युद्धोपरांत
वीर रस का कवि सम्मलेन था
मंच के थे
बहुत ही ठाठ-बाट
वीर रस के कवि बैठे थे
लगभग साठ
मैं ख़ुश हुआ
साठ कवियों की पूरी प्लाटून
भई क्या बात है!
आज की रात तो
पाकिस्तान के लिए
‘क़हर की रात’ है!
फिर आशंकित हुआ
साठ कवि...
वो भी एक ही रस के
भगवान बचाए
जो लड़ाई इनकी
आज पाकिस्तान से होनी है
कहीं वो इनमें
आपस में ही न छिड़ जाए!
साठ-आठ कवियों ने तो
कर रखा था
संचालक का घेराव
एक कवि बोला
देता हुआ मूँछों को ताव—
‘पहले कविता पढ़ने
मैं जाऊँगा
क्योंकि
यदि किसी और कवि ने पाकिस्तान
पहले ही निपटा दिया
तो मैं क्या बाद में
झुनझुना बजाऊँगा?’
पर कवियों ने
श्रोताओं में
ऐसा जोश भर दिया
कि पहले कवि की
कविताओं की बमबारी ने ही
पाकिस्तानी को अधमरा कर दिया
पूरा मंच बन गया था बंकर
सभी कोसने लगे पाकिस्तान को जमकर
एक कवि अभी भी पुराने ज़माने के
ख़यालों में झूम रहा था
मिसाइलों के युग में
पाकिस्तान के ख़िलाफ़
‘तलवार’ लिए घूम रहा था
एक कवि ने पाकिस्तान को
बंदूक़ से,
तो एक ने तोप से उड़ाया
एक कवि तो शायद
अर्थशास्त्री था
उसने एक पैसा भी ख़र्च नहीं किया
पूरा पाकिस्तान
‘फूँक’ से ही उड़ा दिया
अब जो कवि आया
उसने अपना एक हाथ कमर पर लगाया
दूसरा हाथ एक दिशा में
उँगली करके उठाया
फिर ज़ोर से चिल्लाया—
‘सुन ले पाकिस्तान, सुन ले!!!
मैं चकराया...
अबे ये क्या क्लेश है
जिस दिशा में
ये कवि उँगली उठा रहा है
उस दिशा में तो
बंगलादेश है
इसे कविता को
ग़लत दिशा में नहीं सुनाना चाहिए था
ये वाला हाथ पीछे करके
दूसरे वाला उठाना चाहिए था
कवि फिर चिल्लाया—
‘सुन ले पाकिस्तान, सुन ले...'
एक श्रोता खड़ा होकर बोला—
'अबे क्या और किससे कह रहा है
पाकिस्तान तो
जन्मजात बहरा है’
पर कवि ने उस श्रोता की नहीं सुनी
और इस बार वाक्य बदला—
‘इस्लामाबाद मेरी आवाज़ सुन रहा हो
तो सुन ले...’
पीछे से एक श्रोता बोला
‘भई जब तुम्हारी आवाज़
यहीं तक ठीक-ठीक नहीं आ रही है
तो इस्लामाबाद
कैसे जाएगी?’
वीर रस का अब जो कवि आया
वो होगा क़रीब 15 किलो का
वो भी तब, जब
जाड़ों का भयंकर मौसम था
मैंने सोचा—‘ये वीर रस का कवि
इतना कमज़ोर कैसे हो गया?’
मेरी बग़ल वाले ने बताया—
‘ऐसा इसलिए हो गया
क्योंकि ये हर समय
फुँकता-भुनता रहता है
इतना नुक़सान ये अपनी
कविता से पाकिस्तान का नहीं कर पाता है
जितना अपने शरीर का कर जाता है...’
जब वो कवि
कविता पढ़ रहा था
श्रोताओं में से एक बोला—
‘भई कौन खड़ा है?
दिखाई नहीं पड़ रहा है
मुझे तो लगता है
माइक के डंडे की
ओट में आ गया है।’
‘ये दिखने में कैसा लगता है
ज़रा पता लगाओ...'
साथ वाला बोला
‘भई! किसी के घर पड़ी हो
तो दूरबीन ले आओ।’
एक वाक़ई में
दूरबीन ले लाया
और उससे देखते हुए बोला—
‘बाप रे...
ये कवि खड़ा है या उसका एक्स-रे!’
अब जो कवि आया
वो रामलीला वाले अंदाज़ में आया और चिल्लाया—
‘अबकी बार युद्ध हुआ तो
हम झंडा फहराएँगे
सीधे इस्लामाबाद पर...’
इस तरह से
कई कवियों के हाथ
हवा में ज़ोर-ज़ोर से लहराए
और उन्होंने
क्रमशः
लाहौर, कराची, रावलपिंडी
इस्लामाबाद, सियालकोट
सरगोधा,
यहाँ तक कि
हड़प्पा में भी
झंडे फहराए
और एक घंटे में
श्रोताओं में पैदा ऐसा जज़्बा कर दिया
कि मंच से ही दस कवियों ने
पाकिस्तान के सैंतालीस शहरों पर
क़ब्ज़ा कर लिया
ऐसे क़ब्ज़े कर रहे थे जैसे सारे
मक्कार प्रॉपर्टी डीलर बैठे हों!
अब अगले कवि की घबरा रही थी आत्मा
क्योंकि दस कवि अब तक
कर चुके थे पाकिस्तान का ख़ात्मा
पर वो मेरा दोस्त था
मंच से उतर कर मेरे पास आया
बोला—‘यार अजनबी,
क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?
इन्होंने पाकिस्तान का
एक भी शहर नहीं छोड़ा है
मैं झंडा कहाँ फहराऊँ?’
मैंने कहा—
‘फिर तू ऐसा कर जा
झंडा लेकर और आगे बढ़ जा
और सीधे अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ जा’
वो बोला—‘नहीं यार,
वहाँ तो आजकल
अमरीका बमबारी कर रहा है’
मैंने कहा—‘फिर और आगे
ईरान है
वहाँ से तेहरान निकल रहा है
वहाँ फहरा दे...’
वो बोला—‘यार!
तेहरान तो क्या
और आगे इराक़ है
वहाँ बग़दाद
उसके आगे सीरिया है
वहाँ दमिश्क तक में झंडा फहरा दूँ!
पर यार, शहर दमिश्क?
ऐसे नाम पर श्रोता ताली नहीं बजाते
ये है सबसे बड़ा रिस्का।’
मैंने कहा—‘नहीं तो तू
ऐसा कर जा
राइट टर्न लेकर
चीन की तरफ़ निकल जा
या तो वहाँ फहरा दे
नहीं तो
यू टर्न लेकर
वापिस मंच पर आ जा...
यहाँ तू बिल्कुल नहीं डरेगा
झंडा कहीं भी फहराए
पर टेक-ऑफ़ तो तू यहीं से करेगा।’
- पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 157)
- संपादक : अरुण जैमिनी
- रचनाकार : महेंद्र अजनबी
- प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
- संस्करण : 2013
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