मैं आज ब्रह्ममुहूर्त से ही पी रहा हूँ
चार दिन बाद होली है और आज मेरी रिटायरमेंट सेरेमनी
आज दौ सौ रुपए देकर दो ढोल वाले बुलाए जाएँगे
जो जहाँ कहा जाएगा वहाँ बजाते रहेंगे
आगे की पंक्ति में स्टाफ़ की सारी महिलाएँ बैठी होंगी
चटक रंग पहने हुए, चटक रंग वाली ऊन के स्वेटर बुनते हुए
कुछ कम उम्र की महिलाएँ सेलफ़ोन के माध्यम से
कान में इयरफ़ोन लगाकर एफ़एम सुनती रहेंगी
बाक़ी के कर्मचारी यहाँ-वहाँ बैठे होंगे, टहलते होंगे
इस दौरान ढोल और सेलफ़ोन बराबर बजते रहेंगे
मैं एक गाना गाऊँगा ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश...’
कुछ देर तक सचिव जी का इंतज़ार होगा... वे नहीं आ पाएँगे
मेरे कामयाब बेटों की तरह, हालाँकि मेरी बहुएँ आएँगी
और कुछ कहने के लिए कहे जाने पर कुछ नहीं कहेंगी
मेरी पत्नी और आगे की लेन में बैठी स्टाफ़ की सारी महिलाओं की तरह
स्त्रियों के पास कहने के लिए वैसे भी बहुत कम होता है
और बड़बड़ाने के लिए बहुत ज़्यादा
लेकिन मेरी पाँच वर्ष की पोती ज़रूर अपनी बेहद धीमी आवाज़ में
‘ऐ दिल ये बता दे तू किस ओर चला...’ गाएगी
स्टाफ़ का एक तथाकथित कवि भी
संदर्भ से हटकर एक ग़ैरज़रूरी चीज़ सुनाएगा
और बार-बार गालियों के साथ हूट होगा
इसके बाद एक चैक, एक शाल, एक स्मृतिचिह्न, कुछ तालियाँ, कृत्रिम धन्यवाद
और मुझसे ‘दो शब्द’ कहने का औपचारिक निवेदन
लेकिन मेरे पास कहने को इतना कुछ है
कि मैं अगर दो शब्द भी कहूँगा
तब भी वे पैंतीस वर्ष लंबे हो जाएँगे
लेकिन मैं कहूँगा दो शब्दों को बहुत पीछे छोड़ते हुए
एक पैंतीस वर्ष लंबा वाक्य...
मैं सबसे पहले और सबसे अंत में
वहाँ उपस्थितों और अनुपस्थितों सबसे क्षमा माँगूँगा
क्योंकि बेशुमार ग़लतियाँ की हैं मैंने यहाँ रहते हुए
इसलिए मुझे माफ़ कर दीजिए
और मेरे दीर्घायु होने की कामना कीजिए
मैं शाकाहार की वक़ालत करूँगा यह कहते हुए कि मटन मेरी कमज़ोरी है
मैं बताऊँगा कि बढ़ता हुआ मोटापा मेरे लिए कभी कोई समस्या नहीं रहा
हँसने के लिए मुझे कभी लॉफ़्टर क्लबों की ज़रूरत नहीं पड़ी
सुबह की ताज़ी हवा जो काम पर जाते समय लग गई सो लग गई
मैंने कभी बहुत जल्दी उठकर व्यायाम करते हुए
उसे पार्कों में पकड़ने की कोशिश नहीं की
मैंने ‘योगा’ को नहीं भोगा
और अगरबत्तियों और टूटे हुए फूलों में भी
मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही
साहित्य को मैं दूर से सलाम करता हूँ
संगीत, रंगमंच और सिनेमा से भी मैं ऊब चुका हूँ
और अख़बारों को उनकी सुर्ख़ियों से ज़्यादा कभी नहीं पढ़ पाया
मैं ख़ुद को उन सभी उद्धरणों से बचा ले गया जो मेरे नहीं थे
मैं आज के बाद क्या करूँगा यह मैं ख़ुद भी नहीं जानता
हालाँकि मेरी धर्मपत्नी मेरे साथ चार धामों, ज्योतिर्लिंगों, तिरुपति,
शिरडी, वैष्णो देवी, अमरनाथ और कैलाश मानसरोवर तक जाना चाहती है
लेकिन कमबख़्त ये छूटती नहीं मुँह से लगी हुई
और कौन जाए अब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर
ऐसे प्रदीर्घ वाक्य के बाद सारे स्टाफ़ की तरफ़ से मुझे
पंद्रह लीटर का एक मयूर जग प्रदान किया जाएगा
इस बीच ढोल के दो सौ रुपए वसूल होते रहेंगे
और आगे की पंक्ति में बैठी हुई औरतें सेलफ़ोन पर पतियों से झगड़ती रहेंगी
‘बैगन के भर्ते और आलुओं को चिप्स में इस्तेमाल किया जाए या परौठों में’
इस गंभीर बात को लेकर...
और फिर ‘डानस’ होगा
मैं देर तक नचाया जाऊँगा
रंग और गुलाल की रस्में निभाई जाएँगी
गुझियों, जलेबियों, समोसों और ठंडाई का जलपान होगा
और इस तरह जाना कुछ आसान होगा
और इससे ज़्यादा क्या होगा आज मेरी रिटायरमेंट सेरेमनी में
यही सब सोचकर आज ब्रह्ममुहूर्त से ही पी रहा हूँ
- रचनाकार : अविनाश मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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