एनसीईआरटी पर दोहे

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

ऐकै अषिर पीव का, पढ़ैं सु पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

कबीर

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।

रहिमन मछरी नीर को तऊ छाँड़ति छोह॥

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियत पान।

कहि रहीम परकाज हित, संपत्ति-सचहिं सुजान॥

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात।

धनी पुरुष निर्धन भए, करें पाछिली बात॥

धरती की-सी रीत है, सीत घाम मेह।

जैसी परे सो सहि रहे, त्यों रहीम यह देह॥

रहीम
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। 
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥ 

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। 
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। 
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस। 
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं। 
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय। 
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत। 
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥

बिगरी बात बने नहीं, लाख करौ किन कोय। 
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि। 
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥

रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय। 
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥

रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
रहीम

जाति पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।

कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक॥

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।

मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं॥

कबीर घास नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।

उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ॥

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।

या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय॥

कबीर

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