बड़े शहर के चौराहे पर
दिए बेचती औरत
धूप में अपने आदमी को
छाँह में बैठने के लिए कहती है
और धूप में बैठी रहती है ख़ुद
दिए बिकते हैं तो औरत के चेहरे पर
फैलती है उजास
छाँह में बैठा आदमी औरत को निहारता है मुग्ध मन
और आदमी के चेहरे पर फैलती है
बीड़ी के कश भर रोशनी
दिए बेचती औरत दिए की पकी मिट्टी की तरह
खनकती आवाज़ में
हर घर में उजाला के लिए असीसती है दियों को
और अपनी बिटिया के हाथ घर के लिए
चार दिए पकड़ा ऐसे भेजती है
जैसे कह रही हो जा बिटिया
चारों दिशाओं की देहरी पर रख
इन दियों को जला आना
दिए जलने से माटी के मन को
अँधेरा नहीं दबाता है
- रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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