महापरिनिर्वाण

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अश्वघोष

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    निर्वाण की ओर

    भगवान बुद्ध के उपदेश सुनकर और अपना निमंत्रण स्वीकार हो जाने के बाद आम्रपाली ने भगवान बुद्ध से विदा माँगी। भगवान बुद्ध की आज्ञा पाकर उसने उन्हें प्रणाम किया और अपने भवन चली गई।

    इसी समय लिच्छवि सामंतों ने भी सुना कि भगवान बुद्ध आम्रपाली के उद्यान में विराजमान हैं, अतः वे सब उनके दर्शन के लिए चल पड़े। उनमें से कुछ सुसज्जित हाथी-घोड़ों पर और कुछ रथों पर सवार होकर आए। आम्रपाली के उद्यान के पास पहुँचकर वे अपने वाहनों से उतर गए और भगवान बुद्ध के निकट जाकर नमस्कार करके धरती पर बैठ गए।

    भगवान बुद्ध ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा—धर्म में आप लोगों की श्रद्धा आपके राज्य, बल और रूप से भी अधिक मूल्यवान है। मैं वृज्जियों को भाग्यशाली मानता हूँ जिन्हें आप जैसे सत्यार्थी और धर्मज्ञ राजा प्राप्त हुए हैं। आप सभी शीलवान हैं और शील ही स्वर्ग मार्ग का संकेतक है। वहीं स्वर्ग ले जाने वाली नौका है, इसलिए शील द्वारा अपने चित्त को शुद्ध कीजिए। अज्ञान और अंहकार को दूर कीजिए।

    भगवान बुद्ध के उपदेश सुनकर सभी लिच्छवि सामंतों ने उन्हें फिर सिर झुकाकर प्रणाम किया और भिक्षा के लिए उन्हें अपने घरों पर आमंत्रित किया। तथागत ने उन्हें बताया कि इसके लिए वे पहले ही आम्रपाली का निमंत्रण स्वीकार कर उसे वचन दे चुके हैं। यह सुनकर लिच्छवियों को बुरा लगा। परंतु महामुनि के उपदेशों के कारण वे शांत हो गए और प्रणाम कर अपने-अपने घर चले गए।

    दूसरे दिन प्रातःकाल आम्रपाली ने भगवान बुद्ध का अतिथि-सत्कार किया। आम्रपाली के घर से भिक्षा लेकर भगवान बुद्ध चतुर्मास वास के लिए वेणुमती नगर चले गए। वहाँ वर्षाकाल के चार मास व्यतीत किए। इसके बाद वे पुनः वैशाली आ गए और मर्कट नामक सरोवर के तट पर निवास करने लगे।

    जब महामुनि मर्कट सरोवर के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, तभी उनके पास मार आया और सिर झुकाकर कहने लगा—“है मुनि, नैरंजना नदी के तट पर जब आपने बुद्धत्व प्राप्त किया था, तो मैंने आपसे कहा था कि आप कृतकृत्य हो गए हैं। आप निर्वाण प्राप्त कीजिए। उस समय आप ने कहा था, जब तक में पीड़ित और पापियों का उद्धार नहीं कर लेता, तब तक मैं अपने निर्वाण की कामना नहीं करूँगा। अब आप बहुतों को मुक्त कर चुके हैं, बहुत से मुक्ति के मार्ग पर हैं। वे सभी निर्वाण प्राप्त करेंगे, अतः अब आप भी निर्वाण प्राप्त कीजिए।

    मार की विनती सुनकर भगवान बुद्ध ने कहा—मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ। तुम चिंता मत करो। मैं आज से तीसरे मास निर्वाण प्राप्त करूँगा। भगवान बुद्ध के ये वचन सुनकर मार बहुत प्रसन्न हुआ और मुनि को प्रणाम कर वहाँ से चला गया।

    मार के चले जाने के बाद भगवान बुद्ध अपने आसन पर बैठकर अपनी प्राणवायु को चित्त में ले गए और चित्त को प्राणों से जोड़कर योग-साधना द्वारा समाधि प्राप्त की। जैसे ही उन्होंने प्राणों का निरोध किया आकाश में चारों ओर से उल्कापात होने लगा। धरती काँपने लगी। चारों ओर बिजली चमकने लगी और वज्र गर्जना होने लगी। सर्वत्र प्रलयकालीन हलचल मच गई। इस प्रकार मर्त्यलोक, दिव्यलोक और आकाश में हुई हलचल की घड़ी में महामुनि ने गंभीर समाधि से निकल कर कहा—आयु से मुक्त मेरा शरीर अब जर्जर हो गया है। वह उस रथ के समान है जिसका धुरा टूट गया हो। मैं इसे अब अपने योगबल से ढो रहा हूँ। परंतु जैसे अंडा फोड़कर पक्षी बाहर आ जाता है, वैसे ही मैं भी अब बाहर आ गया हूँ।

     

    लिच्छवियों पर अनुग्रह

    इस प्रकार ही हलचल देखकर आनंद काँपने लगा और चक्कर खाकर वैसे ही गिर पड़ा जैसे जड़ के कट जाने पर वृक्ष धरती पर गिर पड़ता है। थोड़ी देर बाद कुछ सँभलकर वह खड़ा हुआ और सर्वज्ञ भगवान बुद्ध से इसका कारण पूछने लगा। उन्होंने बताया कि मेरा भूलोक में निवास का समय अब पूरा हो चुका है, इसलिए सर्वत्र हलचल है। अब मैं केवल तीन मास और इस पृथ्वी पर रहेगा, फिर चिरंतन निर्वाण प्राप्त कर लूँगा।

    यह सुनकर आनंद को बड़ा आघात लगा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। तथागत ही उसके गुरु थे, स्वजन थे और सर्वस्व थे। वह अल्पत दुःखी होकर रोने लगा। विलाप करते हुए आनंद ने कहा—आपके निश्चित प्रस्थान की बात सुनकर मेरा मन दुःखी हो गया है। शरीर संतत्प हो रहा है और ऐसा लग रहा है, जैसे आपसे सुना हुआ धर्म लुप्त होता जा रहा है। इस पापरूपी जंगल में भटकने वाले प्राणियों का मार्ग-दर्शन अब कौन करेगा?”

    शोक संतप्त और व्याकुल आनंद को सांत्वना देते हुए भगवान बुद्ध ने उससे कहा—हे आनंद! तुम्हें जगत का रहस्य समझना चाहिए। देखो, जो भी जन्म लेता है, अवश्य मरता है। इस लोक में कुछ भी स्वाधीन नहीं है, कोई भी प्राणी अमर नहीं है। यदि प्राणी अमर होते तो जीवन परिवर्तनशील नहीं होता। फिर मुक्ति का क्या महत्त्व होता?

    हे आनंद! मैंने तुम्हें संपूर्ण मार्ग दिखा दिया है। बुद्ध किसी से कुछ भी नहीं छिपाता। मैं शरीर रखूँ या छोड़ू, मेरे लिए दोनों ही स्थितियाँ समान हैं। हाँ, मेरे जाने के बाद भी मेरे द्वारा जलाया गया यह धर्म का दीपक सदा जलता रहेगा। तुम उसी दीपक के प्रकाश में निर्द्वंद होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करो। मेरे जाने के बाद भी जो लोग इस धर्म के मार्ग में स्थिर रहेंगे, वे निश्चित ही निर्वाण-पद प्राप्त करेंगे।

    जब भगवान बुद्ध आनंद को समझा रहे थे, तभी उनके निर्वाण का समाचार सुनकर सभी लिच्छवि दौड़ते हुए वहाँ आ गए और भगवान को प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गए। तब भगवान बुद्ध ने लिच्छवियों से कहा—मैं आप सबके मन की बात जानता हूँ, आप भी अन्य लोगों की भाँति शोक संतप्त होकर यहाँ आए हैं। परंतु मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि यदि आप लोगों ने मेरे उपदेशों को ध्यान से सुना है और ज्ञान प्राप्त किया है, तो आपको मेरे जाने के कारण शोक नहीं करना चाहिए।

    भगवान बुद्ध ने उन्हें आगे समझाया—देखो, इस परिवर्तनशील संसार में शरीर काल का भोजन है। जीवन क्षणभंगुर है। इस जगत में सदा रहने वाली कोई वस्तु नहीं है। पहले भी जो बुद्ध हुए हैं, वे भी अपनी बुद्धि के प्रकाश से संसार को प्रकाशित कर, तेल समाप्त होने वाले दीपक की तरह सदा के लिए बुझ गए। भविष्य में भी बुद्ध पैदा होंगे वे भी लकड़ी के जल जाने के बाद अग्नि की तरह शांत हो जाएँगे। मुझे भी अब उसी मार्ग पर जाना है।

    भगवान बुद्ध ने अंत में कहा—इस रम्य नगरी में अभी भी कुछ अदीक्षित लोग रह गए हैं, अतः मुझे चलना चाहिए। आप लोग किसी प्रकार का शोक न करें और मेरे बताए धर्म के मार्ग का अनुसरण करें।

    इस प्रकार लिच्छवियों पर अनुग्रह कर, उन्हें उपदेश देकर भगवान बुद्ध उत्तर दिशा की ओर चल दिए। उनके पीछे-पीछे सभी लिच्छवि भी रोते-बिलखते चलने लगे। वे कह रहे थे—अहा! विशुद्ध स्वर्णिम आभावाले गुरु की देह नष्ट हो जाएगी। क्या भगवान भी अनित्य है?

    विलाप करते हुए लिच्छवियों को भगवान बुद्ध ने पुनः समझाया और उन्हें अपने-अपने घर जाने की आज्ञा दी, परंतु जैसे  लहर हवा की विपरीत दिशा में नहीं चल पाती वैसे ही वे घर लौटने में अपने आपको असमर्थ पा रहे थे।

    जैसे ही भगवान बुद्ध वैशाली नगर को छोड़कर आगे बढ़े वह नगरी राहु द्वारा ग्रसित सूर्य के समान प्रभाशून्य हो गई। जैसे विद्या के बिना रूप, क्रिया के बिना ज्ञान, भक्ति के बिना बुद्धि, संस्कार के बिना शक्ति, सदाचार के बिना संपत्ति, श्रद्धा के बिना प्रेम, उद्योग के बिना लक्ष्मी, कर्म के बिना धर्म तथा वर्षा के बिना धान के खेत शोभाहीन लगते हैं, वैसे ही तथागत के बिना यह वैशाली शोभाहीन हो गई थी। उस दिन शोक के कारण वैशाली में किसी ने भोजन नहीं किया, न किसी ने जल ग्रहण किया।

    उधर तथागत ने नगर की सीमा पर आकर उसकी ओर मुँह करके कहा—हे वैशाली! अपने जीवन के शेष भाग में अब मैं तुम्हें फिर नहीं देखूँगा क्योंकि मैं अब निर्वाण के मार्ग पर जा रहा हूँ। उन्होंने अपने पीछे-पीछे चले आ रहे सभी लोगों को समझाया, उन्हें अपने-अपने घर लौट जाने के लिए कहा और स्वयं भोगवती नगरी की ओर चल पड़े।

    भोगवती नगरी में कुछ समय रहने के बाद भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायियों को उपदेश दिए और कहा—मेरे जाने के बाद आप लोग धर्म का अनुसरण करें। मैंने जो कुछ सूत्रों में बताया है और जो विनय में है, आप उसी का अनुसरण कीजिए। जिसमें विनय नहीं है, वह न मेरा वचन है और न धर्म। पवित्र लोगों के वचन वैसे ही ग्रहण करना, जैसे कि स्वर्णकार स्वर्ण को तपाकर उसकी परीक्षा करके उसे ग्रहण करता है। इसलिए शब्द को अर्थ के अनुसार ठीक-ठीक सुनकर ही उसे ग्रहण करना चाहिए। जो शास्त्र को अनुचित रीति से ग्रहण करता है वह अपने को ही क्षति पहुँचाता है।  जैसे तलवार को अनुचित रीति से ग्रहण करने वाला अपने को ही काट लेता है।

    इस प्रकार अपने शिष्यों को उपदेश देकर भगवान बुद्ध ने पापापुर के लिए प्रस्थान किया। पापापुर पहुँचने पर मल्लों ने उनका समारोहपूर्वक स्वागत किया।

    वहाँ उन्होंने अपने भक्त चुंद के घर अंतिम भोजन किया। अपनी शिष्य मंडली के साथ भोजन कर लेने के बाद उन्होंने चुंद को उपदेश दिए और फिर कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया।

    भगवान बुद्ध ने चुंद के साथ इरावती नदी को पार किया और फिर नगर के एक सुंदर उपवन में एक सरोवर के तट पर कुछ समय विश्राम किया। तदुपरांत उन्होंने हिरण्यवती नदी में स्नान किया और शोकाकुल आनंद को आदेश दिया, हे आनंद! इन दोनों शाल वृक्षों के बीच मेरे शयन के लिए स्थान तैयार करो। हे महाभाग! आज रात्रि के उत्तर भाग में तथागत निर्वाण प्राप्त करेंगे।

    भगवान बुद्ध के आदेश के अनुसार आनंद ने शयन के लिए स्थान तैयार किया और फिर हाथ जोड़कर निवेदन किया—भगवन्, शय्या तैयार है। तब वह पुरुष-सिंह चिरनिद्रा के लिए शांत चित्त से शय्या के निकट गए। वे हाथ का तकिया बनाकर, एक पैर पर दूसरा पैर रखकर अपने शिष्यों की ओर उन्मुख होकर दाईं करवट लेट गए।

    उस समय सारी दिशाएँ शांत हो गईं। सभी पक्षी निःशब्द हो गए और सभी जीव-जंतु मौन, मानो सारा संसार स्तब्ध हो गया हो।

    सूर्यास्त के समय जैसे पथिकों को घर जाने की शीघ्रता होती है, वैसे ही सभी उपस्थित शिष्यों को अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने की शीघ्रता होने लगी। तब भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा—हे आनंद! तुम मल्लों को मेरे प्रयाण की सूचना दे दो, वे भी निर्वाण देख लें, जिससे बाद में उन्हें पश्चाताप न हो।

    आदेशानुसार आनंद ने जाकर मल्लों को सूचित किया कि तथागत अब अंतिम शय्या पर हैं। यह सुनकर सभी मल्ल अत्यंत व्याकुल होकर आँसू बहाते हुए निकल पड़े। वे शीघ्र ही महामुनि के पास आए और अपने आँसुओं से भगवान बुद्ध के चरणों को भिगोते हुए उनके सम्मुख मौन होकर खड़े हो गए।

    सभी मल्लों को व्याकुल देखकर भगवान बुद्ध ने कहा—आनंद के समय दुःखी होना उचित नहीं है। यह दुर्लभ और काम्य लक्ष्य मुझे आज प्राप्त हो रहा है। मुझे आज वह सुखमय पुण्य प्राप्त हो रहा है, जो पंचभूतों से मुक्त, जन्म से रहित, इंद्रियातीत, शांत और दिव्य रूप है। जिसके बाद किसी प्रकार का शोक नहीं होता। यह शोक का समय नहीं है, क्योंकि सभी दुःखों का मूल मेरा भौतिक शरीर आज निवृत्त हो रहा है।

    भगवान बुद्ध के वचन सुनकर एक वृद्ध मल्ल ने कहा—सुजन के लिए हमें शोक नहीं करना चाहिए। फिर भी हमारा चित्त दुःखी है, क्योंकि अब हमें आपके दर्शनों का सौभाग्य नहीं मिल पाएगा। जगत के हितैषी के जाने पर भला कौन शोक नहीं करेगा? शोचनीय तो वे हैं, जिन्होंने मुनि के दर्शन करके भी सुमार्ग का अनुसरण नहीं किया। सोने की खान में रहकर भी जो दरिद्र ही रहा।

    वृद्ध मल्ल के वचन सुनकर भगवान बुद्ध ने कहा—सच तो यह है कि मात्र मेरे दर्शनों से निर्वाण नहीं मिल सकता। जो मेरे धर्म को ठीक से समझता है, वह मेरे दर्शन के बिना भी दुखों के जाल से मुक्त हो जाता है। औषधि के सेवन के बिना मात्र वैद्य के दर्शन से रोग से मुक्ति नहीं होती। इसलिए श्रेय का आचरण करो। जीवन तेज़ हवा के बीच दीपशिख की तरह चंचल है। इस प्रकार महामुनि के दर्शन कर और उनके उपदेश सुनकर सभी मल्लों ने उन्हें प्रणाम किया और आदेशानुसार वे अपने-अपने घरों को लौटने लगे।

     

    महापरिनिर्वाण

    मल्लों के चले जाने पर सुभद्र नाम का त्रिदंडी संन्यासी भगवान बुद्ध के दर्शनों के लिए आ गया। वह एक सिद्ध पुरुष था। उसने आनंद से कहा कि निर्वाण के अंतिम क्षणों में मैं भगवान बुद्ध के दर्शन करना चाहता हूँ। आनंद ने सोचा कि कहीं यह संन्यासी बुद्ध से शास्त्रार्थ न करने लगे। इसलिए उन्होंने संन्यासी को भगवान बुद्ध के निकट जाने से रोका। परंतु तथागत ने लेटे-लेटे ही आनंद से कहा—हे आनंद! इस जिज्ञासु मुमुक्षु को रोको मत, आने दो। यह सुनकर सुभद्र सविनय सुगत के पास गया और प्रणाम करके बोला, हे भगवन्! मैंने सुना है कि आपने मोक्ष के जिस मार्ग का प्रतिपादन किया है, वह अन्य सभी मार्गों से भिन्न है। कृपापुंज, वह मार्ग कैसा है? मुझे बताने की कृपा करें। मैं जिज्ञासावश आपके पास आया हूँ, विवाद के लिए नहीं।

    सुभद्र की प्रार्थना सुनकर तथागत ने उसे अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया। इसे सुनते ही सुभद्र की ज्ञान-दृष्टि सम्यक रूप से खुल गई। वह उसी तरह प्रसन्नता का अनुभव करने लगा, जैसे भटका हुआ राही अपने गाँव पहुँच जाने पर करता है। उसने गद्‌गद् होकर कहा—मैं अब तक जिस मार्ग का अनुसरण कर रहा था, वह श्रेयस्कर नहीं था। आज मुझे सच्चा मार्ग मिल गया है। अत्यंत प्रसन्न होकर सुभद्र ने भगवान बुद्ध की ओर देखा और आँखों में आँसू भरकर निवेदन किया—हे पूज्य गुरुवर, आपकी मृत्यु का दर्शन करना मेरे लिए उचित नहीं होगा, अत: मैं उससे पहले ही अपनी देह त्यागकर निर्वाण पद प्राप्त करने की अनुमति चाहता हूँ। ऐसा कहकर त्रिदंडी सुभद्र ने भगवान बुद्ध को प्रणाम किया शैल की तरह स्थिर होकर बैठ गया और एक ही क्षण में वायु से बुझे दीपक की भाँति निर्वाण को प्राप्त कर गया। संस्कार के ज्ञाता तथागत ने तब सुभद्र का अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया और कहा—सुभद्र मेरा उत्तम और अंतिम शिष्य था।

    आधी रात बीतने पर जब चाँदनी के प्रकाश का विस्तार हुआ, सारा वन प्रदेश पूरी तरह शांत हो गया। तब भगवान बुद्ध ने वहाँ उपस्थित सभी शिष्यों को बुलाया और अंतिम उपदेश दिया। उन्होंने कहा—मेरे निर्वाण के बाद आप सबको इस 'प्रतिमोक्ष' को ही अपना आचार्य, प्रदीप तथा उपदेष्टा मानना चाहिए; आपको उसी का स्वाध्याय करना चाहिए; उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए; यह प्रतिमोक्ष शील का सार है; मुक्ति का मूल है, इसी से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।

    तथागत ने प्रतिमोक्ष के सारे नियम विस्तार से समझाए और अंत में कहा—मैंने गुरु का कर्तव्य निभाया है। आगे तुम लोग साधना करो। विहार, वन, पर्वत, जहाँ भी रहो, धर्म का आचरण करो। यदि मेरे बताए आर्य सत्यों के विषय में किसी को कोई शंका हो, कोई प्रश्न हो, तो पूछ लो।

    तथागत के मुख से अंतिम उपदेश ग्रहण करने के बाद जब सभी शिष्य मौन और शांत बैठे रहे, तो अनिरुद्ध ने तथागत से निवेदन किया—हे सुगत, आपके द्वारा प्रातिपादित आर्य सत्यों में किसी को भ्रम नहीं है।

    अनिरुद्ध की बात सुनकर तथागत ने कहा—हे अनिरुद्ध! सभी की मृत्यु निश्चित है। अब मेरे जीवित रहने से संसार को कोई लाभ नहीं। स्वर्ग और भू-लोक में जो भी दीक्षित होने योग्य थे, वे सभी धर्म में दीक्षित हो गए। अब इन्हीं के द्वारा मेरा धर्म जनता में प्रचलित होगा और उससे संसार में स्थायी शांति स्थापित होगी। तुम सब लोग शोक त्यागकर जागरूक रहो, मेरा यही अंतिम वचन है।

    इतना कहकर भगवान बुद्ध ने प्रथम ध्यान में प्रवेश किया, फिर दूसरे ध्यान में और इस तरह क्रमशः ध्यान के अनेक स्तरों को पारकर पुनः चतुर्थ ध्यान में आए और सदा के लिए शांत हो गए।

     

    महापरिनिर्वाण के बाद

    भगवान बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के बाद सारा संसार ऐसा लगने लगा, जैसे बिना चंद्रमा के आकाश, पाले से मुरझाए कमलों का सरोवर अथवा धन के अभाव में निष्फल विद्या।

    निर्वाण का समाचार सुनकर आकाश से देवतागण भी उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने लगे। उनमें से एक ने कहा—अहो! यह सारा संसार नश्वर है, जहाँ मृत्यु के लिए जन्म होता है और जन्म के लिए मृत्यु। जो जन्म और मृत्यु दोनों से मुक्त है, वही भाग्यवान है। देखो, ज्ञान की ज्वाला तथा यश रूपी ज्योति को आज काल ने सदा के लिए शांत कर दिया है। किसी मुनि श्रेष्ठ ने अपनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा—यह संसार असार है, यहाँ सभी कुछ नश्वर है। जो सारे लोक का गुरु था, वह भी आज कालकवलित हो गया।

    अंधकार में डूबे लोक को देखकर अनिरुद्ध ने कहा—“इस लोक की गति कैसी विचित्र है! तथागत ने दुख-मुक्त होकर तपस्या की, आलस्य-मुक्त होकर धर्माचरण किया, लोभ-मुक्त होकर योगाभ्यास किया और अब मोह-मुक्त होकर इस शरीर का भी त्याग कर दिया। जैसे बुद्धि के बिना विद्या, आचरण के बिना क्रिया तथा दया के बिना धर्म निर्थक होता है, वैसे ही शाक्य मुनि के बिना यह संसार आज व्यर्थ लग रहा है।

    भगवान बुद्ध के निर्वाण का समाचार जैसे ही मल्लों ने सुना वे भी रोते हुए वहाँ दौड़े चले आए और विलाप करने लगे। फिर मल्लों ने मिलकर महामुनि के शव को स्वर्णमय सुंदर शिविका में स्थापित किया। विविध प्रकार की सुगंधित फूल मालाओं से भक्तिपूर्वक पूजा की। शिविका को श्वेत कपड़े से ढँका और चँवर डुलाते हुए उसे अपने कंधों पर उठाया।

    भक्तिपूर्वक भगवान बुद्ध की शव-शिविका को वे नगर के मध्य भाग में ले आए। फिर वे नगर के नागद्वार से बाहर निकले और हिरण्यवती नदी को पार किया। उन्होंने मुकट चैत्य के पास चंदन, अगरु तथा वल्कल आदि से चिता बनाई और उस पर महामुनि के शव को रख दिया। दीपक जलाकर मल्लों ने चिता में आग दी, परंतु बार-बार प्रयत्न करने पर भी चिता में आग नहीं लगी। भगवान बुद्ध का प्रिय शिष्य काश्यप अभी मार्ग में ही था, उसी के अभाव में चिता में आग नहीं लग पा रही थी। जैसे ही काश्यप दौड़ते हुए वहाँ आए और उन्होंने अपने गुरु को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया, चिता में स्वतः ही आग लग गई।

    चिता की अग्नि ने भगवान बुद्ध के शरीर के माँस, चर्म, बाल तथा अन्य अवयवों को जला दिया परंतु उनकी अस्थियाँ यथावत बनी रही। उन्हें चिता की अग्नि न जला सकी।

    चिता के शांत हो जाने पर मल्लों ने भगवान बुद्ध की अस्थियों को शुद्ध जल से धोया और उन्हें स्वर्णकलश में रखा। उसे अपने नगर के मध्य ले गए। लोगों ने महामुनि की प्रशंसा में स्तोत्र गाए। किसी ने कहा—इस घट में वे धातु (अस्थियाँ) स्थापित हैं जिन्हें चिता की अग्नि नहीं जला सकी। किसी ने कहा—ये अस्थियाँ, मंगलमय हैं, अमूल्य हैं। हम इन्हें यहाँ स्थापित कर रहे हैं, जिससे संसार को शांति प्राप्त हो।

    किसी अन्य ने कहा—अहो! काल कितना निष्ठुर है। इसने महामुनि को भी नहीं छोड़ा, जिसके धर्म और यश से सारा चराचर जगत चमत्कृत है।

    बाद में मल्लों ने अस्थिकलश के लिए अत्यंत सुंदर पूजा-भवन का निर्माण करवाया और उसमें अस्थिकलश स्थापित किया। कुछ समय तक मल्लों ने भगवान बुद्ध के अस्थिकलश की विधिवत पूजा-अर्चना की, परंतु धीरे-धीरे पड़ोसी राज्यों से दूत आने लगे और भगवान बुद्ध की अस्थियों को माँगने लगे। एक दिन सात पड़ोसी राज्यों से दूत आए और उन्होंने अस्थियाँ माँगी, परंतु भगवान बुद्ध की अस्थियों के लिए मन में अत्यंत श्रद्धा होने तथा अपने बल पर अभिमान होने के कारण मल्लों ने भगवान बुद्ध की अस्थियाँ देने से मना कर दिया और वे लड़ने की तैयारी करने लगे।

    दूत लौट गए और उन्होंने सारी बातें अपने-अपने राजाओं से कहीं। दूतों की बात सुनकर पड़ोसी राजा भी क्रोधित हुए। उन्होंने मिलकर युद्ध करने का निर्णय किया। वे अपनी-अपनी सेना लेकर युद्ध के लिए निकल पड़े। पड़ोसी राज्यों की सेनाओं ने कुशपुर (कुशीनगर) को चारों ओर से घेर लिया और वे मल्लों को ललकारने लगे।

    पुरवासी मल्ल भी संगठित होने लगे। उन्होंने विविध प्रकार के शस्त्र-अस्त्र धारण किए। वीरों की पत्नियों ने सैनिकों को तिलक लगाए और रणगीत गाए। सभी सैनिक सिंहों की तरह गरजने लगे और शंख बजाने लगे।

    इस प्रकार युद्ध के लिए तैयार दोनों पक्षों को देखकर करुणा और दया से भरकर द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने सातों पड़ोसी राजाओं के पास जाकर निवेदन किया—'राजन! बाहर के शत्रुओं को शस्त्रों से जीतना सरल है, परंतु परकोटे में बैठे शत्रु को जीतना सरल नहीं। यदि नगर को घेर कर अंदर के शत्रुओं को जीत भी लिया तो भी वह धर्म युद्ध नहीं होगा। इसे निरपराध नगरवासियों की हत्या ही कहा जाएगा इसलिए थोड़ा सोचिए और शांति का उपाय कीजिए। शस्त्र से जीते गए मनुष्यों का मन फिर से कुपित हो सकता है, परंतु शांति के उपायों से जीते गए मनुष्यों का मन सदा के लिए शांत हो जाता है। आप लोग जिस शाक्य मुनि का सम्मान करना चाहते हैं, उसी की आज्ञा से उसी के उपदेशों के अनुसार शांति का उपाय कीजिए।

    द्रोण की बातें सुनकर सातों राजाओं का क्रोध कुछ शांत हुआ। उन्होंने उनसे कहा—हे ब्राह्मण, आप सत्य कहते हैं। हम लोगों की धर्म में, प्रेम में पूरी आस्था है, परंतु हमें अपने बल पर भी पूरा विश्वास है। हमने शाक्य मुनि में अतिशय भक्ति के कारण ही शस्त्र ग्रहण किया है। हम तो शाक्य मुनि की पूजा के लिए ही लड़ रहे हैं। यदि यह कार्य बिना युद्ध हो  जाए तो हमें कोई विरोध नहीं है। आप हमारे दूत बनकर जाइए और मल्लों को समझाइए। हमारा उनसे कोई वैर नहीं है, हम तो भगवान बुद्ध के प्रति अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करना चाहते हैं।

    इस प्रकार पड़ोसी राजाओं से बात करके ब्राह्मण द्रोण कुशीनगर गए और उन्होंने मल्लों को समझाया—हे मल्लों, नगर के बाहर जो सात राजा अपनी सेनाओं के साथ खड़े हैं, उनके पास अमोघ आयुध हैं और उनका बल अजेय है, परंतु वे शाक्य मुनि के धर्म के कारण ही डरे हुए हैं। वे यहाँ राज्य-प्राप्ति के लोभ से नहीं आए और न ही अहंकारवश आए हैं। भगवान बुद्ध जैसे आपके गुरु हैं, वैसे ही वे हमारे भी गुरु हैं और इन राजाओं के भी। इसलिए ये राजा भी शाक्य मुनि की अस्थियों की पूजा के लिए आए हैं।

    शाक्य मुनि का उपदेश है कि धन की कृपणता उतना बड़ा पाप नहीं है, जितना बड़ा धर्म की कृपणता है। राजाओं का संदेश है कि यदि आप भगवान बुद्ध की धातु (अस्थियाँ) नहीं देना चाहते तो नगर के द्वार से बाहर आइए और वीर अतिथियों का स्वागत कीजिए।

    द्रोण ने आगे कहा—यह इन राजाओं का संदेश है जो सद्भावना और साहस से भरा है। मैंने इनकी बातों पर धैर्यपूर्वक विचार किया है, अत: मेरी भी बात सुनिए—कलह से न किसी को सुख मिलता है और न ही धर्म होता है। शाक्य मुनि ने सदा क्षमा का उपदेश दिया है। जिस महामुनि ने क्षमा से स्वयं शांति प्राप्त की और हज़ारों लोगों को शांति प्रदान की, उस दयालु के निमित्त व्यर्थ रक्तपात उचित नहीं है। इसलिए आप लोग इन राजाओं को धातु प्रदान कीजिए। यही आपका धर्म है। इससे आपको यश मिलेगा। ये सभी राजा आपके मित्र हो जाएँगे और सारी जनता को शाति मिलेगी।

    द्रोण की बातें सुनकर मल्लों का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने कहा—हे विप्रवर! आपके वचन बड़े कल्याणकारी हैं। आप हमें सन्मार्ग पर ले आए हैं। आपने जैसा कहा है, हम वैसा ही करेंगे।

    इस प्रकार द्रोण के प्रयत्नों से विवाद का अंत हुआ। फिर सबने मिलकर भगवान बुद्ध की मंगलमय धातुओं को आठ भागों में बाँटा। एक-एक भाग प्रत्येक राजा को दिया गया और एक भाग स्वयं मल्लों ने अपने पास रखा।

    भगवान बुद्ध की अस्थियाँ लेकर सातों राजा प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने राज्यों को लौट गए। उन्होंने अपनी-अपनी राजधानी में इन अस्थियों पर स्तूप बनवाए और उनकी पूजा की।

    द्रोण ने भी अपने देश में स्तूप बनवाने के लिए वह घट लिया, जिसमें पहले सभी अस्थियाँ रखी थीं। पिसल जाति के बुद्ध भक्तों ने भगवान बुद्ध के शरीर की राख ली।

    इस प्रकार प्रारंभ में श्वेत पर्वतों के समान आठ स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनमें भगवान बुद्ध की अस्थियाँ रखी गईं थीं। द्रोण के घटवाला नवाँ स्तूप बना और दसवाँ स्तूप बना, जिसमें भगवान बुद्ध के शरीर की राख रखी गई थी।

    स्तूपों के निर्माण के बाद राजा, सामंत तथा अन्य सभी जन इनकी पूजा करने लगे। स्तूपों पर अखंड ज्योति जलती रहती तथा रात-दिन घंटे बजते रहते थे।

    कुछ समय के बाद एक दिन राजगृह में पाँच सौ बौद्ध भिक्षु एकत्र हुए और भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म को स्थायी रूप देने के लिए उन्होंने विचार-विमर्श किया। सभी भिक्षुओं ने मिलकर भगवान बुद्ध के उपदेशों का संग्रह करने का निर्णय लिया।

    आनंद सदा भगवान बुद्ध के साथ रहे थे और उन्होंने उनके मुख से सभी धर्मोपदेश सुने थे, इसलिए सभी भिक्षुओं ने आनंद से निवेदन किया कि संसार के कल्याण के लिए वे सभी धर्मोपदेशों को दुहराएँ।

    आनंद ने 'एवं मे सुतम्' (मैंने ऐसा सुना है) इस तरह कहते हुए, जैसा भगवान बुद्ध से सुना था, वैसे ही क्रमशः प्रसंग, समय, स्थान आदि के साथ सभी धर्मोपदेश कहे। इस प्रकार आनंद तथा दूसरे वरिष्ठ भिक्षुओं ने भगवान बुद्ध के धर्मशास्त्र का स्वरूप निश्चित किया।

    कालांतर में देवानाम प्रियदर्शी का जन्म हुआ। उसने जनहित के लिए बहुत से स्तुपों का निर्माण करवाया। इसके कारण वह 'चंड अशोक' 'धर्मराज अशोक' कहलाने लगा। उसने धातु गर्भित स्तूपों से धातु लेकर अनेक भाग किए और उन्हें सैकड़ों स्तूपों में स्थापित किया।

    जब तक जन्म है, तब तक दुःख है, इसलिए पुनर्जन्म से मुक्ति के समान कोई सुख नहीं है। इसीलिए और कौन उतना पूज्य हो सकता है जितना कि वह, जिन्होंने जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से स्वयं मुक्त होकर सारे संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाया है। 

     

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