जयपुर, राजस्थान
रीतिकाल के जैनकवि।
बलधन मैं सिंह ना लसैं, ना कागन मैं हंस।
पंडित लसै न मूढ़ मैं, हय खर मैं न प्रशंस॥
रोगी भोगी आलसी, बहमी हठी अज्ञान।
ये गुन दारिदवान के, सदा रहत भयवान॥
मनुख जनम ले क्या किया, धर्म न अर्थ न काम।
सो कुच अज के कंठ मैं, उपजे गए निकाम॥
अधिक सरलता सुखद नहिं, तेखो विपिननिहार।
सीधे बिरवा कटि गए, बाँके खरे हजार॥
बोलि उठै औसर बिना, ताका रहै न मान।
जैसैं कातिक बरसतैं, निंदैं सकल जहान॥
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