एथेंस का सत्यार्थी

ethens ka satyarthi

सुदर्शन

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    यह उस बीते हुए युग की कहानी है जब यूनान ऐश्वर्य और वैभव के शिखर पर था और संसार की सर्वोत्तम संतान यूनान में उत्पन्न होती थी। रात का समय था। काव्य और कला को कभी भूलने वाले प्राचीन एथेंस पर अंधकार छाया हुआ था। चारों तरफ़ सन्नाटा था, चारों ओर निस्तब्धता थी—सब बाज़ार ख़ाली थे, सब गलियाँ निर्जन थीं और यह सुंदर और आबाद नगरी रात के अँधेरे में दूर से इस तरह दिखाई देती थी, जैसे किसी जंगल मे धुंधली-सी अपूर्ण छाया का पड़ाव पड़ा हो।

    पूरी नगरी पूरा विश्राम कर रही थी। उसके विद्वान विलासी बेटे अपनी-अपनी शय्या पर बेसुध पड़े थे। रंग-शालाएँ ख़ाली हो चुकी थीं, विलास-भवनों के दीपक बुझा दिए गए थे और द्वारपालों की आँखों की पलकें नींद के लगातार आक्रमणों के सामने झुकी जाती थीं; परंतु एक नवयुवक की आँखें नींद की शांति और शांति की नींद से वंचित थीं।

    यह देवकुलीश एक विद्यार्थी था, जिसकी आत्मा सत्य-दर्शन की प्यासी थी। वह एक बहुत बड़े धनवान का बेटा था, उसकी संपत्ति उसके लिए हर तरह का विलास ख़रीद सकती थी, वह अत्यंत मनोहर था, यूनान-माता की सबसे सुंदर बेटियाँ उसके प्रेम में पागल हो रही थीं। वह बहुत उच्चकोटि का तत्त्व-वेत्ता था। उसकी साधारण युक्तियाँ भी विद्यालय के अध्यापकों की पहुँच से बाहर थी, परंतु उसे इस पर भी शांति थी। वह सत्यार्थी था। वह सत्य की खोज में अपने आपको मिटा देने पर तुला हुआ था। वह इस रास्ते में अपना सर्वस्व निछावर कर देने को तैयार था। मर्त्य-लोक की नाशवान ख़ुशियाँ उसके लिए अर्थहीन वस्तुएँ थीं। यौवन और सौंदर्य की सजीव मूर्तियों में उसके लिए कोई आकर्षण था। वह चाहता था, किसी तरह सत्य को एक बार उसके वास्तविक रूप में देख ले। वह सत्य को बेपरदा, नंगा देखना चाहता था। ऐसा नहीं जैसा वह दिखाई देता है, बल्कि ऐसा जैसा वह वास्तव में है। वह अपनी इस मनोरथ सिद्धि के लिए सब कुछ करने को तैयार था।

    देवकुलीश रात-दिन पढ़ता था।

    पढ़ता था और सोचता था। सोचता था और पढ़ता था, मगर उसके स्वास्थ्य, चिंतन और मनन से उसके प्यासे हृदय की प्यास मिटती थी, बढ़ती जाती थी। सत्य का रोगी चिकित्सा से और ज़्यादा बीमार होता जाता था।

    (2)

    विद्यालय के आँगन में विशाल एक ऊँचा चबूतरा था, जिस पर पता नहीं कब से मिनर्वा, ज्ञान और विवेक की देवी, संगमरमर के वस्त्र पहने खड़ी थी। देवकुलीश पत्थर की इस मूर्ति के बरफ़-समान पैरों के निकट जाकर घंटों बैठा रहता और संसार के रहस्य पर चिंतन किया करता था। यहाँ तक कि उसके मित्रों और सहपाठियों ने समझ लिया कि इसके मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो गया है। वे उसकी इस शोचनीय दशा को देखते थे और कुढ़ते थे।

    उस रात भी देवकुलीश देवी के पैरों के निकट बैठा था और रो रहा था—कृपा कर! विद्या और विज्ञान की सबसे बड़ी देवी, कृपा कर! मेरे मन की अभिलाषा पूरी कर। मैं कई वर्षों से तेरी पूजा कर रहा हूँ। मैंने कई रातें तेरे पैरों को अपने आँसुओं से धोने में गुज़ार दी हैं। मैंने कई दिन केवल तेरे ध्यान में बिता दिए हैं। मेरी प्रार्थना के शब्द सुन और उन्हें स्वीकार कर!

    देवकुलीश यह कहकर खड़ा हो गया और देवी के तेजपूर्ण मुँह की तरफ़ देखने लगा, मगर वह उसी तरह चुपचाप थी।

    इतने में चंद्रमा आकाश में उदय हुआ। उसके सुवर्ण और सुशीतन प्रकाश में देवी की मूर्ति और भी मनोहर दिखाई देने लगी।

    अब देवकुलीश फिर मूर्ति के चरणों में बैठा था और फिर उसी तरह बालकों के सदृश रो-रोकर प्रार्थना कर रहा था, मानो वह संगमरमर की मूर्ति थी, इस दुनिया की जीती-जागती स्त्री थी, जो सुनती भी है, जवाब भी देती है। बुद्धिमान देवकुलीश ने पागलपन के आवेश में कहा—आज की रात फ़ैसले की रात है। ज्ञान और विवेक की रानी। तूने मेरे दिल में जिज्ञासा की आग सुलगाई है, तू ही उसे सत्य के शीतल जल से शांत कर सकती है। सत्य कहाँ है?—अजर, अमर, अटल सत्य! वह सत्य जिस पर बुद्धिमान लोग शास्त्रार्थ करते हैं, जिसका पंडित चिंतन करते हैं, जिसे लोग एकांत में तलाश करते हैं, मंदिरों में ढूँढ़ते हैं, जिसके लिए दूर-दूर भटकते हैं। मैं वह उच्च कोटि का सत्य देखने का अभिलाषी हूँ। नहीं तो मैं चाँद की उज्ज्वल चाँदनी के सामने तेरे पैरों की सौगंध खाकर कहता हूँ, कि अपने निरर्थक जीवन को यहीं, इसी जगह समाप्त कर दूँगा। मुझे सत्यहीन जीवन की कोई आवश्यकता नहीं।

    यह कहकर देवकुलीश ने अपनी चादर के अंदर से एक कटार निकाली और आत्महत्या करने को तैयार हो गया।

    एकाएक सफ़ेद पत्थर की मूर्ति सजीव हो गई। उसने देवकुलीश के हाथ से कटार छीन ली, उसे आँगन के एक अँधेरे कोने में फेंक दिया और कहा...देवकुलीश।

    देवीकुलीश काँपता हुआ खड़ा हो गया और आशा, आनंद और संदेह की दृष्टि से देवी की ओर देखने लगा। क्या यह सच है?

    हाँ, यह सच था, देवी के होंठ सचमुच हिल रहे थे—देवकुलीश!

    देवकुलीश!—देवकुलीश देवी का एक-एक शब्द पूरे ध्यान से सुन रहा था।

    देवकुलीश! मौत का मार्ग अँधेरा है। तू मेरा पुजारी, मेरी आँखों के सामने इस मार्ग पर नहीं जा सकता। मेरे लिए असह्य है कि मेरे सामने कोई आत्महत्या कर जाए। बोल, क्या माँगता है? मैं तेरी हर एक मनोकामना पूरी करने को तैयार हूँ।

    देवकुलीश का दिल सफलता के आनंद से धड़क रहा था। उसके मुँह से शब्द निकलते थे। वह देवी के पैरों के निकट बैठ गया, और श्रद्धाभाव से बोला—पवित्र देवी! मैं सत्य को उसके अपने असली स्वरूप में देखना चाहता हूँ। नंगा, बेपरदा, खुला सत्य। और कुछ नहीं, बस सत्य!

    तू सत्य को जानना चाहता है?—देवी के होंठों से आवाज़ आई—तू आप सत्य है। यह आँगन भी सत्य है। मैं सत्य हूँ। आँखें खोल, सत्य दुनिया के चप्पे-चप्पे में मौजूद है।

    देवकुलीश—मगर उस पर परदे पड़े हुए है।

    देवी—विवेक की आँख उन परदों के अंदर का दृश्य भी देख सकती है।

    देवकुलीश—पवित्र माता! में सत्य को विवेक से नहीं, आँखों से देखना चाहता हूँ। मैं सोचकर नहीं देखना चाहता, देखकर सोचना चाहता हूँ।

    देवी ने अपना पत्थर का सफ़ेद, ठंडा, भारी हाथ देवकुलीश के कंधे पर रख दिया और मीठे स्वर में बोली—बेपरदा, नंगा सत्य आज तक दुनिया के किसी बेटे ने नहीं देखा, देवताओं ने किसी मनुष्य को यह वरदान दिया है। तू अन्न का कीड़ा है, तेरी आँतों में यह दृश्य देखने की शक्ति कहाँ? मेरा परामर्श है यह ख़याल छोड़ दे और अपने लिए कोई और वस्तु माँग, मैं अभी इसी जगह दूँगी।

    देवकुलीश—यूनान की सबसे बड़ी देवी! मैं केवल नंगा सत्य देखना चाहता हूँ और कुछ नहीं चाहता।

    देवी—मगर इसका मूल्य?

    देवकुलीश—जो कुछ तू माँगे।

    देवी—धन, दौलत, सौंदर्य यह सब तुझसे छूट जाएँगे। तुझे दुनिया को चाँद और सूरज के प्रकाश से भी वंचित करना होगा, इस यज्ञ में तुझे अपने जीवन की भी आहुति देनी पड़े। बोल! क्या अब भी तू सत्य का नंगा रूप देखना चाहता है?

    देवकुलीश—मुझे सब कुछ स्वीकार है।

    देवी ने सिर झुका लिया।

    देवकुलीश—परमेश्वर की सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो मैं इसके लिए त्याग सकूँ।

    देवी ने फिर सिर उठाया और मुस्कराकर कहा—बहुत अच्छा! तू सत्य को देख लेगा, तुझे सत्य दिखा दिया जाएगा, सत्य का नंगा रूप, तेरे सामने होगा, परंतु एक बार नहीं, धीरे-धीरे चल! आज सत्य का एक परदा उठा, बाक़ी एक वर्ष के बाद!

    (3)

    यह कहते-कहते देवी ने अपनी सफ़ेद पत्थर की चादर उतारकर चबूतरे पर रख दी और देवकुलीश को गोद में उठा लिया। देखते-देखते देवी के दोनों कंधों पर परियों के से दो पर निकल आए। देवी ने पर खोले, और हवा में उड़ने लगी। पहले शहर, मंदिरो के कलश, पर्वत, फिर चाँद, तारे, बादल सब नीचे रह गए। देवी देवकुलीश को लिए आकाश में उड़ी जा रही थी। थोड़ी देर बाद उसने देवकुलीश को बादलों के एक पहाड़ पर खड़ा कर दिया! देवकुलीश ने देखा, पृथ्वी उसके पाँव तले बहुत दूर, बहुत नीचे एक छोटे-से तारे के समान टिमटिमा रही है, और थी वह यह दुनिया, जिसको वह इतना बड़ा समझ रहा था; मगर देवकुलीश का ध्यान इस ओर था। उसने अपने पास छाया में छिपी हुई एक धुँधली सी चीज़ देखी, और देवी से पूछा—यह क्या है?

    देवी—यही सत्य है। यह छिपकर यहाँ रहता है, यहीं से तेरी ओर अनगिनत दूसरी दुनियाओं को अपनी दिव्य-ज्योति भेजता है। इसी के धुँधले प्रकाश में बैठकर सयाने लोग दुनिया की पहेलियाँ हल करते हैं, और गुरु अपने शिष्यों को जीवन की शिक्षा देते हैं। यही प्रकाश सृष्टि का सूरज है, यही ज्योति मानव-चरित्र का आदर्श है। तू कहेगा, यह तो कुछ ज़्यादा प्रकाशमान नहीं, परंतु देवकुलीश! तेरे शहर के निकट जो नदी बहती है, यदि उसकी सारी रेत का एक-एक कण एक-एक सूरज बन जाए, तब भी उसमें इतना प्रकाश होगा, जितना इस पहाड़ की छाया में है, मगर वह परदों में छिपा हुआ है। चल, आगे बढ़ और इसका एक परदा फाड़ दे।

    देवकुलीश ने एक परदा फाड़ दिया। इसके साथ ही उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे संसार में एक नवीन प्रकार का प्रकाश फैल गया है। सच की छाया अब पहले से ज़्यादा साफ़ और चमकदार थी। देवी देवकुलीश को फिर एथेंस में उड़ा लाई और अपनी संगमरमर की चादर ओढ़कर फिर उसी चबूतरे पर उसी तरह चुपचाप खड़ी हो गई।

    अव देवकुलीश की दृष्टि में चाँदी और सोने का कोई मूल्य था। वह लोगों को दौलत के पीछे भागते देखता तो उसे आश्चर्य होता था। वह चाँदी को सफ़ेद लोहा, और सोने को पीला लोहा कहता था, और इनकी प्राप्ति के लिए फिर अपना परिश्रम नष्ट करता था। उसे पढ़ने की धुन थी, दिन रात पढ़ता रहता था। उसके बाप ने उसका साधु-स्वभाव देख कह दिया कि इसे मेरी जायदाद में से कुछ मिलेगा, परंतु देवकुलीश को इसकी ज़रा भी चिंता थी। उसके मित्र-संबंधी कहते—देवकुलीश! यह आयु जवानी और गर्म ख़ून की है। सफ़ेद बालों और झुकी हुई कमर का ज़माना शुरू होने से पहले-पहल कुछ जमा कर ले। नहीं फिर बाद में पछताएगा।

    देवकुलीश उनकी तरफ़ अद्भुत दृष्टि से देखता और कहता क्या कह रहे हो, मैं कुछ नहीं समझा।

    एथेंस के एक बहुत अमीर की कुँआरी बेटी अब भी देवकुलीश की मोटी-मोटी काली आँखों की दीवानी थी। वह देवकुलीश की इस दशा को देखती और कुढ़ती थी। देवकुलीश के खाने-पीने का प्रबंध वही करती थी, वर्ना वह भूखा-प्यासा मर जाता।

    इसी तरह एक साल के तीन सौ पैंसठ दिन पूरे हो गए। रात का समय था, एथेंस पर फिर अंधकारपूर्ण सन्नाटा छाया हुआ था। देवकुलीश ने फिर देवी के पैरों पर सिर झुकाया। देवी उसे फिर बादलों के पहाड़ ले गई और देवकुलीश ने सत्य का दूसरा परदा फाड़ दिया। इस बार सत्य का प्रकाश और भी साफ़ हो गया। देवकुलीश ने उसे देखा और आँखों को वह ज्ञानचक्षु मिल गए, जो यौवन और सुकुमारता के लाल लहू के पीछे छिपे हुए बुढ़ापे की एक-एक झुर्री को देख सकते हैं। फिर वह अपनी बनावट और अविद्या की दुनिया को वापस चला आया। देवी फिर संगमरमर का बुत बनकर अपनी जगह पर खड़ी हो गई।

    (4)

    एक दिन उसके मित्र ने कहा—देवकुलीश आज यूनान की सब कुँआरी लड़कियाँ एथेंस मे जमा हैं और आज यूनान की सबसे सुंदरी युवती को सौंदर्य का पहला इनाम दिया जाएगा। क्या तू भी चलेगा?

    देवकुलीश ने उसकी ओर मुस्कराकर देखा और कहा—सत्य वहाँ नहीं है।

    दूसरे दिन एक अध्यापक ने कहा—आज यूनान के सारे समझदार लोग विद्यालय में जमा हैं। क्या तुम उनसे मिलोगे?

    देवकुलीश ने ठंडी आह भरकर जवाब दिया—सत्य वहाँ भी नहीं है।

    तीसरे दिन एक महंत ने कहा—आज चाँद देवी के बड़े मंदिर में देवताओं की पूजा होगी। क्या तुम भी आओगे?

    देवकुलीश ने लंबी आह खींची और कहा—सत्य वहाँ भी नहीं है। और इस तरह इस सत्यार्थी ने जवानी ही में जवानी के सारे प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर ली। अब वह पूरा महंत था, मगर वह एथेंस के किसी मेले में नज़र आता था, उसकी आवाज़ किसी सभा में सुनाई देती थी।

    सत्यार्थी साल भर एकांत में पढ़ता रहता और इसके बाद बादलों के पहाड़ पर जाकर सत्य का एक परदा फाड़ आता था। इसी तरह कई वर्ष बीत गए। उसका ज्ञान दिन-पर-दिन बढ़ता गया; मगर उसकी आँखें अंदर धँस गई थीं, कमर झुक चुकी थी, सिर के सारे बाल सफ़ेद हो गए थे। उसने सत्य की खोज में अपनी जवानी बुढ़ापे की भेंट कर दी थी, मगर उसे इसका दुःख था, क्योंकि वह जवानी और बुढ़ापे दोनों की सत्ता से परिचित हो चुका था।

    और लोग यह समझते थे कि देवकुलीश ने अपने लिए अपनी कोठरी को समाधि बना लिया है।

    (5)

    आख़िर वह प्यारी रात गई, जिसकी प्रतीक्षा में देवकुलीश को अपने जीवन का एक-एक क्षण एक-एक वर्ष, एक-एक शताब्दी से भी लंबा मालूम होता था।

    आज सत्य के मुँह से अंतिम परदा उठेगा! आज वह सत्य को नंगा, बे-परदा देखेगा जिसे संसार के किसी नश्वर बेटे ने आज तक नहीं देखा। आज उसके जीवन की सबसे बड़ी साध पूरी हो जाएगी।

    आधी रात को उसे विवेक और विज्ञान की देवी ने अंतिम बार गोद में उठाया, और बादलों के पहाड़ पर ले जाकर खड़ा कर दिया।

    देवकुलीश ने सत्य की ओर धीर होकर देखा।

    देवी ने कहा—देवकुलीश। देख, इसका प्रकाश कैसा साफ़, कैसा तेज़ है। आज तक तूने इसके जितने परदे उतारे हैं, वे इसके परदे थे, तेरी बुद्धि के परदे थे। सत्य का एक ही परदा है, आगे बढ़ और उसे उतार दे; परंतु अगर तू चाहे, तो अब भी लौट चल। मैं तुझे सातों समुंद्रों के मोती और दुनिया का सारा सोना देने को तैयार हूँ, तेरा गया हुआ स्वास्थ्य वापस मिल सकता है, तेरा उजड़ा हुआ जीवन लौटाया जा सकता है। मुझसे कह, तेरे सिर के सफ़ेद बालों को छूकर फिर से काला कर दूँ। देवकुलीश! अब भी समय है, अपना संकल्प त्याग दे।

    मगर बहादुर सत्यार्थी ने देवी का कहना माना और आगे बढ़ा। उसका कलेजा धड़क रहा था, उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे, उसके हाथ काँप रहे थे, उसका सिर चकरा रहा था, मगर वह फिर भी आगे बढ़ा। उसने अपनी आत्मा और शरीर की सारी शक्तियाँ हाथों में जमा की और उन्हें फैलाकर सत्य का अंतिम परदा फाड़ दिया।

    परमात्मा!

    चारों ओर अंधकार छा गया था; ऐसा भयानक अंधकार, जैसा इससे पूर्व देवकुलीश ने कभी देखा था। उसने चिल्लाकर कहा—देवी माता! यह क्या हो गया? मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, वह जो परदे के पीछे था, कहाँ चला गया?

    देवी ने मधुर स्वर से कहा—देवकुलीश! देवकुलीश!

    देवकुलीश ने अँधेरे में टटोलते हुए कहा—देवी! मुझे बता, वह कहाँ है? मैं कहाँ हूँ, तू कहाँ है?

    देवी ने अपना, हाथ धीरे से उसके कंधे पर रखा और जवाब दिया—देवकुलीश! तेरी आँखें नंगे सत्य का दृश्य देखने में असमर्थ होने के कारण फूट गईं। अब संसार की कोई शक्ति ऐसी नहीं, जो उन्हें ठीक कर सके। मैंने तुझसे कहा था, यह विचार छोड़ दे, परंतु तूने माना और अब तूने देख लिया कि जब मनुष्य सत्य को नंगा देखना चाहता है तो क्या देखता है। सत्य परदों के अंदर ही से देखा जा सकता है। जब उसका परदा उतार दिया जाता है तो मनुष्य वह देखता है, जो कभी नहीं देख सकता।

    देवकुलीश बादलों के पहाड़ पर मुँह के बल गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने, लगा।

    हज़ारो वर्ष बीत चुके हैं, मगर एथेंस के सत्यार्थी की खोज अभी तक जारी है। अगर कोई आदमी बादलों के पहाड़ की सुनसान घाटियों में जा सके तो उसे देवकुलीश के रोने की आवाज़ अभी उसी तरह सुनाई देगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 40)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : सुदर्शन
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

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