हवा की बाँहें पसारे
hawa ki banhen pasare
हवा की बाँहें पसारे,
नदी दौड़ी आ रही है
शीत के कोमल झकोरों
लदी दौड़ी आ रही है
मैं कछारों से बहुत पहले, कगारों पर खड़ा हूँ
धार की बाँकी चमक से हत, वहीं जैसे गड़ा हूँ
किंतु कोई हाथ मेरा, चीर गहकर खींचता है
या कि बिछुड़े मीत जैसा, वक्ष लगकर भींचता है
यह नई संभावना की
सदी दौड़ी आ रही है
एक क्षण में नींद जैसे, उचटती है, जागता हूँ
मैं हवा के हाथ अपने हाथ देकर भागता हूँ
और बालू की मुलायम ढेरियों पर पाँव रखता
मछलियों के बीच जाता हूँ, सुबह की धूप चखता
कंठ में यह कौन-सी
चौपदी दौड़ी आ रही है
- पुस्तक : यह कैसी दुर्धर्ष चेतना (पृष्ठ 86)
- रचनाकार : कृष्ण मुरारी पहारिया
- प्रकाशन : दर्पण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
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