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एक दिन

ek din

ममता बारहठ

और अधिकममता बारहठ

    एक दिन

    रास्ता भटक गई

    फिर कोई बलखाती नदी

    समंदर से अलग रेत में कहीं खो गई

    मैंने क़ैद से

    फिर आज़ाद किया एक पंछी को

    उस नदी की तलाश में

    जो समंदर तक पहुँची

    अथाह ख़ालीपन से भरा

    वह रेत का समंदर

    नदियाँ पीता रहा

    घूँट-घूँट कर

    नदियाँ

    कभी भी रेत हो सकीं

    रेत में उतर कर

    रेत के ये लहरदार टीले

    भटकाव है

    जिसे देख नदी को

    समंदर का भरम हुआ

    और वह ख़ुद को तबाह कर बैठी

    मुट्ठियाँ भर-भर कर नदी

    अपने भीतर से फेंकती है रेत की

    और अपनी ही मुट्ठियों में दफ़्न होती जाती है

    कंकर जो थामे थे नदी को

    छूट गए वहीं पीछे

    जहाँ से नदी भटकी थी

    जानते है उस दिशा को

    जिस ओर नदी गई और फिर लौटी

    लेकिन उनसे कौन पूछे

    जो सिर्फ़ ठोकरों में लगते रहे

    उन्हें उठा कर कौन सहलाए

    भटकी हुई नदियों के ये सहयात्री

    जीवित समाधियों में जा उतरे

    पंछी जो निकला मुझसे होकर

    नदी की खोज में

    आज भी रेत में अपनी चोंच मारता है

    दुःख जब भीतर उठना बंद हो जाए

    तो वह बाहर किसी चोट के दर्द से

    याद हो आता है अक्सर

    अचानक कोई कराह उठती है

    गहरे में कहीं

    और वहीं गहरे में समा जाती है

    रेगिस्तान एक सिसकी से गूँज उठता है सारा

    नदी ग़ुबार बन उड़ती है

    जगह बदलती है

    दूर-दूर भटकती है

    उठती है

    गिरती है

    पर बह नहीं पाती

    धूल भरी आँधी जो देखते हो तुम

    आसमाँ में चढ़ी

    पंछी ने फिर चोंच मारी है रेत में कहीं

    नदी को भूला कोई दुःख याद हो आया है

    नदी ग़ुबार बन उड़ी है फिर

    जगह बदल रही है

    दूर-दूर भटक रही है

    उठ रही है

    गिर रही है

    पर बह नहीं रही!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ममता बारहठ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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