Font by Mehr Nastaliq Web

गाँव तो थूक नहीं सकता था मेरी हथेली पर

ganw to thook nahin sakta tha meri hatheli par

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले

गाँव तो थूक नहीं सकता था मेरी हथेली पर

चंद्रकांत देवताले

और अधिकचंद्रकांत देवताले

    छुट्टियाँ होने से उन छुट्टियों की याद रही है

    दशकों पहले मैं नियमपूर्वक छुट्टियों में गाँव जाता ही था

    गाड़ियाँ बदलनी पड़ती थी खंडवा फिर इटारसी

    फिर बड़ी सुबह गाँव का टेशन आता

    आमला में ही शुरू हो जाती हड़बड़ी

    जागने और फिर बिस्तर-पेटी समेटने की

    गाँव के टेशन पर जैसे एहसान जताने दो मिनट को गाड़ी थमती

    और मशीन की फुर्ती से अम्मा और बाबूजी

    मुझे मय समान के प्लेटफ़ॉर्म पर धर देते

    मामा और मौसी का बेटा गोपीचंद

    नियमपूर्वक प्लेटफ़ॉर्म पर होते और बाहर

    सफ़ेद और चितकबरे से जुती बैलगाड़ी

    फिर गोपीचंद भैया बैलों को आर लगाता

    मुँह से अद्भुत आवाज़ें निकालता

    जिनसे मेरी आँखें फटी की फटी रह जातीं

    और चौकी फिर पीपल वाला मठ

    पटेल मामा का बग़ीचा और चक्की के मोड़ के साथ

    नथुनों में समा जाती गाँव की पहचानी गंध

    जाता पुश्तैनी घर

    जहाँ मैं छुट्टियों में आने को पैदा हुआ था

    दो दिन तो पाँव पड़ने जाने में ही बीत जाते

    आजी, मामा-मामी, काका-काकी, मौसी-बुआ

    और उम्र में बड़े तमाम भाई-बहन

    आज करता हूँ तो अचरज से भर जाता हूँ

    किसी विराट बरगद से कम नहीं थीं

    वंश-वृक्ष की टहनियाँ

    गाँव में इंदौर वाले होने का हमारा दबदबा

    रेलवे डिपार्टमेंट में सर्विस करने वाले पिता का बेटा

    परीक्षा देकर और अव्वल नंबर पे

    पास होकर आने वाला मैं

    मेरी चड्ढी और क़मीज़ के कपड़ों और उनकी काट को

    गाँव के दर्ज़ी काका चश्मा चढ़ाकर ग़ौर से देखते

    कभी फीते से नापजोख भी करते

    नाई मामा महीना ख़त्म होने के पहले ही

    कटिंग बनाने को बेताब रहते

    और इंदौर के नाइयों की दुकानों के बारे में

    ऐसे मुश्किल सवाल करते

    कि मैं चारों खाने चित हो जाता

    हाट के दिन मौसी ख़र्ची ज़रूर देती

    और मैं इंदौर वाला गोंड बाज़ार की भूलभुलैया में

    सम्मोहित-सा भटकता रहता

    मौसी कुटकी और चने की भाजी वाली दाल

    मिट्टी की हाँडी में ज़रूर से पकाती

    और मैं गाँव के उस घी को जी भर कूड़ता

    जिसके स्वाद को कभी भी तरसेगी दुनिया

    अपने पेड़ के कालू आम का स्वाद

    आज चालीस साल बाद भी मेरी ज़ुबान पर

    इस तरह बसा है जैसे अभी चूस कर निकली

    बिन रेशे वाली पतली गुठली मेरे हाथ में है

    जिसे फेंकने को जी नहीं करता

    कैरी-जामुन तोड़ते गन्ना चूसते

    मैं अपनी खेत की हदों को इस तरह देखता था

    जिस तरह किसी राजा ने भी

    अपने राज्य की सीमा को नहीं देखा होगा

    छुट्टियाँ ख़त्म होने के दस-पंद्रह दिन पहले से

    शुरू हो जाती हमारी पहुनचारी

    दिन में इस मामा के यहाँ रात उस बुआ के यहाँ

    फिर काका के इस तरह चलता रहता जीमने जाने का सिलसिला

    सभी जगह सिमैया, अमरस, कुरड़ई, भजिए तो होते ही

    कबीट, कैरी की चटनी बस बदल जातीं सब्ज़ियाँ

    सबसे ख़तरनाक यादगार और सौग़ात भरा

    साबित होता गाँव से लौटने का दिन

    जब हमेशा धुत्त रहने वाले एक मौसा और बेहद कंजूस काका

    भी मुझसे प्यार से बतियाते और पाँव छूते ही

    मेरी हथेली पर चाँदी का एक कलदार रख देते

    अब तक है मेरे पास सुरक्षित पराधीन दिनों का स्मरण कराते

    1914, 1921, 1932 की आग में ढले हुए सिक्के

    रात तक मेरे पास कितनी ही

    दुअन्नी, चवन्नी और इकट्ठी हो जातीं

    जिन्हें मैं बार-बार गिनता और शहर पहुँचकर

    उनको ख़र्च करने के बारे में मंसूबे बनाता

    इस शाम आरती के वक़्त मठ में जाना ज़रूरी होता

    एक नाम ओंकार का जाप करता फिर अमरदास बाबा का चेला

    परसाद के साथ दुअन्नी या चवन्नी थमा देता

    सबसे करुण होती विदा

    माँ एक-एक से गले मिलकर सचमुच रोती

    सचमुच के रोने की आवाज़ सुनसान और

    रात के अँधेरे में देर तक मँडराती रहती

    आते वक़्त फिर सबके पैर छूने होते

    आजी, मौसी और बुआ मेरी नन्ही हथेली को पकड़कर खोलतीं

    और उस पर प्यार से थूक देतीं

    जिसके बारे में बताया जाता

    इससे भूलते नहीं और ज़िंदगी भर याद बनी रहती

    लौटते वक़्त असबाब बढ़ जाता

    गुड़, कुटकी, सावाँ, घी, कुरड़ई, चने और मेथी की सूखी भाजियाँ

    मेरी नज़र और चौकसी में रहती चारोली की पोटली

    जिसे सुखिया गोंडन मामी से पसेरी के नाप ख़रीदा गया होता

    फिर रवाना होती बैलगाड़ी

    पुश्तैनी घर के ओझल होते ही

    कंठ रूँध जाता आँखें भर जातीं

    अँधेरे में देखता नहीं दिखते शिनाख़्त के ठिए

    प्लेटफ़ॉर्म पर हम ही होते जाने वाले

    पिताजी स्टेशन मास्टर से कुछ कह कर आते

    और हमारे गाड़ी में ठीक-ठाक चढ़ जाने के बाद ही

    हरचरण काका ड्राइवर को टेबलेट पहुँचाते

    उस वक़्त हम इतना बड़ा समझते अपने को

    जितना आज रेलमंत्री के लिए भी संभव नहीं होगा

    फिर पहाड़ों-बोगदों और नर्मदा को लाँघते जाता इंदौर

    होल्करों का पुराना चंद्रभागा नदी और छतरियों वाला

    सजे-धजे ताँगा साइकिलों और ओवरब्रिजों वाला इंदौर

    जो अब कहीं नहीं है

    दिन गुज़रते परीक्षा पास आती

    और शुरू हो जाता छुट्टियों का इंतज़ार

    आजी का कपास जैसा झुर्रियोंदार चेहरा

    और चाँदी की तरह चमकते बाल याद आते

    मदन, बब्बू, त्रिभुवन के साथ रेल पटरी के किनारे भटकना

    छिपकर सिगरेट धुनकना

    कुएँ पर मोट चलाना हाँकना बैलगाड़ी

    और जी.टी. की तेज़ रफ़्तार देख दंग रह जाना याद आता

    याद आते पत्थर नसीब कूटते चेहरे

    धूसर कपड़े और पेड़ों में छिपे जौलखेड़ा की गंध

    याद आती जो पृथ्वी पर और कहीं नहीं हो सकती

    चौंक जाता सुनकर पटेल मामा की शेर जैसी दहाड़

    तभी दिखती बुआ की बेटी गुणवंती

    तब दुनिया की सबसे सुंदर लड़की वही थी

    गाँव तो थूक नहीं सकता था मेरी हथेली पर

    पर उसकी याद अमृत बुझे काँटे की तरह

    मेरी आत्मा में गड़ी है

    चक्की के मोड़ तक आए

    विदा देते सभी चेहरे

    मेरी आँखों में मँडरा रहे हैं

    मेरे ख़ून में तैरती है

    पुरानी स्मृतियों की अनगिन नन्ही कश्तियाँ

    जिनमें सवार सभी लोगों से

    मेरी इतनी-सी विनती है

    काँटे कोई नहीं निकाले

    इन कश्तियों को

    कोई मत डूबने दे!

    स्रोत :
    • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 165)
    • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

    संबंधित विषय

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए