भीतर कहीं हिलोरे लेता, निर्मल पानी केन का
bhitar kahin hilore leta, nirmal pani ken ka
कृष्ण मुरारी पहारिया
Krishna Murari Pahariya
भीतर कहीं हिलोरे लेता, निर्मल पानी केन का
bhitar kahin hilore leta, nirmal pani ken ka
Krishna Murari Pahariya
कृष्ण मुरारी पहारिया
और अधिककृष्ण मुरारी पहारिया
भीतर कहीं हिलोरे लेता, निर्मल पानी केन का
छंद तैरता जिसके तल पर, जैसे गुच्छा फेन का
चपल मछरियाँ मथे डालतीं, भीतर उठती पीर है
मंथर गति से धारा बहती, नदिया कुछ गंभीर है
चट्टानी जबड़ों जैसे तट, और बीच में खाइयाँ
जितना विष पीती बस्ती का, नीलातीं गहराइयाँ
आभारी मैं और गीत भी, इस अनहोनी देन का
किरणें पीकर खिल-खिल करती, फिर क्रीड़ा को टेरती
कुछ ऐसी बंकिम चितवन से, यह योगी को हेरती
खिंचा चला जाता हूँ जैसे, बिन दामों का दास हो
या फिर पिंजरे के पंछी को, मिला खुला आकाश हो
बिना तुम्हारे कैसे सधता तप, ओ प्यारी मेनका
- पुस्तक : यह कैसी दुर्धर्ष चेतना (पृष्ठ 69)
- रचनाकार : कृष्ण मुरारी पहारिया
- प्रकाशन : दर्पण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
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