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चंद्र नदी

chandr nadi

लमाबम कमल सिंह

लमाबम कमल सिंह

चंद्र नदी

लमाबम कमल सिंह

और अधिकलमाबम कमल सिंह

    दिख रहा दूर यह पर्वत कितना सुंदर!

    अभिनव मोहक आकर्षक,

    शांति भरी उठ रहीं हिलोरें।

    बढ़ा-चढ़ा है नील-गगन से!

    जा मिला क्या नील-गगन से यह?

    देखने से एक बार,

    हटती नहीं दृष्टि,

    लेकिन क्या सचमुच है यह उसका रंग?

    नहीं, निकट जाने पर होगा दृष्टिगोचर।

    भरा हिंस्र पशुओं से, घना

    जंगल है कँटीली झाड़ियों भरा,

    तनिक सी दूब भरी भूमि समतल

    कारुणिक है चंद्र नदी के समीप का दृश्य!

    परिणत हुआ नदी तट भी जंगल में

    छा गई है घास भीतर तक,

    लेकिन प्रवहमान है धारा इतिहास की नीचे भूमि के।

    एक समय था, तीव्र धारा उसकी,

    उखाड़ फेंकती थी तट के पेड़-पौधे

    अब फाल्गु गंगा-सी

    छोड़कर जल की धारा

    गुप्त प्रदेश में हृदय के भीतर ही भीतर

    है प्रवहमान दुख की धारा चुपचाप।

    नहीं मिलती देखने को यह धारा किसी को।

    ले काँचीपुर का कारुणिक संदेश,

    अहर्निश, निरंतर

    बह रही अंधकार-समुद्र की दिशा में

    गंतव्य था लोकताक पूर्ववर्ती जलधारा का,

    अब उसका है गंतव्य असीम अंधकार-सागर।

    तेजस्वी वह कौन, खड़ा हो पराए के तट

    सन्नद्ध स्नान हेतु, देखता तृषित दृष्टि से।

    है नदी मातृभूमि में भी विचारते जिसे सूखी धारा वाली,

    खोदें एक बार, देखें निसृत जल।

    मिलेगा निर्मल जल, यदि करें उसमें स्नान,

    पाएँगे शांति देह-प्राण, कितना उल्लसित होगा मन!

    रोपें तट पर पुष्पादि, घाट पर बनाएँ पक्की सीढ़ियाँ,

    स्नान कर सकेंगे दुर्बल-स्वस्थ सब!

    भाग मातृभूमि से प्राण ले हथेली पर,

    जाते धनोपार्जन को, संकटापन्न स्थानों पर,

    अमूल्य यश भूमि में इसी अपनी

    है गड़ा, खोजें खोदकर हे तेजस्वी!

    स्रोत :
    • पुस्तक : कमल : संपूर्ण रचनाएँ (पृष्ठ 58)
    • संपादक : देवराज
    • रचनाकार : कमल
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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