प्रतिरोध पर उद्धरण

आधुनिक कविता ने प्रतिरोध

को बुनियादी कर्तव्य की तरह बरता है। यह प्रतिरोध उस प्रत्येक प्रवृत्ति और स्थिति के विरुद्ध मुखर रहा है, जो मानव-जीवन और गरिमा की आदर्श स्थितियों और मूल्यों पर आघात करती हो। यहाँ प्रस्तुत है—प्रतिरोध विषयक कविताओं का एक व्यापक और विशिष्ट चयन।

जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ?

जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।

नागार्जुन
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सहनशील होना अच्छी बात है, पर अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है।

जयशंकर प्रसाद

सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है।

गोरख पांडेय

जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है। समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी।

प्रेमचंद

आगे का कलाकार मेहनतकश की ओर देखता है।

शमशेर बहादुर सिंह

अगर कविता एक ‘सामाजिक कार्य’ है (जो कि वह है) तो फिर उसका राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जुड़ना अनिवार्य ही है।

वेणु गोपाल

हिंदी का रचनाकार इतने-इतने बंधनों में जकड़ा हुआ है कि हम निर्बंध रचना की उम्मीद कर भी नहीं सकते।

त्रिलोचन

संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।

रघुवीर सहाय

क्या यही सच है कॉमरेड कि विचार और क्रिया में दूरी हमेशा बनी रहती है?

गोरख पांडेय

कोई यथार्थ से जूझकर सत्य की उपलब्धि करता है और कोई स्वप्नों से लड़कर। यथार्थ और स्वप्न दोनों ही मनुष्य की चेतना पर निर्मम आघात करते हैं, और दोनों ही जीवन की अनुभूति को गहन गंभीर बनाते हैं।

सुमित्रानंदन पंत

जनता क्रोध में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है।

प्रेमचंद

कविता के लिए मनुष्य की पक्षधरता के अतिरिक्त मैं किसी अन्य पक्षधरता को आवश्यक नहीं मानता।

केदारनाथ सिंह

व्यक्ति-मन होता है जन-मन के लिए।

शमशेर बहादुर सिंह

पूर्णकाम हो सके लोगों का एक पूरा देश है जो हमारे संतुष्ट-सुरक्षित संसार को हिलाता रहता है।

मंगलेश डबराल

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