पुल्लुव-बाला

pulluw bala

पी. कुण्हिरमन नायर

पी. कुण्हिरमन नायर

पुल्लुव-बाला

पी. कुण्हिरमन नायर

और अधिकपी. कुण्हिरमन नायर

    संध्यारूपी तटिनी के उस पार से इधर

    आकर उतरने वाली, शशिकला-जैसी तुम,

    जितना हो सके उतना आनंद-रस मुझे दो,

    मेरे गानकाव्य-मधुगृह की हे नायिके!

    माँ के दुग्धामृत के साथ जीवन-रक्त की

    नाड़ियों में समा जाने के लिए

    जन्मभूमि ने तुमको जो जो गीत सिखाए

    उनको बारम्बार गाओ, मेरी ग्रामबालिके!

    कितनी शताब्दियों के पूर्व अपनी पहाड़ियों की

    पंक्ति को पार कर निकले हुए ये गान

    हरी और पीली पंखुड़ियाँ लगाकर

    इस छोटे से मिट्टी के घट में समाए जा रहे हैं।

    जब तुम्हारे प्रिय की वीणा का चुंबन करके

    यह छोटा-सा मिट्टी का घट अपना तंबूरा बजाता है,

    जब मन्मथ के केलि-कन्दुकों (कुचों) को नृत्य कराता हुआ

    तुम्हारा हृदय मत्त होकर झूमता है,

    जब पार्श्वस्य प्रियतम के साथ तुम

    गान-माधुरी में विलीन हो जाती हो,

    जब ग्राम-अंतराल का निःशब्द निःस्वन

    प्रेमगीत की श्रुति बन जाता है,

    तब तुम्हारी आँखों में लहराता है—

    मलइनाडु (पहाड़ी देश) केरल का वह सौंदर्य जो तिरोहित हो गया है।

    फसल कटने का समय बीत जाने के कारण दूध सूख जाने से छुट्टा

    छोड़ दी गई गाय के समान खेत,

    कुमुदपुष्पों द्वारा मंदहास फैलाकर और तट-देश की काई

    के गीले वस्त्र पहन कर शोभायमान पुष्करिणियाँ,

    आँगन को उत्फुल्ल बनाए हुए ऐश्वर्यलक्ष्मी की मणिमाला

    के समान कटे हुए धान की राशि,

    सिर थोड़ा-थोड़ा हिलाने के कारण गायों के कंठदेश से

    निकलने वाले घंटिका-रव से मुखरित गोशाला,

    प्रदोषसंध्या के प्रकाश को नित्य वर्तिका भेंट करने वाली तुलसी

    की वेदी, सुवर्ण सूर्य-प्रकाश के दिए हुए नए वस्त्र पहनकर

    मधुमय पुष्पों से सुसज्जित यह ग्राम

    आदि बहुत कुछ इस प्राम-संगीत के रंगमंच पर इच्छानुकूल

    कल्पना में मूर्तिमान होता है।

    ये सब ऐसे सर्पगीत हैं, जिनसे हृदय के अंतर्भाग में

    भावनारूपी दुग्धामृत की धारा उमड़ने लगती है।

    इन गीतों को जिसने सर्वप्रथम गाया वह आज भी अज्ञात है।

    वह तुंचत्ताचार्य (कवि एषुत्तच्छन्) के भी पहले उदित हुआ और

    अंतर्हित भी हो गया।

    हे नीरव धर्म! तुम्हारी जय हो! पृथ्वी के अंदर तिरोहित

    हुए सौंदर्य! तुम्हारी जय हो!

    सर्प-गाथाएँ सर्वत्र हृदय में आनंद-प्रकाश फैलाती हैं।

    अतीत के ये सर्पवन पवित्र संस्कृति के निक्षेप-भंडार हैं,

    इस देश की निधियों का संरक्षण करने वाले

    नाग-वीर्य के आर्य प्रभाव हैं।

    थोड़ी देर गाने के बाद छोटी-सी पुल्लु जैसी वह

    कहीं उड़कर चली गई, तो भी

    मेरे मन रूपी रंगमंच पर, जिसमें कल्पना-सौरभ का

    अंकुर धीरे-धीरे फूट उठा है,

    उस गायिका के मृत्तिका-घट से रेंग-रेंगकर निकली हुई वह सत्कृति,

    पावन सिद्धि द्वारा मौलि में जड़े हुए भावना-रत्न की शोभा में

    निमज्जित होकर,

    सुंदर नागकन्या-जैसी नाद, ताल, और लय के साथ

    नृत्य कर रही है।

    सिंहमास (श्रावण) की धान की फसल जैसा वह गान मंगल

    मलयाल कुसुम-कुंज में प्रथम पदार्पण करने वाले ओणम् दिवस की

    स्वागत-गाथा बन जाता है।

    *पुल्लुव (पुळ्ळुव): सर्पदेवता को प्रसन्न करने के लिए घर-घर घूमकर सर्प-गीत गाने वाली

    एक जाति-विशेष।

    *मृत्तिका-घट : तंत्रवाद्य-विशेष में तुम्बे के स्थान पर लगा हुआ मिट्टी का छोटा-सा घड़ा।

    *पुल्लु (पुळ्ळु) : प्रातःकाल गाने वाला एक छोटा पक्षी।

    *ओणम् : सिंहमास के श्रावण नक्षत्र के दिन मनाया जाने वाला केरल का सबसे बड़ा त्योहार।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 479)
    • रचनाकार : पी. कुण्हिरमन नायर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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