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भीड़ चली है भोर उगाने

bheeD chali hai bhor ugane

राघवेंद्र शुक्ल

राघवेंद्र शुक्ल

भीड़ चली है भोर उगाने

राघवेंद्र शुक्ल

और अधिकराघवेंद्र शुक्ल

    भीड़ चली है भोर उगाने।

    हाँक रहे हैं जुगनू सारे,

    उल्लू लिखकर देते नारे,

    शुभ्र दिवस के श्वेत ध्वजों पर

    कालिख मलते हैं हरकारे।

    नयनों के परदे ढंक सबको

    मात्र दिवस का स्वप्न दिखाने।

    भीड़ चली है भोर उगाने।

    दुंदुभि बजती, झूम रहे हैं,

    मृगतृष्णा को चूम रहे हैं,

    अपनी पीड़ाएँ फुसलाकर

    नमक-नीर में घूम रहे हैं।

    किसी घाव पर किसी घाव के

    शुद्ध असंगत लेप लगाने।

    भीड़ चली है भोर उगाने।

    नए वैद्य के औषधिगृह में

    दवा नहीं बनती पीड़ाएँ।

    सत्य नहीं, कवि ढूँढ़ रहे हैं

    चारणता की नव उपमाएँ।

    नेता राष्ट्रध्वजों से ढँकते

    जन-स्वप्नों के बूचड़खाने।

    भीड़ चली है भोर उगाने।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राघवेंद्र शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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