आदरणीय विष्णु खरे और विष्णु नागर से क्षमायाचना सहित
बहुत मुमकिन हैं आप एक की उम्मीद कर रहे हों और दूसरा निकल आए आख़िर दोनों बिल्कुल आमने-सामने रहते हैं और ऐसी चूक तो हो सकती है कि सोसाइटी के दरबान के समझाने के बावजूद आप ठीक से समझ न पाएँ कि बाएँ वाला या दाएँ वाला फ़्लैट विष्णु नागर का है और आप विष्णु खरे के घर की घंटी बजा दें।
ये जानकर कि नागर से मिलने की कोशिश में आप खरे के घर चले आए हैं, विष्णु जी की प्रतिक्रिया क्या होगी, ये मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता क्योंकि उनकी प्रतिभा, विदग्धता और उनके वाक्-चातुर्य का लोहा सब मानते हैं और मैं भी क़ायल रहा हूँ उनकी प्रखर टिप्पणियों, उनकी उनसे भी प्रखर कविताओं का—आप ध्यान देंगे कि मैं इस कविता में भी उनकी शैली की नक़ल करने की कितनी नाकाम-सी कोशिश कर रहा हूँ।
बहरहाल, मैं आपकी जगह होऊँ तो शायद विष्णु जी की डाँट सुनकर भी पुलकित हो जाऊँ कि देखो हिंदी के दो कवि बिल्कुल आमने-सामने रहते हैं। यह पुलक इस बात से कम नहीं होगी, शायद कुछ बढ़ ही जाए कि विष्णु जी डाँटें नहीं, सीधे बता दें कि सामने वाला घर नागर का है या फिर हँसते हुए बोलें कि मैं तो कवि हूँ, संपादक-कवि सामने रहते हैं।
वैसे, दो कवि आमने-सामने रहते हैं, इसमें कोई काव्यात्मक संभावना दिल्ली की बहुत सारी कॉलोनियों में एक साथ रहते बुद्धिजीवियों, कवियों और कथाकारों को एक बेतुकी-सी चीज़ लग सकती है,
मेरी तरह के सामान्य पाठक को फिर भी यह तथ्य लुभाता है—इस बात से बेख़बर कि दोनों कवियों में कौन बड़ा या वरिष्ठ है, इस बात से बेपरवाह कि कई आलोचक और पाठक—जिनमें शायद मैं भी शामिल हूँ—विष्णु नागर और विष्णु खरे में नाम और पड़ोस के साम्य के अलावा और कोई साम्य न देखते हों।
धीरे-धीरे मेरे भीतर यह सवाल भी उभरता है कि क्या यह कवि-पड़ोस आपस में बतियाता होगा, या अपनी पकाई सब्ज़ियाँ एक-दूसरे तक पहुँचाता होगा या चायपत्ती या चीनी घट जाने पर एक-दूसरे से माँगता होगा? हालाँकि अब के ज़माने में यह रिवाज भी बीते ज़माने की चीज़ हो चुका है, लेकिन संभावना की तरह तो यह अब भी शेष है।
और मैं दोनों कवि पत्नियों से अपने नाकुछ परिचय से कहीं ज़्यादा अपनी सहज बुद्धि से कल्पना या कामना करता हूँ कि दोनों के बीच कवियों की तुलना में कहीं ज़्यादा आत्मीयता होगी या साझा होगा।
मैं ये भी सोचता हूँ कि जब यह सोसाइटी बन रही होगी तब आस-पास रहने की संभावना क्या इन कवियों को क़रीब लाई होगी?
क्या तब अपना-अपना छिंदवाड़ा या शाजापुर पीछे छोड़ते हुए विस्थापन की कोई हल्की कचोट इनके भीतर रही होगी या ये इरादा कि एक दिन यमुना पार के इस मयूर विहार को छोड़कर वे अपने पुराने मुहल्लों और घरों में लौटेंगे?
या ये राहत कि दिल्ली में अब इनके सरों पर एक छत है जो ढलती हुई उम्र में इनका आसरा बनेगी?
या ये अफ़सोस कि अब उनके बच्चे इस बेगाने और बेवफ़ा शहर को अपना घर मानेंगे, उन छूटे हुए शहरों के बदरंग होते घरों को नहीं, जिनमें उनका अपना बचपन कटा और जहाँ से वे इस लायक़ बने कि दिल्ली तक आ सकें?
या ये कि ये दोनों विस्थापित कवि जब अपने घरों का बनना देख रहे होंगे तो ऐसे या इससे मिलते-जुलते कई एहसासों में आपस में साझा करते होंगे?
या फिर यह कि व्यक्तियों और पड़ोसियों के तौर पर कभी ये बेहद सहज और आत्मीय रहे लोग क्या कवि होने की महत्त्वाकांक्षा या एक ही संस्थान में नौकरी करने की मजबूरी में कभी एक-दूसरे से टकराए होंगे और फिर धीरे-धीरे इतने दूर निकल आए होंगे कि आमने-सामने घर होने के बावजूद कभी साथ चाय न पीते हों?
या फिर यह कि आपसी समझ ने दोनों के बीच रिश्ता तो क़ायम रखा होगा जिसमें कभी-कभार मिलने की औपचारिकता वे निबाह लेते होंगे, लेकिन पुरानी आत्मीयता शेष न हो?
बहरहाल, दो लोगों के बेहद निजी जीवन में घुसपैठ की यह कोशिश कई और सवालों को अलक्षित नहीं कर सकती।
मसलन, दिल्ली में किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है इस बात से कि कौन कहाँ रहता है, भले ही वह कविताएँ लिखता हो और उसके संग्रह में कुछ ऐसी कविताएँ हों जो अपनी मार्मिकता में जीवन को हमारे लिए कुछ ज़्यादा सुंदर और संभावनापूर्ण बनाती हो।
या फिर यह कि दो कवि सिर्फ़ दो कवि नहीं, व्यक्ति भी होते हैं और उनके जीवन में कविता के अलावा भी सरोकार होते हैं। और किसी बाहर वाले का इसके बारे में विचार करना जितना अशालीन है, लिखना उससे कहीं ज्यादा उद्धत प्रयत्न है।
या फिर यह कि समाज में कवि भले रहते हों, कविता की जगह कम हो गई है। शाइरों की दिल्ली में टायर ज़्यादा दिखने लगे हैं।
(हालाँकि इस पंक्ति का वास्ता शरद जोशी के शायर-टायर वाले लेख से नहीं, ज़माने की बदलती सच्चाई से है जिसमें कॉलोनियों में जितने लोग नहीं दिखते उससे ज़्यादा गाड़ियाँ दिखती हैं।)
या फिर यह कि कवि पड़ोस में रहें या सैकड़ों मील दूर, वे एक-दूसरे के क़रीब होते हैं। तब भी जब एक दूसरे की प्रतिभा या प्रसिद्धि या रचना से जलते हैं। लेकिन यह जलना भी शायद कहीं बेहतर कविता लिखने की इच्छा का नतीजा होता है।
या फिर यह कि वक़्त इतना बदल गया है कि बस्तियों में रहकर भी हम अपने-अपने उजाड़ों में रहने को अभिशप्त हैं। कॉलोनियों में हम चौकीदारों की ज़्यादा परवाह करते हैं, कवियों की नहीं।
वैसे उदास करने वाले ख़याल और भी हैं, उदास करने वाली सच्चाइयाँ भी।
जैसे अब संवाद नहीं है, सब्र नहीं है समय और भी नहीं है—अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बीहड़ में लहूलुहान पाँव और दिमाग़ों में धँसे काँटे निकालने के लिए भी नहीं। पीछे मुड़कर देखने के लिए भी नहीं, किसी का हाथ थामने, किसी की बात सुनने के लिए भी नहीं।
ऐसे सुनसान में क्यों मैं पड़ोस में रह रहे दो कवियों के बहाने अपनी तरह की एक दुनिया की कल्पना करने में लीन हूँ? इस अरक्षित समय में जो जहाँ हो, अच्छे से रहे, हम बस इतनी ही कामना कर सकते हैं।
दो कवि अच्छी कविताएँ लिखते रहें, अच्छे पड़ोसी बने रहें और कोई ग़लती से सामने वाले की घंटी बजा दें तो उससे बैठकर दो मिनट बात भी कर लें।
- रचनाकार : प्रियदर्शन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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