दादी के बारे में

dadi ke bare mein

राकेश रंजन

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    अक्सर सोचता रहा

    कि काम-धाम से फ़ुर्सत निकालकर

    गाँव जाऊँगा

    दादी से मिलकर उसका हाल-चाल लूँगा

    उसके पास बैठूँगा

    उसके लिए धर्म-कर्म की कुछ किताबें

    कंबल और च्यवनप्राश ले जाऊँगा

    लौटते वक़्त उसके खूँट में

    दूध-दवा के लिए

    कुछ रुपए बाँध दूँगा!

    सोचता रहा

    कि गाँव जाकर दादी से कहूँगा

    वे सारी कथाएँ फिर से कहो

    जो कही थीं तुमने मेरे बचपन में

    वे सारे गीत फिर से गाओ

    जो कभी गाती थीं तुम

    संझा के उदास झुटपुटे में...

    जिससे वे बचे रहें मेरे भीतर

    तुम्हारे बाद भी!

    सोचता रहा

    और समय बीतता रहा!

    इस बीच दादी

    अपने जीवित रहने का अहसास

    कराती रही!

    मकर संक्रांति के दिन

    उसने अपने हाथों से बनाए

    गुड़ और काले तिल के लड्डू भेजे

    होली में

    खोए डालकर बनाए रसदार मालपुए

    मेष संक्रांति में चना-मकई के सत्तू

    और आम की खटमिट्ठी

    दशहरे में कुछ नहीं आया

    ख़बर आई कि वह बहुत बीमार है

    अब नहीं उठ सकती बिस्तर से!

    मगर कुछ ही दिनों बाद दिवाली में

    आया गाँव का कुम्हार

    छिट्टाभर दिए और मिट्टी के खिलौने लिए

    बोला : दादीजी की इच्छा है, रख लीजिए

    पैसे मत दीजिए

    मिली है उनसे नई धोती!

    छठ के आसपास उसकी दशा बहुत बिगड़ गई

    ख़बर आई, मैं भागा हुआ पहुँचा गाँव

    मुझे देखकर उसका कंठ घरघराया

    शायद कहना चाहती थी कुछ अनकहा

    उसकी आँखों के कोरों से बह निकलीं

    जमी हुई बूँदें!

    मैं नहीं रह सका वहाँ

    जाकर बैठा बाहर लोगों के बीच!

    कुछ रुपयों से उससे गउदान कराया गया

    उस दिन वहाँ रहकर मैं लौट आया शहर

    और हर पल

    उसके मरने की ख़बर के इंतज़ार में

    बेचैन और सहमा रहा!

    फिर एक रोज़ ख़बर आई

    कि दादी नहीं रही!

    आज दो महीने हो गए दादी को मरे

    आज दो हज़ार सात की मकर संक्रांति का दिन है

    पास में सब हैं, सब कुछ है

    दादी नहीं है, मैं जानता हूँ

    फिर भी हर पल लग रहा है

    कि अभी कोई आएगा, दरवाज़ा खटखटाएगा

    और मेरे हाथ में एक मलिन झोला थमाकर कहेगा :

    दादीजी ने भेजे हैं

    गुड़ और काले तिल के लड्डू

    अपने हाथों से बनाए हैं!

    कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है

    और उसे खोलते हुए

    मैं थर-थर काँप रहा हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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