पर्णा गोविंद बल्लभ पंत जी का सत्रहवाँ उपन्यास है जिसमें उन्होंने अपने समाज की उन परिदृश्य को अंकित किया है जो घिसी पिटी रूढ़ियों को लेकर आज भी जीवित हैं।
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