दरवाज़े
darwaze
उनके पीछे जनता का बल है
वे जब चमचमाती बत्ती वाली कार से उतरते हैं
तो आगे बढ़ती है दर-दर भटकने वाली जनता
दरवाज़ा खोलने के लिए
लेकिन जनता को नहीं नसीब है घर
घर के दरवाज़ों की तो बात ही दूर है
बचपन में कभी-कभी सुनते थे
‘खुला खेल फ़र्रुक्ख़ाबादी’
अब इसका मतलब यही जाना है
कि ऐसा खेल, जहाँ मैदान में दरवाज़े ही न हों,
या फिर ऐसा खेल, जिसे बचते हुए एकांत में खेला जाए
या ऐसा, जहाँ ख़ुद खेल को ही इतना वैध बना दिया जाए
कि उसे छिपाने की या किसी दरवाज़े की कोई ज़रूरत ही न पड़े
या फिर कोई घुसे अगले दरवाज़े से और निकले पिछले वाले से
सुरक्षा देने वाले दरवाज़े सुरक्षा का विलोम हो जाते
बड़े दरवाज़ों में छोटे-छोटे दरवाज़े हैं
प्रतिष्ठा और लाभ की काया देखकर
उचित आकार के दरवाज़े खोल दिए जाते
पार्श्व में एक गीत बजाते हुए
‘जोगी जबसे तू आया मेरे द्वारे’
दीवार, दस्तक, आहट, मन और दरवाज़ा
एक ही परिवार के सदस्य रहे लेकिन
बहुतों के मन पर दी दस्तक पर पसीजा नहीं मन उनका
मन का दरवाज़ा ऐसा होता गया
जिसकी साँकल खोलते आशंकाएँ फैलतीं हवाओं में
जहाँ कम ही लोग दे पाते दस्तक शहरों में
किवाड़ खोलूँ तो दहशत पसर जाती भीतर एक विकराल
सारे दरवाज़ों को तोड़ सकने वाली बारूदी एक दहशत
दहशत में दरवाज़े हैं, घर भी और घरवाले भी
आधा ही दरवाज़ा खोल बच्चा लेता डाकिये से चिट्ठियाँ
दरवाज़े से रोकी जाती दहशत
दरवाज़े तोड़कर लूटी जाती आबरू
दरवाज़े खोलकर दिए जाते दान
दरवाज़े लगाकर होता घर का बँटवारा
अपने दरवाज़े से ज़्यादा फ़िक्र इस बात की होती
कि कौन आया सामने वाले दरवाज़े पर
सुना कि सौभाग्य दरवाज़ा खटखटाता है सिर्फ़ एक बार
और दुर्भाग्य तब तक, जब तक दरवाज़ा खुल नहीं जाता
मोटे काँच के दरवाज़ों के पीछे परदे हैं रेशमी
रंगीन परदों के पीछे गिलास हैं पारदर्शी
उसमें तरल भी पारदर्शी
गोलमेज़ पर चल रहीं चर्चाएँ पारदर्शी
इन सारे खुले दरवाज़ों के लिए
परदा काम करता एक अपारदर्शी दरवाज़े का,
परदे के पीछे नाटक पारदर्शिता का
किसी बड़े कवि को नीचा दिखाने का
किसी अदने कहानीकार को प्रेमचंद बताने का
खुले हैं हाथ और फैली हैं बाँहें
दसों दिशाओं तक अपनी बारीक अनुभूतियाँ पसारते हुए
गिद्धों को कौआ, और कौओं को हंस बताते हुए
बंद दरवाज़ों में पूरी धौ-धौ मारी है
क्या करें, लाचारी है, इसलिए कौओं को ही हंस मानना पड़ता
नहीं तो सत्ता से टपकती पारदर्शी द्रव की रसीली बूँदें
ख़त्म कर दी जाएँगी इस ज़िंदगी से
नहीं तो बौद्धिकता और ईमानदारी विलाप करने लगेंगी
हम नहीं सुन पाएँगे इन बंद दरवाज़ों में उनकी चीख़ें
समय जटिल है, जटिल इसे समझना
और भी जटिल समय के साथ चलना
इसलिए ईमानदारी के भूत को कुछ दशकों के लिए
सुला लो विलासिता की लोरी सुनाकर
दरवाज़े के बाहर हर प्रबंधन का नकार करो
और भीतर हर नकार का प्रबंधन
या फिर ये उम्मीद मत करो
कि दौड़े जनता आपकी कार का दरवाज़ा खोलने
चमचमाती बत्ती वाली कार का
कई लोग तो दरवाज़े पर ही पड़े रहे तब तक
जब तक उनका काम नहीं सिद्ध हो गया
बाद में वे तराई के गादुर हो गए
- रचनाकार : प्रांजल धर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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