हम क़बीलों से निकल के बेहया होते गए
hum qabilon se nikal ke behaya hote gaye
संजय चतुर्वेदी
Sanjay Chaturvedi
हम क़बीलों से निकल के बेहया होते गए
hum qabilon se nikal ke behaya hote gaye
Sanjay Chaturvedi
संजय चतुर्वेदी
और अधिकसंजय चतुर्वेदी
हम क़बीलों से निकल के बेहया होते गए
क़ातिलों के हाथ दस्त-ए-मोजज़ा होते गए
इंक़लाब आया जहाँ आया वहीं चौपट हुआ
लोग झल्लाए हुए बे-आसरा होते गए
जामिआ तालीम के कोठे पे बलखाने लगी
वक़्त के सारे गुनी ख़्वाजा-सरा होते गए
धीरे-धीरे फ़िक्र भी पर्चा-नवीसी हो गई
ख़्वाब अपने बेहुनर बेक़ाफ़िया होते गए
जब जवाँ होने लगे बच्चे नगाड़ा बज उठा
कुछ तो कुरछेतर हुए कुछ कर्बला होते गए
ढोल-सा बजता रहा है मारिफ़त के ख़ून में
इब्तिदा होने न पाई इंतिहा होते गए
मुरशिदी के नाम पे सारे हरामी एक थे
रंग-ए-इरफ़ाँ के फ़रिश्ते बे-सदा होते गए
हमको ये मालूम था ये किस वबा का क़ाैल है
फिर भी सारे हमजहन्नुम हमख़ुदा होते गए
- रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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