मनस्वी

manasvi

सामि पषनियप्पन

और अधिकसामि पषनियप्पन

    धर्म अनेक, मज़हब कई यहाँ

    फिर भी,

    तत्त्व सभी का एक है।

    बोध देते हैं सभी—

    प्रेम मूल संसार, जीवन प्रेममय

    अधिक क्या कहें, संक्षेप में यह

    संसार प्रेममय—

    यही जताने हो गए हैं

    महापुरुष कितने ही

    क्रोध-द्वेष-भाव-विरहित

    मनस्वी उनकी कृपा है

    पृथ्वी यह टिकी हुई है।

    सृष्टि विश्व की, प्रेम से,

    प्रेम से स्थिति,

    जग संचालित

    होता प्रेम शक्ति से ही

    हिय में प्रेम-हीन हो जीवन-यापन

    कीली-विरहित सुंदर रथ सम—

    मुस्कान-सहित विपदा-स्वागत

    करने का साहस भी

    देता है प्रेम ही।

    और है कितनी ही प्रेम-महिमा

    किंतु सहज क्या कहना?

    फिर भी

    प्राणि-मात्र पर दया करो—

    यह कहने वाले तथागत बुद्ध

    देवदत्त के अदय कृत्य से

    मसोस मन रहे—

    उसके विरोध से

    कुद्ध हुए—

    दुश्मन दूसरा

    भोजन लाया गोश्त मांस का

    पर जले मन में

    वह मन से—

    क्षमा दिखाई बड़ी अनोखी

    कि अबोध, अजान है।

    क्योंकि चित्त से दूर किए थे

    द्वेष-क्रोध

    मनस्वी बुद्ध

    हुआ उन्हीं से है यह जग भी पावन कृतकृत्य।

    प्रेम की दुंदुभी सब कहीं बजा

    समानता सब मानव-कुल की

    समझाई मसीह ईसा ने

    चपत लगा उनके गालों पर,

    उन पर थूके और शूली पर

    ठोक कीलों से

    उन्हें सताया कितना ही

    अत्याचार इतने सहकर भी

    ईश से प्रार्थना की ईसा ने—

    परम पिता! कर दो क्षमा इन्हें

    अबोध हैं, कर्म-अकर्म अनजान

    दया से अपनी उबार लो इन्हें—''

    क्रोध-विरोध छू गया तभी

    ईसा हुए है रक्षक जग के।

    दूर की दासता,

    स्वतंत्रता शुभ जोत जलाई,

    स्वराज्य दिलाया;

    सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता

    निरंतर समझा, हुआ यशस्वी

    उस महापुरुष गांधीजी को

    निर्दयी किसी ने मारी लात;

    और भी सुनिए,

    कायर गोरों ने

    कारा में डाल उनको, सताया कितना ही

    सोचकर अभी भी

    मन काँप उठता है,

    फिर भी हमारे

    बापू ने बताया—

    परम मित्र सभी, मेरे और तुम्हारे भी।

    शत्रु के लिए मन में,

    प्रेम और उदारता की

    उनकी विशिष्टता से तो

    प्रभावित औ' उन्नत जग!

    होता जन्म जिसका भी

    मरता वह निश्चित है

    फिर भी ये महापुरुष

    परार्थ ही जी रहे

    तभी मरण अनन्तर भी

    ये अमर हो रहे

    चिर जीव हो रहे

    वीत-द्वेष-क्रोध होकर,

    इन्होंने किया निश्चल प्रेम

    जग से, सब जीव जन से

    और यह भी घोषित किया कि

    प्रेम ही मे जगत् बसता!

    द्वेष अंजान वह हृदय ही तो

    था जो कह गया बात कि

    'काग गोरैया हमारी जात।’

    पूर्वज हमारे थे

    हृदय से इतने उदार!

    धन्य, कृती उनका जीवन!

    स्थान विशिष्ट विश्व में भी!

    जीएँ तो हम ऐसा जीएँ

    ऐसा ही हृदय पाएँ!

    प्रेम, स्नेह, ममता, करुणा का

    आज लिए विश्व विकसाएँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 359)
    • रचनाकार : सामि. पषनियप्पन
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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