मातृत्व-भावना

matritv bhavna

गौरीप्रसाद चुनीलाल झाला

और अधिकगौरीप्रसाद चुनीलाल झाला

    वर्तमान का रूप धारण करके जो भूत को भविष्य के साथ मिलाती

    हुई सुंदर सृष्टि करती है, उस मातृत्व भावना की जय हो।

    जो भोली-भाली (बालिका) बचपन में गेंद और गुड़िया के खेल में

    निरत रहती थी, वह चंचला (अब) स्नेह-सिक्त मातृ-हृदय की चिंताओं का घर

    बन गई है। सद्यःप्रसूत बालक को अपनी गोद में लेकर दूध पिलाती हुई वह

    वधू, वात्सल्य के कारण, किसी उत्तम गौरव को प्राप्त हो गई है।

    मद से मतवाली और घूमती तथा कटाक्षों से चंचल वह दृष्टि कहाँ

    गई? वह साभिप्राय प्यारी मुसकराहट भी कहाँ गई? दृष्टिपात करती हुई

    उस युवती की वे सब बाते कहाँ गईं?

    बच्चे को गोद में लेकर जब वह स्तनपान कराती है, तब सशंकित

    होकर अपनी आँखों को इधर-उधर दौड़ाती है। फिर शीघ्र ही जब उसे (बच्चे

    की सुरक्षा का) विश्वास हो जाता है, तब वह प्रसन्न होकर अपनी निर्मल

    सजीव दृष्टि अपने शरीर से उत्पन्न पुत्र के सिर पर, जो वात्सल्य रस से सींचा

    गया है, रखती है—ऐसी वह दृष्टि देखते हुए भी कैसे स्थिर हो गई?

    पति की आत्मा से प्राप्त, एक मात्र स्नेह के सार इस पुत्र को देखकर

    उसने अपने चित्त से अपने किन-किन अनुभवों का स्मरण नहीं किया?

    दो क्षण भी पुत्र को देखने पर जिसकी दृष्टि एकटक रह जाती

    है, ऐसी इस मुग्धा की आँखें मानो भीतर की ओर फैल गई हैं।

    अतीत के स्मरण से उत्पन्न आनंद के आधिक्यवश उसने सहसा

    पुत्र 'के मस्तक का चुंबन ले लिया। कोमल हथेली वाले हाथों से वह

    अपने उसे बार-बार सहलाने लगी। प्रतीत होता था, मानो उसकी आत्मा का परम

    सुख से संयोग हो गया है।

    (उसके मुखरूपी चंद्रमा पर प्रसन्नता की यह कैसी शोभा विराज

    रही है! यह आत्यंतिक स्नेह का स्रोत हृदय में कहाँ से उल्लास पैदा कर रहा है?

    आश्चर्य है, अपने पुत्र के ध्यान में लीन इसकी गंभीरता की गहनता,

    पहले-पहल माता बनने के कारण, कितनी असीम हो रही है!

    माता के हृदय में हिमालय की गंभीरता, कमलों की सुकुमारता और

    समुद्र की अगाधता स्थापित की गई है।

    जिस प्रकार रात अपने को इसलिए नितांत क्षीण कर देती है कि

    चंद्रमा अपनी कला अधिकाधिक प्राप्त करके अपनी सुविशद शोभा को

    परिपुष्ट कर सके, उसी प्रकार माता पुत्र के लिए अपने शरीर का क्षय करती

    है और इस प्रकार त्याग की एक अनुपम कहानी का निर्माण करती है।

    बीज हो या फल, यह उसे कृतार्थ करती ही है। इसकी आत्मा,

    प्रकृति-रूप होकर, परम त्याग की उपनिषद् बन गई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 695)
    • रचनाकार : गौरीप्रसाद चुनीलाल झाला
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए