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इकाई- X आत्मकथा, जीवनी तथा अन्य गद्य विधाएँ

इकाई- X aatmkatha, jivanee tatha anya gadya vidhayen

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इकाई- X आत्मकथा, जीवनी तथा अन्य गद्य विधाएँ

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    रामवृक्ष बेनीपुरी : माटी की मूरतें

    रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के बेनीपुर गाँव में सन् 1899 में हुआ। उनका देहावसान सन् 1968 में हुआ।

    वे बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार थे। उन्होंने अनेक दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें तरुण भारत, किसान मित्र, बालक, युवक, योगी, जनता, जनवाणी और नई धारा उल्लेखनीय हैं।

    उनका पूरा साहित्य बेनीपुरी रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित है। उनकी रचना यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव हैं—पतितों के देश में (उपन्यास); चिता के फूल (कहानी); अंबपाली (नाटक); माटी की मूरतें (रेखाचित्र); पैरों में पंख बाँधकर (यात्रा-वृत्तांत); जंजीरें और दीवारें (संस्मरण) आदि। उनकी रचनाओं में स्वाधीनता की चेतना, मनुष्यता की चिंता और इतिहास की युगानुरूप व्याख्या है।

    'माटी की मूरतें' 1941 ई. से 1945 ई. के बीच में लिखें गए संस्मरणात्मक रेखाचित्रों का संग्रह है।

    इन सभी संस्मरणात्मक रेखाचित्रों को बेनीपुरी जी ने स्वयं 'शब्दचित्र' कहा है।

    इसका प्रथम प्रकाशन 1946 ई. में हुआ था। उस समय पुस्तक में 11 रेखाचित्र संकलित थे।

    इसका दूसरा प्रकाशन 1953 ई. में हुआ। इसमें निम्नलिखित 12 रेखाचित्र है।

    12 शब्दचित्रों के नाम इस प्रकार हैं :- रजिया, बलदेव, सरजू भैया, मंगर, रूप की दादी, देव, बालगोबिंद भगत, भौजी, परमेसर, बैजू मामा, सुभान खान, बुधिया 'रजिया' रेखा चित्र को दूसरा संस्करण में जोड़ा गया।

    माटी की भूमिका में लेखक का कथन “ये मूरतें न तो किसी आसमानी देवता की होती हैं, न अवतारी देवता की।

    गाँव के ही किसी साधारण व्यक्ति-मिट्टी के पुतले-ने किसी असाधारण-अलौकिक धर्म के कारण एक दिन देवत्व प्राप्त कर लिया, देवता में गिना जाने लगा और गाँव के व्यक्ति-व्यक्ति के सुख-दुःख का द्रष्टा स्रष्टा बन गया।

     

    महादेवी वर्मा : ठकुरी बाबा

    ठकुरी बाबा नामक रेखाचित्र में महादेवी गाँव-गँवई के एक ठेठ, अदना से, भाट वंश में अवतीर्ण निर्धन कवि ठाकुरदीन सुदामा अर्थात् ठकुरी से अपने को जोड़ती है।

    ठकुरी बाबा, जो किसी मचान पर बैठकर विरहा सुनाता है, बारहमासा के रसिक श्रोता को उसके बैलों का सानी-पानी देने के साथ-साथ काव्यानंद भी प्रदान करता है, होली पर कबीर सुनाने में अपनी भूख-प्यास भी भूल जाता है।

    महादेवी इस जन-कवि को अपेक्षित हमदर्दी और आत्मीयता के साथ रेखांकित करने में भी एक नए ढंग की सामाजिक चेतना को व्यक्त करती हैं। कहना चाहिए कि ठकुरी बाबा के माध्यम से कुलीन संस्कृति और जन-संस्कृति के बीच फ़र्क़ को पूरे तीखेपन के साथ उभारने में भी रेखाचित्रकार की यथार्थवादी और सकारात्मक सामाजिक चेतना का परिचय मिलता है।

    गाँव में भी इंसानियत का लोप होता जा रहा है और 'मनुष्यता को विकास के लिए अवकाश मिलना कठिन है' जैसे प्रश्न सामने रखकर महादेवी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पूँजीवाद के प्रभाव के प्रवेश से उत्पन्न समस्या को उद्घाटित करती है। उदारता, सहज सौहार्द, सरल भावुकता आदि गुण पहले ग्रामीण जीवन के लक्षण माने जाते थे, पर अब वहाँ भी 'सुलभ नहीं रहे।' इस दुर्लभ गुण के प्रतीक हैं—ठकुरी बाबा।

    मुख्य पात्र : महादेवी (स्वयं), भक्तिन और ठकुरी बाबा।

     

    तुलसीराम : मुर्दहिया

    जन्म- 1 जुलाई 1949, आज़मगढ़ (उत्तर प्रदेश)

    डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा दो खंडों में विभक्त है, प्रथम खंड का नाम 'मुर्दहिया' (2005) तथा द्वितीय खंड का नाम 'मणिकर्णिका'(2009) है।

    मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे को हिंदी की पहली दलित आत्मकथा माना जाता है। इसका प्रकाशन 1995 ई. में हुआ था।

    इससे पहले भगवानदास की 'मैं भंगी हूँ का प्रकाशन हुआ था, लेकिन स्वयं रचनाकार इसे आत्मकथा नहीं मानते हैं इसीलिए नैमिशराय जी को हिंदी की पहली आत्मकथा लिखने का श्रेय मिलता है। इसके उपरांत हिंदी की बहुचर्चित आत्मकथा 'जूठन' का प्रकाशन 1997 ई. में हुआ, जिसके रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं। इसमें वंचित, शोषित और प्रताड़ित दलित जीवन का प्रमाणिक दस्तावेज़ मिलता है। यहाँ से आगे शृंखलाबद्ध दलित आत्मकथाएँ प्रकाशित होने लगी, जिनमें सूरजपाल चौहान की 'तिरस्कृत', कौशल्या बैसंत्री की 'दोहरा अभिशाप', रूपनारायण सोनकर की 'नागफनी', श्यौराजसिंह बेचैन की 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर', माताप्रसाद की 'झोपड़ी से राजभवन', सुशीला टाकभौरे की 'शिकंजे का दर्द', डॉ. तुलसी राम की 'मुर्दहिया', 'मणिकर्णिका' आदि आत्मकथाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। 

    दलित जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गई महत्त्वपूर्ण आत्मकथा है—'मुर्दहिया'।

    इसमें दलितों के सामजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक जीवन की बहुमुखी तस्वीर उभरती है। इस आत्मकथा की भूमिका पढ़ने से स्पष्ट होता है कि दलित जीवन की संघर्ष गाथा प्रस्तुत करना ही आत्मकथा का मुख्य प्रयोजन रहा है। आत्मकथाकार डॉ. तुलसी राम ने इस आत्मकथा की भूमिका में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, 'मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर (आज़मगढ़) की बहुद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक सारे रास्ते वहीं से गुज़रते थे। इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाज़ार हो या मंदिर, यहाँ तक कि मज़दूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुज़रना पड़ता है। हमारे गाँव की 'जिओ पोलिटिक्स' यानी 'भू-राजनीति' में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फ़र्क़ नहीं करती थी। वह दोनों की मुक्तिदाता थी। विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के मांसपिंड से जूझते सैकड़ों गिद्धों के साथ कुत्ते और सियार 'मुर्दहिया' को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे। रात के समय इन्हीं सियारों की हुआँ-हुआँ' वाली आवाज़ उसकी निर्जनता को भंग कर देती है। हमारी दलित बस्ती के अनगिनत दलित हज़ारों दुख-दर्द अपने अंदर लिए 'मुर्दहिया' में दफ़न हो गए थे। यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक 'मुर्दहिया' होता। 

    'मुर्दहिया' सही मायनों में हमारी दलित बस्ती की ज़िंदगी थी। घरेलू हिंसा की शिकार दलित स्त्री का मार्मिक चित्रण इसमें मिलता है। पुरुष हमेशा स्त्री चरित्र पर उँगली उठाता है और उसकी आज़ादी को नियंत्रित करना चाहता है। पुरुष की अहंकार से भरी मानसिकता का सटीक चित्रण इस आत्मकथा में मिलता है। साथ ही स्त्री जीवन में शिक्षा के अभाव के परिणामों को भी आत्मकथाकार ने प्रस्तुत किया है। गाँव की स्त्रियाँ अज्ञान के कारण बहुत जल्दी अंधविश्वासी मान्यताओं में फँस जाती हैं और भूत-प्रेत की धारणाओं से प्रभावित हो जाती है। इसका वर्णन इस आत्मकथा में मिलता है। गाँव की राजनीति के विविध चित्र इस आत्मकथा में देखे जा सकते हैं।

    राजनीति में धर्म और अर्थ का प्रवेश कैसे होता है, इससे गाँव के लोग किस तरह खींचे चले जाते हैं और राजनीति का असली चेहरा और चरित्र क्या है—इन सभी का आलोचनात्मक शब्दांकन इस आत्मकथा में मिलता है। इसके अलावा भी यह आत्मकथा दलित जीवन के अन्य पहलुओं से हमें परिचित कराती है। इसमें दलित-सवर्ण संघर्ष प्रधान रूप से उभरकर सामने आता है। आत्मकथाकार ने अपने गाँव में होली के दिन बमनौटी विरुद्ध चमरौटी के बीच हुए विवाद का यथार्थ चित्रण किया है। यह विवाद सामाजिक विषमता का सटीक चित्र प्रस्तुत करता है। डॉ. तुलसी राम सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के सुंदर चित्र अपनी आत्मकथा में रेखांकित करते हैं। प्रस्तुत आत्मकथा में एक ओर सामाजिक जीवन में गाँव की विविध समस्याओं से लेकर पंचायत में उनके समाधान के बिंब मिलते हैं, दूसरी तरफ़ गाँव की सांस्कृतिक परंपरा के अनेक चित्र देखे जा सकते हैं। मुर्दहिया में लोक गीतों का विशिष्ट प्रयोग हुआ है, जिससे गाँव के सांस्कृतिक जीवन की सुंदर तस्वीर उभरती है।

    इस आत्मकथा में पर्यावरण चेतना का विवरण मिलता है। आत्मकथाकार एक प्रसंग के माध्यम से अपने गाँव और घर की पर्यावरण संवेदना का परिचय देते हैं। साथ ही शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करने में यह आत्मकथा अपनी विशिष्ट भूमिका निभाती है। दलितों में परिवर्तन की चेतना जगाने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, इसका सुंदर चित्रण इस आत्मकथा में मिलता है।

    मुर्दहिया आज़मगढ़ में स्थित लेखक के गाँव के शमशान घाट का नाम है, यह दलित जीवन की कर्मस्थली है।

    'मुर्दहिया' की भूमिका में डॉ. तुलसीराम यह स्पष्ट करते हैं कि 'मेरे भीतर से मुर्दहिया को खोद खोदकर निकालने का काम तद्भव के संपादक अखिलेश ने किया है'। मुर्दहिया में लेखक के बचपन से लेकर उनके स्नातक की शिक्षा तक की जीवन यात्रा का विवरण है।

    मुख्य पात्र :

    जूठन : लेखक के दादाजी, जिन्हें प्रचलित अंधविश्वास के अनुसार किसी भूत ने लाठी से पीट-पीटकर मार डाला था।

    मुसड़िया : सौ वर्ष से भी ज़्यादा जीवित रहने वाली लेखक की दादी।

    धीरजा : लेखक की माता जी, सीधी सादी घरेलू स्त्री।

    जंगू पांडे : 80 वर्षीय ब्राह्मण, जिन्हें निर्वंश और अविवाहित होने के कारण गाँव के लोग अपशकुनी मानते थे।

    नग्गर : लेखक के पिता के तीसरे भाई। स्वभाव से क्रूर 'शिवनारायण पंथी' धर्मगुरु भी थे।

    सोम्मर : लेखक के पिता के सबसे बड़े भाई 112 गाँव के चमारों के चौधरी।

    मुन्नेसर : लेखक के पिता के दूसरे नंबर के भाई। 'शिवनारायण पंथी' धर्मगुरु। कलकत्ते की एक जूट मिल में मज़दूर।

    मुन्नर : लेखक के पिता के चौथे नंबर के भाई। अन्य सभी भाइयों की अपेक्षा सहज और समन्वयवादी व्यक्ति। पूरे संयुक्त परिवार के मुखिया।

     

    शिवरानी देवी : प्रेमचंद घर में

    हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की एक जीवनी 'प्रेमचंद घर में' (1944 ई.) है।

    दूसरी जीवनी उनके पुत्र अमृतराय ने 'कलम का सिपाही' (1962 ई.) लिखी थी।

    तीसरी जीवनी 'कलम का मज़दूर' (1954 ई.) में 'मदन गोपाल' ने लिखी है। मूल पुस्तक अँग्रेज़ी में लिखी गई थी। बाद में मदन गोपाल ने हिंदी में अनुवाद किया।

    शिवरानी देवी भूमिका में यह लिखती हैं—“पाठकों के सामने इस पुस्तक को रखते हुए मुझे वही सुख अनुभव हो रहा है जो एक आदमी को अपना कर्तव्य पूरा करने से होता है। इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य उस महान् आत्मा की कीर्ति फैलाना नही है, जैसा कि अधिकांश जीवनियों का होता है। इस पुस्तक में आपको घरेलू संस्मरण मिलेंगे पर इन संस्मरणों का साहित्यिक मूल्य भी इस दृष्टि से है कि इनसे उस महान् साहित्यिक के व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। मानवता की दृष्टि से भी वह व्यक्ति कितना महान्, किनना विशाल था, यही बताना इस पुस्तक का उद्देश्य है। और यह बताने का अधिकार जितना मुझे है उतना और किसी को नहीं, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में हम दोनों 'एक ही नाव के यात्री' थे और हमने साथ-साथ ही ज़िंदगी के सब तूफ़ानों को झेला था, दुःख में और सुख में मैं हमेशा उनके साथ, उनके बग़ल में थी। आदमी की पहचान तकलीफ़ के भँवर में पड़कर ही होती है और चूँ कि हम दोनों साथ-साथ उन तकलीफ़ो से लड़े, साथ-साथ रोये और हँसे, इसीलिए मुझे उनकी विशालता का थोड़ा-सा अन्दान्न लगाने का मौक़ा मिला।”

    लेखिका का बल प्रमाणिक प्रस्तुति का है। भूमिका में वे लिखती हैं—

    पुस्तक के लिखने में मैंने केवल एक बात का अधिक से अधिक ध्यान रखा है और वह है ईमानदारी, सचाई। घटनाएँ जैसे-जैसे याद आती गई हैं, मैं उन्हें लिखती गई हूँ। उन्हें सजाने का मुझे न तो अवकाश था और न साहस। इसलिए हो सकता है कहीं-कहीं पहले की घटनाएँ बाद में और बाद की घटनाएँ पहले आ गई हो। यह भी हो सकता है कि अनजाने में ही मैंने किसी घटना का ज़िक्र दो बार कर दिया हो।

    'प्रेमचंद घर में' प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा रचित प्रेमचंद की जीवनी है। इस पुस्तक में शिवरानी देवी ने प्रेमचंद के संपूर्ण जीवन को दर्शाया है।

    इसका प्रकाशन सन् 1944 ई. में हुआ। प्रेमचंद के पिता का नाम अजायबराय और माता का नाम आनंदीदेवी था।

    प्रेमचंद को इनके पिताजी ने मुंशी धनपतराय तथा चाचा जी ने मुंशी नवाबराय नाम दिया था। इन्होंने 'मर्यादा', 'हंस' तथा 'जागरण' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। प्रायः इनका पहला उपन्यास 'प्रेमा' को माना जाता है, किंतु इस पुस्तक के अनुसार इनका पहला उपन्यास 'कृष्णा' को जो 1905 में प्रयाग से छपा था तथा दूसरा उपन्यास 'प्रेमा' को माना गया है। इनके दो बेटे श्रीपतराय (धुन्नू) तथा अमृतराय (बन्नू) थे।

    शिवरानी देवी ने प्रेमचंद के संपूर्ण जीवन को इस पुस्तक में 88 भागों में दिखाया है।

    पुस्तक की श्रद्धांजलि बनारसीदास चतुर्वेदी तथा आमुख शिवरानी देवी ने लिखा है।

     

    मन्नू भंडारी : एक कहानी यह भी

    मन्नू भंडारी 

    जन्म- 3 अप्रैल 1931, भानपुरा (मध्य प्रदेश)

    यह हिंदी की प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी जी के भावात्मक तथा सांसारिक जीवन की कथा यात्रा है। इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं उनके संघर्षों के साथ-साथ उनके एवं राजेंद्र यादव के आपसी संबंधों और उनकी रचनाओं के नेपथ्य के सृजनात्मक सूत्र भी दृष्टिगोचर होते हैं। यह दो भागों में प्रकाशित हुई है।

    लोकप्रियता कभी भी रचना का मानक नहीं बन सकती। असली मानक तो होता है रचनाकार का दायित्वबोध, उसके सरोकार, उसकी जीवन-दृष्टि।—(एक कहानी यह भी)

    वह अपनी आत्मकथा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट लिखती है—“यह मेरी आत्मकथा क़तई नही है, इसलिए मैंने इसका शीर्षक भी ‘एक कहानी यह भी’ ही रखा है। जिस तरह कहानी अपनी ज़िंदगी का अंश मात्र ही होती है, एक पक्ष, एक पहलू, उसी तरह यह भी मेरी ज़िंदगी का एक टुकड़ा मात्र ही है, जो मुख्यतः मेरे लेखकीय व्यक्तित्व और मेरे यात्रा लेखन पर केंद्रित हैं।”

    मन्नू भंडारी आगे लिखती है—“आज तक मैं दूसरों की ज़िंदगी पर आधारित कहानियाँ ही रचती आई थी, पर इस बार मैंने अपनी कहानी लिखने की जुर्रत की है। है तो यह जुर्रत ही क्योंकि हर कथाकार अपनी रचनाओ में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िंदगी के अपने अनुभव के टुकड़े ही बिखेरता रहता है। कहीं उसके विचार और विश्वास गुंथे हुए होते हैं, तो कहीं उसकी उल्लास और अवसाद के क्षण कहीं उसके सपने और उसके आकांक्षाएँ अंकित है, तो कहीं धिक्कार और प्रताडता के उद्‌गार।”

    अपनी इस आत्मकथा में मन्नू भंडारी ने अपने स्वयं को विविध रूपों में पाठकों के सामने लाया है। कभी वह बेटी के रूप में सामने आती है, तो कभी छात्रा के रूप में, पत्नी के रूप में, कभी सहेली के रूप में, तो कभी माँ के रूप में, कभी पाठक के रूप में तो कभी साहित्यकार के रूप में कभी अध्यापिका के रूप में आती है, तो कभी सहेली के रूप में।

    इस आत्मकथात्मक कहानी के निम्न चार भाग है :-

    मन्नू भंडारी की कहानी :

    जन्म- मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था। मन्नू भंडारी 5 भाई बहन थे। मन्नू भंडारी सबसे छोटी थी। साहित्य से इनका परिचय कांग्रेसी नेता जीतमल लूणिय के माध्यम से हुआ था। इन्हें जैनेंद्र की रचनाएँ, भगवती बाबू का चित्रलेखा और अज्ञेय की रचनाएँ पसंद थी। इनका प्रिय लेखक यशपाल थे। मन्नू भंडारी भाषा विज्ञान और काव्यशास्त्र में कमज़ोर थी। उनकी पहली कहानी ‘मैं हार गयी’ है। वे 1957 ई. के अधिवेशन में शामिल हुई थी। इनका राजेंद्र यादव से विवाह हुआ था। इनकी पुत्री का नाम ‘टिंकू’/’रचना’ है।

    मन्नू भंडारी के पिता से जुड़ी कहानी :

    पहले इंदौर में रहते थे बाद में अजमेर (राजस्थान) के ब्रह्मपुरी में रहने लगे थे। वे कांग्रेसी एवं समाजसुधारक थे। विद्यार्थियों को अपने घर पर पढ़ाते थे।

    पति राजेंद्र यादव से संबंधित जुड़ी कहानी :

    राजेंद्र यादव से उनकी पहली मुलाक़ात सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल अजमेर के पुस्तकालय में हुई थी। 22 नवंबर को उनका विवाह हुआ। 35 वर्षों के बाद उनका विवाह विच्छेद हो गया था। 

    शीला अग्रवाल से संबंधित कहानी :

    शीला अग्रवाल सावित्री गर्ल्स कॉलेज अजमेर में हिंदी की प्राध्यापिका थी।

    प्रमुख पात्र : जीतमल लूणिय, सुशीला (मन्नू भंडारी की बहन), शीला अग्रवाल, डॉ अंबालाल जी, मिस्टर सेठी, कोमल कोठारी, पुष्प्मयी बोस, निर्माजा जैन, अजित जी, निर्मल हेमंत, डॉ शैल कुमारी, अर्चना वर्मा आदि।

     

    विष्णु प्रभाकर : आवारा मसीहा

    विष्णु प्रभाकर

    जन्म- 21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के मीरापुर गाँव में हुआ।

    विष्णु प्रभाकर की रचनाओं में स्वदेश प्रेम, राष्ट्रीय चेतना और समाज-सुधार का स्वर प्रमुख रहा जो कि सरकारी नौकरी छोड़ने का कारण बना।

    'आवारा मसीहा' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आजीवन वे गांधीवादी विचारों से प्रभावित रहे।

    अपने साहित्य लेखन के संबंध में विष्णु प्रभाकर कहते हैं—परिवेश से प्रभावित होकर भी मेरे सृजन का मूल स्वर मनुष्य की पहचान और शोषण से मुक्ति है। मैंने चौथे दशक से लिखना शुरू किया था। जान-बूझकर कोई प्रयत्न नहीं किया, पर जिस परिप्रेक्ष्य में पला पनपा, वह मुझे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की ओर ले जा सकता था, लेकिन मैं किसी दल या सिद्धांत का पक्षधर नहीं बन सका।

    विष्णु प्रभाकर के अनुसार—साहित्य मानव आत्मा की बंधनहीन अभिव्यक्ति है; बंधन अगर है तो वह अपने विश्वासों का आंतरिक बंधन है। वह बाहर से आरोपित नहीं किया जा सकता। व्यक्ति की संवेदना जब मानव की संज्ञा में रूपायित होती है तभी कोई रचना साहित्य की संज्ञा पाती है। साहित्य भाषा के माध्यम से संप्रेषित होता है। भाषा साहित्य को समाज से जोड़ती है, उसे सामाजिक बनाती है; पर साहित्य मात्र समाज का दर्पण नहीं है वह समाज को समझने, पहचानने की दृष्टि है।

    जीवनी :- 'आवारा मसीहा', 'अमर शहीद भगत सिंह', 'सरदार बल्लभभाई पटेल', 'काका कालेलकर'।

    'आवारा मसीहा', बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र की जीवनी है।

    प्रकाशन वर्ष- 1974 ई.

    विष्णु प्रभाकर ने 1959 ई में एक किताब लिखना शुरू किया जो 1973 ई. में पूरा हुआ।

    इस उपन्यास को पूरा करने में विष्णु प्रभाकर को 14 वर्ष का समय लगा था।

    यह जीवनी तीन भागों में विभाजित है—दिशाहारा (शरतचंद्र की बचपन की घटनाएँ), दिशा की खोज (साहित्यिक जीवन और जीविका की खोज) और दिशांत (सामाजिक कार्य व साहित्यिक विधाओं में उनकी रचनाशीलता को बताया गया है)।

    शरदचंद्र की कहानियाँ ‘यमुना’ पत्रिका में छपती थी।

    मुख्य पात्र : केदारनाथ (नाना), मोतीलाल (पिता), भुवनमोहनी (माता), अघोरनाथ (छोटे नाना), सुरेंद्रनाथ (मामा), मणींद्र (छोटे नाना का बेटा, शरतचंद्र का सहपाठी), ठाकुर दास (बड़े मामा), अक्षय पंडित (पहले गुरु), राजू (दोस्त), काशीनाथ (दोस्त), धीरू (दोस्त), नीला (दोस्त), राजबाला, विराजबहु (नयनतारा, शशितारा)।

     

    हरिवंशराय बच्चन : क्या भूलूँ क्या याद करूँ 

    हरिवंशराय बच्चन

    जन्म- 27 नवंबर 1907 ई.

    क्या भूलूँ क्या याद करूँ तत्कालीन समय के संयुक्त परिवार तथा ग़रीबी में भी लोगों का एक साथ रहने का सुंदर उदाहरण उक्त रचना में प्राप्त होता है।

    क्या भूलूँ क्या याद करूँ का प्रथम संस्करण 1969 में निकला था उसके पूर्व तथा बाद में हिंदी में अनेक आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई, जिन्होंने हिदीं भाषी समाज को अपनी ओर आकर्षित किया। जैसे- बाबू श्यामसुंदर दास कृत हिंदी की पहली आत्मकथा 'मेरी आत्मकहानी' (1941), राहुल सांकृत्यायन कृत 'मेरी जीवन यात्रा' (1946), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी कृत 'मेरी अपनी कथा' (1958), सेठ गोविंददास कृत 'आत्मनिरीक्षण' (1958), पांडेय बेचन शर्मा उग्र कृत 'अपनी ख़बर' (1960), आचार्य चतुरसेन शास्त्री कृत 'मेरी आत्मकहानी' (1963) आदि। हिंदी में इन आत्मकथाओं की अलग-अलग महत्ता और उपयोगिता है पर बच्चन की आत्मकथा इस मायने में अलग है। यह एक तरफ़ जहाँ आत्मकथा की उस संस्कृति से हमारा परिचय कराती है जिसकी ज़रूरत कहानी और उपन्यास जैसी विधाओं में भी कथाकार महसूस नहीं करते, वहीं दूसरी तरफ़ उनके काव्य-साहित्य के मूल्यांकन के लिए अनेक ऐसे स्रोतों की जानकारी देती है जिनके विषय में हिंदी साहित्य अब तक अनभिज्ञ था।

    हरिवंश राय बच्चन की यह आत्मकथा मुख्यतः इलाहाबाद की स्मृतियों पर आधारित है। लेखक ने आत्मकथा का यह भाग 1963 से 1969 के बीच लिखा है, जब उसकी उम्र छप्पन वर्ष के आसपास होगी।

    यह आत्मालोचन ही है जो 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में लेखक को अनावश्यक विस्तार और आत्म-मुग्धता से बचाता है।

    उसके आत्मलोचन की यह निर्मम प्रक्रिया ही है कि चंपा, श्रीकृष्ण सूरी, प्रकाशों आदि के साथ बिताए गए अपने भावुकतापूर्ण समय का निष्पक्ष मूलयांकन करता है और ग़लतियों को स्वीकार करता है।

    यह हिंदी के हज़ार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना है जिसमें अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कह दिया गया है।—धर्मवीर भारती

    इसमें केवल बच्चनजी का परिवार और उनका व्यक्तित्व ही नहीं उभरा है, बल्कि उनके साथ समूचा काल और क्षेत्र भी अधिक गहरे रंगों में उभरा है।—डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी

    ऐसी अभिव्यक्तियाँ नई पीढ़ी के लिए पाथेय बन सकेंगी, इसी में उनकी सार्थकता भी है।—डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन'

    यह हिंदी के आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है।—नरेंद्र शर्मा।

    मुख्य पात्र :

    जग्गू चाचा- बड़की की बहन के लड़के
    हीरालाल- छेदीलाल के पुत्र
    प्रतापनारायण- लेखक के पिता
    सरस्वती- लेखक के दादा की बहन
    मिट्ठूलाल- लेखक के परबाबा
    भोलानाथ- लेखक के बाबा
    कर्कल- मंगल का पुत्र
    चंपा- कर्कल की पत्नी
    श्यामा- लेखक की पत्नी
    शालिग्राम- लेखक की पत्नी
    रामकिशोर- लेखक के ससुर

     

    रमणिका गुप्ता : आपहुदरी

    यह रमणिका गुप्ता की आत्मकथा है। रमणिका गुप्ता कवयित्री, कहानीकार, उपन्यासकार, संपादक, मज़दूर यूनियन की नेता और नारीवादी कार्यकर्ता थीं।

    रमणिका गुप्ता आपहुदरी से पहले अपनी आत्मकथा के पहले खंड हादसे को लेकर चर्चित रही हैं।

    बकौल लेखिका के, आपहुदरी का समय बहुत लंबा है और भूगोल विशाल। इस पुस्तक में उन्होंने 1970 तक के अपने अंतरंग क्षणों का ज़िक्र किया है। उस समय उनकी उम्र महज़ 40 साल की ठहरती है।

    उन्हीं के शब्दों में ‘आपहुदरी’ की यह कथा एक स्त्री की दृष्टि में मेरे जीवन में घटी घटनाओं, टकराहटों, संघर्षों और भटकावों का आंकलन है। ‘आपहुदरी’ मेरी आत्मकथा की दूसरी कड़ी है। ‘आपहुदरी’ में मैंने निजी जीवन और संघर्ष के सच को स्त्री दृष्टि की कसौटी पर, आज के परिप्रेरक्ष्य में प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

    आपहुदरी का अर्थ होता है वह स्त्री जो अपनी शर्तों पर अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन जीती है।

    मैनेजर पांडे कहते हैं—“आपहुदरी एक दिलचस्प और दिलकश आत्मकथा है। यह एक स्त्री की आत्मकथा है। इसमें समय का इतिहास दर्ज है। इसमें विभाजन के समय दंगे दर्ज हैं, इसमें बिहार राजनेताओं के चेहरे की असलियत दर्ज है। इसमें संवादधर्मिता और नाटकीयता दोनों है। यह आत्मकथा इसलिए भी विशिष्ट है कि रमणिका जी ने जैसा जीवन जिया महसूस किया है, वैसा ही लिखा।”

    अर्चना वर्मा के अनुसार—रमणिका गुप्ता की आपबीती के इस बयान में ऐसा है क्या जो मुझे स्तब्ध कर रहा है- नैतिक निर्णयों को इसका ठेंगा, इसका तथाकथित पारिवारिक पवित्रता के ढकोसलों का उद्दघाटन, इसकी बेबाकबयानी, इसकी निस्संकोच निडरता, सच बोलने का इसका आग्रह और साहस या अपने बचाव-पक्ष के प्रति इसकी लापरवाही।

    रमणिका गुप्ता ख़ुद की आकांक्षा के बारे में इसी आत्मकथा में कहती हैं—“मैं अब सब परिधियाँ बाँध सकती थी, सीमाएँ तोड़ सकती थी। सीमाओं में रहना मुझे हमेशा कचोटता रहा है, सीमा तोड़ेने का आभास ही मुझे अत्यधिक सुखकारी लगता है। मैं वर्जनाएँ तोड़ सकती हूँ...अपनी देह की मैं ख़ुद मालिक हूँ। मैं संचालक हूँ, संचालित नहीं।”

    वे अपने अनुभव का बखान इन शब्दों में व्यक्त करती हैं—“यौन के बारे में भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, समाज इसका फैसला तो करता रहा है, पर उसने समय के साथ अपने मानदंड नहीं बदले...व्यक्ति बदलता रहा, प्यार की परिभाषाएँ, सुख की व्याख्या, यौन का दायरा सब तो देशकाल के अनुरूप बदलता है। रिश्ते भी सापेक्ष होते हैं, दुर्भाग्यवश समाज ने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला ख़ासकर भारतीय समाज ने।”

    आपहुदरी में रमणिका गुप्ता अंतरंगता के विमर्श में भिन्न-भिन्न आयामों की पड़ताल कर स्त्री को अपने बदन का ख़ुदमुख़्तार बनने की राह तैयार करती हैं।
     

    हरिशंकर परसाई : भोलाराम का जीव

    हरिशंकर परसाई

    जन्म : 22 अगस्त 1924, जमानी, होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)। (एक सूचना के अनुसार, 1922)।

    कहानी संग्रह :- जैसे उसके दिन फिरे, दो नाकवाले लोग, हँसते हैं रोते हैं, भोलाराम का जीव।

    यह एक व्यंग्य कहानी है जो प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर चोट करती है।

    'भोलाराम का जीव' कहानी में पौराणिक कथा को आधार बनाकर कहानी में व्यंग्य की निर्मित की है। धर्मराज, चित्रगुप्त और यमराज तीनों ही बड़े चिंतित होकर सोच रहे है कि पाँच दिन पहले जीव त्यागने वाले भोलाराम के जीव को लेकर यमदूत इस लोक में क्यों नहीं पहुँचा। उन्हें चिंतित देखकर वहाँ पहुँचे नारद ने उनकी समस्या का हल ढूँढ़ने हेतु पृथ्वीतल पर जाने की योजना बनाई। नारद पृथ्वी पर पहुँच गए। भोलाराम के जीव की तलाश में नारद अनेक स्थानों पर भटकने के बाद एक दफ़्तर पहुँचते है और वहाँ के कर्मचारियों की रिश्वत लेकर ही काम करने की पद्धति को देखकर हैरान ही नहीं, परेशान भी हो जाते है। अपनी पेंशन पाने के लिए भोलाराम ने रिश्वत नहीं दी थी। जब तक दरख़्वास्तों पर वज़न नहीं रखा जाता कोई काम नहीं होता। दफ़्तर के बड़े बाबू नारद से साफ़-साफ़ कहते हैं 'आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख़्वास्तें उड़ रही हैं; उस पर वज़न रखिए। रिश्वत के रूप में नारद अपनी वीणा दे देते है। वीणा के रूप में वज़न रखते ही पेंशन की फ़ाइलों में से उन्हें भोलाराम के जीव की आवाज़ सुनाई देती है। नारद भोलाराम के जीव से कहते हैं, 'मैं तुम्हें लेने आया हूँ। चलो, स्वर्ग में तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है पर भोलाराम के जीव की विवशता है कि वह पेंशन की दरख़्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।

    वर्तमान सामाजिक जीवन की सड़ांघ, विरुपता, विसंगति पर व्यंग्य और साथ ही जीवन के प्रति आस्था परसाई की कहानियों की विशेषता है। 'सदाचार का तावीज', 'भोलाराम का जीव, गांधी जी का शाल', 'विकलांग राजनीति', 'चमचे', कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक, आर्थिक परिवेश के विभिन्न पक्षों पर अपनी पैनी व्यंग्यात्मक दृष्टि से मार्मिक चोट की है।

    मुख्य पात्र :

    धर्मराज, चित्रगुप्त, यमदूत, भोलाराम का जीव, नारद मुनि, भोलाराम की पत्नी, भोलाराम की बेटी, चपरासी, साहब।

     

    कृष्ण चंदर : जामुन का पेड़

    कृष्ण चंदर 

    जन्म- सन् 1914, पंजाब के वज़ीराबाद गाँव (ज़िला-गुजरांकलां)।

    कहानी-संग्रह :- एक गिरजा-ए-खंदक, यूकेलिप्ट्स की डाली।

    यूँ तो कृष्ण चंदर ने उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज़ और लेख भी बहुत से लिखे हैं, लेकिन उनकी पहचान कहानीकार के रूप में अधिक हुई है। महालक्ष्मी का पुल, आईने के सामने आदि उनकी मशहूर कहानियाँ हैं।

    जामुन का पेड़ कृष्ण चंदर की एक प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कथा है। हास्य-व्यंग्य के लिए चीज़ों को अनुपात से ज़्यादा फैला-फुलाकर दिखलाने की परिपाटी पुरानी है और यह कहानी भी उसका अनुपालन करती है। इसलिए यहाँ घटनाएँ अतिशयोक्ति पूर्ण और अविश्वसनीय जान पड़ें, तो कोई हैरत नहीं। विश्वसनीयता ऐसी रचनाओं के मूल्यांकन की कसौटी नहीं हो सकती। प्रस्तुत पाठ में हँसते-हँसते ही हमारे भीतर इस बात की समझ पैदा होती है कि कार्यालयी तौर-तरीक़ों में पाया जाने वाला विस्तार कितना निरर्थक और पदानुक्रम कितना हास्यास्पद है। बात यहीं तक नहीं रहती? इस व्यवस्था के संवेदनशून्य एवं अमानवीय होने का पक्ष भी हमारे सामने आता है।

    'जामुन का पेड़' एक हास्य व्यंग्य की शैली में लिखी हुई कहानी है। इस कहानी में सरकारी जीवनशैली व लालफ़ीताशाही की मिश्रित भ्रष्टाचारी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया है, जहाँ इंसानियत की जगह व्यवस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

    कथा का प्रारंभ सेक्रेटेरियट के लॉन में जामुन के पेड़ के नीचे एक आदमी के दब जाने से होता है।

     

    दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय

    रामधारी सिंह दिनकर

    जन्म- 23 सितंबर 1908, सिमरिया, मुंगेर (बिहार)

    वैचारिक गद्य :- संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, साहित्यमुखी, भारतीय एकता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता, पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त।

    ‘संस्कृति के चार अध्याय’ प्रकाशन वर्ष-1956 ई.।

    इसके लिए 1959 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

    संस्कृति के चार अध्याय चार अध्यायों में विभक्त है—

    भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियों हुई है और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों का इतिहास है। पहली क्रांति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आए अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से संपर्क हुआ।

    आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना को, वही आर्य अथवा हिंदुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत को बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए है और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है।

    दूसरी क्रांति तब हुई, जब महावीर ओर गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिंतनधारा को खींचकर वे अपनी मनोवांछित दिशा की ओर ले गए। इस क्रांति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, किंतु, अंत में, इसी क्रांति के सरोवर में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म तथा संस्कृति में जो गंदलापन आया, वह, काफ़ी दूर तक, इन्हीं शैवालों का परिणाम था।

    तीसरी क्रांति उस समय हुई, जब इस्लाम, विजेताओं के धर्म के रूप में, भारत पहुँचा और इस देश में हिंदुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ। और चौथी क्रांति हमारे अपने समय में हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके संपर्क में आकर हिंदुत्व एवं इस्लाम, दोनों ने नव-जीवन का अनुभव किया।

    इस पुस्तक में इन्हीं चार क्रांतियों का संक्षिप्त इतिहास है।

    भारतीय जनता की रचना और हिंदू-संस्कृति का आविर्भाव (तीन प्रकरण)।

    प्राचीन हिंदुत्व से विद्रोह (सात प्रकरण)।

    हिंदू संस्कृति और इस्लाम (बारह प्रकरण)।

    भारतीय संस्कृति और यूरोप (सत्रह प्रकरण)।

    यह पुस्तक भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को समर्पित है एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इसकी भूमिका लिखी थी।

     

    मुक्तिबोध : एक साहित्यिक की डायरी।

    ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का प्रकाशन वर्ष 1964 ई.)।

    आलोचनात्मक पुस्तकें :-

    कामायनी : एक पुनर्विचार

    नई कविता का आत्मसंघर्ष

    नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र

    समीक्षा की समस्याएँ :-

    एक साहित्यिक की डायरी

    भारत : इतिहास और संस्कृति

    ये सारी डायरियाँ '57, '58 और '60 में 'वसुधा' (जबलपुर) में प्रकाशित हुई थीं। 'डायरी' शब्द एक भ्रम पैदा करता है और यह ग़लतफ़हमी भी हो सकती है कि मुक्तिबोध की ये डायरियाँ भी तिथिवार डायरियाँ होंगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि 'एक साहित्यिक की डायरी' केवल उस स्तंभ का नाम था जिसके अंतर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल संपादक की ओर से बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी। 'वसुधा' के पहले नागपुर के 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वह 'एक साहित्यिक की डायरी' स्तंभ के अंतर्गत कभी अर्द्ध-साहित्यिक और कभी ग़ैर-साहित्यिक विषयों पर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ लिखा करते थे जो एक अलग संकलन के रूप में प्रकाशन के लिए प्रस्तावित हैं।

    मुक्तिबोध न तो सामयिक टिप्पणियों को साहित्य मानते थे और न साहित्य को सामयिक टिप्पणी। मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में कवि अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ दे देता है।

    'एक साहित्यिक की डायरी' एक ऐसी कृति है, जिसने अपने शिल्प और विचारतत्त्व दोनों की विशेषता के कारण पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है और आदर-मान पाया है। डायरी विधा का यह रूप तो इसी में देखने को मिलेगा। जैसे निबंधात्मक कहानी वैसे यह निबंधात्मक डायरी। निबंध—सीधा-सादा प्रारंभ, फिर कहीं एकालाप, कहीं एक काल्पनिक पात्र से वार्तालाप, पर आदि से अंत तक भाव और स्वर डायरी का। और प्रत्येक प्रकरण का प्रत्येक क्षण और प्रत्येक चरण इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए कि विषय की परतें हल्के-हल्के खुलती हुई प्रश्नों और प्रश्नों के भीतर के प्रश्नों से साक्षात्कार करा दें।

    पुस्तक की विषय-सूची इस प्रकार है—

    1. तीसरा क्षण
    2. एक लंबी कविता का अंत
    3. डबरे पर सूरज का बिंब
    4. हाशिये पर कुछ नोट्स
    5. सड़क को लेकर एक बातचीत
    6. एक मित्र की पत्नी का प्रश्न-चिह्न
    7. नए की जन्म कुंडली: एक
    8. नए की जन्म-कुंडली: दो
    9. वीरकर
    10. विशिष्ट और अद्वितीय
    11. कुटुयान और काव्य-सत्य
    12. कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी: एक                                                                                                                                                                13. कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी: दो

     

    राहुल सांकृत्यायन : मेरी तिब्बत यात्रा (1937 ई.)

    राहुल सांकृत्यायन (1893-1963 ई.)

    मूल नाम : केदारनाथ पांडे

    कहानी संग्रह :- सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा।

    उपन्यास :- बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, जय यौधेय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास।

    आत्मकथा :- मेरी जीवन यात्रा

    जीवनी :- सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियाँ, अतीत से वर्तमान, स्तालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, सिंहल के वीर पुरुष, महामानव बुद्ध।

    यात्रा साहित्य :- लंका, जापान, इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, घुमक्कड़-शास्त्र।

    प्रकाशन संस्था- छात्र हितकारी पुस्तक माला, दारागंज प्रयाग (उ. प्र.)

    ‘डायरी’ शैली में रचित यात्रा वृत्तांत :

    खंड :

    खंड-1 : ल्हासा से उत्तर की ओर
    खंड-2 : चाड़ की ओर
    खंड-3 : स-क्य की ओर
    खंड-4 : ञेनम् की ओर
    खंड-5 : नेपाल की ओर

    लहासा से उत्तर की ओर :

    यह पुस्तक का पहला अध्याय है जो पत्रशैली में 1934 में आनंद नामक व्यक्ति को लिखा गया है। कलिंगपोग से ल्हासा तक का पुराना रास्ता उन्होंने तय किया। विनयपिटक का अनुवाद किया। तिब्बती भाषा के अन्य ग्रंथ भी उन्होंने यहाँ लिखे। तिब्बत यात्रा के अपने अनुभवों को उन्होंने छपने के लिए पत्रिका में भेजा।

    साथी के रूप में लक्ष्मीरत्न और इन्छी-मिन्छी सोनम गंल मन्छन्, गेम-दुन-छो-फेल (चित्रकार) चार साथी और छः खच्चर लेकर चले। वहाँ स्थित नालंदा का भ्रमण किया और उसमें रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं तथा छात्रों व पुस्तकों का वर्णन है।

    चाड़ की ओर :

    यहाँ राहुल जी को एक मठ में विक्रम-शिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात आचार्य श्री भद्र के चीवर (बौद्ध भिक्षुओं के वस्त्र) एक पैर का जूता तथा कुछ सुंदर भारतीय चित्र और तिब्बत के बने चित्र प्राप्त हुए। वे मुख्यतः यहाँ प्रमाण वार्तिक नामक पुस्तक के मूलरूप को ढूँढ़ने आए थे जो उन्हें नहीं मिली। यहाँ स्थित कई प्रसिद्ध मठों और विहारों के दर्शन कर और वहाँ स्थित बुद्ध की प्राचीन पीतल की मूर्तियों के दर्शन कर और चित्र लेकर वे स-क्य की ओर रवाना हुए।

    स-क्य की ओर :

    यहाँ के एक मठ में लेखक को बहुत सी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें मिलीं। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक धर्म कीर्ति की वाद-न्याय थी जिसकी टीका उन्हें लंका में मिली थी।

    यहीं से उन्हें प्रमाणवार्तिक का महाभाष्य वार्तिकालंकार प्राप्त हुआ। जिससे राहुल जी को अत्यंत प्रसन्नता हुई और उन्होंने उस ग्रंथ को पूरा लिख लिया। यहाँ उन्हें तेरह मूर्तियाँ और एक ताल पत्र की पुस्तक भी मिली।

    ञेनम् की ओर :

    यहाँ पहुँचते-पहुँचते नवंबर का महीना आ गया। इस प्रदेश में बर्फ़ पड़ने के कारण ठंड बढ़ गई थी और बरसात हो जाने के कारण रास्ते भी फिसलन से भर गए थे। लेखक के सामान ढोने वाले पीछे रह गए थे जिससे उन्हें इस ठंड में माँगकर ओढ़ने-बिछाने के सामान की व्यवस्था करनी पड़ी। वे नेपाल के एक व्यापारी के आश्रय में रहे और व्यवस्था हो जाने पर नेपाल की ओर चल दिए।

    नेपाल की ओर :

    नेपाल पहुँचने पर राहुल जी को हाल ही में आए भूकंप से क्षति ग्रस्त मकान दिखाई दिए जो भूकंप के ग्यारह महीने बाद भी निर्मित नहीं किए जा सके थे। वे कहते हैं कि भूकंप क्षेत्र में लकड़ी के मकान अधिक उपयुक्त होते हैं क्योंकि उनको फिर से बनाने में आसानी होती है किंतु लोग फिर भी ईटों के ही मकान बना रहे थे। काठमांडू में वे धर्ममान साहू के मकान में रहे जो वहाँ के प्रसिद्ध धनपति थे। वहाँ वे नेपाल के राजगुरू श्री हेमराज शर्मा से मिले जो संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। वे विद्वता के साथ विनम्रता की भी मूर्ति थे। यहाँ उन्हें प्रमाणवार्तिक के 41 पन्ने मिले। पाटन के बौद्ध-विहार में अनेक प्राचीन पुस्तकें थीं जो इस भूकंप में समाप्त हो गई थीं। राजगुरू के पुस्तकालय से उन्हें तिल्लो पा का दोहा कोश मिला। सरकारी पुस्तकालय से सरहपा का दोहा कोश मिला। वहाँ के शिक्षा विभाग के डायरेक्टर जनरल मृगेंद्र शम्सेर एम.ए. के पुस्तकालय में भी वे गए जो वहाँ के परराष्ट्र मंत्री भी थे और राजघराने से संबंधित थे। उस पुस्तकालय में उन्हें विदेशी विद्वानों की जीवनियाँ मिलीं। लेखक द्वारा संग्रहीत वस्तुओं को नेपाल से बाहर ले जाने की अनुमति भी शम्सेर राणा द्वारा दिलाई गई। अंततः अनेक बाधाओं और लगातार ज्वर की स्थिति रहने पर भी वे 5 दिसंबर 1934 को पटना पहुँचे। इस यात्रा में विपरीत परिस्थितियों और स्वास्थ्य ख़राब होने के कारण उनका वज़न 40 पौंड घट गया था।

    परिशिष्ट :

    राहुल जी ने परिशिष्ट में भोटिया लोगों की विशेषताओं का उद्घाटन किया है। वे पीने और नाच के बहुत शौक़ीन होते हैं। वहाँ जुआधर का भी प्रचलन था। गेहूँ, जौ, धान आदि की फ़सलें वहाँ उगाई जाती थीं। स्त्रियाँ घर और बाहर का हर कार्य करते हुए कोई न कोई गीत गाती थीं जो उनके श्रम का परिहार करते थे और उनकी संगीत-प्रियता के परिचायक भी थें।

    मेरी तिब्बत यात्रा में चित्रित स्थान :-

    ल्हासा- यहाँ राहल जी 2 माह 11 दिन रहे थे।

    यहाँ विनयपिटक का अनुवाद राहुल जी द्वारा हुआ।

    तबचीका- ल्हासा के बाद यह पहला पड़ाव स्थान था।

    जोतूका (गो-ला)- यहाँ की पहाड़ी पर चढ़कर पीछे मुड़कर देखने पर ल्हासा नगरी दिखाई देती है। इसे हित का देश कहा जाता था।

    चू-ला खंड् गो (बिहार)- यहाँ बुद्ध की विशाल मूर्ति थी। जिसके सामने रोड् सुतोन की प्रतिमा थी।

    ग्य-ल्ह खंड्- (भारतीय देवालय)।

    रेडिड् विहार- इसे दीपशंकर के शिष्य डव्रोम-स-तोन-पा (1003–1065 ई.) में बनवाया था।

     

    अज्ञेय : अरे यायावर रहेगा याद

    प्रकाशन वर्ष—

    'अरे यायावर रहेगा याद' तथा 'एक बूँद सहसा उछली' अज्ञेय के महत्त्वपूर्ण यात्रा वृतांत है। 'अरे यायावर रहेगा याद' में भारतीय क्षेत्रों की यात्रा का वर्णन है। 'एक बूँद सहसा उछली' में अज्ञेय ने अपनी यूरोपीय यात्रा का वर्णन किया है।

    अज्ञेय अपने यात्रा-साहित्य में यात्रा-स्थलों की जानकारी के साथ उनसे जुड़े मानव के इतिहास और सांस्कृतिक चरित्र को भी पाठकों के सामने रखते हैं।

    लेखक का प्रयास है कि पाठकों मे अपने देश को एक समग्र इकाई के रूप में पहचानने की उत्सुकता बढ़े।

    भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य-परिवर्तन या मनोरंजन न होकर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे।

    इसमें अज्ञेय ने ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग से लेकर एलोरा की गुफ़ाओं तक की यात्राओं का वर्णन किया है।

    अज्ञेय द्वारा रचित 'अरे यायावर रहेगा याद’ का आरंभ ‘परशुराम‘ के लेख से होता है।

    पुस्तक की विषय-सूची इस प्रकार है—

    1. परशुराम से तूरखम (एक टायर की राम-कहानी)
    2. किरणों को खोज में;
    3. देवताओं के अंचल में
    4. मौत की घाटी में
    5. एलुरा
    6. माझुली
    7. बहता पानी निर्मला
    8. सागर-सेवित, मेघ-मेखलित (कन्याकुमारी)। (दूसरे संस्करण में जोड़ा गया)

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