म्हारी नाव फँसी मझधार, सतगुरू तारे तो तरे।
नाव पुरानी वजन घनेरो, नहीं कोई खेवनहार।
सागर गेहरो मच्छ बढेरा, लेहरा घणो गुबार॥
खेतां-खेतां हाथ दूखिया, डांडो हुआ बेकार।
अणभौ काचो मारग भटक्यो, नी होवे निरधार॥
नाव तड़कगी डूबण आई, होवण लगी खुवार।
बड़ा भयानक मच्छ घिर आया, जीव हुओ घनच्चार॥
सतगरु साहिब तुरतां आओ, नाव लगाओ पार।
एक आसरो एक भरोसो, सतगुरू तारनहार॥
सतगुरू सायक नी होया, तद नाव नहीं उबरे।
सयना नाव फँसी मझधार, सतगुरू तारे तो तरे॥
मेरी नाव मझधार में फँस गई है। इसे तो अब स्वयं सद्गुरू ही उबार सकते हैं। नाव बहुत पुरानी हो गई है। इसमें पाप का भार है। कोई खेवनहार भी नहीं है। भवसागर बहुत गहरा है। इसमें बड़े-बड़े मच्छ (काम, क्रोध, मोह आदि) भी है। सागर में लहरें भी हैं, तूफ़ान (अनास्था, अविश्वास आदि) भी हैं। इसे पार लगाने में खेते-खेते हाथ दुखने लगे हैं। अनुभव कच्चा है। मार्ग भटक गया हूँ। कुछ निर्धारण नहीं कर पा रहा हूँ। नाव तड़क गई है, (शरीर जर्जर हो चुका है) डूबने लगी है। नष्ट होने वाली है। बड़े-बड़े मच्छों ने इसे घेर लिया है। जीव व्याकुल हो उठा है। हे सद्गुरू! आप शीघ्र आओ, मेरी नाव को पार लगाओ। मुझे उबार लो। अब तो मुझे केवल आपका ही भरोसा और आसरा रहा है। आप ही तारनहार हैं। जब तक सद्गुरू सहायक नहीं होंगे, तब तक नाव नहीं उबर सकेगी। हे सद्गुरू! मेरी नाव मझधार में फँसी है। आप इसे तारेंगे, तभी यह पार हो सकेगी।
- पुस्तक : संत सैन भगत (पृष्ठ 309)
- संपादक : अशोेक मिश्र
- रचनाकार : संत सैन भगत
- प्रकाशन : आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश
- संस्करण : 2013
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