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खोई हुई दिशाएँ

khoi hui dishayen

कमलेश्वर

कमलेश्वर

खोई हुई दिशाएँ

कमलेश्वर

और अधिककमलेश्वर

    सड़क के मोड़ पर लगी रेलिंग के सहारे चंदर खड़ा था। सामने दाएँ-बाएँ आदमियों का सैलाब था। शाम हो रही थी और कनॉट प्लेस की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं। थकान से उसके पैर जवाब दे रहे थे। कहीं दूर आया-गया भी तो नहीं, फिर भी थकान सारे शरीर में भरी हुई थी। दिल और दिमाग़ इतना थका हुआ था कि लगता था, वही थकान धीरे-धीरे उतरकर तन मे फैलती जा रही है।

    पूरा दिन बर्बाद हो गया। यही खड़ा सोच रहा था। घर लौटने को भी मन नहीं कर रहा था। आती-जाती एक-सी औरतों को देखकर मन और भी ऊबने लगता था।

    भूख...पता नहीं, लगी है या नहीं। वह दिमाग़ पर ज़ोर डालता है—सवेरे आठ बजे घर से निकला था। एक प्याली कॉफ़ी के अलावा तो कुछ पेट में गया नहीं।...और तब उसे एहसास हुआ कि थोड़ी-थोड़ी भूख लग रही है। दिमाग़ और पेट का साथ ऐसा हो गया है कि भूख भी सोचने से लगती है।

    निगाह दूर आसमान पर अटक जाती है, जहाँ चीलें उड़ रही हैं और मोज़े की शक्ल में कटा हुआ आसमान दिखाई दे रहा है। उस गंदले आसमान के नीचे जामा मस्जिद का गुंबद और मीनार दिखाई पड़ रही है। उनकी नोंकें बड़ी अजीब-सी लग रही हैं।

    पीछे वाली दुकान के बाहर चोलियों का विज्ञापन है। रीगल बस स्टॉप के नीम के पेड़ों से धीरे-धीरे पत्तियाँ झड़ रही हैं। बसें जूँ-जूँ करती आती हैं—एक क्षण ठिठकती हैं—एक ओर से सवारियों को उगलती हैं और दूसरी ओर से निगलकर आगे बढ़ जाती हैं। चौराहे पर बत्तियाँ लगी हैं। बत्तियों की आँखें लाल-पीली हो रही हैं। आस-पास से सैकड़ों लोग गुज़रते हैं पर कोई उसे नहीं पहचानता। हर आदमी या औरत लापरवाही से दूसरों को नकारता या झूठे दर्प में डूबा हुआ गुज़र जाता है।

    और तब उसे अपना वह शहर याद आता है, जहाँ से तीन साल पहले वह चला आया था—गंगा के सुनसान किनारे पर भी अगर कोई अनजान मिल जाता तो नज़रों में पहचान की एक झलक तैर जाती थी।

    और यह राजधानी! जहाँ सब अपना है, अपने देश का है...पर कुछ भी अपना नहीं है, अपने देश का नहीं है।

    तमाम सड़कें हैं जिन पर वह जा सकता है, लेकिन वे सड़कें कहीं नहीं पहुँचातीं। उन सड़कों के किनारे घर हैं, बस्तियाँ हैं, पर किसी भी घर में वह नहीं जा सकता। उन घरों के बाहर फाटक हैं, जिन पर कुत्तों से सावधान रहने की चेतावनी है, फूल तोड़ने की मनाही हैं और घंटी बजाकर इंतज़ार करने की मज़बूरी है।

    ...घर पर निर्मला इंतज़ार कर रही होगी। वहाँ पहुँचकर भी पहले मेहमान की तरह कुर्सी पर बैठना होगा, क्योंकि बिस्तर पर कमरे का पूरा सामान सजा होगा और वह हीटर पर खाना पका रही होगी। उन्मुक्त होकर वह हवा के झोंके की तरह कमरे में घूम भी नहीं सकता और उसे बाँहों में लेकर प्यार ही कर सकता है, क्योंकि गुप्ताजी अभी मिल से लौटे नहीं होंगे और मिसेज गुप्ता बेकारी में बैठी गप लड़ा रही होंगी या किसी स्वेटर की बुनाई सीख रही होंगी। अगर वह चला भी गया तो कमरे में बहुत अदब से घुसेगा, फिर मिसेज गुप्ता से इधर-उधर की दो-चार बातें करेगा। तब बीवी खाना खाने की बात कहेगी। और खाने की बात सुनकर मिसेज गुप्ता घर जाने के लिए उठेंगी...

    और फिर उसके बाद बड़ी खिड़की का पर्दा खिसकाना पड़ेगा। किसी बहाने खुराना की तरफ़ वाली खिड़की को बंद करना पड़ेगा। घूमकर मेज़ के पास पहुँचना होगा और तब पानी का एक गिलास माँगने के बहाने वह पत्नी को बुलाएगा, और तब उसे बाँहों में लेकर प्यार से यह कह सकने का मौक़ा आएगा—‘बहुत थक गया हूँ।’

    लेकिन ऐसा होगा नहीं। इतनी लंबी प्रक्रिया से गुज़रने के पहले ही उसका मन झुँझला उठेगा और यह कहने पर मजबूर हो जाएगा, “अरे भई, खाने में कितनी देर है”, सारा प्यार और समूची पहचान जाने कहाँ छिप चुकी होगी, अजीब-सा बेगानापन होगा। बेकरीवालों के यहाँ भर्राई आवाज़ में रेडियो गा रहा होगा और गुलाटी के थके क़दमों की खोखली आवाज़ ज़ीने पर सुनाई पड़ेगी।

    गली में कोई स्कूटर आकर रुकेगा और उसमें से कोई बिन-पहचाना आदमी किसी और के घर में चला जाएगा। मोटरों की मरम्मत करने वाले गैरेज का मालिक सरदार चाबियाँ लेकर घर जाने के इंतज़ार में आधी रात तक बैठा रहेगा क्योंकि उसे पंद्रह साल पुराने मैकेनिक पर भी शायद विश्वास नहीं है।

    और सामने रहने वाले बिशन कपूर के आने की आहट-भर मिलेगी। पिछले दो साल से उसने सिर्फ़ उनके नाम की प्लेट देखी है—बिशन कपूर, जर्नलिस्ट और उसकी शक्ल के बारे में वह सिर्फ़ यह जानता है कि सामने वाली खिड़की से जब बिजली की रोशनी छनने लगती है और सिगरेट का धुआँ सलाख़ों से लिपट-लिपटकर बाहर अँधेरे में डूब जाता है तो बिशन कपूर नाम का एक आदमी भीतर होता है और सुबह जब उसकी खिड़की के नीचे अंडे का छिलका, डबल रोटी का रैपर और जली हुई सिगरेटें, तीलियाँ और राख बिखरी हुई होती हैं तो बिशन कपूर नाम का आदमी जा चुका होता है।

    सोचते-सोचते उसे लगा कि मोज़े की बदबू और भी तेज़ होती जा रही है। और अब रेलिंग के पास खड़ा रहना मुश्किल है। जेब से डायरी निकालकर उसने अगले दिन की मुलाक़ातों के बारे में जान लेना चाहा।

    ...अँग्रेज़ी दैनिक में पहले फ़ोन करना है, फिर समय तय करके मिलना है। रेडियो में एक चक्कर लगाना है। पिछला चेक रिज़र्व बैंक से कैश कराना है और घर एक मनीआर्डर भेजना है। कल का पूरा वक़्त भी इसी में निकल जाएगा, क्योंकि अख़बार का संपादक परिचित नहीं है जो फ़ौरन बुला ले और खुलकर बातकर ले और कोई बात तय हो जाए। रेडियो में भी कोई बात दस मिनट में तय नहीं हो सकती और रिज़र्व बैंक के काउंटर पर इलाहाबाद वाला अमरनाथ नहीं है, जो फ़ौरन चेक लेकर रुपया ला दे। डाकख़ाने पर व्यापारियों के चपरासियों की भीड़ होगी जो दस-दस मनीआर्डर के फ़ार्म लिए लाइन में खड़े होंगे और एक काग़ज़ पर पूरी रक़म और मनीआर्डर कमीशन का मीज़ान लगाने में मशग़ूल होंगे। उनमें से कोई भी उसे नहीं पहचानता होगा।

    एक क्षण की जान-पहचान का सिलसिला सिर्फ़ पेन होगा, जो कोई कोई दो हर्फ़ लिखने के लिए माँगेगा और लिख चुकने के बाद अपना ख़त पढ़ते हुए वह बाएँ हाथ से उसे क़लम लौटाकर शायद धीरे से थैंक्यू कहेगा और टिकट वाले काउंटर की ओर बढ़ जाएगा।

    और तब उसे झुँझलाहट-सी हुई। डायरी हाथ में थी और उसकी निगाहें फिर दूर की ऊँची इमारतों पर अटक गई थीं, जिन पर बिजली के मुकुट जगमगा रहे थे। और उन नामों में से वह किसी को नहीं जानता था। इलाहाबाद में सबसे बड़े कपड़े वाले के बारे में इतना तो मालूम था कि पहले वह बहुत ग़रीब था और कंधे पर कपड़ा रखकर फेरी लगाता था और अब उसका लड़का विदेश पढ़ने गया हुआ है और वह ख़ुद बहुत धार्मिक आदमी है, जो अब माथे पर छापा-तिलक लगाकर मनमाना मुनाफ़ा वसूल करता है और कॉर्पोरेशन का चुनाव लड़ने की तैयारियाँ कर रहा है। यहाँ कुछ भी पता नहीं चलता, किसी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं पड़ता।

    कनॉट-प्लेस में खुले हुए लॉन हैं। तन्हा पेड़ हैं और उन दूर-दूर खड़े तन्हा पेड़ों के नीचे नगर-निगम की बेंचें हैं, जिन पर थके हुए लोग बैठे हैं और लॉन में एकाध बच्चे दौड़ रहे हैं। बच्चों की शक्लें और शरारतें तो बहुत पहचानी-सी लगती हैं, पर गोलगप्पे खाती हुई उनकी मम्मी अजनबी है, क्योंकि उसकी आँखों में मासूमियत और गरिमा से भरा प्यार नहीं है। उसके शरीर में मातृत्व का सौंदर्य और दर्प भी नहीं है, उसमें सिर्फ़ एक ख़ुमार है और एक बहुत बेमानी और पिटी हुई ललकार है, जिसे तो नकारा जा सकता है और स्वीकार किया जा सकता है—वह ललकार सब कानों में गूँजती है और सब बहरों की तरह गुज़र जाते हैं।

    लॉन पर कुछ क्षण बैठने को मन हुआ पर उसे लगा कि वहाँ भी कोई ठिकाना नहीं, अभी कल ही तो चोर की तरह दबे पाँव घास में बहता हुआ पानी आया था और उसके कपड़े भीग गए थे।

    तन्हा खड़े पेड़ों और उनके नीचे सिमटते अँधेरे में अजीब-सा ख़ालीपन है। तन्हाई ही सही, पर उसमें अपनापन तो हो। वह तन्हाई भी किसी की नहीं है क्योंकि हर दस मिनट बाद पुलिस का आदमी उधर से घूमता हुआ निकल जाता है। झाड़ियों की सूखी टहनियों में आइस्क्रीम के ख़ाली काग़ज़ और चने की ख़ाली पुड़ियाँ उलझी हुई हैं या कोई बेघर-बार आदमी शराब की ख़ाली बोतल फेंककर चला गया है।

    डायरी पर फिर उसकी नज़रे जम जाती है...और शोर-शराबे से भरे उस सैलाब में वह बहुत अकेला-सा महसूस करता है और लगता है कि इन तीन सालों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो उसका अपना हो, जिसकी कचोट अभी तक हो, ख़ुशी या दर्द अब भी मौजूद हैं। रेगिस्तान की तरह फैली हुई तन्हाई है, अनजान सागर-तटों की ख़ामोशी और सूनापन है और पछाड़ खाती हुई लहरों का शोर-भर है, जिससे वह ख़ामोशी और भी गहरी होती है।

    मोज़े की शक्ल में कटा हुआ आसमान है और जामा मस्जिद के गुंबद के ऊपर चक्कर काटती हुई चीजें हैं। औरतों का पीछा करते हुए फूल बेचने वाले और यतीम बच्चों के हाथ में शाम की ख़बरों के अख़बार हैं।

    ...और तभी चंदर को लगा कि एक अरसा हो गया, एक ज़माना गुज़र गया, वह ख़ुद अपने से नहीं मिल पाया। अपने से बातें करने का वक़्त ही नहीं मिला। यह भी नहीं पूछा कि आख़िर तेरा हाल-चाल क्या है और तुझे क्या चाहिए? हल्की-सी मुस्कराहट उसके होंठों पर आई और उसने हर शुक्रवार के आगे नोट किया—‘ख़ुद से मिलना है। शाम सात बजे से नौ बजे तक।’...और आज भी तो शुक्रवार ही है। यह मुलाक़ात आज ही होनी चाहिए। घड़ी पर नज़र जाती है, सात बजा है। पर मन का चोर हावी हो जाता है। क्यों टी-हाउस में एक प्याला चाय पी ली जाए? जाने क्यों मन अपने से मिलने में घबराता है। रह-रहकर कतराता है।

    तभी उस पार से आता हुआ आनंद दिखाई देता है। वह उससे भी मिलना नहीं चाहता। बड़ा बुरा मर्ज़ है आनंद को। वह इस छूत से बचा रहना चाहता है। आनंद दुनिया में दोस्त खोजता है, ऐसे दोस्त जो ज़िंदगी में गहरे उतरें पर उसके साथ कुछ देर रह सकें और बात कर सकें। उसकी बातों में अजीब-सा बनावटीपन है, वह बनावटीपन जो आदमी किताबों से सीखता है। और उसे लगता है कि वही बनावटीपन ख़ुद उसमें भी कहीं कहीं है...जब कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दर्जों में बैठ-बैठकर वह किताबों से ज़िंदगियों के मरे हुए ब्यौरे पढ़ रहा था।

    और अब आज उसे लगता है कि वह सारा वक़्त बड़ी बेरहमी से बर्बाद किया गया है। उसने उन खंडहरों में समय बर्बाद किया है जिनकी कथाएँ अधपढ़े गाइडों की ज़ुबान पर रहती हैं, जो हर बार उन मरी हुई कहानियों को हर दर्शक के सामने दोहराते जाते हैं—यह दीवान-ए-ख़ास है, ज़रा नक्क़ाशी देखिए—यहाँ हीरे-जवाहरातों से जड़ा सिंहासन था, यह ज़नाना हमाम हैं और यह वह जगह है जहाँ से बादशाह अपनी रिआया को दर्शन देते थे, यह महल सर्दियों का है, यह बरसात का और यह हवादार महल गर्मियों का और इधर आइए संभल के, यह वह जगह है जहाँ फाँसी दी जाती थी।

    चंदर को लगा, ज़िंदगी के पच्चीस साल वह उन गाइडों के साथ खंडहरों में बिताकर आया है, जिनकी जीवंत कथाओं को वह कभी नहीं जान पाया, सिर्फ़ दीवान-ए-ख़ास उसे दिखाया गया, नक्क़ाशी दिखाई गई और ज़नाने हमाम में घुमाकर गाइड ने उसे फाँसी वाले अँधेरे और बदबूदार कमरे में छोड़ दिया, जहाँ चमगादड़ लटके हुए बिलबिला रहे हैं और एक बहुत पुरानी ऐतिहासिक रस्सी लटक रही है जिसका फंदा गरदन में कस जाता है और आदमी झूल जाता है। और उसके बाद अंधे कुएँ मे फेंकी गई सिर्फ़ वे लाशें रह जाती हैं।

    उसमें और उनमें कोई अंतर नहीं है।

    और आनंद भी उनसे अलग नहीं है। चंदर कतरा जाना चाहता था, क्योंकि आनंद आते ही किताबी तरीक़े से कहेगा, “यार तुम्हारे बाल बहुत ख़ूबसूरत हैं, ब्रिलक्रीम लगाते हो? लड़कियाँ तो तबाह हो जाती होंगी।”

    और तभी चंदर को सामने पाकर आनंद रुक जाता है, “हलो, यहाँ कैसे? क्यों लड़कियों पर ज़ुल्म ढा रहे हो?” सुनकर उसे हँसी जाती है।

    “किधर से रहे हो?” डायरी जेब में रखते हुए वह पूछता है।

    “आज तो यूँ ही फँस गए, आओ एक प्याला कॉफ़ी हो जाए।” आनंद कहता है, फिर एक क्षण रुककर वह दूसरी बात सुझाता है, “या और कुछ...”

    चंदर इसका मतलब समझकर कर देता है। वह ज़ोर देता है, “चलो फिर आज तो हो ही जाए, क्या रखा है इस ज़िंदगी में!” कहते हुए वह झूठी हँसी हँसता है और धीरे से हाथ दबाकर पूछता है, “प्लीज़, इफ़ यू डोंट माइंड, कुछ पैसे हैं?” उसके कहने में कोई हिचक नहीं है और उसे शर्म ही आती है। बड़ी सीधी-सी बात है, पैसे कम हैं।

    “अच्छा पार्टनर, मैं अभी इंतज़ाम करके आया,” वह विश्वास को गहराता हुआ कहता है, “यहीं रुकना, चले मत जाना।” और वह जाता है तो फिर नहीं आता।

    चंदर यह पहले से जानता है।

    कुछ देर बाद वह टी-हाउस में घुस जाता है और मेज़ों के पास चक्कर काटता हुआ कोने वाले काउंटर में सिगरेट का पैकेट लेकर एक मेज़ पर जम जाता है।

    “हलो!” कोई एक अधजाना चेहरा कहता है, “बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ।” और वह भी वहीं बैठ जाता है। दोनों के पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं है।

    टी-हाउस में बेपनाह शोर है। खोखली हँसी के ठहाके हैं और दीवार पर एक घड़ी है, जो हमेशा वक़्त से आगे चलती है। तीन रास्ते बाहर से आने और जाने के लिए हैं और चौथा रास्ता बाथरूम जाता है। बाथरूम के पॉट्स में फ़िनाइल की गोलियाँ पड़ी हैं और गैलरी में एक शीशा लगा हुआ है। हर वह आदमी जो बाथरूम जाता हैं, उस शीशे में अपना मुँह देखकर लौटता है।

    गेलार्ड में डिनर डांस की तैयारी हो रही है। कुर्सियों की तीन कतारें बाहर निकालकर रख दी गई हैं। उधर वोल्गा पर विदेशियों की भीड़ बढ़ रही होगी।

    और तभी एक जोड़ा भीतर आता है। महिला सजी-धजी है और जूड़े में फूल भी हैं। आदमी के चेहरे पर अजीब-सा ग़ुरूर है और वे दोनों फैमिली वाली सीट पर आमने-सामने बैठ जाते हैं। बैठने से पहले उनमें कोई ताल्लुक़ नज़र नहीं रहा था। सिर्फ़ इतना-भर कि जब महिला बैठने के लिए मुड़ी थी तो साथ वाले आदमी ने उसकी कमर पर हाथ रखकर सहारा-भर दिया था। इतना-सा साथ था दोनों में।

    उनके पास भी बात करने के लिए शायद कुछ नहीं है।

    महिला अपना जूड़ा ठीक करते हुए औरों को देख रही है और साथ वाला आदमी पानी के गिलास को देख रहा है। किसी के देखने में कोई मतलब नहीं है। आँखें हैं, इसलिए देखना पड़ता है। अगर होतीं तो सवाल ही नहीं था। एक जगह देखते-देखते आँखों में पानी जाता है—इसलिए ज़रूरी है कि इधर-उधर देखा जाए।

    बेयरा उनकी मेज़ पर सामान रख जाता है और दोनों खाने में मशग़ूल हो जाते हैं। कोई बात नहीं करता। आदमी खाना खा के दाँत कुरेदने लगता है और वह महिला रूमाल निकालकर अंदाज़ से लिपस्टिक ठीक करती है।

    अंत में बेयरा आकर पैसे लौटाता है तो आदमी कुछ टिप छोड़ता है, जिसे महिला ग़ौर से देखती है और दोनों लापरवाही से उठ खड़े होते हैं। फिर उन दोनों में हल्का-सा संबंध उसे नज़र आता है—वह आदमी ठिठककर साथ वाली महिला को आगे निकलने का इशारा करता है और उसके पीछे-पीछे चला जाता है।

    चंदर का मन और भारी हो जाता है। अकेलेपन का नागपाश और भी कस जाता है। अपने साथ बैठे हुए अनजान दोस्त की तरफ़ वह गहरी नज़रों से देखता है और सोचता है, अजनबी ही सही, पर इसने पहचाना तो। इतनी पहचान भी बड़ा सहारा देती हैं...चंदर को अपनी ओर देखते हुए देख वह साथ वाला दोस्त कुछ कहने को होता है, पर जैसे उसे कुछ याद नहीं आता, फिर अपने को संभालकर उसने चंदर से पूछा, “आप...आप तो शायद कॉमर्स मिनिस्ट्री में हैं। मुझे याद पडता है कि...” कहते हुए वह रुक जाता है।

    चंदर का पूरा शरीर झनझना उठता है और एक घूँट में बची हुई कॉफ़ी पीकर वह बड़े संयत स्वर में जवाब देता है, “नहीं, मैं कॉमर्स मिनिस्ट्री में कभी नहीं था...”

    वह आदमी आगे अटकले भिड़ाने की कोशिश नहीं करता, सीधे-सीधे उस अनजान संबंध को मज़बूत बनाते हुए कहता है, “ऑल राइट पार्टनर, फिर कभी मुलाक़ात होगी।” और सिगरेट सुलगाता हुआ उठ जाता है।

    चंदर बाहर निकलकर बस-स्टॉप की ओर बढ़ता है। मद्रास होटल के पीछे बस-स्टॉप पर चार-पाँच लोग खड़े हैं और पुलिसवाला स्टॉप की छतरी के नीचे बैठा सिगरेट पी रहा है।

    चंदर वही आकर खड़ा हो जाता है। सब जानना चाहते हैं कि बस कब तक आएगी, पर कोई किसी से कुछ भी नहीं पूछता। पेड़ के अँधेरे में वह चुपचाप खड़ा है। नीचे पीले पत्ते पड़े हैं, जो उसके पैरों से दबकर चुरमुराने लगते हैं और पीले पत्तों की आवाज़ उसे वर्षों पीछे खींच ले जाती है। इस आवाज़ में एक बहुत गहरा अपनापन है, उसे बड़ी राहत-सी मिलती है।

    ...ऐसे ही पीले पत्ते पड़े हुए थे। उस राह पर बहुत साल पहले इंद्रा के साथ एक दिन वह चला जा रहा था, कुछ भी नहीं था उसके सामने, वह खंडहरों में अपनी ज़िंदगी ख़राब कर रहा था और तब इंद्रा ने ही उससे कहा था, “चंदर, तुम क्या नहीं कर सकते!” वही पहचानी हुई आवाज़ फिर उसके कानों से टकराती है, “तुम क्या नहीं कर सकते!” और यह कहते-कहते इंद्रा की आँखों में अदम्य विश्वास झलक आया था।

    और इंद्रा की उन प्यार-भरी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा था, “मेरे पास है ही क्या? समझ में नहीं आता कि ज़िंदगी कहाँ ले जाएगी इंद्रा! इसीलिए मैं यह नहीं चाहता कि तुम अपनी ज़िंदगी मेरी ख़ातिर बिगाड़ लो। पता नहीं मैं किस किनारे लगूँ, भूखा मरूँ या पागल हो जाऊँ...”

    इंद्रा की आँखों में प्यार के बादल और गहरे हो गए थे और उसने कहा था, “ऐसी बातें क्यों करते हो चंदर, मैं तुम्हारे साथ हर हालत में सुखी रहूँगी!”

    चंदर ने उसे बहुत ग़ौर से देखा था। इंद्रा की आँखों में नमी गई थी। उसकी कँटीली बरौनियों से विश्वास-भरी मासूमियत छलक रही थी। माथे पर आई हुई लट छूने को उसका मन हो आया था, पर वह झिझककर रह गया था। इंद्रा के कानों में पड़े हुए कुंडल पानी में तैरती मछलियों की तरह झलक जाते थे और तब उसने कहा था, “आओ, उधर पेड़ के नीचे बैठेंगे।”

    वे दोनों साथ-साथ चल दिए थे। सरस के पेड़ के नीचे एक सीमेंट की बेंच बनी थी। राह पर पीली पत्तियाँ बिखरी हुई थीं। उनके कुचलने से ऐसी ही आवाज़ आई थी, जो अभी-अभी उसने सुनी थी...वही पहचान-भरी आवाज़।

    दोनों बेंच पर बैठ गए थे और चंदर धीरे से उसकी कलाई पर अँगुली से लकीर खींचने लगा था। दोनों ख़ामोश बैठे थे, बहुत-सी बातें थी, जो वे कह नहीं पा रहे थे। कुछ क्षणों बाद इंद्रा ने आँखें चुराते हुए उसे देखा था और शरमा गई थी, फिर उसी बात पर गई थी, जैसे उसी एक बात में भारी बातें छिपी हों, “तुम ऐसा क्यों सोचते हो, चंदर? मुझ पर भरोसा नहीं?”

    तब चंदर ने कहा था, “भरोसा तो बहुत है इंद्रा, पर मैं ख़ानाबदोशों की तरह ज़िंदगी-भर भटकता रहूँगा...उन परेशानियों में तुम्हें खींचने की बात सोचता हूँ तो बरदाश्त नहीं कर पाता। तुम बहुत अच्छी और सुविधाओं से भरी ज़िंदगी जी सकती हो। मैंने तो सिर पर कफ़न बाँधा है...मेरा क्या ठिकाना!”

    “तुम चाहे जो कुछ बनो चंदर, अच्छे या बुरे, मेरे लिए एक-से रहोगे। कितना इंतज़ार करती हूँ तुम्हारा, पर तुम्हें कभी वक़्त ही नहीं मिलता!” फिर कुछ देर मौन रहकर उसने पूछा था, “इधर कुछ लिखा?”

    “हाँ!” धीरे से चंदर ने कहा था।

    “दिखाओ।” इंद्रा ने माँगा था।

    और तब चंदर ने पसीजे हुए हाथों से डायरी बढ़ा दी थी। इंद्रा ने तुरंत उस डायरी को अपनी किताबों में रख लिया था और बोली थी, “अब यह कल मिलेगी, इस बहाने तो अब आओगे...”

    “नहीं, नहीं…मैं डायरी अपने साथ ले जाऊँगा, मुझे वापस दो।” चंदर ने कहा था, तो इंद्रा शैतानी से मुस्कराती रही थी और उसकी आँखों में प्यार की गहराईयाँ और बढ़ गई थीं।

    हारकर चंदर वापस चला आया था और दूसरे दिन अपनी डायरी लेने पहुँचा था तो इंद्रा ने कहा था, “इसमें कुछ मैंने भी लिखा है, पढ़कर फाड़ देना ज़रूर से।”

    “मैं नहीं फाड़ूँगा।”

    “तो कुट्टी हो जाएगी,” इंद्रा ने बच्चों की तरह बड़ी मासूमियत से कहा था और उस वक़्त उसके मुँह से वह बेहद बचपने की बात भी बड़ी अच्छी लगी थी।

    और एक दिन...

    एक दिन इंद्रा घर आई थी। इधर-उधर से घूम-घामकर वह चंदर के कमरे में पहुँच गई थी और तब चंदर ने पहली बार उसे बिलकुल अपने पास महसूस किया था और उसके माथे पर रंग से बिंदी बना दी थी और कई क्षणों तक मुग्ध-सा देखता रह गया था। और अनजाने ही उसने होंठ इंद्रा के माथे पर रख दिए थे। इंद्रा की पलकें झेंप गई थी और रोम-रोम से गंध फूट उठी थी। उसकी अँगुलियाँ चंदर की बाँहों पर थरथराने लगी थीं और माथे पर आया पसीना उसके होंठों ने सोख लिया था। रेशमी रोएँ पसीने से चिपक गए थे और उन उन्माद के क्षणों में दोनों ने ही प्रतिज्ञा की थी...वह प्रतिज्ञा जिसमें शब्द नहीं थे, जो होंठों तक भी नहीं आई थी!

    तब से उसे ये शब्द हमेशा याद रहते हैं, ‘तुम क्या नहीं कर सकते!’

    और तभी एक दूसरे नंबर की बस आती है और ठिठककर चली जाती है। चंदर को एहसास होता है कि वह बस-स्टॉप पर खड़ा है, वह गहरी पहचान...कहीं कोई तो है...और वह बहुत दूर भी तो नहीं।

    इंद्रा भी तो यहीं है दिल्ली में...

    दो महीने पहले ही तो वह मिला था। तब भी इंद्रा की आँखों में वह चार बरस पहले की पहचान थी और उसने अपने पति से किसी बात पर कहा था, “अरे चंदर की आदतें मैं ख़ूब जानती हूँ।”

    और इंद्रा के पति ने बड़े खुले दिल से कहा था, “तो फिर भई, इनकी ख़ातिर-वातिर करो...”

    और इंद्रा ने मुस्कराते हुए चार बरस पहले की तरह चिढ़ाने के अंदाज़ में बयान किया था, “चंदर को दूध से चिढ़ है और कॉफ़ी इन्हें धुआँ पीने की तरह लगती है”, चाय में अगर दूसरा चम्मच चीनी डाल दी गई तो इनका गला ख़राब हो जाएगा!”—कहकर वह खिलखिलाकर हँस दी थी और इस बात से उसने पिछली बातों की याद ताज़ी कर दी थी...सचमुच चंदर दो चम्मच चीनी नहीं पी सकता।

    बस आने का नाम नहीं ले रही थी।

    खड़े-खड़े चंदर को लगा कि इस अनजानी और बिन जान-पहचान से भरी नगरी में एक इंद्रा है जो उसे इतने सालों के बाद भी पहचानती है, अब तक जानती है। उसका मन अपने-आप इंद्रा से मिलने के लिए छटपटाने लगा, ताकि यह अजनबीपन किसी तरह टूट सके...

    तभी एक फटफटवाला आवाज़ लगाता हुआ जाता है, गुरद्वारा...रोड...करोलबाग़ गुरद्वारा रोड! चंदर एक क़दम आगे बढ़ता है और वह सरदार उसे देखते ही जैसे एकदम पहचान जाता है, “आइए बाबूजी करोलबाग़ गुरद्वारा रोड।” उसकी आँखों में पहचान की झलक देखकर चंदर का मन हल्का हो जाता है। आख़िर एक ने तो पहचाना। चंदर सरदार को पहचानता है, बहुत बार वह इसी सरदार के फटफट में बैठकर कनॉट प्लेस आया है।

    आँखों में पहचान देखते ही चंदर पलटकर फटफट पर बैठ जाता है। तीन सवारियाँ और जाती हैं और दस मिनट बाद ही गुरुद्वारा रोड के चौराहे पर फटफट रुकता है। चंदर एक चवन्नी निकालकर सरदार की हथेली पर रख देता है और पहचान-भरी नज़रों से उसे देखता हुआ चलने लगता है।

    तभी पीछे से आवाज़ आती है, “ऐ बाबूजी, कितना पैसा दिया है?” चंदर मुड़कर देखता है तो सरदार उसकी तरफ़ आता हुआ कहता है, “दो आने और दीजिए, साहब!”

    “हमेशा चार आने लगते हैं सरदारजी!” चंदर पहचान जताता हुआ कहता है, पर सरदार की आँखों में पहचान की परछाई तक नहीं है। वह फिर कहता है, “सरदारजी, आपके फटफट पर ही बीसों बार चार आने देकर आया हूँ।”

    “किसे होरने लए होणगे चार आने...असी ते छै आने तो घट नहीं लेंदे, बादशाहो!” सरदार इस बार पंजाबी में बोला था और उसकी हथेली फैली हई थी।

    बात दो आने की नहीं थी। चंदर ने बाक़ी पैसे उसकी हथेली पर रख दिए और इंद्रा के घर की तरफ़ मुड़ गया।

    और इंद्रा उसे मिली तो वैसे ही। वह अपने पति का इंतज़ार कर रही थी। बड़ी अच्छी तरह उसने चंदर को बैठाया और बोली, “इधर कैसे भूल पड़े आज?” फिर आँखों में वही पहचान की परछाईं तैर गई थीं। कुछ क्षणों बाद इंद्रा ने कहा था, “अब तो नौ बज रहे हैं, ये आठ ही बजे फैक्ट्री बंद करके लौट आते हैं, पता नहीं आज क्यों देर हो गई, अच्छा चाय तो पियोगे?”

    “चाय के लिए इंकार तो नहीं किया जा सकता।” चंदर ने बड़े उत्साह से कहा था और कुरसी पर आराम से टाँगे फैलाकर बैठ गया था। उसकी सारी थकान उतर गई थी और मन का अकेलापन डूब गया था।

    नौकरानी आकर चाय रख गई। इंद्रा ने प्याले सीधे करके चाय बनाई, तो वह उसकी बाँहों, चेहरे और हाथों को देखता रहा...सब कुछ वही था, वैसा ही था...चिर-परिचित। तभी इंद्रा ने पूछा, “चीनी कितनी दूँ?”

    और एक झटके से सब कुछ बिखर गया, उसका गला सूखने-सा लगा और शरीर फिर थकान से भारी हो गया। माथे पर पसीना गया। फिर भी उसने पहचान का रिश्ता जोड़ने की एक नाकाम कोशिश की और बोला, “दो चम्मच।” और उसे लगा कि अभी इंद्रा को सब कुछ याद जाएगा और वह कहेगी कि दो चम्मच चीनी से अब गला ख़राब नहीं होता?

    पर इंद्रा ने प्याले में दो चम्मच चीनी डाल दी और उसकी ओर बढ़ा दिया। ज़हर के घूँटों की तरह वह चाय पीता रहा। इंद्रा इधर-उधर की बातें करती रही, पर उनमें उसे मेहमाननवाज़ी की बू लग रही थी और चंदर का मन कर रहा था कि इंद्रा के पास से किसी भी तरह भाग जाए और किसी दीवार पर अपना सिर पटक दे।

    जैसे-तैसे उसने चाय पी और पसीना पोंछता हुआ बाहर निकल आया। इंद्रा ने क्या-क्या बातें की, उसे बिल्कुल याद नहीं।

    सड़क पर निकलकर वह एक गहरी साँस लेता है और कुछ क्षणों के लिए खड़ा रह जाता है। उसका गला बुरी तरह सूख रहा है और मुँह का स्वाद बेहद बिगड़ा हुआ है।

    चौराहे पर कुछ टैक्सी-ड्राइवर नशे में गालियाँ बक रहे हैं और एक कुत्ता दूर सड़क पर भागा चला जा रहा है। मछलियाँ तलने की गंध यहाँ तक रही है। और पान वाले की दुकान पर कुछ जवान कोकाकोला की बोतलें मुँह में लगाए खड़े हैं। स्कूटरों में कुछ लोग भागे जा रहे हैं। और शहर से दूर जाने वाले लोग बस-स्टॉप पर खड़े अब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

    कारें, टैक्सियाँ, बसें और स्कूटर आ-जा रहे हैं। चौराहे पर लगी बत्तियों की आँखें अब भी लाल-पीली हो रही हैं।

    चंदर थका-सा अपने घर की ओर लौट रहा है। अँगुलियों पर जूता काट रहा है और मोज़े की बदबू और भी तेज़ हो गई है। आख़िर वह थका-हारा घर पहुँचता है और मेहमान की तरह कुर्सी पर बैठ जाता है। यह कोई नई बात नहीं है। निर्मला उसे देखकर मुस्कराती है और धीरे से बाँहों पर हाथ रखकर पूछती है, “बहुत थक गए?”

    “हाँ!” चंदर कहता है और उसे प्यार से देखता है। उसका मन भीतर से उमड़ आता है। वह किराए का मकान भी उस क्षण उसे राहत देता है और लगता है कि वह उसी का है।

    निर्मला खाना लगाते हुए कहती है, “हाथ-मुँह धो लो...”

    “अभी खाने का मन नहीं है।” चंदर कहता है तो वह बहुत प्यार से देखते हुए पूछती है, “क्यों? क्या बात है? सुबह भी तो खा के नहीं गए थे, दुपहर में कुछ खाया था?”

    “हाँ।” वह कहता है और निर्मला को देखता रह जाता है।

    निर्मला कुछ अचकचाती है और कुछ देर बाद थकी-सी उसके पास बैठ जाती है।

    चंदर कुछ देर खोई-खोई नज़रों से कमरे की हर चीज़ देखता रहता है और बीच-बीच में बड़ी गहरी नज़रों से निर्मला को ताकता है। निर्मला कोई किताब खोलकर पढ़ने लगती है और चंदर उसे देखे जा रहा है।

    पीछे से पड़ती हुई रोशनी में निर्मला के बाल रेशम की तरह चमक रहे हैं, उसकी बरौनियाँ मुलायम काँटों की तरह लग रही हैं और कनपटी के पास रेशमी बालों से सिरे अपने-आप घूम गए हैं। पलक के नीचे पड़ती हुई परछाईं बहुत पहचानी-सी लग रही है। उसने कड़ा आधी कलाई तक सरका लिया है।

    चंदर की निगाहें उसके अंग-प्रत्यंग में पुरानी पहचान खोज रही हैं, उसके नाखून, अँगुलियाँ और कानों की गुदारी लबें...

    उठकर वह पर्दे खींच देता है और आराम से लेट जाता है। उसे लगता है कि वह अकेला नहीं है। अजनबी और तन्हा नहीं है। सामने वाला गुलदस्ता उसका अपना है, पड़े हुए कपड़े उसके अपने हैं, उनकी गंध वह पहचानता है।

    इन सभी चीज़ों में एक गहरी पहचान है। घोर अँधेरी रात में भी वह उन्हें टटोलकर पहचान सकता है। किसी भी दरवाज़े से बिना टकराए निकल सकता है।

    ...तभी ज़ीने पर गुलाटी के थके क़दमों की खोखली आहट सुनाई पड़ती है और उसे घबराहट-सी होती है। वह धीरे से निर्मला को अपने पास बुला लेता है। उसे लिटाकर छाती पर हाथ रख लेता है।

    कई क्षणों तक वह उसकी साँस से उठती-बैठती छाती को महसूस करता है...और चाहता है कि निर्मला के शरीर का अंग-अंग और मन की हर धड़कनें उसे पहचान की साक्षी दे...गहरी आत्मीयता और निर्बंध एकता का अहसास दे...

    अँधेरे ही में वह उसके नाख़ूनों को टटोलता है, उसकी पलकों को छूता है, उसकी गरदन में मुँह छिपाकर खो जाना चाहता है, धुले हुए बालों की चिर-परिचित गंध उसके रंध्र-रंध्र में रिसने लगती है और उसके हाथ पहचान के लिए पोर-पोर पर थरथराते हुए सरकते हैं। निर्मला की साँस भारी हो आती है।

    वह उसकी मांसल बाँहों को महसूस करता है और गोल-गुदारे कंधों पर हाथ से थपथपाता रहता है। निर्मला के शरीर का अंग-अंग अनूठे अनुराग से खिंचता-सा आता है। उसका रोम-रोम उसे पहचान रहा था, जोड़-जोड़ कसाव से पूरित था, तन के भीतर गर्म रक्त के ज्वार उठ रहे थे और हर साँस पास खींचती जा रही थी। अंग-प्रत्यंग में, पोर-पोर में गहरी पहचान थी...

    तभी बिशन कपूर की खिड़की में उजाला होता है और धुआँ सलाख़ों से लिपट-लिपटकर गली के अँधेरे में डूबने लगता है।

    और उसका तन्हा मन तन्हाइयों को छोड़कर उस परिचित गंध, परिचित साँसों और पहचाने स्पर्शों में डूबता जाता है। उसे और कुछ भी नहीं चाहिए...परिचय की एक माँग है और उस अँधेरे में वह साँस में, गंध से, तन के टुकड़े-टुकड़े से पहचान चाहता है, पुरानी प्रतीति चाहता है।

    चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता है।

    और उस ख़ामोशी में वह आश्वस्त होता है...वह दोनों बाँहों में उसे भर लेता है, ज्वार और उठता है, तन की गरमाहट और बढ़ती है और रंध्र-रंध्र में एकता का सागर लहराने लगता है।

    धीरे-धीरे निर्मला की तेज़ साँसें धीमी पड़ती हैं और चुंबकीय कशिश ढीली पड़ जाती है। खिंचाव टूटने लगता है और अंगों के ज्वार उतरने लगते हैं...

    चंदर कसकर उसकी बाँहों को जकड़े रहता है...उतरता हुआ ज्वार उसे फिर अकेला छोड़े जा रहा है...अनजान तटों पर छोड़ी हुई सीपी की तरह।

    निर्मला अपनी दबी हुई बाँह निकाल लेती है और गहरी साँस लेकर ढीली-सी लेट जाती है।

    धीरे-धीरे सब कुछ सो जाता है और रात बहुत नीचे उतर आती है। कहीं कोई आवाज़ नहीं, आहट नहीं।

    धीरे से निर्मला करवट बदलती है और दूसरी ओर मुँह करके गहरी नींद में डूब जाती है।

    करवट बदलकर लेटी हुई निर्मला को वह अलसाया-सा देखता रहता है...और चंदर फिर अपने को बेहद अकेला महसूस करता है...वह निर्मला के कंधे पर हाथ रखता है, चाहता है कि उसकी करवट बदल दे, पर उसकी अँगुलियाँ बेजान होकर रह जाती हैं। कुछ क्षण वह अँधेरे में ही निर्मला को उधर मुँह किए लेटा हुआ देखता है और हताश-सा ख़ुद भी लेट जाता है। पता नहीं कब उसकी पलकें झपक जातीं हैं।

    और फिर बहुत देर बाद थाने का घड़ियाल दो के घंटे बजाता है और उसकी नींद उचट जाती है। नींद के ख़ुमार में ही वह चौंक-सा पड़ता है। कमरे की ख़ामोशी और सूनेपन से उसे डर-सा लगता है। अँधेरे में ही वह निर्मला को टटोलता है, तकिए पर बिखरे उसके बालों पर उसका हाथ पड़ता है और उन बालों की चिकनाई को महसूस करता है...सिर झुकाकर वह उन्हें सूँघता है...

    फिर निर्मला पर हाथ रखता है—उसके गोल कंधों को छूता है...वह स्पर्श भी पहचाना हुआ है...धीरे-धीरे वह उसके पूरे शरीर को पहचानने के लिए टटोलता है और उसकी साँसों की हल्की आवाज़ को सुनने और पहचानने की कोशिश करता है।

    निर्मला अब भी करवट लिए पड़ी थी। वह धीरे से नींद में कुनमुनाती है। चंदर का दिल धक् से रह जाता है। कहीं निर्मला जाग जाए, अनजाने ही इस स्पर्श से अजनबियों की तरह चौंक जाए!

    निर्मला सोते-सोते एक बार रुक-रुककर साँस लेती है, जैसे उसे डर-सा लग रहा हो...या कोई भयंकर सपना देख रही हो...चंदर सुन्न-सा रह जाता है...क्या वह उसके स्पर्श को नहीं पहचानती?

    और फिर निर्मला को झकझोरकर वह उठाता है। “निर्मला...निर्मला...” वह बदहवासी में कहता है।

    निर्मला चौंककर उठती है और आँखें मलते हुए प्रकृतिस्थ होने की कोशिश करती है।

    और बिजली जलाकर वह निर्मला को दोनों कंधों से पकड़कर अपना मुँह उसके सामने करके डरी हुई आवाज़ में पूछता है, “मुझे पहचानती हो? मुझे पहचानती हो, निर्मला?”

    निर्मला आँखें फाड़े देखती रह जाती है, धीरे से आश्चर्य-भरे स्वर में कहती है, “क्या हुआ?”

    और वह निर्मला को ताकता रह जाता है। उसकी आँखें उसके चेहरे पर कुछ खोजती रह जाती हैं।

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