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जहाँ लक्ष्मी क़ैद है

jahan lakshmi qaid hai

राजेंद्र यादव

राजेंद्र यादव

जहाँ लक्ष्मी क़ैद है

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में नहीं, लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी क़ैद से छूटना चाहती है। इन दो नामो में ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है जैसा कि कुछ क्षण के लिए गोविंद को हो गया था।

    एकदम घबराकर जब गोविंद की आँखें खुली तो वह पसीने से तर था और उसका दिल इतने ज़ोर से धड़क रहा था कि उसे लगा, कहीं अचानक उसका धड़कना बंद हो जाए। अँधेरे में उसने पाँच-छ: बार पलकें झपकाईं, पहली बार तो उसकी समझ में ही आया कि वह कहाँ है, कैसा है, एकदम दिशा और स्थान का ज्ञान वह भूल गया। जब पास के हॉल की घड़ी ने एक घंटा बजाया, तो उसकी समझ में ही आया कि वह घड़ी कहाँ है, वह स्वयं कहाँ है और घंटा कहाँ बज रहा है। फिर धीरे-धीरे उसे ध्यान आया, उसने ज़ोर से अपने गले का पसीना पोंछा और उसे लगा, उसके दिमाग़ में फिर वहीं खट्-खट् गूँज उठी है, जो अभी गूँज रही थी...

    पता नहीं, सपने में या सचमुच ही, अचानक गोविंद को ऐसा लगा था जैसे किसी ने किवाड़ पर तीन-चार बार खट्-खट् की हो और बहुत गिड़गिड़ाकर कहा हो, ‘मुझे निकालो, मुझे निकालो!’ और वह आवाज़ कुछ ऐसे रहस्यमय ढंग से आकर उसकी चेतना को कोंचने लगी कि वह बौखलाकर जाग उठा। सचमुच ही वह किसी की आवाज़ थी, या महज़ उसका भ्रम।

    फिर उसे धीरे-धीरे याद आया कि यह भ्रम ही था और वह लक्ष्मी के बारे में सोचता हुआ ऐसा अभिभूत सोया था कि वह स्वप्न में भी छायी रही। लेकिन वास्तव में यह आवाज़ कैसी विचित्र थी, कैसी साफ़ थी! उसने कई बार सुना था कि अमुक स्त्री या पुरुष से स्वप्न में आकर कोई कहता था, 'मुझे निकालो, मुझे निकालो।' फिर वह धीरे-धीरे स्थान की बात भी बताने लगता था और वहाँ खुदवाने पर कड़ाहे या हाँडी में भरे सोने-चाँदी के सिक्के या माया उसे मिली और वह देखते-देखते माला-माल हो गया। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि किसी अनधिकारी आदमी ने उस द्रव्य को निकलवाना चाहा तो उसमें कौड़ियाँ और कोयले निकले या फिर उसके कोढ़ फूट आया या घर में कोई मृत्यु हो गई। कहीं इसी तरह धरती के नीचे से उसे कोई लक्ष्मी तो नहीं पुकार रही है? और वह बड़ी देर तक सोचता रहा, उसके दिमाग़ में फिर लक्ष्मी का क़िस्सा साकार होने लगा। वह मोहाच्छन्न-सा पड़ा रहा...

    दूर कहीं दूसरे घड़ियाल ने फिर वही एक घंटा बजाया।

    गोविंद से अब नहीं रहा गया। रज़ाई को चारों तरफ़ से बंद रखे हुए ही बड़े सँभालकर उसने कुहनी तक हाथ निकाला, लेटे-ही-लेटे अलमारी के ख़ाने से किताब-कापियों की बग़ल से उसने अधजली मोमबत्ती निकाली, वहीं कहीं से खोजकर दियासलाई निकाली और आधा उठकर, ताकि जाड़े में दूसरा हाथ पूरा निकालना पड़े, उसने दो-तीन बार घिसकर दियासलाई जलाई, मोमबत्ती रोशन की ओर पिघले मोम की बूँद टपकाकर उसे दवात के ढक्कन के ऊपर जमा दिया। धीरे-धीरे हिलती रोशनी में उसने देख लिया कि पूरे किवाड़ बंद हैं, और दरवाज़े के सामने वाली दीवार में बने, जाली लगे रोशनदान के ऊपर, दूसरी मंज़िल से हल्की-हल्की जो रोशनी आती है, वह भी बुझ चुकी है। सब कुछ कितना शांत हो चुका है। बिजली का स्विच यद्यपि उसके तख़्त के ऊपर ही लगा था, लेकिन एक तो जाड़े में रज़ाई समेत या रज़ाई छोड़कर खड़े होने का आलस्य, दूसरे लाला रूपाराम का डर! सुबह ही कहेगा, 'गोविंद बाबू, बड़ी देर तक पढ़ाई हो रही है आजकल!' जिसका सीधा अर्थ होगा कि ‘बड़ी बिजली ख़र्च करते हो।’

    फिर उसने चुपके से, जैसे कोई उसे देख रहा हो, तकिए के नीचे से रज़ाई के भीतर-ही-भीतर हाथ बढ़ाकर वह पत्रिका निकाल ली और गर्दन के पास से हाथ निकालकर उसके सैंतालीसवें पन्ने को बीसवीं बार खोलकर बड़ी देर घूरता रहा। एक बजे की पठानकोट एक्सप्रेस जब दहाड़ती हुई गुज़र गई तो सहसा उसे होश आया। 47 और 48—जो पन्ने उसके सामने खुले थे, उनमें जगह-जगह नीली स्याही से कुछ पंक्तियों के नीचे लाइनें खींची गई थीं—यही नहीं, उस पन्ने का कोना मोड़कर उन्हीं लाइनों की तरफ़ विशेष रूप से ध्यान खींचा गया था। अब तक गोविंद उन या उनके आस-पास की लाइनों को बीस बार से अधिक घूर चुका था। उसने शंकित निगाहों से इधर-इधर देखा और फिर एक बार उन पंक्तियों को पढ़ा।

    जितनी बार वह उन्हें पढ़ता, उसका दिल एक अनजान आनंद के बोझ से धड़ककर डूबने लगता और दिमाग़ उसी तरह भन्ना उठता जैसे उस समय भन्नाया था, जब यह पत्रिका उसे मिली थी। यद्यपि इस बीच उसकी मानसिक दशा कई विकट स्थितियों से गुज़र चुकी थी, फिर भी वह बड़ी देर तक काली स्याही से छपे कहानी के अक्षरों को स्थिर निगाहों से घूरता रहा। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगा, यह अक्षरों की पंक्ति एक ऐसी खिड़की की जाली है, जिसके पीछे बिखरे बालों वाली एक निरीह लड़की का चेहरा झाँक रहा है। और फिर उसके दिमाग़ में बचपन की सुनी कहानी साकार होने लगी—शिकार खेलने में साथियों का साथ छूट जाने पर भटकता हुआ एक राजकुमार अपने थके-माँदे घोड़े पर बिल्कुल वीराने में, समुद्र के किनारे बने एक विशाल सुनसान क़िले के नीचे जा पहुँचा। वहाँ ऊपर खिड़की में उसे एक अत्यंत सुंदर राजकुमारी बैठी दिखाई दी, जिसे एक राक्षस ने लाकर वहाँ क़ैद कर दिया था...छोटे-से-छोटे विवरण के साथ खिड़की में बैठी राजकुमारी की तस्वीर गोविंद की आँखों के आगे स्पष्ट और मूर्त हो गई। और उसे लगा, जैसे वही राजकुमारी उन रेखांकित, छपी लाइनों के पीछे से झाँक रही है—उसके गालों पर आँसुओं की लकीरें सूख गई हैं, उसके होंठ पपड़ा गए हैं...चेहरा मुरझा गया है और रेशमी बाल मकड़ी के जाल जैसे लगते हैं जैसे उसके पूरे शरीर से एक आवाज़ निकलती हो—'मुझे छुड़ाओ, मुझे छुड़ाओ!'

    गोविंद के मन में उस अनजान राजकुमारी को छुड़ाने के लिए जैसे रह-रहकर कोई कुरेदने लगा। एक-आध बार तो उसकी बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि अपने भीतर रह-रहकर कुछ करने की उत्तेजना को वह अपने तख़्त और कोठरी की दीवार के बीच में बची दो फ़ीट चौड़ी गली में घूम-घूमकर दूर कर दे।

    तो क्या सचमुच लक्ष्मी ने यह सब उसी के लिए लिखा है? लेकिन उसने तो लक्ष्मी को देखा तक नहीं! अगर अपनी कल्पना में किसी जवान लड़की का चेहरा लाए भी, तो वह आख़िर कैसी हो?...कुछ और भी बातें थीं कि वह लक्ष्मी के रूप में एक सुंदर लड़की के चेहरे की कल्पना करते डरता था। उसकी ठीक शक्ल-सूरत और उम्र भी नहीं मालूम उसे...

    गोविंद यह अच्छी तरह जानता था कि यह सब उसी के लिए लिखा गया है, ये लाइनें खींचकर उसी का ध्यान आकृष्ट किया गया है। फिर भी वह इस अप्रत्याशित बात पर विश्वास नहीं कर पाता था। वह अपने को इस लायक़ भी नहीं समझता था कि कोई लड़की इस तरह उसे संकेत करेगी। यों शहरों के बारे में उसने बहुत कुछ सुन रखा था, लेकिन यह सोचा भी नहीं था कि गाँव से इंटर पास करके शहर आने के एक हफ़्ते में ही उसके सामने एक 'सौभाग्यपूर्ण' बात जाएगी...।

    वह जब-जब इन पंक्तियों को पढ़ता, तब-तब उसका सिर इस तरह चकराने लगता, जैसे किसी दस-मंज़िले मकान से नीचे झाँक रहा हो। जब उसने पहले-पहल ये पंक्तियाँ देखी थीं तो इस तरह उछल पड़ा था, जैसे हाथ में अँगारा गया हो!

    बात यह हुई कि वह चक्कीवाले हॉल में ईंटों के तख़्त जैसे बने चबूतरे पर बड़ी पुरानी काठ की संदूक़ची के ऊपर लंबा-पतला रजिस्टर खोले दिन-भर का हिसाब मिला रहा था, तभी लाला रूपाराम का सबसे छोटा, नौ-दस साल का लड़का रामस्वरूप उसके पास खड़ा हुआ। यह लड़का एक फटे-पुराने-से चैस्टर की, जो निश्चित ही किसी बड़े भाई के चैस्टर को कटवाकर बनवाया गया होगा, जेबों में दोनों हाथों को ठूँसे पास खड़ा होकर उसे देखने लगा।

    गोविंद जब पहले ही दिन आया था और हिसाब कर रहा था, तभी यह लड़का भी खड़ा हुआ था। उस दिन लाला रूपाराम भी थे, इसलिए सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि वह उनके सुपुत्र में भी काफ़ी रुचि रखता है, उसने उससे नियमानुसार नाम, उम्र और स्कूल-क्लास इत्यादि पूछे थे। नाम रामस्वरूप, उम्र नौ साल, चुंगी-प्राइमरी स्कूल में चौथे क्लास में पढ़ता था। फिर तो सुबह-शाम गोविंद उसे चैस्टर की छाया से ही जानने लगा, शक्ल देखने की ज़रूरत ही नहीं होती थी। चेस्टर के नीचे नेकर पहने होने के कारण उसकी पतली टाँगें खुली रहतीं और वह पाँवों में बड़े पुराने किरमिच के जूते पहने रहता, जिनकी फटी निकली जीभों को देखकर उसे हमेशा दुम-कटे कुत्ते की पूँछ का ध्यान हो आता था।

    थोड़ी देर उसका लिखना ताकते रहकर लड़के ने चैस्टर के बटनों के कसाव और छाती के बीच में रखी पत्रिका निकालकर उसके सामने रख दी और बोला, 'मुंशी जी, लक्ष्मी जीजी ने कहा है, हमें कुछ और पढ़ने को दीजिए।'

    'अच्छा, कल देंगे...' मन-ही-मन भन्नाकर उसने कहा।

    यहाँ आकर उसे जो 'मुंशी जी' का नया ख़िताब मिला है, उसे सुनकर उसकी आत्मा ख़ाक हो जाती। 'मुंशी' नाम के साथ जो एक कान पर क़लम लगाए, गोल-मैली टोपी, पुराना कोट पहने, मुड़े-तुड़े आदमी की तस्वीर सामने आती है, उसे बीस-बाईस साल का युवक गोविंद सँभाल नहीं पाता।

    लाला रूपाराम उसी गाँव के हैं, शायद उसके पिता के साथ दो-तीन जमात पढ़े भी थे। शहर आते ही आत्मनिर्भर होकर पढ़ाई चला सकने के लिए किसी ट्यूशन इत्यादि या छोटे पार्ट-पाइम काम के लिए लाला रूपाराम से भी वह मिला तो उन्होंने अत्यंत उत्साह से उसके मृत बाप को याद करके कहा, 'भैया, तुम तो अपने ही बच्चे हो, ज़रा हमारी चक्की का हिसाब-किताब घंटे-आध-घंटे देख लिया करो और मज़े में चक्की के पास जो कोठरी है, उसमें पड़े रहो, अपना पढ़ो। आटे की यहाँ तो कमी है ही नहीं।’ और अत्यंत कृतज्ञता से गद्गद वह उनकी कोठरी में गया, पहली रात हिसाब लिखने का ढंग समझते हुए लाला रूपाराम, मोतियाबिंद वाले चश्मे के मोटे-मोटे काँचों के पीछे से मोर-पंखी के चंदोवे-सी दीखती आँखों और मोटे होंठों से मुस्कुराते, उसका सम्मान बढ़ाने को 'मुंशी जी' कह बैठे तो वह चौंक गया। लेकिन उसने निश्चय कर लिया कि यहाँ जम जाने के बाद वह विनम्रता से इस शब्द का विरोध करेगा। रामस्वरूप से 'मुंशी जी' नाम सुनकर उसकी भौंहे तन गईं, इसीलिए उसने उपेक्षा से उत्तर दिया था।

    'कल ज़रूर दीजिएगा।' रामस्वरूप ने फिर अनुरोध किया।

    'हाँ भाई, ज़रूर देंगे।' उसने दाँत पीसकर कहा, लेकिन चुप ही रहा। वह अक्सर लक्ष्मी का नाम सुनता था। हालाँकि उसकी कोठरी बिल्कुल सड़क की तरफ़ अलग ही पड़ती थी, लेकिन उसमें पीछे की तरफ़ जो एक जालीदार छोटा-सा रोशनदान था, वह घर के भीतर नीचे की मंज़िल के चौक में खुलता था। लाला रूपाराम का परिवार ऊपर की मंज़िल पर रहता था और नीचे सामने की तरफ़ पनचक्की थी, पीछे कई तरह की चीज़ों का स्टोर-रूम था। इस 'लक्ष्मी' नाम के प्रति उसे उत्सुकता और रुचि इसलिए भी बहुत थी कि चाहे कोठरी में हो या बाहर, पनचक्की के हॉल में, हर पाँचवें मिनट पर उसका नाम विभिन्न रूपों में सुनाई देता था—'लक्ष्मी बीबी ने यह कहा है',—'रुपए लक्ष्मी बीबी के पास है', 'चाबी लक्ष्मी बीबी को दे देना।' और उसके जवाब में जो एक पतली तीखी-सी अधिकारपूर्ण आवाज़ सुनाई देती थी, उसे गोविंद पहचानने लगा था अनुमान से उसने समझ लिया कि यही लक्ष्मी की आवाज़ है। लेकिन स्वयं वह कैसी है? उसकी एक झलक-भर देख पाने को उसका दिल कभी-कभी बुरी तरह तड़प-सा उठता। लेकिन पहले कुछ दिनों उसे अपना प्रभाव जमाना था, इसलिए वह आँख उठाकर भी भीतर देखने की कोशिश करता। मन-ही-मन उसने समझ लिया कि यही लक्ष्मी है काफ़ी महत्वपूर्ण है...दिक़्क़त यह थी कि भीतर कुछ दिखाई भी तो नहीं देता था। सड़क के किनारे तीन-चार दरवाज़े वाले इस चक्की के हॉल के बाद एक आठ-दस फ़ीट लंबी गली थी, तब फिर भीतर चौक था। पहली मंज़िल काफ़ी ऊँची और मज़बूत थी और चौक के ऊपर लोहे का जाल पड़ा था। उस पर से ऊपर वाले लोग जब गुज़रते थे तो लोहे की झनझनाहट से पहले तो उसका ध्यान हर बार उधर चला जाता था। बच्चे तो कभी-कभी और भी उछल-उछलकर उस पर कूदने लगते थे। यहाँ से तो जब तक किसी बहाने पूरी गली पार की जाए, कुछ भी दिखना असंभव था। चूँकि ग़ुसलख़ाना और नल इत्यादि उसी चौक में थे, जिनकी वजह से नीचे प्रायः सीलन और गीलापन रहता था, इसलिए सुबह चौक में जाते हुए अत्यंत सीधे लड़के की तरह निगाहें नीची किए हुए भी वह ऊपर की स्थिति को भाँपने का प्रयत्न करता था। ऊपर सिर उठाकर आँख-भर देख पाने की उसमें हिम्मत थी। अपनी कोठरी का एकमात्र दरवाज़ा बंद करके, तख़्त पर चढ़कर मकड़ी के जाले और धूल से भरे जालीदार रोशनदान से झाँककर उसने वहाँ की स्थिति को भी जानने की कोशिश की थी, लेकिन वह कमबख़्त जाली कुछ इस ढंग से बनी थी कि उसके 'फ़ोकस' में पूरा सामने वाला छज्जा और एकाध फ़ुट लोहे का जाल-भर आता था। वहाँ कई बार उसे लगा, जैसे दो छोटे-छोटे तलुए गुज़रे...बहुत कोशिश करने पर टख़ने दीखे—हाँ, हैं तो किसी लड़की के पैर, क्योंकि साथ में धोती का किनारा भी झलका था...उसने एक गहरी साँस ली और तख़्त से उतरते हुए बड़े ऐक्टराना अंदाज़ में छाती पर हाथ मारा और बुदबुदाया—'अरे लक्ष्मी ज़ालिम, एक झलक तो दिखा देती...?'

    'मुंशी जी, तुम तो देख रहे हो, लिखते क्यों नहीं?' रामस्वरूप ने जब देखा कि गोविंद धीरे-धीरे होल्डर का पिछला हिस्सा दाँतों में ठोंकता हुआ हिसाब की कॉपी में अपलक कुछ घूर रहा है, तो पता नहीं कैसे यह बात उसकी समझ में गई कि वह जो कुछ सोच रहा है, उसका संबंध सामने रखे हिसाब से नहीं है...

    उसने चौंककर लड़के की तरफ़ देखा...और चोरी पकड़ी जाने पर झेंपकर मुस्कुराया, तभी अचानक एक बात उसके दिमाग़ में कौंधी—यह लक्ष्मी रामस्वरूप की बहन ही तो है। ज़रूर उसका चेहरा इससे काफ़ी मिलता-जुलता होगा। इस बार उसने ध्यान से रामस्वरूप का चेहरा देखा कि वह सुंदर है या नहीं। फिर अपनी बेवक़ूफ़ी पर मुस्कुराकर एक अँगड़ाई ली। चारों तरफ़ ढीले हुए कंबल को फिर से चारों ओर कस लिया और अप्रत्याशित प्यार से बोला, 'अच्छा मुन्ना, कल सुबह दे देंगे।' ...उसकी इच्छा हुई कि वह लक्ष्मी के बारे में कुछ बात करें, लेकिन सामने ही चौकीदार और मिस्त्री सलीम काम कर रहे थे...

    असल में आज वह थक भी गया था। अचानक व्यस्त होकर बोला और जल्दी-जल्दी हिसाब करने लगा। दुनिया-भर की सिफ़ारिशों के बाद उसका नाम कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर गया कि वह ले लिए गए लड़कों में से है। आते समय कुछ किताब और कॉपियाँ भी ख़रीद लाया था, सो आज वह चाहता था कि जल्दी-से-जल्दी अपनी कोठरी में लेटे और कुछ आगे-पीछे की बातें… दुनिया-भर की बातें सोचता हुआ सो जाए। सोचे, लक्ष्मी कौन है, कैसी है! वह उसके बारे में किससे पूछे?...कोई उसका हमउम्र और विश्वास का आदमी भी तो नहीं है। किसी से पूछे और रूपाराम को पता चल जाए, तो? लेकिन अभी तीसरा ही तो दिन है। मन-ही-मन अपने पास रखी पत्रिकाओं और कहानी की पुस्तकों की गिनती करते हुए वह सोचने लगा कि इस बार उसे कौन-सी देनी है। आगे जाकर जब काफ़ी दिन हो जाएँगे तो वह चुपचाप उसमें एक ऐसा छोटा-सा पत्र रख देगा जो किसी दोस्त के नाम लिखा गया होगा या उसकी भाषा ऐसी होगी कि पकड़ में सके। ‘भूल से चला गया’ पकड़े जाने पर वह आसानी से कह सकेगा, ‘उसे तो ध्यान भी नहीं था कि वह पर्चा इसमें रखा है!’ बीस जवाब हैं। अपनी चालाक़ बेवक़ूफ़ी की कल्पना पर वह मुस्कुराने लगा।

    जिसके विषय में वह इतना सब सोचता है, वह उसी लक्ष्मी के पास से आई हुई पत्रिका है। उसने इसे अपने कोमल हाथों से छुआ होगा, तकिए के नीचे, सिरहाने भी यह रही होगी। लेटकर पढ़ते हुए तो हो सकता है, सोचते-सोचते छाती पर भी रखकर सो गई हो? और उसका तन-मन गुदगुदा उठा। क्या लक्ष्मी उसके विषय में बिलकुल ही सोचती होगी? हिसाब लिखने की व्यस्तता में भी उसने गर्दन मोड़कर एक हाथ से पत्रिका के पन्ने पलटने शुरू कर दिए और एक कोना-मुड़े पन्ने पर अचानक उसका हाथ ठिठक गया। यह किसने मोड़ा है? एक मिनट में हज़ारों बातें उसके दिमाग़ में चक्कर लगा गईं। उसने पत्रिका उठाकर हिसाब की कॉपी पर रख ली। मुड़ा पन्ना पूरा खुला था। छपे पन्ने पर जगह-जगह नीली स्याही से निशान देखकर वह चौंक पड़ा। ये किसने लगाए हैं? उसे ख़ूब अच्छी तरह ध्यान है, ये पहले नहीं थे।

    'मैं तुम्हें प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ…’ उसने एक नीली लाइन के ऊपर पढ़ा।

    'अँय! यह क्या चक्कर है...?' वह एकदम जैसे बौखला उठा। उसने फ़ौरन ही सामने बैठे मिस्त्री सलीम और दिलावर सिंह को देखा, वे अपने में ही काम में व्यस्त थे। उसकी निगाह अपने आप दूसरी लाइन पर फिसल गई।

    'मुझे यहाँ से भगा ले चलो...'

    'अरे....!'

    'मैं फाँसी लगाकर मर जाऊँगी...'

    और गोविंद इतना घबरा गया कि उसने फट से पत्रिका बंद कर दी। शंका से इधर-उधर देखा, किसी ने ताड़ तो नहीं लिया? उसके माथे पर पसीना उभर आया और दिल चक्की के मोटर की तरह चलने लगा। पत्रिका ने उन पन्नों के बीच में ही उँगली रखे हुए उसने उसे घुटने के नीचे छिपा लिया। कहीं दूर से रंग-बिरंगी कवर की तस्वीर को देखकर यह कमबख़्त चौकीदार ही माँग बैठे। उन पंक्तियों को एक बार फिर देखने की दुर्निवार इच्छा उसके मन में हो रही थी, लेकिन जैसे हिम्मत पड़ती थी। क्या सचमुच ये निशान लक्ष्मी ने ही लगाए हैं? कहीं किसी ने मज़ाक़ तो नहीं किया? लेकिन मज़ाक़ उससे कौन करेगा, क्यों करेगा? ऐसा उसका कोई परिचित भी तो नहीं है यहाँ कि तीन दिन में ही ऐसी हिम्मत कर डाले।

    उसने फिर पत्रिका निकालकर पूरी उलट-पुलट डाली। नहीं, निशान वही हैं, बस। वह उन तीनों लाइनों को फिर एक साथ पढ़ गया और उसे ऐसा लगा, जैसे उसके दिमाग़ में हवाई जहाज़ भन्ना उठा हो। गोविंद का दिमाग़ चकरा रहा था, दिल धड़क रहा था और जो हिसाब वह लिख रहा था, वह तो जैसे एकदम भूल गया। उसने क़लम के पिछले हिस्से से कान के ऊपर खुजलाया, ख़ूब आँखें गड़ाकर जमा और ख़र्च के ख़ानों को देखने की कोशिश की, लेकिन बस नस-नस में सन-सन करती कोई चीज़ दौड़े जा रही थी। उसे लगा, उसका दिल फट जाएगा और आतिशबाज़ी के अनार की तरह दिमाग़ फट पड़ेगा। अब वह किससे पूछे? ये सब निशान किसने लगाए हैं? क्या सचमुच लक्ष्मी ने?

    इस मधुर सत्य पर विश्वास नहीं होता। मैं चाहे तो उसे देख पाया होऊँ, उसने तो ज़रूर ही मुझे देख लिया होगा। अरे, ये लड़कियाँ बड़ी तेज़ होती हैं। गोविंद की इच्छा हुई, अगर उसे इसी क्षण शीशा मिल जाए तो वह लक्ष्मी की आँखों से एक बार अपने को देखे—कैसा लगता है?

    लेकिन यह लक्ष्मी कौन है? विधवा, कुमारी, विवाहिता, परित्यक्ता, क्या? कितनी बड़ी है? कैसी है? उसकी नस-नस में एक प्रबल मरोड़-सी उठने लगी कि वह अभी उठे और दौड़कर भीतर के आँगन की सीढ़ियों से धड़ाधड़ चढ़ता हुआ ऊपर जा पहुँचे—लक्ष्मी जहाँ भी, जिस कमरे में बैठी हो, उसके दोनों कंधे झकझोरकर पूछे, 'लक्ष्मी, लक्ष्मी, यह तुमने लिखा है? तुम नहीं जानती लक्ष्मी, मैं कितना अभागा हूँ। मैं क़तई इस सौभाग्य के लायक़ नहीं हूँ।' और सचमुच इस अप्रत्याशित सौभाग्य से गोविंद का हृदय इस तरह पसीज उठा कि उसकी आँखों से आँसू गए। डोरी से लटकते हुए बल्ब को अपलक देखता हुआ वह अपने अतीत और भविष्य की गहराइयों से उतरता चला गया, फिर उसने धीरे से अपनी कोरों में भरे आँसुओं को उँगली पर लेकर इस तरह झटक दिया, जैसे देवता पर चंदन चढ़ा रहा हो। उसका ढीला पड़ा हाथ अब भी पत्रिका के पन्ने को पकड़े था।

    एक बार उसने फिर उन पंक्तियों को देखा। मान लो, लक्ष्मी उसके साथ भाग जाए! कहाँ जाएँगे वे लोग? कैसे रहेंगे? उसकी पढ़ाई का क्या होगा? बाद में पकड़ लिए गए तो?

    लेकिन आख़िर यह लक्ष्मी है कौन?

    लक्ष्मी के बारे में प्रश्नों का एक झुंड उसके दिमाग़ पर टूट पड़ा, जैसे शिकारी कुत्तों का बाड़ा खोल दिया गया हो या एक के बाद एक सिर पर कोई हथौड़े की चोटें कर रहा हो, बड़ी निर्ममता और क्रूरता से। जैसे छत पर से अचानक गिर पड़ने वाले आदमी के सामने सारी दुनिया एक झटके के साथ, एक क्षण में चक्कर लगा जाती है, उसी तरह उसके सामने सैकड़ों-हज़ारों चीज़ें एक साथ चमककर ग़ायब हो गईं।

    ईंटों के ऊँचे चौकोर तख़्तनुमा चबूतरे पर पुरानी छोटी-सी संदूक़ची के आगे बैठा गोविंद हिसाब लिख रहा था और अभी हिसाब मिलने के कारण जो कच्चे पुर्ज़े इधर-उधर बिखरे थे, वे सब यूँही बिखरे रहे। उसने खुले लेज़र-रजिस्टर पर दोनों कुहनियाँ टिका दीं और हथेलियों से आँखें बंद कर लीं। कनपटी के पास की नसें चटख रही थीं। ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं, सिनेमा, उपन्यासों में भी नहीं देखा-पढ़ा। सचमुच इन निशानों का क्या मतलब है? क्या लक्ष्मी ने ही ये लाइनें खींची हैं? हो सकता है, किसी बच्चे ने ही खींच दी हों—इस संभावना से थोड़ा चौंककर गोविंद ने फिर पन्ना खोला—नहीं, बच्चा क्या सिर्फ़ इन्हीं लाइनों के नीचे निशान लगाता? और लकीरें इतनी सधी और सीधी हैं कि किसी बच्चे की हो ही नहीं सकतीं। किसी ने उसे व्यर्थ परेशान करने को तो निशान नहीं लगा दिए? हो सकता है, वह लक्ष्मी बहुत चुहलबाज़ हो और ज़रा छकाने को उसी ने सब किया हो...।

    यद्यपि गोविंद इस तरह आँखें बंद किए सोच रहा था, लेकिन उसे मन-ही-मन डर था कि मिस्त्री और दरबान उसे देखकर कुछ समझ जाएँ। सबसे बड़ा डर उसे लाला रूपाराम का था। अभी रुई-भरी, सकरपारों वाली सिलाई की, मैली-सी पूरी बाँहों की मिरजई पहने और उस पर मैली चीकट, युगों पुरानी अंडी लपेटे, धीरे-धीरे हाँफते हुए, बेंत टेकते, बड़े कष्ट से सीढ़ियाँ उतरकर वे आएँगे...

    अचानक बेंत की खट्-खट् से चौंककर उसने जो आँखों के आगे से हाथ हटाए तो देखा, सच ही लाला रूपाराम चले रहे हैं। अरे, कमबख़्त याद करते ही पहुँचा! बैठे हुए देख तो नहीं लिया? उसने झट पत्रिका को घुटने के नीचे और भी सरका लिया और सामने फैले पुर्ज़ों पर आँखें टिकाकर व्यस्त हो उठा। मिस्त्री और चौकीदार की खुसुर-पुसुर बंद हो गई। गली-सी पार करके लाला रूपाराम ने प्रवेश किया।

    मोटे-मोटे शीशों के पीछे से उनकी आँखें बड़ी होकर भयंकर दीखती थीं। आँखों और पलकों का रंग मिलकर ऐसा दिखाई देता था, जैसे पीछे मोरपंख के चंदोवे लगे हों। सिर पर रूईभरा कनटोपा था, उसके कानों को ढकने वाले मोटर के 'मडगार्ड' जैसे कोने अब ऊपर मुड़े थे और पौराणिक राक्षसों के सींगों का दृश्य उपस्थित कर रहे थे। चेहरा उनका झुर्रियों से भरा था और चश्मे का फ़्रेम नाक के ऊपर से टूट गया था, उसे उन्होंने डोरा लपेटकर मज़बूत कर लिया था। दाँत उनके नक़ली थे और शायद ढीले भी थे, क्योंकि उन्हें वे हमेशा इस तरह मुँह चला-चलाकर पीछे सरकाए रखते थे जैसे 'चुइंगम' चबा रहे हों। गोविंद को उनके इस मुँह चलाने और मुँह से निकलती तरह-तरह की आवाज़ों से बड़ी उबकाई-सी आती थी और जब वे उससे बात करते तो वह प्रयत्न करके अपना ध्यान उस ओर से हटाए रखता। लाला रूपाराम की गर्दन हमेशा इस तरह हिलती रहती, जैसे खिलौने वाले बुड्ढे की गर्दन का स्प्रिंग ढीला हो गया हो! घुटनों तक की मैली-कुचैली धौती और मिलिट्री के कबाड़ियाँ बाज़ार से ख़रीदकर लाए गए मोज़ों पर बाँधने की पट्टियाँ, जो शायद उन्हें गठिया के दर्द से बचाती थीं, बिना फ़ीते के खीसें निपोरते फटे-पुराने बूट! उन्हें देखकर हमेशा गोविंद को लगता कि इस आदमी का अंत समय निकट गया है।

    जब लाला रूपाराम पास गए तो उनसे उनके सम्मान में चेहरे पर चिकनाई वाली मुस्कान लाकर उनकी ओर देखते हुए स्वागत किया। ईंटों के चबूतरे पर लगभग दो सौ स्याही के दाग़ और छेद वाली दरी पर रामस्वरूप के उनसे सटकर खड़े होने से, एक मोटी-सी सिकुड़न पड़ गई थी, उसे हाथ से ठीक करके उसने कहा, 'लाला जी, यहाँ बैठिए...'

    लाला जी ने हाँफते हुए बिना बोले ही इशारा कर दिया कि नहीं, वे ठीक हैं और वे टीन की कुर्सी पर ही उसकी ओर मुँह करके बैठ गए और हाँफते रहे। असल में उन्हें साँस की बीमारी थी और वे हमेशा प्यासे कुत्ते की तरह हाँफते रहते थे।

    उनके यहाँ बैठने से एक बार तो गोविंद काँप उठा, कहीं कमबख़्त को पता तो नहीं चल गया? कुछ पूछने-ताछने आया हो। हालाँकि लाला रूपाराम इस समय खा-पीकर एक बार चक्कर ज़रूर लगाते थे, लेकिन उसे विश्वास हो गया कि हो हो बुड्ढा ताड़ गया है। उसका दिल धसक चला। रूपाराम अभी हाँफ रहे थे। गोविंद सिर झुकाए ही हिसाब-किताब जोड़ता रहा। आख़िर स्थिति सँभालने की दृष्टि से उसने कहा, 'लाला जी, आज मेरा नाम गया कॉलेज में।'

    'अच्छा!' लाला जी ने खाँसी के बीच में ही कहा। वह एक हाथ से डंडे को धरती पर टेके थे, दूसरे हाथ में कलाई तक गोमुखी बँधी थी, जिसके भीतर अँगुलियाँ चला-चलाकर वह माला घुमा रहे थे और उनका वह हाथ टोंटा-सा लग रहा था।

    वातावरण का बोझ बढ़ता ही चला गया था कि एक घटना हो गई।

    उन्होंने साँस इकट्ठी करके कुछ बोलने को मुँह खोला ही था कि भीतर आँगन का टट्टर (लोहे का जाल) भयंकर रूप से झनझना उठा, जैसे कोई बहुत ही भारी चीज़ ऊपर से फेंक दी गई हो। और फिर ज़ोर से बजती हुई खनखनाती कछली जैसी चीज़ गिरी; उसके पीछे चिमटा, संडासी...और फिर तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई बाल्टी, कढ़ाई, तवा इत्यादि निकालकर टट्टर पर फेंक रहा है और पानी और छोटी-मोटी चीज़ें नीचे गिर रही है। उसके साथ कुछ ऐसा कोलाहल और कुहराम भीतर सुनाई दिया, जैसे आग लग गई हो!

    गोविंद झटककर सीधा हो गया—कहीं सचमुच आग-वाग तो नहीं लग गई? उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से चौंककर लाला की तरफ़ देखा और वह आश्चर्य से अवाक रह गया। लाला परेशान ज़रूर दिखाई देता था लेकिन कोई भयंकर घटना हो गई है और उसे दौड़कर जाना चाहिए, ऐसी कोई बात उसके चेहरे पर नहीं थी। मिस्त्री और चौकीदार, दोनों बड़े दबे व्यंग्य से एक-दूसरे की ओर देखते, मुस्कुराते, लाला की ओर निगाहें फेंक रहे थे। किसी को भी कोई ख़ास चिंता नहीं थी। भीतर कोलाहल बढ़ रहा था, चीज़ें फिंक रही थीं और टट्टर की खड़खड़ाहट-घनघनाहट गूँजती जा रही थी। आख़िर यह क्या हो रहा है? उत्तेजना से उसकी पसलियाँ तड़कने को हो आईं। वह लाला से यह पूछने ही वाला था कि क्या है, तभी बड़े कष्ट से हाथ की लकड़ी पर सारा ज़ोर देकर वह उठ खड़े हुए...और घिसटते-से जहाँ से आए थे उसी गली में चले गए। जाते हुए पलटकर धीरे से उसने किवाड़ बंद कर दिए। मिस्त्री और चौकीदार ने मुक्त होकर बदन ढीला किया, एक-दूसरे की ओर मुस्कुराकर देखा, खँखारा और फिर एक बार खुलकर मुस्कुराए। लाला का पीछा करती गोविंद की निगाह अब उन लोगों की ओर मुड़ गई और जब उससे नहीं रहा गया तो वह खड़ा हो गया। मुर्ग़े के पंखों की तरह कंबल को बाँहों पर फड़फड़ाकर उसने लपेटा और उस पत्रिका को देखता हुआ चबूतरे से नीचे उतर आया। थोड़ी देर यों ही असमंजस में खड़ा रहा, फिर उस गलियारे के दरवाज़े तक गया कि कुछ दिखाई-सुनाई दे। कोलाहल में चार-पाँच आवाज़ें एक साथ किवाड़ की दरार से घुटी-घुटी सुनाई दीं और उसमें सबसे तेज़ आवाज़ वही थी जिसे उसने लक्ष्मी की आवाज़ समझ रखा था। हे भगवान, क्या हो गया? कोई कहीं से गिर पड़ा, आग लग गई, साँप-बिच्छू ने काट लिया? लेकिन जिस तरह से लोग बैठे देख रहे थे, उससे तो ऐसा लगता था जैसे यह कोई ख़ास बात नहीं है। यह कमबख़्त किवाड़ क्यों बंद कर गया? इस वक़्त टट्टर इस तरह धमाधम बज रहा था, जैसे उस पर कोई तांडव नृत्य कर रहा हो। उस ऊँची, चीख़ती महीन आवाज़ में वह नारी-कंठ, जिसे वह लक्ष्मी की आवाज़ समझता था, इतनी तेज़ और ज़ोर से बोल रहा था कि लाख कोशिश करने पर भी वह कुछ नहीं समझ सका।

    'परेशान क्यों हो रहे हो बाबू जी?' चौकीदार की आवाज़ सुनकर वह एकदम सीधा खड़ा हो गया। मुस्कुराता हुआ वह कह रहा था, 'आज चंडी चेत रही है।' उसकी इस बात पर मिस्त्री हँसा।

    गोविंद बुरी तरह झुँझला उठा। कोई इतनी बड़ी बात, घटना हो रही है और ये बादमाश इस तरह मज़ा लूट रहे हैं। फिर भी यह अत्यंत चिंतित और उत्सुक-सा उधर मुड़ा।

    इस बड़े कमरे या छोटे हॉल में हर चीज़ में हर चीज़ पर आटे का महीन पाउडर छाया हुआ था। एक ओर आटे में नहाई चक्की, काले पत्थर के बने हाथी की तरह चुपचाप खड़ी थी और उसका पिसे आटे को सँभालने वाला ग़िलाफ़ हाथी की सूँड़ की तरह लटका था। उसी की सीध में दूसरी दीवार के नीचे मोटर लगी थी, जहाँ से एक चौड़ा पट्टा चक्की को चलाता थ। इतने हिस्से में सुरक्षा के लिए एक रेलिंग लगा दिया गया था। सामने की दीवार में चिपके लंबे-चौड़े लाल चौकोर तख़्ते पर एक खोपड़ी और दो हड्डियों को क्रॉस के नीचे 'ख़तरा' और 'डेंजर' लिखे थे। उसके चबूतरे की बग़ल में ही छत से जाती ज़ंजीर में एक बड़ी लोहे की तराज़ू, कथाकली की मुद्रा में एक बाँह ऊँची किए लटकी थी, क्योंकि दूसरे पलड़े में मन से लेकर छटाँक तक के बाटों का ढेर लगा था। यद्यपि लाला रूपाराम अक्सर चौकीदार को डाँटते थे कि रात में इसे उतारकर रख दिया कर, लेकिन किसी-किसी दिन आधी रात तक चक्की चलती और दुकान-दफ़्तर वाले तो सुबह पाँच बजे से ही आने लगते, उस समय बर्फ़ जैसी ठंडी तराज़ू को छूना और टाँगना दिलावर सिंह को अधिक पसंद नहीं था। वह उसे यह कहकर टाल देता कि लड़ाई में सुबह-ही-सुबह काफ़ी ठंडी बंदूक़ें लेकर मार्च और परेड कर लिया, अब क्या ज़िंदगी-भर ठंडा लोहा ही छूना उसकी क़िस्मत में बदा है? इसीलिए वह उसे टँगी ही रहने देता। हालाँकि ठीक बीच में होने के कारण वह जब भी दरवाज़ा खोलने उठता तो ख़ुद ही उससे टकराता-उलझता और रात के एकांत में फ़ौजी गालियों का स्वागत भाषण करता। पुराना कैलेंडर, एक और पिसाई के लिए भरे अन्न या पिसे आटे के बोरे, कनस्तर, पोटलियाँ और ऊपर चढ़कर अन्न डालने का मज़बूत-सा स्टूल। इस समय दोनों टाँगें, जिनमें कीलदार फ़ुटबूट डटे हुए थे, धरती पर फैलाए चौकीदार मज़े में खट की पाटी पर झुका बैठा अपना पुराना, पहली लड़ाई के सिपाहीपने की याद—ग्रेटकोट—चारों ओर पलेटे शान से बीड़ी धौंक रहा था और धीरे-धीरे सामने बैठे मिस्त्री सलीम से बातें करता जा रहा था।

    उसके और मिस्त्री के बीच में एक बरोसी जल रही थी, जब कभी ध्यान जाता तो पास रखे कोयले-लकड़ी कुछ डाल देता और कभी-कभी अत्यंत निस्पृहता से हाथ या पाँव उस दिशा में बढ़ाकर गर्मी सोखता। सलीम सिर झुकाए गर्म पानी की बाल्टी में ट्यूब डुबा-डुबाकर उनके पंक्चर देखने में व्यस्त था। उसके आस-पास दस-बारह काले-लाल ट्यूब, रबर की कतरनें, कैंची, पेंच, प्लास, सोल्यूशन, चमड़े की पेटी और एक ओर टायर लटके दस-बारह साइकिल के पहियों का ढेर था। अपने इस सामान से उसने आधे से ज़्यादा कमरा घेर लिया था।

    जब गोविंद उसके पास आया तो वह सिर झुकाए ही हँसता हुआ ट्यूब के पंक्चर को पकड़कर कान में लगी कॉपिंग पेंसिल को थूक से गीला करते हुए (हालाँकि ट्यूब पानी से भीगा था और सामने बाल्टी भरा पानी भी रखी थी) निशान लगाता हुआ जवाब दे रहा था, 'यह कहा जमादार साहब ने?' फिर एक भौह को ज़रा तिरछी करके बोला, 'लाला कुछ नामा ढीला करे तो, उसकी लड़की पर जिन का साया है, उसका इलाज तो हम अपने मौलवी बदरुद्दीन साहब से मिनटों में करा दें।'

    गोविंद का माथा ठनका, लाला की किसी लड़की पर क्या कोई देवी आती है? उसे अपने गाँव की एक ब्राह्मणी विधवा, तारा का एकदम ध्यान हो आया। उसे भी जब देवी आती थी तो घर के बर्तन उठा-उठाकर फेंकती थी, उसका सारा बदन ऐंठने लगता था, मुँह से झाग आने लगते थे, गर्दन मरोड़ खाने लगती थी, आँखें और चीभ बाहर निकलने लगती थीं। कौन लड़की है लाला की? लक्ष्मी तो नहीं? भगवान करें, लक्ष्मी हो! उसका दिल आशंका से डूबने-सा लगा। उसने सुना, कोलाहल शांत हो गया था और कहीं दूर से रह-रहकर एक हल्की रोने की आवाज़-भर सुनाई देती थी। शायद किसी को दौरा-वौरा ही गया है, तभी तो ये लोग निश्चिंत हैं।

    गोविंद को सुनाकर चौकीदार बोला, 'नामा? तुम भी यार मिस्त्री, किसी दिन बेचारे बुड्ढे का हार्टफ़ेल कराओगे। और बेटा, इस 'जिन' का इलाज तुम्हारे मौलवी के पास नहीं है, समझे? वह तो हवा ही दूसरी है। आओ बाबू जी, बैठो।'

    चौकीदार ने बैठे-बैठे स्टूल की तरफ़ इशारा किया। असल में वह गोविंद को 'बाबू जी' ज़रूर कहता था, लेकिन उसका विशेष आदर नहीं करता था। एक तो गोविंद क़स्बे से आया था और उसे शहर में चौकीदारी करते हो चुके थे नक़द बीस साल, दूसरे वह फ़ौज में रहा था और कैरो तक घूम आया था। उम्र, अनुभव, तहज़ीब सभी में वह अपने को गोविंद से ज़्यादा ही समझता था। लेकिन गोविंद को इस सबका ध्यान नहीं था। उसने स्टूल से टिककर ज़रा सहारा लेते हुए चिंतित स्वर में पूछा, 'क्यों भाई, यह शोरग़ुल क्या था? क्या हो रहा था?'

    मिस्त्री ने सिर उठाकर उसे देखा और चौकीदार की मुस्कुराती नज़रों से उसकी आँखें मिलीं। उसने अपनी खिचड़ी मूँछों पर हथेली फेरते हुए कहा, 'कुछ नहीं बाबू जो, ऊपर कोई चीज़ किसी बच्चे ने गिरा दी होगी।'

    मिस्त्री ने कहा, 'जमादार साहब, झूठ क्यों बोलते हो? साफ़-साफ़ क्यों नहीं बता देते? अब इनसे क्या छिपा रहेगा?'

    'तू ख़ुद क्यों नहीं बता देता?' चौकीदार ने कहा और जेब से बीड़ी का बंडल निकाल लिया, काग़ज़ नोचकर आटे की लोई बनाने की तरह उसे ढीला किया, फिर एक बीड़ी निकालकर मिस्त्री की ओर फेंकी। दूसरी को दोनों तरफ़ से फूँका और जलाने के लिए किसी दहकते कोयले की तलाश में बरोसी में निगाहें घुमाते ज़रा व्यस्तता से बात जारी रखी, 'तुझे क्या मालूम नहीं हैं?'

    इन दोनों की चहुल से गोविंद की झुँझलाहट बढ़ रही थी। उसे लगा, ज़रूर ही दाल में कुछ काला है, जिसे ये लोग टाल रहे हैं। मिस्त्री जीभ निकाले पंक्चर के स्थान को रेगमाल से घिस रहा था। वह जब भी कोई काम एकाग्रचित से करता तो अपनी जीभ को निकालकर ऊपर के होंठ की तरफ़ मोड़ लेता था। उसकी चाँद के बीच में उभरते गंज को देखकर गोविंद ने सोचा कि गंजापन तो रईसी की निशानी है, लेकिन यह कमबख़्त तो आधी रात में यहाँ पंक्चर जोड़ रहा है। उसने उसी तरह सिर झुकाए ही कहा, 'अब मैं बाबू जी को क़िस्सा बताऊँ या इन ट्यूबों से सिर फोड़ूँ? साले सड़कर हलुआ तो हो गए हैं, पर बदलेगा नहीं। मन तो होता है, सबको उठाकर इस अँगीठी में रख दूँ, होगा सुबह सो देखा जाएगा।'

    'ये इतने ट्यूब हैं काहे के?' ज़रा आत्मीयता जताने को गोविंद ने पूछा, 'हालत तो सचमुच इनकी बड़ी ख़राब हो रही है।'

    'आपको नहीं मालूम?' इस बार काम छोड़कर मिस्त्री ने ग़ौर से गोविंद को देखा, 'यह आपके लाला के जो दो दर्जन रिक्शा चलते हैं, उनका कूड़ा है। यह तो होता नहीं कि इतने रिक्शे हैं, रोज़ टूट-फूट, मरम्मत होती ही रहती है, हमेशा के लिए लगा ले एक मिस्त्री, दिन भर की छुट्टी हुई। सो तो नहीं, ट्यूब-टायर मेरे सिर हैं और बाक़ी टूट-फूट मिस्त्री अली अहमद ठीक करते हैं।' फिर उनसे यूँ ही पूछा, 'आप बाबू जी, नए आए हैं?'

    'हाँ, दो-तीन दिन ही तो हुए हैं। मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ।' गोविंद ने कहा। उसके पेट में खलबलाहट मच रही थी, लेकिन वह नए सिरे से पूछने का सूत्र खोज रहा था।

    'तभी तो, मिस्त्री बोला, 'तभी तो आप यह सब पूछ रहे हैं। रात को इसका हिसाब रखते हैं न? हाँ, थोड़े दिनों में अपने फ़रज़ंद को भी आपसे पढ़वाएगा।' अपने 'फ़रज़ंद' शब्द में जो व्यंग्य उसने दिया था, उससे ख़ुद ही प्रसन्न होकर मुस्कुराते हुए उसने चौकीदार की दी हुई बीड़ी सुलगाई।

    'अबे, उन्हें यह सब क्या बताता है? वे तो उसके गाँव से ही आए है। उन्हें सब मालूम है।' चौकीदार बोला।

    'नहीं, सच, मुझे कुछ नहीं मालूम।' गोविंद ने ज़रा आश्वासन के स्वर में कहा, 'इन लाला के तो पिता ही यहाँ चले आए थे न, सो हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम। बताइए न, क्या बात है?' गोविंद ने आदरपूर्वक ज़रा ख़ुशामद के लहज़े में पूछा।

    शायद उसकी जिज्ञासु व्याकुलता से प्रभावित होकर ही मिस्त्री बोला, 'अजी कुछ नहीं, लाल की बड़ी लड़की जो है न, उसे मिरगी का दौरा आता है। कोई कहता है उसे हिस्टीरिया है, पर हमारा तो क़यास है कि बाबू जी, दौरा-वौरा नहीं, उस पर किसी आसेब का साया है...उस बेचारी को तो कुछ होश रहता नहीं।'

    'विधवा है?' जल्दी से बात काटकर गोविंद धक्-धक् करते दिल से पूछ बैठा—हाय, लक्ष्मी ही हो!

    इस बार पुनः दोनों की निगाहों का आपस में टकराकर मुस्कुराना उससे छिपा रहा। बीड़ी के लंबे कश के धुएँ को लीलकर इस बार चौकीदार ज़बदरस्ती गंभीर बनकर बोला, 'अजी, इसने उसकी शादी ही कहाँ की है?'

    'नाम क्या है?' गोविंद से नहीं रहा गया।

    'लक्ष्मी।'

    'लक्ष्मी...।' उसके मुँह से निकल गया और जैसे एकदम उसकी सारी शक्ति किसी ने सोख ली हो, जिज्ञासा और उत्तेजना से तना शरीर ढीला पड़ गया।

    चौकीदार इस बार अत्यंत ही रहस्यमय ढंग से हँसा, जैसे कह रहा हो—अच्छा, तुम भी जानते हो?'

    गोविंद के मन में स्वाभाविक प्रश्न उठा, उसकी उम्र क्या है?

    लेकिन चौकीदार ने पूछा, 'तो सचमुच बाबू जी, आप इनके घर के बारे में कुछ भी नहीं जानते?'

    'नहीं भाई, मैंने बताया तो, मैं इनके बारे में कुछ भी क़तई नहीं जानता।' एक तरफ़ आत्मसमर्पण के भाव से गोविंद बोला।

    'लेकिन लक्ष्मी का क़िस्सा तो सारे शहर में मशहूर है,' चौकीदार बोला।

    'आप शायद नए आए हैं, यही वजह है।' फिर मिस्त्री की ओर देखकर बोला, 'क्यों मिस्त्री साहब, तो बाबू जी को क़िस्सा बता ही दूँ...?'

    'अरे लो, यह भी कोई पूछने की बात है? इसमें छिपाना क्या? यहाँ रहेंगे तो कभी-न-कभी जान ही जाएँगे।'

    'अच्छा तो फिर सुन ही लो यार, तुम भी क्या कहोगे...' चौकीदार ने आनंद में आकर कहना शुरू किया, 'आप शायद जानते हैं, यह हमारा लाला शहर का मशहूर कंजूस और मशहूर रईस है...।'

    'लामुहाला जो कंजूस होगा वो रईस तो होगा ही।' मिस्त्री बोला।

    'नहीं मिस्त्री साहब, पूरा क़िस्सा सुनना हो तो बीच में मत टोको।' चौकीदार इस हस्तक्षेप पर नाराज़ हो गया।

    'अच्छा-अच्छा, सुनाओ।' मिस्त्री बुड्ढों की तरह मुस्कुराया।

    'इसकी यह चक्की है न, सहालगों में इस पर हज़ारों मन पिसता है, वैसे भी दो-ढाई सौ मन तो कम-से-कम पिसता ही है रोज़। अफ़सरों और क्लर्कों को कुछ खिला-पिलाकर लड़ाई के ज़माने में इसे मिलिटरी से कुछ ठेके मिल ही जाते थे। आप जानो, मिलिटरी का ठेका तो जिसके पास आया सो बना। आप उन दिनों देखते 'लक्ष्मी फ़्लोर मिल' के हल्ले। बोरे यों चुने रखे रहते थे, जैसे मोर्चे के लिए बालू भर-भर रख दिए हों! उसमें इतने ख़ूब रुपया पीटा, मिलिटरी के गेहूँ बेच दिए औने-पौने भाव और रद्दी सस्ते वाले ख़रीदकर कोटा पूरा किया, उसमें खड़िया मिला दी। पिसाई के उल्टे-सीधे पैसे तो इसने मारे ही, ब्लैक, चार-सौ बीसी, चोरी, क्या-क्या इसने नहीं किया! इसके अलावा एक बड़ी साबुन की फ़ैक्टरी और एक काफ़ी बड़ा जूतों का कारख़ाना भी इसका है। उसे इसके बेटे सँभालते हैं। पच्चीस-तीस रिक्शे और पाँच मोटर-ट्रक चलाते हैं। दस बारह से ज़्यादा इसके मान हैं, जिनका किराया आता है। रुपए सूद पर देता है। शायद गाँव में भी काफ़ी ज़मीन इसने ले रखी है। एक काम है साले का? इतना तो हमें पता है, बाक़ी इसकी असली आमदनी तो कोई भी नहीं जानता, कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। भगवान ही जाने! रात-दिन किसी-न-किसी तिकड़म में लगा ही रहता है। करोड़ों का आसामी है। और सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि सब सिर्फ़ इसी पच्चीस-छब्बीस साल में जमा की हुई रक़म है।'

    चौकीदार दिलावर सिंह मिलिटरी में रह आने के कारण ख़ूब बातूनी था और मोर्चे के अपने अफ़सरों के क़िस्सों को, अपनी बहादुरी के कारनामों को ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर इतनी बार सुना चुका था कि उसे कहानी सुनाने का मुहावरा हो गया था। हर बात के उतार-चढ़ाव के साथ उसकी आँखें और चेहरे की भंगिमाएँ बदलती रहती थीं।

    उसकी बातें ग़ौर और रुचि से सुनते हुए भी गोविंद के मन में एक बात टकराई—‘लक्ष्मी को दौरे आते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जो यह निशान लगाकर भेजे हैं, यह भी दौरे की दशा में ही लगाए हों और उनका कोई विशेष गहरा अर्थ हो। इस बात से सचमुच उसे बड़ी निराशा हुई, फिर भी उसने ऊपर से आश्चर्य प्रकट करके पूछा, 'सिर्फ़, पच्चीस-छब्बीस साल?'

    नई बीड़ी जलाते चौकीदार ने ज़रा ज़ोर से सिर हिलाया। गोविंद ने सोचा 'और लक्ष्मी की उम्र क्या होगी?'

    'और कंजूसी की तो हद आपने देख ही ली होगी। बुड्ढा हो गया है, साँस का रोग हो रहा है, सारा बदन काँपता है, लेकिन एक पैसे का भी फ़ायदा देखेगा तो दस मील धूप में हाँफता हुआ पैदल जाएगा, क्या मजाल जो सवारी कर ले। गर्मी आई तो पूरा शरीर नंगा, कमर में धोती—आधी पहने, आधी बदन में लपेटे। जाड़ा हुआ तो यही ड्रैस, बस, इसी में पिछले दस साल से तो मैं देख रहा हूँ। कभी किसी मकान की मरम्मत कराना, सफ़ेदी-सफ़ाई कराना और हमेशा यही ध्यान रखना कि कौन कितनी बिजली ख़र्च कर रहा है, कहाँ बेकार नल या पंखा चल रहा है। लड़का है सो उसे मुफ़्त के चुंगी के स्कूल में डाल दिया है, लड़की घर पर बैठा रखी है। एक-एक पैसे के लिए घंटों रिक्शा वालों, ट्रक वालों से लड़ना, बहसें करना और चक्की वालों की नाक में दम रखना, उन्हें दिन-रात यह सिखाना कि किस चालाकी से आटा बचाया जा सकता है। बीसियों रुपए का आटा रोज़ होटल वालों को बिकता है, सो अलग। जिस दिन से चक्की खुली है, घर के लिए तो आटा बाज़ार से आया ही नहीं। आप विश्वास मानिए, कम-से-कम बारह-पंद्रह हज़ार की आमदनी होगी इसकी; लेकिन सूरत देखिए, मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं। किसी आने-जाने वाले के लिए एक कुर्सी तक नहीं, पान-सुपारी की तो बात ही दूर है। कौन कह देगा कि यह पैसे वाला है? यह उम्र होने आई, सुबह से शाम तक बस, पैसे के पीछे हाय-हाय! दुनिया के किसी और काम से मतलब ही नहीं है। सभा हो, सोसाइटी हो, हड़ताल हो, छुट्टी हो, कुछ भी हो, लेकिन लाला रूपाराम अपनी ही धुन में मस्त! नौकरों को कम-से-कम देना पड़े, इसलिए ख़ुद ही उनके काम को देखता है। मुझसे तो कुछ इसलिए नहीं कहता कि मुझ पर थोड़ा विश्वास है; दूसरे मेरी ज़रूरत सबसे बड़ी है। लेकिन बाक़ी हर नौकर रोता है इसके नाम को। और मज़ा यह कि सब जानते हैं कि झक्की है। कोई इसकी बात को ध्यान से सुनता नहीं। बाद में सब इसका नुक़सान करते हैं, आसपास के सभी हँसते और गालियाँ दते हैं...'

    'बच्चे कितने हैं...?' चौकीदार को इन बेकार की बातों में बहकता देखकर गोविंद ने सवाल किया।

    'उसी बात पर आता हूँ,' चौकीदार इत्मीनान से बोला, 'सच बाबू जी, मैं यह देख-देखकर हैरान हूँ कि इस उम्र तक तो इसने यह दौलत जुटाई है, अब इसका यह कमबख़्त करेगा क्या? लोग जमा करते हैं बैठकर भोगें, लेकिन यह राक्षस तो जमा करने में ही लगा रहता है। इसे जमा करने की ही ऐसी हाय-हाय रही है कि दौलत किसलिए जमा की जाती है, इस बात को यह बेचारा बिल्कुल भूल गया है।' फिर बड़े चिंतित और दार्शनिक मूड में दिलावर सिंह ने आग वाली राख को देखते हुए कहा, 'इस उम्र तक तो इसे जोड़ने की ऐसी हवस है, अब इसका यह भोग कब करेगा? सचमुच बाबू जी, जब कभी मैं सोचता हूँ तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। देखो, आज की तारीख़ तक यह बेचारा भाग-दौड़कर, लू-धूप की चिंता छोड़कर जमा कर रहा है। एक पाई उसमें से खा नहीं सकता, जैसे किसी दूसरे का हो। अब मान लीजिए, कल यह मर जाता है, तो यह सब किसके लिए जमा किया है? बेचारे के साथ कैसी लाचारी है—मरकर-जीकर, नौकर की तरह जमा किए जा रहा है, ख़ुद खा सकता है, देख सकता है कि कोई दूसरा छू भी ले, जैसे धन के ऊपर बैठा साँप; ख़ुद उसे खा नहीं सकता, खाने तो ख़ैर देगा ही क्या? उसकी रखवाली करना और जोड़ना...' और लाला रूपाराम के प्रति दया से अभिभूत होकर चौकीदार ने एक गहरी साँस ली। फिर दूसरे ही क्षण दाँत किटकिटाता हुआ बोला, 'और कभी-कभी मन होता है, छुरा लेकर साले की छाती पर जा चढ़ूँ, और मुरब्बे के आम की तरह गोदूँ। अपने पेट में जो इसने इतना धन भर रखा हे, उसकी एक-एक पाई उगलवा लूँ। चाहे ख़ुद खाए लेकिन, जिसे अपने बच्चों को भी खिला-पिला नहीं सकता, उस धन का क्या होगा?'

    'इसके बच्चे कितने हैं...?' इस बार फिर गोविंद अधीर हो गया। असल में वह चाहता था कि दार्शनिक उद्गारों को छोड़कर वह जल्दी-से-जल्दी मूल विषय पर जाए, लक्ष्मी के विषय में बताए।

    वर्णन में बह जाने की अपनी कमज़ोरी पर चौकीदार मुस्कुराया और बोला, 'इसके बच्चे हैं चार, बीवी मर गई, बाक़ी किसी नातेदार-रिश्तेदार को झाँकने नहीं देता, ऊपर तो कोई नौकर भी नहीं है। बस, एक मरी-मराई सी बुढ़िया पाल ली है; लोग बड़े भाई की बीवी बताते हैं। बस, वही सारी देखभाल करती है। और तो किसी को मैंने साथ देखा नहीं। ख़ुद के तीन लड़के और एक लड़की...।'

    'बड़े दो लड़के तो साथ नहीं रहते...' इस बार मिस्त्री बोला।

    'हाँ, वो लोग अलग ही रहते हैं। दिन में एकाध चक्कर लगा जाते हैं। एक जूतों का कारख़ाना देखता है, दूसरा साबुन की फ़ैक्टरी सँभालता है। इस साले को उन पर भी विश्वास नहीं है। पूरे काग़ज़-पत्तर, हिसाब-किताब अपने पास ही रखता है; नियम से शाम को वहाँ जाता है वसूली करने। लेकिन लड़के भी बड़े तेज़ है, ज़रा शौक़ीन तबीयत पाई है। इसके मरते ही देख लेना मिस्त्री, वो इसकी सारी कंजूसी निकाल डालेंगे।' फिर याद करके बोला, 'और क्या कहा तुमने?' साथ रहने की बात, सो भैया, जब तक अकेले थे, तब तक तो कोई बात नहीं थी, लेकिन अब तो उनकी बीवियाँ गई हैं न, एकाध बच्चा भी गया है घर में, सो उसे दिन भर गोद में लटकाए फिरता है। इसके घर में एक चंडी जो है न, उसके साथ सबका निभाव नहीं हो सकता।'

    एकदम गोविंद के मन में आया—लक्ष्मी। और वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठा। ‘कौन? लक्ष्मी!' उसके मुँह से निकल गया।

    'जी, हाँ, उसकी बदौलत तो यह सारा खेल है; वही तो इस भंडारे की चाबी है। वह होती तो यह ताम-झाम आता कहाँ से? उसने तो इसके दिन ही पलट दिए, नहीं तो था क्या इसके पास?' इस बार यह बात चौकीदार ने ऐसे लटके से कही, जैसे किसी रहस्य की चाबी हो।

    'कैसे भाई, कैसे?' गोविंद पूछ बैठा। उसका दिमाग़ चकरा गया। यह क्या विरोधाभास है? एक पल को उसके दिमाग़ में आया—‘कहीं यह रुपया कमाने के लिए तो लक्ष्मी का उपयोग नहीं करता? राक्षस! चांडाल!

    उसकी व्याकुलता पर चौकीदार फिर मुस्कुराया, और बोला, 'बाप तो इसका ऐसा रईस था भी नहीं, फिर वह कच्ची गृहस्थी छोड़कर मर गया था। ज़्यादा-से-ज़्यादा हज़ार-हज़ार रुपया दोनों भाइयों के पल्ले पड़ा होगा। शादियाँ दोनों की हो ही चुकी थीं। कुछ कारोबार खोलने के विचार से यह सट्टे में अपने रुपए दूने-चौगुने करने जो पहुँचा तो सारे गँवा आया। बड़े भैया रोचराम ने एक पनचक्की खोल डाली। पहले तो उसकी भी हालत डावाँडोल रही थी, लेकिन सुनते हैं कि जब से उसकी लड़की गौरी पैदा हुई, उसकी हालत सँभलती ही चली गई। यह उसी के यहाँ काम करता था, मियाँ-बीवी वहीं पड़े रहते। ऐसा कुछ उस लड़की का पाँव आया कि लाला रोचूराम सचमुच के लाला हो गए। इन दोनों के बड़े-बूढ़ों का कहना था कि लड़की उनके ख़ानदान में भगवान होती है। अब तो अपना लाला कभी इस ओझा के पास जा, कभी उस पीर के पास जा, कभी इसकी 'मानता', कभी उसका 'संकल्प'। दिन-रात बस यही कि हे भगवान, मेरे लड़की हो। और पता नहीं कैसे, भगवान ने सुन ली और लड़की ही आई। आप विश्वास नहीं करेंगे, फिर तो सचमुच ही रूपाराम के नक़्शे बदलने लगे। पता नहीं गड़ा हुआ मिला या छप्पर फाड़कर मिला, लाला रूपाराम के सितारे फिर गए...। इसे विश्वास होने लगा कि यह सब बेटी की कृपा है और वास्तव में यह कोई देवी है। इसने उसका नाम लक्ष्मी रखा और साहब, कहना पड़ेगा कि लक्ष्मी सचमुच लक्ष्मी ही बनकर आई। थोड़े दिनों में ही 'लक्ष्मी फ़्लोर मिल' अलग बन गई। अब तो इसका यह हाल है कि यह मिट्टी भी छू दे तो सोना बन जाएगा और कंकड़ को उठा ले तो हीरा दीखे। फिर गई लड़ाई और इसके पंजे-छक्के हो गए। इसे ठेके मिलने लगे। समझिए, एक के बाद एक मकान ख़रीदे जाने लगे। सामान लाने, ले जाने वाले ट्रक आए। इधर रोचूराम भी फल रहा था, और दोनों भाई गर्व से कहते थे—'हमारे यहाँ लड़कियाँ लक्ष्मी बनकर ही आती हैं।' लेकिन फिर एक ऐसा वाक़या हो गया कि तस्वीर की शक्ल बदल गई—’ चौकीदार दिलावर सिंह जानता था कि यह उसकी कहानी का क्लाइमैक्स है, इसलिए श्रोताओं की उत्सुकता को झटका देने के लिए उसने उँगलियों में दबी, व्यर्थ जलती बीड़ी को दो-तीन कश लगाकर ख़त्म किया और बोला:

    'गौरी शादी लायक़ हो गई थी। शायद किसी पड़ोसी लड़के को लेकर कुछ ऐसी-वैसी बातें भी लाला रोचूराम ने सुनीं। लोगों ने उँगलियाँ उठाना शुरू कर दिया तो उन्होंने गौरी की शादी कर दी। बस, उसकी शादी होना था कि जैसे एकदम सारा खेल उजड़ गया। उसके जाते ही लाला एक बहुत बड़ा मुक़दमा हार गया और भगवान की लाला देखिए, उन्हीं दिनों उसकी पनचक्की में आग लग गई। कुछ लोगों का कहना तो यह है कि घरेलू दुश्मन का काम था। जो भी हो, बड़े हाथी की तरह जो एक बारगी गिरे तो उठना दुश्वार हो गया। लोग रुपए दाब गए और उनका दिवाला निकल गया। दिवाला क्या जी, एक तरह से बिलकुल मटियामेट हो गए; सब कुछ चौपट हो गया और छल्ला-छल्ला तक बिक गया। एक दिन लाला जी की लाश तालाब में फूली हुई मिली। अब तो हमारे लाला रूपाराम को साँप सूँघ गया, उनके कान खड़े हो गए और लक्ष्मी पर पहरा बैठा दिया गया। उसे स्कूल से उठा लिया गया और वह दिन सो आज का दिन, बेचारी नीचे नहीं उतरी। घर के भीतर किसी को आने देता है, जाने देता है। मास्टर रखकर पढ़ाने की बात पहले उठी थी, लेकिन जब सुना कि मास्टर लोग लड़कियों को बहकाकर भगा ले जाते हैं तो वह विचार एकदम छोड़ दिया गया। लक्ष्मी ख़ूब रोई-पीटी, लेकिन इस राक्षस ने उसे भेजा ही नहीं लड़की देखने-दिखाने लायक़....'

    बात काटकर मिस्त्री बोला, 'अरे देखने-दिखाने लायक़ क्या, हमने ख़ुद देखा है। जिधर से निकल जाती है उधर बिजली-सी कौंध जाती है। सौ में एक...।'

    उसकी बात का विरोध करके, अर्थात् स्वीकार करके चौकीदार बोला, 'स्कूल में भी सुनते हैं बड़ी तारीफ़ थी, लेकिन सबकी साले ने रेड़ कर दी। उसे यह विश्वास हो गया कि लड़की सचमुच लक्ष्मी है और जब दूसरे की हो जाएगी तो इसका भी एकदम सत्यानाश हो जाएगा। इसी डर से तो किसी को आने-जाने देता है और उसकी शादी करता है। उसकी हर बात पर पुलिस के सिपाही की तरह नज़र रखता है। उसकी हर बात मानता है। बुरी तरह उसकी इज़्ज़त करता है, उसकी हर ज़िद पूरी करता है, लेकिन निकलने नहीं देता। लक्ष्मी सोलह की हुई, सत्रह की हुई, अठारह, उन्नीस...साल पर साल बीत गए। पहले तो वह सबसे लड़ती थी। बड़ी चिड़चिड़ी और ज़िद्दी हो गई थी। कभी-कभी गाली देती और मार भी बैठती थी, फिर भी मालूम नहीं क्या हुआ कि घंटों रात-रात भर पड़ी ज़ोर-ज़ोर से रोती रहती, फिर धीरे-धीरे उसे दौरा पड़ने लगा...'

    'अब क्या उम्र है?' गोविंद ने बीच में पूछा।

    'उसकी ठीक उम्र तो किसी को भी पता नहीं, लेकिन अंदाज से पच्चीस-छब्बीस से कम क्या होगी?' घृणा से होंठ टेढ़े करके चौकीदार ने अपनी बात जारी रखी, 'दौरा पड़े तो बेचारी जवान लड़की क्या करे? उधर पिछले पाँच-छ: साल से तो यह हाल है कि दौरे में घंटे-दो-घंटे वह बिलकुल पागल हो जाती है। उछलती-कूदती है, बुरी-बुरी गालियाँ देती हे, बेमतलब रोती-हँसती है, चीज़ें उठा-उठाकर इधर-उधर फेंकती है। जो चीज़ सामने होती है उसे तोड़-फोड़ देती है। जो हाथ में आता है, उससे मारपीट शुरू कर देती है, और सारे कपड़े उतारकर फेंक देती है। बिलकुल नंगी हो जाती है और जाँघें पीट-पीटकर बाप से कहती है, 'ले, तूने मुझे अपने लिए रखा है, मुझे खा, मुझे चबा, मुझे भोग...!' वह पिटता है, गालियाँ खाता है और सब कुछ करता है, लेकिन पहरे में ज़रा ढील नहीं होने देता। चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैठा-बैठा सुनता रहता है। क्या ज़िंदगी है बेचारे की! बाप है सो उसे भोग नहीं सकता और छोड़ तो सकता ही नहीं। मेरी तो उम्र नहीं रही, वर्ना कभी मन होता है ले जाऊँ भगाकर, होगा सो देखा जाएगा...।' और एक तीखी व्यथा से मुस्कुराता चौकीदार देर तक आग को देखता रहा, फिर धीरे से होंठ चबाकर बोला, 'इसकी बोटी-बोटी गर्म लोहे से दागी जाए और फिर बाँधकर गोली से उड़ा दिया जाए।'

    गोविंद का भी दिल भारी हो आया था। उसने देखा, बुड्ढे चौकीदार की गीली आँखों में सामने की बरोसी की धुँधली आग की परछाई झलमला रही है।

    आधी रात को अपनी कोठरी में लेटे लक्ष्मी के बारे में सोचते हुए मोमबत्ती की रोशनी में उसकी सारी बातों का एक-एक चित्र गोविंद की आँखों के आगे साकार हो आया और फिर उसने अंधकार की प्राचीरों से घिरी, गर्म-गर्म आँसू बहाती मोमबत्ती की धुँधली रोशनी में रेखांकित पंक्तियाँ पढ़ीं;

    'मैं तुम्हें प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ।'

    'मुझे यहाँ से भला ले चलो...।'

    'मैं फाँसी लगाकर मर जाऊँगी...।'

    गोविंद के मन में अपने-आप एक सवाल उठा—'क्या मैं ही पहला आदमी हूँ जो इस पुकार को सुनकर ऐसा व्याकुल हो उठा हूँ या औरों ने भी इस आवाज़ को सुना है और सुनकर अनसुना कर दिया है? और क्या सचमुच जवान लड़की की आवाज़ को सुनकर अनसुना किया जा सकता है?'

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिन्दी कहानी संग्रह (पृष्ठ 119)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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