक

डूब रही भद्रा

चंचला पाठक

और अधिकचंचला पाठक

    डूब रही भद्रा

    मेढों को हौले से ठेलते पंकिल जल में...

    अज़ब-सी गंध पसरी है

    धरती और आकाश के मध्य—

    कभी किसी शिशु के माथे को सूँघा है तुमने

    या कि माँ का थन सद्यः तज

    भरे मुख दूध से किल्लोल करते शिशु का मुख गंधॽ

    इन दिनों यही गंध उठती है इस शस्य श्यामला धरती से

    नदी के तीर भर गए हैं

    पटसनों के पीले फूलों से

    किशोर वय कास की डालियों पर

    बँधे हों ज्यूँ रक्षासूत्र...

    किंचित् शाँत और ठहरे जल में

    पसर गई है करमी की बेलें

    सुकामनाएँ पसरती हैं ज्यूँ प्रशाँत मन में

    मेढों पर मोथा घास

    बेलौंधन बूटी का आलिंगन करती

    चलती जाती है बहुत दूर तलक

    धान की सुपुष्ट भुजाएँ

    सजने लगी हैं अब ओस की राखियों से

    इतना ही सुकोमल होता है वह तंतु

    जिसे बाँधती है सहजन्मा

    अपने सहोदर की अंतरात्मा पर

    साक्षी भाव से उतरता है पूर्णचंद्र

    धान के मूल में

    होता है प्रतिबिंबित धरती की पोर-पोर में

    सारी औषधियाँ सचेतन हो बिखेर रहीं आयुष्य

    डूब रही भद्रा

    मेढों को हौले से ठेलते पंकिल जल में

    पसर रही पुरईन की पात पर

    रचे हैं मल्हार से आशीष के विस्तार मैंने

    पूरब के देश में बरस रहे होंगे मेघ

    भींगते होंगे सजल मन सबालवृंद मेरे सहोदर...

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए