पाठशाला जाने के लिए मन तड़पता था। लेकिन दादा के सामने खड़े होकर यह कहने की हिम्मत नहीं होती कि, “मैं पढ़ने जाऊँगा। डर लगता था कि हड्डी-पसली एक कर देगा। इसलिए मैं इस ताक में रहता कि कोई दादा को समझा दे। मुझे इसका विश्वास था कि जन्म-भर खेत में काम करते रहने पर भी हाथ कुछ नहीं लगेगा। जो बाबा के समय था, वह दादा के समय नहीं रहा। यह खेती हमें गड्ढे में धकेल रही है। पढ़ जाऊँगा तो नौकरी लग जाएगी, चार पैसे हाथ में रहेंगे, विठोबा आण्णा की तरह कुछ धंधा कारोबार किया जा सकेगा।' अंदर-ही-अंदर इस तरह के विचार चलते रहते।

दीवाली बीत जाने पर महीना-भर ईख पेरने का कोल्हू चलाना होता। कोल्हू ज़रा जल्दी शुरू किया तो दादा की समझ से ईख की अच्छी-ख़ासी क़ीमत मिल जाती। यह उसकी समझ कुछ हद तक सही थी। जब चारों ओर कोल्हू चलने लगते तो बाज़ार में गुड़ की बहुतायत हो जाती और भाव नीचे उतर आते। उस समय नंबर एक और नंबर दो का गुड़ बहुत आता और हमारे जैसे खेतों पर ही बनाए गए नंबर तीन के गुड़ को कौन पूछता। बाक़ी के किसान दूसरे ढंग से विचार करते थे। उनका मत था कि यदि ईख को और कुछ दिन खेत में खड़ी रहने दिया गया तो गुड़ ज़रा ज़्यादा निकलता है। देर तक खड़ी रहने वाली ईख के रस में पानी की मात्रा कम होती है और रस गाढ़ा हो जाता है जिसके कारण ज़्यादा गुड़ निकलता है। लेकिन दादा की समझ से गुड़ ज़्यादा निकलने की अपेक्षा भाव ज़्यादा मिलना चाहिए। इसलिए सारे गाँव भर में हमारा कोल्हू सबसे पहले शुरू होता था।

इसी कारण वह इस वर्ष भी शुरू हुआ और हम उससे जल्दी निपट गए। आगे के काम में लग गए।

सभी जन धूप में लेटे हुए थे। माँ धूप में कंडे थाप रही थी—मैं बाल्टी में पानी भर-भरकर उसे दे रहा था। कुछ-न-कुछ बातचीत भी कर रहे थे। हम दोनों ही थे इसलिए यह सोचकर कि बात माँ से कहनी चाहिए और मैंने अपने पढ़ने की बात छेड़ दी।

माँ ने कहा, “अब तू ही बता, मैं का करूँ? पढ़ने-लिखने की बात की तो वह बरहेला सूअर की तरह गुर्राता है। तुझे मालूम है।...माँ के मन में जंगली सूअर बहुत गहराई में बैठा हुआ था।

“अब मळा (खेती) के सभी काम बीत गए हैं। मेरे लिए अब कुछ तो करना नहीं रह गया है। इसलिए कहता हूँ; तू दत्ता जी राव सरकार से मेरे पढ़ने के बारे में कह। आज ही रात को उनके यहाँ चलेंगे। मैं चलूँगा तेरे साथ। तू उन्हें सब कुछ समझाकर बता दे। तो वे दादा को ठीक तरह से समझा सकेंगे।

ठीक है चलेंगे। माँ ने हाँ तो की लेकिन अंदर से माँ के स्वर में उदासी थी। मुझे भी मालूम था कि इतना करने पर भी कोई लाभ नहीं होगा। लेकिन वह मेरा मन रखने के लिए जाने को तैयार हो गई। मेरी तड़पन वह समझती थी। सातवीं तक पढ़ाने की उसके मन में तैयारी थी। लेकिन दादा के आगे उसका बस नहीं चलता था।

रात को मैं और माँ दत्ता जी राव देसाई के यहाँ गए। माँ ने दीवार के सहारे बैठकर दत्ता जी राव से सब कुछ कह दिया। वे भी इस बात से सहमत हो गए। माँ ने यह भी बताया कि दादा सारे दिन बाज़ार में रखमाबाई के पास गुज़ार देता है। खेती के काम में हाथ नहीं लगाता है। माँ ने देसाई को यह विश्वास दिला दिया कि दादा को सारे गाँव भर आज़ादी के साथ घूमने को मिलता रहे, इसलिए उसने मेरा पढ़ना बंद कर मुझे खेती में जोत दिया है। यह सुनते ही देसाई दादा चिढ़ गए और बोले, “आने दे अब उसे, मैं उसे सुनाता हूँ कि नहीं अच्छी तरह, देख।

उठते-उठते मैंने भी दत्ता जी राव से कहा, अब जनवरी का महीना है। अब परीक्षा नज़दीक आ गई है। मैं यदि अभी भी कक्षा में जाकर बैठ गया और पढ़ाई की दुहराई कर ली तो दो महीने में पाँचवीं की सारी तैयारी हो जाएगी और मैं परीक्षा में पास हो जाऊँगा। इस तरह मेरा साल बच जाएगा। अब खेती में ऐसा कुछ काम नहीं है। मेरा पहले ही एक वर्ष बेकार में चला गया है।

“ठीक है, ठीक है। अब तुम दोनों अपने घर जाओ—जब वह आ जाए तो मेरे पास भेज देना और उसके पीछे से घड़ी भर बाद में तू भी आ जाना रे छोरा।

जी!” कहकर हम खड़े हो गए। उठते-उठते हमने यह भी कहा कि हमने यहाँ आकर ये सभी बातें कही हैं, यह मत बता देना, नहीं तो हम दोनों की ख़ैर नहीं है। माँ अकेली साग-भाजी देने आई थी। यह बता देंगे तो अच्छा होगा।

“ठीक है, ठीक है। मुझे जो करना है मैं करूँगा। देख, उसके सामने ही तुझसे कुछ पूछूँगा तो निडर होकर साफ़-साफ़ उत्तर देना। डरना मत।

नहीं जी।

मैं माँ के साथ लौट आया। एक घंटा रात बीते दादा घर पर आया। मैं घर में ही था। 

आते ही माँ ने दादा से कहा, “साग-भाजी देने देसाई सरकार के यहाँ गई थी तो उन्होंने कहा कि बहुत दिनों से तेरा मालिक दिखाई नहीं दिया है। खेत से आ जाने पर ज़रा इधर भेज देना।

“कुछ काम-वाम था? दादा ने अधीरता से पूछा। 

“मुझे तो कुछ बताया नहीं उन्होंने।

“तो मैं हो आता हूँ। तब तक तू रोटियाँ सेंक लें। गणपा आए तो उसे खेतों पर भेज देना पहले ही।

दादा तुरंत उठ खड़ा हुआ। देसाई के बाड़े का बुलावा दादा के लिए सम्मान की बात थी। 

आधा घंटा बीतने पर माँ ने मुझसे कहा कि “अब तू जा, कहना जीमने1 बुलाया है। 

“अच्छा।

मैं पहुँचा तो सरकार मेरी राह देख थे।

क्यों आया रे छोरे?

दादा को बुलाने आया हूँ, अभी खाना नहीं खाया है”

बैठ, बैठ थोड़ी देर। अभी तो आया वह मेरे पास। 

जी, मैं बैठ गया।

धीरे-धीरे दत्ता जी राव पूछने लगे, कौन-सी में पढ़ता है रे तू?

“जी, पाँचवीं में था किंतु अब नहीं जाता हूँ।

क्यों रे? 

“दादा ने मनाकर दिया है। खेतों में पानी लगाने वाला कोई नहीं है। 

“क्यों रतनाप्पा?

हाँ जी!

“फिर तू क्या करता है? सरकार ने दादा से जिरह करना शुरू किया तो सारा इतिहास बाहर निकल आया। सरकार ने दादा पर ख़ूब ग़ुस्सा किया। उन्होंने दादा की ख़ूब हजामत बनाई। देसाई के मळा (खेत) को छोड़ देने के बाद दादा का ध्यान किसी काम की तरफ़ नहीं रहा। मन लगाकर वह खेत में श्रम नहीं करता है; फ़सल में लागत नहीं लगाता है, लुगाई और बच्चों को काम में जोतकर किस तरह ख़ुद गाँव भर में खुले साँड़ की तरह घूमता है और अब अपनी मस्ती के लिए किस तरह छोरा के जीवन की बलि चढ़ा रहा है। यह सब उन्होंने सुनाया।

दादा के हरेक तर्क को दत्ता जी राव ने काट दिया और मुझसे कहा, “सवेरे से तू पाठशाला जाता रह, कुछ भी हो, पूरी फ़ीस भर दे उस मास्टर की। और मन लगाकर पढ़ाई कर और किसी भी तरह साल नहीं मारा जाए, इसका ध्यान रख। यदि इसने तुझे पढ़ने नहीं भेजा तो सीधा चला आ इधर। सुबह-शाम जो हो सके, वह काम कर यहाँ और पाठशाला जाते रहना। मैं पढ़ाऊँगा तुझे। इसके पास ज़रा ज़्यादा बच्चे हो गए हैं इसलिए तुम्हारे साथ कुत्तों की तरह बर्ताव करता है।

मैंने मना कब किया है जी? इसको ज़रा ग़लत सलत आदत पड़ गई थी इसलिए पाठशाला से निकालकर ज़रा नज़रों सामने रख लिया है।

'कैसी आदतें?

“चाहे जैसी। यहाँ-वहाँ कुछ भी करता है। कभी कंडे बेचता, कभी चारा बेचता, सिनेमा देखता, कभी खेलने जाता। खेती और घर के काम में इसका बिलकुल ध्यान नहीं है। दादा ने मेरे ऊपर अचानक हल्ला बोल दिया।

क्यों रे छोकरे?

“नहीं जी! कभी एक बार मेले में पटा पर पैसे लगा दिए थे। दादा तो कभी भी सिनेमा के लिए पैसे नहीं देते हैं। इसलिए खेत पर गोबर बीन-बीनकर माँ से कंडे थपवा लिए थे और उन्हें बेचकर ही कपड़े भी बनवाए थे। उसी समय एक बार सिनेमा भी गया था। मैंने भी झूठ-सच मिलाकर ठोंक दिया।

“अब यह सब बंद कर और सिर्फ़ पढ़ाई में मन लगा। ना पास नहीं हुआ है कभी?

नहीं जी। पाठशाला जाना ही बंद करा दिया इसलिए परीक्षा में नहीं बैठा हूँ। 

“अच्छा-अच्छा। अब तू घर जा और सवेरे से पाठशाला जाने लगा।

जी।” मैं उठ खड़ा हुआ। बाहर निकलते-निकलते मैंने सुना, अरे, बच्चे की जात है। एकाध वक़्त सिनेमा चला गया तो क्या हुआ? एकाध बार खेलने में लग गया तो क्या हुआ? इस बात पर उसका पढ़ना-लिखना बंद कर देना है क्या?

जी। आप कहते हैं तो भेज देता हूँ कल से। देखते हैं एकाध वर्ष में कुछ सुधार हो जाए तो। दादा ने मन मारकर कहा। इस समय उसका कोई बस नहीं चला था।

खाना खाते-खाते दादा ने मुझसे वचन ले लिया। पाठशाला ग्यारह बजे होती है। दिन निकलते ही खेत पर हाज़िर होना चाहिए। ग्यारह बजे तक पानी लगाना चाहिए। खेत पर से सीधे पाठशाला पहुँचना। सवेरे आते समय ही पढ़ने का बस्ता घर से ले आना। छुट्टी होते ही घर में बस्ता रखकर सीधे खेत पर आकर घंटा भर ढोर चराना और कभी खेतों में ज़्यादा काम हुआ तो पाठशाला में गैर-हाज़िरी लगाना...समझे! मंज़ूर है का?

“हाँऽ। खेत में काम होगा तो गैरहाज़िर रहना ही चाहिए। मैं ऐसे बोल रहा था मानो मुझे सारी बातें मंज़ूर हैं। मन आनंद से उमड़ रहा था।

“हाँऽ, इतना मंज़ूर हो तो पाठशाला जाना। नहीं तो यह पढ़ना-लिखना किस काम का?

मैं सवेरे-शाम खेतों पर आता रहूँगा ना

हाँ, यदि नहीं आया किसी दिन तो देख गाँव में जहाँ मिलेगा वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होने वाला है तू? दादा बार-बार कुर-कुर कर रहा था—मैं चुपचाप गरदन नीची करके खाने लगा था।

रोते-धोते पाठशाला फिर से शुरू हो गई। गर्मी-सरदी, हवा-पानी, वर्षा, भूख-प्यास आदि का कुछ भी ख़याल न करते हुए खेती के काम की चक्की में, ग्यारह से पाँच बजे तक पिसते रहने से छुटकारा मिल गया। उस चक्की की अपेक्षा मास्टर की छड़ी की मार अच्छी लगती थी। उसे मैं मज़े से सहन कर लेता था।

दुपहरी-भर की कड़क धूप का समय पाठशाला की छाया में व्यतीत हो रहा था—गर्मी के दो महीने आनंद में बीत गए।

फिर से पाँचवीं में जाकर बैठने लगा। फिर से नाम लिखवाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ‘पाँचवीं नापास' की टिप्पणी नाम के आगे लिखी हुई थी। वह पाँचवीं के ही हाज़िरी रजिस्टर में लिखा रह गया था। पहले दिन कक्षा में गया तो गली के दो लड़कों को छोड़कर कोई भी पहचान का नहीं था। मेरे साथ के सभी लड़के आगे चले गए थे। मेरी अपेक्षा कम उम्र के और मैं जिन्हें कम अकल का समझता था, उन्हीं के साथ अब बैठना पड़ेगा, यह बात कक्षा में पहुँचने पर समझ में आई। मन खट्टा हो गया। बाहरी-अपरिचित जैसा एक बेंच के एक सिरे पर कोने में जा बैठा। मास्टर कौन है, इसका पता नहीं था। पुरानी किताबों और पुरानी कॉपियों का उस कक्षा से कोई संबंध नहीं था—फिर भी लट्ठे के बने थैले में उन्हें ले आया था। बस अड्डे पर कोई लड़का अपनी पोटली सँभाले किसी इंतज़ार में जैसे बैठा होता है, उसी तरह मैं अपनी पढ़ाई की पुरानी धरोहर सँभाले बैठा था।

क्या नाम है मेहमान? नया दिखाई देता है। या ग़लती से इस कक्षा में आ बैठे हो? कक्षा के सबसे ज़्यादा शरारती चह्वाण के लड़के ने सामने आकर खिल्ली उड़ाने के स्वर में पूछा। मेरे ध्यान में आया कि मेरी पोशाक भी अजनबी जैसी है। बालुगड़ी की लाल माटी के रंग में मटमैली हुई धोती और गमछा पहनकर मैं अकेला ही था।

“देखें-देखें तुम्हारा गमछा। कहते हुए उसने मेरा गमछा2 खींच लिया।...गया अब मेरा गमछा पूरी कक्षा में इसकी खींचातानी होगी और फट जाएगा। मन में मैं यह सोचकर रुआँसा हो गया। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। उस लड़के ने उसे अपने सिर पर लपेट लिया और मास्टर की नक़ल करते हुए उसे उतारकर टेबल पर रखकर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए हुश्शऽऽ की आवाज़ की। इतने में मास्टर आ गए और वह गुंडा झट से अपनी जगह पर जा बैठा। मेरा गमछा टेबल पर ही रहा। पहले दिन ही इस घटना ने मेरे दिल की धड़कन बढ़ा दी और छाती में धक-धक होने लगी।
 
रणनवरे मास्टर कक्षा में आए। टेबल पर मटमैला गमछा देखकर उन्होंने पूछा, “किसका है रे?”

मेरा है मास्टर।”

“तू कौन है?”

“मैं जकाते। पिछले साल फ़ेल होकर इसी कक्षा में बैठा हूँ।

“गमछा ले जा पहले। उसने छड़ी से मेरा गमछा उठाकर नीचे डाल दिया। मैं उसे उठाने गया तो कहा, “यहाँ क्यों रखा है मूर्खों की तरह?

“मैंने नहीं रखा मास्टर, उस लड़के ने मेरे सिर से छीन लिया और यहाँ रख दिया है।”

“यह चह्वाण का बच्चा बिना बात के उठक-पटक करता है। कहते हुए मास्टर उस लड़के की ओर चले गए।

मास्टर ने मेरे बारे में और भी पूछताछ की और वामन पंडित की कविता पढ़ाने लगे। 

बीच की छुट्टी में मेरी धोती की काछ उस लड़के ने दो बार खींचने की कोशिश की। लेकिन मैं फिर दीवार की तरफ़ पीठ करके जा बैठा तो पूरी छुट्टी होने से पहले उठा ही नहीं। खिलौने के लिए बनाए गए कौआ के बच्चे को खुले में रख देने पर जैसे कौए चारों ओर से उस पर चोंच मारते हैं, वैसा ही मेरा हाल हो गया। मेरी ही पाठशाला मुझे चोंच मार-मारकर घायल कर रही थी।

घर जाते समय सोच रहा था कि लड़के मेरी खिल्ली उड़ाते हैं—धोती खींचते हैं—गमछा खींचते हैं, तो इस तरह कैसे निबाह होगा...? नहीं जाऊँगा ऐसी पाठशाला में। इससे तो अपना खेत ही अच्छा है—चुपचाप काम करते रहो। गली के दो ही लड़के हैं कक्षा में, वे भी मुझसे भी कमज़ोर हैं। वे क्या मदद करेंगे?...

मन उदास हो गया। चौथी से पाँचवीं तक पाठशाला अपनी लगती थी। लेकिन अब वह एकदम पराई-पराई जैसी लगने लगी है। अपना वहाँ कोई नहीं है।

सवेरे हो जाने पर मैं उमंग में था—फिर से पाठशाला चला गया। माँ के पीछे पड़कर एक नई टोपी और दो नाड़ीवाली चड्डी मैलखाऊ रंग की आठ दिन में मँगवा ली। चड्डी पहनकर पाठशाला में और धोती पहनकर खेत पर जाना शुरू हुआ। धीरे-धीरे लड़कों से परिचय बढ़ गया।

मंत्री नामक मास्टर कक्षा अध्यापक के रूप में बीच में आए। वे प्रायः छड़ी का उपयोग नहीं करते थे। हाथ से गरदन पकड़कर पीठ पर घूसा लगाते थे। पीठ पर एक ज़ोर का बैठते ही लड़का हूक भरने लगता। लड़कों के मन में उनकी दहशत बैठी हुई थी। इसके कारण ऊधम करने वाले लड़कों को प्रायः मौक़ा नहीं मिलता था। पढ़नेवाले लड़कों को शाबाशी मिलने लगी। मंत्री मास्टर गणित पढ़ाते थे। एकाध सवाल ग़लत हो जाता तो उसे वे अपने पास बुलाकर समझा देते। एकाध लड़के की कोई मूर्खता दिखाई दी तो वे उसे वहीं ठोंक देते। इसलिए सभी का पसीना छूटने लगता। सभी लड़के घर से पढ़ाई करके आने लगे।

वसंत पाटील नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बड़ा होशियार था। उसके सवाल हमेशा सही निकलते थे। स्वभाव से शांत। हमेशा पढ़ने में लगा रहता। घर से पूरी तैयारी करके आता होगा। दूसरों के सवालों की जाँच करता था। मास्टर ने उसे कक्षा मॉनीटर बना दिया था। हमेशा पहली बेंच पर बैठता बिलकुल मास्टर के पास। कक्षा में उसका सम्मान था।

मुझे यह लड़का मेरी अपेक्षा छोटा लगता था...मैं उससे पहले ही पाँचवीं में पहुँच गया था। ग़लती से पिछड़ गया हूँ मैं। इसलिए मास्टर को कक्षा की मॉनीटरी मेरे हाथ सौंपनी चाहिए, मुझे ऐसा लगने लगा। दूसरी ओर यह भी लगता था कि मुझे दो महीने में पाँचवीं की पूरी तैयारी करके अच्छी तरह पास होना है। कक्षा में दंगा करना और पढ़ाई की उपेक्षा करना मेरे लिए मुनासिब नहीं। हम तो इस कक्षा में ऊपरी हैं, यह नहीं भूलना चाहिए।

इन सब बातों के कारण मेरा सारा ध्यान पढ़ाई की ओर ही रहा और वसंत पाटिल की तरह ही पढ़ाई का काम करने लगा। मैंने अपनी किताबों पर अख़बारी काग़ज़ के कवर चढ़ा तरह दिए। अपना बस्ता व्यवस्थित रखने लगा। हमेशा कुछ-न-कुछ पढ़ने बैठता था। उसने यदि कक्षा में कोई शाबाशी का काम किया तो मैं भी दूसरे दिन वैसा ही कुछ करने लगा। मन की एकाग्रता के कारण गणित झटपट समझ में आने लगा और सवाल सही होने लगे।

कभी-कभी वसंत पाटील के साथ-साथ, एक तरफ़ से वह तो दूसरी तरफ़ से मैं लड़कों के सवाल जाँचने लगा। इसके कारण मेरी और वसंत की दोस्ती जम गई। एक-दूसरे की सहायता से कक्षा में हम अनेक काम करने लगे। मास्टर मुझे 'आनंदा' कहकर बुलाने लगे। मुझे पहली बार किसी ने 'आनंदा' कहकर पुकारा। माँ कभी 'आनंदा' कहती, परंतु बहुत कम। मास्टरों के इस अपनेपन के व्यवहार के कारण और वसंत की दोस्ती के कारण पाठशाला में मेरा विश्वास बढ़ने लगा।

न.वा.सौंदलगेकर मास्टर मराठी पढ़ाने आते थे। पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे। विशेषत: वे कविता बहुत ही अच्छे ढंग से पढ़ाते थे। सुरीला गला, छंद की बढ़िया चाल और उसके साथ ही रसिकता थी उनके पास। पुरानी-नई मराठी कविताओं के साथ-साथ उन्हें अनेक अँग्रेज़ी कविताएँ कंठस्थ थीं। अनेक छंदों की लय, गति, ताल उन्हें अच्छी तरह आते थे। पहले वे एकाध कविता गाकर सुनाते थे—फिर बैठे-बैठे अभिनय के साथ कविता का भाव ग्रहण कराते। उसी भाव की किसी अन्य कवि की कविता भी सुनाकर दिखाते। बीच में कवि यशवंत, बा.भ.बोरकर, भा.रा. ताँबे, गिरीश, केशव कुमार आदि के साथ अपनी मुलाक़ात के संस्मरण सुनाते। वे स्वयं भी कविता करते थे। याद आ गई तो वे अपनी भी एकाध सुना देते। यह सब सुनते हुए, अनुभव करते हुए, मुझे अपना भान ही नहीं रहता था। मैं अपनी आँखों और कानों में प्राणों की सारी शक्ति लगाकर दम रोककर मास्टर के हाव-भाव, ध्वनि, गति, चाल और रस पीता रहता।

सुबह-शाम खेत पर पानी लगाते हुए या ढोर चराते हुए अकेले में खुले गले से वे सारी कविताएँ मास्टर के ही हाव-भाव, यति-गति3 और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाता। उन कविताओं के अर्थों से खेलता हुआ मैं आगे-पीछे आता-जाता था। मास्टर जिस प्रकार बैठे-बैठे ही अभिनय करते थे, मैं पानी लगाते-लगाते वैसा अभिनय करता था। क्यारियाँ पानी से कब की भर गई हैं, इसका भान भी नहीं रहता था। मास्टर की चाल पर दूसरी कविताएँ भी पढ़ी जा सकती हैं, इसका पता भी मुझे उसी समय चला।

इन कविताओं के साथ खेलते हुए मुझे दो बड़ी शक्तियाँ प्राप्त हुईं—पहले ढोर चराते हुए, पानी लगाते हुए, दूसरे काम करते हुए, अकेलापन बहुत खटकता था—किसी के साथ बोलते हुए, गपशप करते हुए, हँसी-मज़ाक़ करते हुए काम करना अच्छा लगता था—हमेशा कोई-न-कोई साथ में होना चाहिए, ऐसा लगता था। लेकिन अब अकेलेपन से कोई ऊब नहीं होती। मैं अपने आप से ही खेलने लगा। उलटा अब तो ऐसा लगने लगा कि जितना अकेला रहूँ, उतना अच्छा। इस कारण कविता ऊँची आवाज़ में गाई जा सकेगी। किसी भी तरह का अभिनय किया जा सकेगा। कविता गाते-गाते थुई-थुई करके नाचा जा सकता था। मैं सचमुच ही नाचने लगता था। मैंने अनेक कविताओं को अपनी ख़ुद की चाल में गाना शुरू किया। अनंत काणेकर की कविता, जिसकी पहली पंक्ति इस प्रकार है—“चाँद रात पसरिते पाँढरी गाया 

धरणीवरी को मैंने मास्टर की चाल से अलग अपनी चाल में बिठाकर गाई। यह चाल एक सिनेमा के गाने के आधार पर थी। वह गाना, 'केशव करणी जाति' नामक छंद में था। उस कविता को मैं मास्टर की अपेक्षा ज़्यादा अभिनय के साथ गाता था—चेहरे पर कविता के भाव पैदा करने का प्रयत्न करता था। मास्टर को मेरा प्रयत्न इतना अच्छा लगा कि उन्होंने छठी-सातवीं कक्षा के सभी लड़कों के सामने मुझे बुलाकर गवाया। पाठशाला के एक समारोह में भी उसे गवाया...इसके कारण मुझे लगा कि मेरे कुछ नए पंख निकल आए हैं।

मास्टर स्वयं कविता करते थे। अनेक मराठी कवियों के काव्य-संग्रह उनके घर में थे। वे उन कवियों के चरित्र और उनके संस्मरण बताया करते थे। इसके कारण ये कवि लोग मुझे 'आदमी' ही लगने लगे थे। ख़ुद सौंदलगेकर मास्टर कवि थे। इसलिए यह विश्वास हुआ कि कवि भी अपने जैसा ही एक हाड़-माँस का; क्रोध-लोभ का मनुष्य ही होता है। मुझे भी लगा कि मैं भी कविता कर सकता हूँ। मास्टर के दरवाज़े पर छाई हुई मालती की बेल पर मास्टर ने एक कविता लिखी थी। वह कविता और वह लता मैंने दोनों ही देखी थी। इसके कारण मुझे लगता था कि अपने आसपास, अपने गाँव में, अपने खेतों में, कितने ही ऐसे दृश्य हैं जिन पर मैं कविता बना सकता हूँ। यह सब कुछ अनजाने में ही होता रहता था। भैंस चराते-चराते मैं फ़सलों पर, जंगली फूलों पर तुकबंदी करने लगा। उन्हें ज़ोर से गुनगुनाता भी था और मास्टर को दिखाने भी लगा। कविता लिखने के लिए खीसा में काग़ज़ और पेंसिल रखने लगा। कभी वह न होते तो लकड़ी के छोटे टुकड़े से भैंस की पीठ पर रेखा खींचकर लिखता था या पत्थर की शिला पर कंकड़ से लिख लेता। जब कंठस्थ हो जाती तो पोंछ देता। किसी रविवार के दिन एकाध कविता बन जाती तो सोमवार के दिन मास्टर को दिखाता।

बहुत बार तो सवेरा होने तक का धीरज छूट जाता और मैं रात को ही मास्टर के घर जाकर कविता दिखाता। वे उसे देखते और शाबाशी देते। और फिर कभी-कभी तो कविता के शास्त्र पर एक पूरी महफ़िल हो जाती। बोलते-बोलते मास्टर बताते—कवि की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का उपयोग कविता के लिए किस तरह होता है, छंद की जाति कैसे पहचानें, उसका लयक्रम कैसे देखें, अलंकारों में सूक्ष्म बातें कैसी होती हैं, अलंकारों का भी एक शास्त्र होता है, कवि को शुद्ध लेखन करना क्यों ज़रूरी होता है, शुद्ध लेखन के नियम क्या हैं, आदि अनेक विषयों पर वे सहज बातें बताते रहते। मुझे उनके प्रति अपनापा अनुभव होता। वे मुझे पुस्तक देते। अलग-अलग प्रकार के कविता-संग्रह देते। उन्होंने कई नई तरह की कविताएँ सुनाई तो लगा मैं इस ढर्रे पर कविता बनाऊँ। फिर तो सारे दिन उस दिशा में मेरी कोशिश चलती। इन बातों से मैं सौंदलगेकर मास्टर के बहुत नज़दीक पहुँच गया और जाने-अनजाने मेरी मराठी भाषा सुधरने लगी। उसे लिखते समय मैं बहुत सचेत रहने लगा। अलंकार, छंद, लय आदि को सूक्ष्मता से देखने लगा। शब्दों का नशा चढ़ने लगा और ऐसा लगने लगा कि मन में कोई मधुर बाजा बजता रहता है।
स्रोत :
  • पुस्तक : वितान (भाग-2) (पृष्ठ 21)
  • रचनाकार : आनंद यादव
  • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
  • संस्करण : 2022

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