चेहरा

chehra

कई बार शब्द हाथ में पकड़े पटाखों की तरह

फूट पड़ते हैं,

फूँक मारो तो बुझते नहीं।

अख़बार की चींटी-धार पर

युद्ध पाँत में डटे सैनिकों की तरह

शब्द फूटते हैं।

क़िस्मत को मुट्ठी में भींचकर भगाते मनुष्य का

चेहरा उसमें नहीं दीखता।

मेरे पास कुचली हुई जीभ में सना

एक शब्द है,

उसी के सहारे मैं किसी बचे हुए चेहरे को

खोजने निकला हूँ,

विश्वरूप अख़बार का कोना-कोना छान लेता हूँ

पर चेहरा नहीं मिलता।

तड़पते शब्द को फिर से निगल लेता हूँ।

थके पंछी जैसा शब्द

पेट में अभी-अभी पड़े अन्न के पर्वत पर

थककर बैठ जाता है,

अख़बार उस पर छत्र बन छा जाता है।

अन्न के नीचे उतरने के क्षणों में

अख़बार में गोलीबारी से लड़खड़ा कर शरीर निढाल हो जाता है।

अन्न पैठा

अंतरिक्ष मैं पैठा यात्री

अन्न की अग्नि, जठराग्नि बुझाती

मोज़ांबिक में भूख से तड़पते बच्चे को मार देता है सैनिक,

अन्न अँतड़ियों में आँख-मिचौली खेलता

अणुबम के प्रयोग, प्रशांत में बुदबुदा,

अन्न रक्त के दरवाज़े पर

बुझते हैं मुक्ति के युद्ध

शूरू हो जाए अत्याचार,

क्रुद्ध पति, पत्नी की योनि पर

करता है बिजली के तार का आघात,

कहीं काठियावाड़ में मिट्टी का तेल छिड़ककर

नववधू करती है आत्मदाह,

हब्शी के कंधे की जूती पहन

गोरा बैठता है बग्घी में,

कहीं तानाशाही, कहीं भ्रष्टाचार

कहीं टेलीविज़न पर युद्ध-शांति पर सेमिनार।

अन्न अब अंग-प्रत्यंग में

अब अन्न और देह में अद्वैत।

घबराया शब्द घर की तरफ़ दौड़ता है,

तंद्रा की चट्टान पर हाँफता बैठ जाता है

बचपन नामक ‘बोनसाई’, आँधी जैसी स्मृतियाँ,

अंधकार के आकार का घर।

व्याकुल,

मैं खींच लेता हूँ पेट के मूल से अख़बार,

शब्द के अ-क्षर प्राण झकझोरता हूँ :

चल, चेताएँ बची हुई बारूद

चल,

अंधे अख़बार को सुलगा

जला लें लपटों से घिरा चेहरा,

चल।

स्रोत :
  • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 22)
  • संपादक : गिरधर राठी
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक वर्षा दास और विष्णु नागर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1994

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