चिरंजीव मानव को मृत्यु का पत्र

chiranjiw manaw ko mirtyu ka patr

आरुद्र

आरुद्र

चिरंजीव मानव को मृत्यु का पत्र

आरुद्र

और अधिकआरुद्र

    निर्दिष्ट भावों को

    वाक्य पहुँचाया नहीं करते।

    बार-बार बजे हुए

    ग्रामोफ़ोन रेकार्ड के समान

    शब्द अर्थ की प्रेरणा नहीं देते।

    विशाल लोक रूपी सर्कस के भीतर

    शिक्षा

    सरकारी नौकरियों की रस्सी पर

    कलाबाजियाँ नहीं कर पाती

    अधिकार के चुंबक क्षेत्र में

    विज्ञान

    घड़ी-सा नहीं चलता।

    साइंस

    समस्याओं का परिष्कार नहीं करता।

    गणित

    आधिक आहार का उत्पादन नहीं करता

    लाल फीते के ऊसर-क्षेत्र में

    स्वतंत्रता नहीं उपजती।

    अदालत के समय तक वकील के मुंशी के घर

    ऊखली में चटनी नहीं पिसती

    किराने की दुकान में साहूकार

    उधार नहीं देता

    चिरंजीव मानव

    यह विष्कंभ है !

    आदि मानव का

    स्रवित भय

    प्रवहित है तुममें!

    आदि मानव के मस्तिष्क में

    कर में, चीख़-पुकार में

    उत्पन्न अंधकार

    भ्रम में डाल रहा तुम्हें!

    जो दीखता

    सचमुच

    उसे तुम समझ नहीं पाते!

    (केवल आकार देखते हो)

    आकार-रहित को देख नहीं पाते

    'कल' को चिह्न नहीं पाते

    अपने को ही पहचान नहीं पाते

    तुम्हारी आँख की पुतली है

    पंचवर्षीया मुन्नी!

    उद्दिष्ट भावों की पुतली को

    वाक्य दाढ़ी और मूँछ लगाते हैं!

    बंदूक़ें खुलेआम

    मानवों की अवहेलना करती हैं

    विशाल लोक रूपी सर्कस में

    नियंताओं के मुख में

    प्रजा-जीवन कुतरा जाता।

    साइंस कठिन समस्याओं को

    दोनों हाथों से

    निरंतर ही उत्पन्न करता।

    गणित मानव की आवश्यकताओं की

    पाठशाला को डुबा देता।

    शिक्षा

    अस्वस्थता के कारण

    अवैतनिक छुट्टी लेती,

    विज्ञान अफ़ीम और तेल को

    घोल कर निगल जाता।

    विद्यालय के शौचालयों में

    कोक-शास्त्र के पाठ,

    वकील के मुंशी की

    रिश्वत दुगुनी हो जाती,

    किराने की दूकान में भाव

    नाराज़ होकर स्वयं अपने-आप से गुणा कर लेते,

    चिरंजीव मानव!

    यह प्रलय है!

    आदि मूर्ति 'लिबिड़ों' में

    घनीभूत काम

    पिघल रहा तुममें

    उसकी आँखों में,

    आलिंगन में,

    चीख़-पुकार में

    अवस्थित भूख

    चकित कर रही तुम्हें

    जो हो रहा सचमुच

    उसे नहीं देख सकते

    आधार-राहित्य को जमा नहीं कर सकते

    'आज' को बदल नहीं सकते

    अपने आप को पहचान नहीं पाते

    तुम्हारा अव्यक्त

    वह है प्रातः कालीन दंडक-कानन।

    एक शब्द में सिमट सकने वाला अर्थ

    कतिपय वाक्यों के विस्तार पर

    दुराक्रमण करता है।

    ताश के पत्ते भविष्य के

    निर्माण का प्रयत्न करते हैं।

    घोड़े मज़दूरों के भत्ते पर

    मोटे हो जाते हैं।

    विशाल लोकरूपी सर्कस के भीतर

    चुभोई गई

    हर तलवार

    पेटी में बंद तुम्हारे आशयों की युवती

    के स्तनों में चुभ जाती है।

    एवरेस्ट शिखर की जगह

    मशहूर सिने-अभिनेत्री के

    वेतन को नापने

    (जानने के लिए )

    ख़ास बटालियन निकल पड़ती है।

    अवकाश प्राप्त अभिलाषाएँ

    सभी

    नौकरी के लिए

    फिर से आवेदन-पत्र भरती हैं।

    विद्यार्थियों के मनी-ऑर्डर

    चकलों की ओर पहुँचते हैं

    लाल फीताशाही अविच्छिन्न

    शासन करती है।

    लाल झंडा पश्चिमांचल के पीछे

    छिप कर

    छद्मवेष रचना की

    तैयारी करता है।

    हल की रेखाओं में

    मज़दूर नेताओं की खोपड़ियाँ

    मिलती हैं।

    बारह पैग पी चुकने के बाद

    विशेषज्ञ वर्ग ख़तरे का

    आभास पाते हैं।

    विदेशी संबंधों का विभाग

    पत्रकारों के प्रश्नों की झड़ी से

    सुरक्षित रूप से बच कर

    अपने आप में

    तर्क-कुतर्क करता है।

    अफ़वाहों के भारी उद्योग पर

    'सुपर टैक्स' को अनावश्यक बताने वाला

    व्यापार-संस्थाओं का विशिष्ट मण्डल

    सफल हो जाता है।

    झूठ के विक्रय के व्यापार का

    सरकारें

    राष्ट्रीयकरण कर देती हैं।

    वकील के मुंशी की

    सातवीं लड़की जनमती है,

    किराने की दूकान की सामग्री

    'ब्लैक' में दौड़ती है,

    सीधे-सादे जीवन पर

    परदा टूट गिरता है

    चिरंजीव मानव!

    यह नरक है।

    आदिम मानव की भूख में

    उसके विचारों के कौशल में

    सद्यः दृष्टिगत गुर

    वरदान दे रहा तुम्हें।

    तुम्हारा चैतन्य यही है।

    अवसर यही है।

    चिरंजीव मानव!

    त्वमेवाऽहम्।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 104)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : आरुद्र
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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