एक पुजारी एक भगवान

ek pujari ek bhagwan

नरसिंह देव जम्वाल

नरसिंह देव जम्वाल

एक पुजारी एक भगवान

नरसिंह देव जम्वाल

और अधिकनरसिंह देव जम्वाल

    अपने मन मंदिर का मैं स्वयं

    कभी पुजारी होता हूँ—

    धूप धूपता हूँ

    शीश झुकाता हूँ

    तन, मन, धन सब अर्पण करता हूँ

    जब भी कोई मुस्कान भरी

    प्रेम स्नेह ममता की देवी

    रूप सजाकर चुपचाप

    शोभायमान होती है सुंदर सिंहासन पर

    उस देवी के दर्शन करते आँख झिझके

    जिह्वा भेटां गाकर तृप्त नहीं होती

    भक्तिरस की कोमल किरणों से

    दो गुणा चमक बढ़े कलश की

    ऐसे पल, क्षण

    स्वयं अपने जीवन पथ पर

    सफ़ल हैं लगते

    पर कई बार ऐसा होता

    उस धूप की सुगंधि से

    मैली सोच के वस्त्र पहने

    लोभ और मोह, अहंकार-स्वार्थ

    यमगण की भाँति झाँकने लगते हैं

    प्रेत खेल चहुँ ओर

    कलश सुनहरा गिरता लागे

    मन मेरा एक नरक है लागे

    और मैं भक्ति भेटां भूलकर

    यमगण का गुरु कहलाता हूँ

    तब फिर

    एक पुजारी ही नहीं,

    हो जाता हूँ

    भगवान मन का

    अधीन जिसके सभी खेल हैं मन के

    इस गौरव के साथ-साथ ही

    सोचों की एक शृंखला भी आए

    प्रातः जैसे

    भोर होते ही असीम गगन में

    हंसावलियाँ भरें उड़ान

    हर ओर संगीत है गूँजे

    शंख ध्वनि भी चहुँ ओर हो

    घड़ियालों की ध्वनि आवे

    शीश झुकाकर

    की आरती, याद कराते स्वर्ग द्वार को

    नरक का ही भगवान नहीं मैं

    स्वर्ग का भी मैं ही स्वामी हूँ,

    तभी मुझे अपनी सत्ता का हो आभास

    इस जीवन की महत्ता दीखे

    और मैं

    स्वर्ग निधि की ख़ातिर

    सारे ही यमगण मन के वश

    करता हूँ

    प्रेत-खेल सब बंद किए देता हूँ

    तब अता-पता लगता है,

    मनुष्य क्या है—मानवता क्या है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 61)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : नरसिंह देव जम्वाल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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