'देहाश्रम का मनजोगी' “देहाश्रम का मनजोगी” इनका प्रथम उपन्यास है, जिसमें इन्होंने यौन-शुचिता को लेकर लिखा है। इसका प्रकाशन 1982 में हुआ था। और तब से इसके बारे में यहीं माना जाता रहा है कि यह उपन्यास अपने समय से पूर्व ही लिखा गया है। इस उपन्यास में व्यक्ति की यौनेच्छाओं और यौनपूर्ति से संबन्धित उसकी अस्मिता को लेकर लिखा गया है। जो समाज में मनुष्य के शरीर को लेकर बनाए गए नियमों को बदलने की गुजारिश करता है। जिससे की मानव शरीर समाज के बंधनों की जकड़ से छूटकर स्वछंद विचरण कर सकें।
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