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सिलसिला

silsila

वनिता

वनिता

सिलसिला

वनिता

और अधिकवनिता

    साहिल पर ठहरा तैराक मछुआरा

    मछुआरा है

    मछली है

    समंदर है

    तैराक देखता तैरती मछली को

    छलाँग लगाता है

    डूबता नहीं वह तैरना जानता है

    मछली के पीछे दौड़ता है

    मछली तैरती है

    पीछे देखती है

    लेकिन अपनी लटक-मटक के साथ

    रंगीन, सुनहरी, मछली

    आगे बढ़ती है

    तैराक साहस दिखाता है

    आँखें सिकोड़ता है

    अपनी बाँहों का कसाव जकड़ता है

    उसे चूमता

    आँखें खोलता है

    मन उदास होता है

    हारने का अहसास पाता है

    जकड़न टूटती है

    डूबने का ख़तरा होता है

    मछली समुंदरी राह में

    अनेक अठखेलियाँ करती हैं

    देखती, मचलती है

    कभी बहुत नीचे उतर जाती

    कभी जल से ऊपर उछलती आती

    और फिर जल में ही लुप्त हो जाती

    तैराक मछुआरा

    जाल, खूँटा साथ रखता है

    तैरता, मछली पकड़ता

    लेकिन

    किनारे की ओर लौटता है असफल

    मछली आतुर, व्याकुल

    लचकदार और चंचल भी

    तलाश में है, आस में है

    मछली आगे बढ़ती, कुछ देखती है

    दूर तक अपनी आँख से

    मन और आत्मा से कुछ तलाशती है

    सागर में जीवित

    घूमती, थिरकती है

    और तैरती है

    सागर देखता है लीला

    कभी ख़ामोश रहता, लहर हो जाता है

    कभी भँवर, कभी प्रवाह बन जाता

    कई रंग दिखाता है

    सागर क्या चाहता है?

    तिलिस्म नहीं

    मछली क्या चाहती तैर रही

    कुछ समझ में आता है?

    मछुआरा क्या चाहता है?

    समझ तो आता, पर पकड़ में नहीं

    और पकड़ में भी जाए तो

    जकड़ में नहीं रहता

    और क्रम यों ही

    गा

    ता

    बना है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 553)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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