साहित्य और कला की विभिन्न विधाओं का संसार
मैं बहुत दिनों से एक जगह जाना चाहता हूँ। इन दिनों मेरे पास इतना अवकाश नहीं रहता कि कुछ ज़रूरी कामों के अलावा भी मैं कुछ और कर सकूँ, लेकिन उस जगह का आकर्षण ऐसा दुर्निवार है कि किसी अन्य काम में मेरा म ...और पढ़िए
अमन त्रिपाठी | 18 अक्तूबर 2023
यह सोचकर कितना सुकून मिलता है कि जिसे हम अपनी अस्ल ज़िंदगी में नहीं पा सके उसे एक दिन भाषा में पा लेंगे या भाषा में जी लेंगे या उसे एक दिन भाषा में जीने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा। मुझे लगता है कि भाषा एक तर ...और पढ़िए
राकेश कुमार मिश्र | 18 अक्तूबर 2023
यह सच है कि मानवीय संबंधों की दुनिया इतनी विस्तृत है कि उस महासमुद्र में जब भी कोई ग़ोता लगाएगा उसे हर बार कुछ नया प्राप्त होने की संभावना क़ायम रहती है। बावजूद इसके एक लेखक के लिए इन्हें विश्लेषित या ...और पढ़िए
प्रभात प्रणीत | 17 अक्तूबर 2023
यह सड़क जो आगे जा रही है—इसी पर कुछ आगे, बाएँ हाथ एक ठरकरारी पड़ेगी, उसी पर नीचे उतर जाना है। सड़क आगे, शहर तक जाती है, उससे भी आगे महानगर तक जाएगी, जहाँ आसमान में धँसी बड़ी-बड़ी इमारतें, भागते अकबकाए हुए ...और पढ़िए
आशीष मिश्र | 17 अक्तूबर 2023
श्रीमान मैकॉले साहब, आप मुझे नहीं जानते। जानेंगे भी कैसे? आपके और मेरे बीच वक़्त का फ़ासला बहुत ज़्यादा है। इसे घड़ी की सुइयों से नहीं नापा जा सकता। इस फ़ासले में काल के सैकड़ों भँवर हैं। इतिहास के ...और पढ़िए
प्रियंवद | 16 अक्तूबर 2023
मृग-मरीचिका बरस दर बरस घुमक्कड़ी मेरे ख़ून में घुलती जा रही है। ये यायावर सड़कें मुझसे दोस्ती पर फ़ख़्र करती हैं। इन ख़ाली सड़कों पर कोई मेरा इंतज़ार करता रहता है। उसका कोई भविष्य नहीं है और न ही अतीत! ...और पढ़िए
सोनू यशराज | 14 अक्तूबर 2023
बेहतर ज़िंदगी का नुस्ख़ा ज़्यादा की चिंता में नहीं है; फ़ालतू चीज़ों पर ध्यान देने में है, सिर्फ़ वास्तविक और उस समय के लिए ज़रूरी बात पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए। ~•~ ज़्यादा हमेशा बेहतर नहीं होता, वा ...और पढ़िए
मार्क मैंसन | 13 अक्तूबर 2023
वह चलते हुए अपने पाँव सड़क पर पड़ी सूखी पत्तियों से बचा-बचा कर रख रही थी। यूँ चलते हुए उसका ध्यान थोड़ा मेरी बातों में था, थोड़ा सूखी पत्तियों में और थोड़ा आसमान में सूखते पेड़ों के बीच से झाँकते चाँ ...और पढ़िए
सौरभ अनंत | 11 अक्तूबर 2023
एक इन दिनों अजीब-सी बेरुख़ी है, मार्च की हवा चुभ रही है। ख़ुद से लड़ाई बढ़ती चली जा रही है। जब लड़ाई ख़ुद से हो तो जीतने में कोई रस नहीं रहता, क्योंकि जो हार रहा होता है; उसमें भी हमारा होना बचा होता है ...और पढ़िए
गौरव गुप्ता | 09 अक्तूबर 2023
आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इ ...और पढ़िए
आशीष मिश्र | 07 अक्तूबर 2023
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