कविते! ऐ कविते!!

kawite! ai kawite!!

श्री श्री

श्री श्री

कविते! ऐ कविते!!

श्री श्री

और अधिकश्री श्री

    कविते! कविते!!

    अपनी उस तरुण अरुण आशा के

    कल कोमल सुम समान

    गीतों की सीमा में

    तुझ को जब मैं

    इक मंगल मुहूर्त में

    दूरी पर नभ पथ पर

    अति सुंदर नव रथ पर

    चलती जो इठलाती

    अलभ्य सुंदरता सी

    समझा था—

    जीवन तपमय करके

    तुझे खोजते पलपल में

    नशे विकल में

    जिधर दृष्टि डाली मैंने—

    अलंकार की चपलाओं से

    मीठे माया झंकारों से

    उलझी तेरे उन रूपों की धाराओं से

    वंचित हो कर,

    निज गह्वर में तम सागर में

    एकाकी बन तड़पाते मन

    दिन बिताए?

    तेरे बल की नव आशा में

    तेरे दीक्षित शिक्षित

    तपसमीक्षा में

    निश्चल समाधि वीक्षा में

    डुलती मेरी धिषणा भर में

    जो जो गर्जन औ’ भाषाएँ

    दुश्य लोक भी सूझे मुझको,—

    देखा मैंने चित्र विचित्रित—

    श्यमंतमणि का प्रभा-निवह जो,

    मेरा गायन जिस जीवन में

    पा पाया था, प्राण स्पंदन

    तेरे निमित्त मेरे भावित

    स्वर थे जो-जो

    मन भर में उनमन बन

    करते रणमण विविध नाद जो,

    अंधकारमय अर्धरात्रि में

    उमड़ घुमड़ जब बरसे बादल

    प्रचंड झंझा पवन गमन से

    कल्लोलित सागर लहरों में

    ध्वनित हुई शंख-ध्वनि भेरी ध्वनि जो,

    उसी रात में हुई—

    घने वनों के लयातीत गर्जन का

    भयद जंतुओं का ध्वान्

    भूचालन प्रभुतापतन

    क्रांति तथा भीषण रण

    सारे वे तेरे चेतन!

    तेरे विश्व रूप के सम्मुख दर्शन!!

    फिर तेरी स्मृति में वे चित्र दिखाई देते,

    वे भाष्य सुनाई देते-

    पावक-सर में खिले बज्र के साज!

    उड़ते लोहे के बाज!

    तोपों का भेरी स्वर

    ध्वनित हुआ जिसमें ज्वर!

    फिर मैं वह सुन पाया था—

    अर्धरात्रि की निद्रा में

    तभी प्रसूत निज शिशु को

    सीने से लिपटा कर

    सुंदर स्वप्नों के दर्शन करती

    युवती के मनोलोक के आवर्तन!

    शिशु की विचित्र निद्रा में

    प्राचीन स्मृतियों के डुलने के स्वन!

    अस्पताल में

    शस्त्रधार के इंद्रजाल में

    जन्म-मरण के सांध्यकाल में

    मीलित नयनों के

    पीड़ित रोगी के

    रक्तनाल संस्पंदन!

    गंदी नाली में फिसला हो कर

    हिलने-डुलने का बल खो-खो कर

    पड़े पियक्कड़ का

    अर्ध चेतनामय आलाप, प्रलाप!!

    खंड-खंड दिल करने वाली

    गणिका की गर्हित रति में

    अर्ध निमीलित नयनों में स्थित

    भय बाधा मय गीतों की धुन!

    फाँसी पर लटके कपाल से

    कथित हुआ गुप्त तत्व!

    उन्मादी की मनस्विनी वाली

    घूक भेक कृत भयद ध्वान!

    हड़ताल चलाते कुलियों की

    उनके परिवारों की

    धधक भभकती भूख प्यास की

    अंधकारमय ज्वालाओं की

    हाय-हाय वह आर्तनिनाद!

    एक लाख तारों के वाचन!

    एक कोटि जलपोतों के गायन!

    कोटि-कोटि सागर लहरों के बाजन!

    सुन पाया था-माँ!!

    सब कुछ सुन पाया था!

    सुन पाया मैंने जो कुछ

    दुनिया में देखा जो कुछ

    समझाने बैठा था जब

    शब्दों की खोज हुई तब—

    वे पुंखित बन कर

    मरघट जैसे कोशों का उल्लंघन कर,

    व्याकरणों की जंजीरों का छेदन कर,

    छंदबंधन के सर्पालिंगन से

    विमुक्त बन कर,

    तेज़ी से द्रुत गति से

    निकले—छूट पड़े!

    फिर मेरे दिल में क़दम रखे!

    उस—

    तूफ़ानी हलचल करते

    प्रलय काल घहराते झरते परिवर्तन में

    ना जाने, मैं किन राहों पर

    क़दम बढ़ाता चला निरंतर!

    मेरे निर्मित गायन में

    प्रक्षालित मेरा पाप पुंज

    जब मेरा मन प्रमुदित करता,

    तब तेरे निमित्त अपने जागृत

    सकलेंद्रिय समूह से

    क्या दर्शन पाता था!

    क्या लिखता जाता था!

    किस निर्विकल्प समाधि में मेरा चेतन

    निर्वाण यान अपनाया था!!

    वैसे, मेरे मन मंत्रित कर

    सम्मोहित कर

    बढ़ती उस गांधर्व रीति के,

    तारागण की मधुर प्रीति से

    निकली उस संगीत गीति के—

    मेरी नस-नस के तारों से निकले

    नाद वेद परिचुंबन में—

    प्राणावसान वेला में जनित

    नाना गान स्वानों से वलयित जीवन को

    प्रवल गरुत्परिरंभण में पकड़ा गायन!

    सुख दुःखों के द्वंद्वातीत

    अमोघ अचिंत्य अमेय

    एकाकी अद्वितीय

    पल भर की फिर भी शाश्वत

    दिव्यानुभूति ब्रह्मानुभूति पैदा करती,

    मेरे मन में मधुरस भरती

    कवन घृणी! रमणी!!

    कविते! कविते!!

    या तो मेरे मात गर्भ में

    निराकार हो निद्रित मेरा

    अहंकार बन बैठा जब भूखा-प्यासा,

    या मेरे बाह्य आंतरिक इंद्रिय गण में

    प्राण वायु जब फूँक पड़ी,

    फिर, वसुधा पर आने पर

    सुख दुःखों का अनुभव करता

    विपुल जगत में महापथिक बन

    महाभ्रमण बन

    व्याकुल जब मैं करता विचरण,

    तब, अभय हस्त से अपना लेकर

    मेरा जीवन करती पावन

    कविते!

    ललित-ललित करुणाकलिते!

    अनुपमिते! अपरिमिते!

    कविते! कविते!!

    क्या अब तू मेरे ऊहांचल के

    साहस रूपी बाहुमूल पर

    फैली मेरी आहें सुनती?

    आशा है—

    मैं लिख दूँगा—

    निज लेखन मेंI

    जगती की परछाई फैलाकर,

    अपना तप सफल बनाकर,

    निज गायन हर दिल में घूर्णित कर,

    निज जाति प्रजा का

    उद्गायक मंत्रराज-सा

    झनझन कर झंकृत कर,

    अपने आकाशों का

    जग-समीप विचरण कर

    अपने आदर्शों का

    भ्रातृ भोग्य मणिगण कर

    पाए जाते, कभी मिलते तेरे

    चेलांचल के स्पंदन की

    मंद-मंद मारुत गति से

    निर्मित निज शब्दचित्र

    सुंदरतर तेरा मंदिर कर,

    अपने गायन को

    तेरा भोग बनाकर

    आत्मार्पण-सा

    अर्पण कर बैठूँगा

    मेरे फैलाने से

    प्रसारित रस-कुसुम-पराग!

    रसधुनि! मणिखनि! जननी!

    कविते! कविते! कविते!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 26)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : श्री श्री
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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