मैं बरामदे में टहल रहा था। इतने में मैंने देखा कि विमला दासी अपने आँचल के नीचे एक प्रदीप लेकर बड़ी भाभी के कमरे की ओर जा रही है। मैंने पूछा—क्यों री! यह क्या है? वह बोली—झलमला। मैंने फिर पूछा—इससे क्या होगा? उसने उत्तर दिया—नहीं जानते हो वाबू, आज तुम्हारी बड़ी भाभी पंडितजी की बहू की सखी होकर आई हैं, इसीलिए मैं उन्हें झलमला दिखाने जा रही हूँ।

तब तो मैं भी किताब फेंककर घर के भीतर दौड़ गया। दीदी से जाकर मैं कहने लगा—दीदी, थोड़ा तेल तो दो।

दीदी ने कहा—जा, अभी मैं काम में लगी हूँ।

मैं निराश होकर अपने कमरे में लौट आया। फिर मैं सोचने लगा—यह अवसर जाने देना चाहिए, अच्छी दिल्लगी होगी। मैं इधर-उधर देखने लगा। इतने में मेरी दृष्टि एक मोमबत्ती के टुकड़े पर पड़ी। मैंने उसे उठा लिया और दियासलाई का बक्स लेकर भाभी के कमरे की ओर गया। मुझे देखकर भाभी ने पूछा—कैसे आए बाबू; मैंने बिना उत्तर दिए ही मोमबत्ती के टुकड़े को जलाकर उनके सामने रख दिया। भाभी ने हँसकर पूछा—यह क्या है?

मैंने गंभीर स्वर में उत्तर दिया—झलमला।

भाभी ने कुछ कहकर मेरे हाथ पर पाँच रुपये रख दिए। मैं कहने लगा—भाभी, क्या तुम्हारे प्रेम के आलोक का इतना ही मूल्य है?

भाभी ने हँसकर कहा—तो कितना चाहिए? मैंने कहा—कम से कम एक गिन्नी। भाभी कहने लगीं—अच्छा इस पर लिख दो; मैं अभी देती हूँ।

मैंने तुरंत ही चाकू से मोमबत्ती के टुकड़े पर लिख दिया—'मूल्य एक गिन्नी।' भाभी ने गिन्नी निकालकर मुझे दे दी और मैं अपने कमरे में चला आया। कुछ दिनों बाद गिन्नी के ख़र्च हो जाने पर मैं यह घटना बिलकुल भूल गया।

(दो)

8 वर्ष व्यतीत हो गए। मैं बी० ए०, एल०-एल० बी० होकर इलाहाबाद से घर लौटा। घर की वैसी दशा थी जैसी आठ वर्ष पहले थी। भाभी थी, विमला दासी ही। भाभी हम लोगों को सदा के लिए छोड़कर स्वर्ग चली गई थी, और विमला कटगी में खेती करती थी।

संध्या का समय था। मैं अपने कमरे में बैठा जाने क्या सोच रहा था। पास ही कमरे में पड़ोस की कुछ स्त्रियों के साथ दीदी बैठी थी। कुछ बातें हो रही थीं, इतने में मैंने सुना, दीदी किसी स्त्री से कह रही है—कुछ भी हो बहिन, मेरी बहू घर की लक्ष्मी थी। उस स्त्री ने कहा—हाँ बहिन, ख़ूब याद आई, मैं तुमसे पूछने वाली थी। उस दिन तुमने मेरे पास सखी का संदूक़ भेजा था न? दीदी ने उत्तर दिया—हाँ बहिन, बहू कह गई थी, उसे रोहिणी को दे देना। उस स्त्री ने कहा—उसमें सब तो ठीक था; पर एक विचित्र बात थी। दीदी ने पूछा—कैसी विचित्र बात? वह कहने लगी—उसे मैंने खोलकर एक दिन देखा तो उसमे एक जगह ख़ूब हिफ़ाज़त से रेशमी रूमाल में कुछ बँधा हुआ था। मैं सोचने लगी यह क्या है। कौतूहल-वश उसे खोलकर देखा। बहिन, कहो तो उसमें भला क्या रहा होगा? दीदी ने उत्तर दिया—गहना रहा होगा। उसने हँसकर कहा—नहीं, गहना था। वह तो एक अधजली मोमबत्ती का टुकड़ा था और उसपर लिखा था—'मूल्य एक गिन्नी।' क्षण-भर के लिए मैं ज्ञान-शून्य हो गया, फिर अपने हृदय के आवेग को रोककर मैं उस कमरे में घुस पड़ा और चिल्लाकर कहने लगा—वह मेरी है, मुझे दे दो। कुछ स्त्रियाँ मुझे देखकर भागने लगीं। कुछ इधर-उधर देखने लगीं। उस स्त्री ने अपना सिर ढाँपते-ढाँपते कहा—अच्छा बाबू, कल मैं उसे भेज दूँगी। पर मैंने रात को ही एक दासी भेजकर उस टुकड़े को मँगा लिया! उस दिन मुझसे कुछ नहीं खाया गया। पूछे जाने पर मैंने यह कहकर टाल दिया कि सिर में दर्द है। बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता रहा। जब सब सोने के लिए गए तब अपने कमरे में आया। मुझे उदास देखकर कमला पूछने लगी—सिर का दर्द कैसा है? पर मैंने कुछ उत्तर दिया, चुपचाप जेब से मोमबत्ती को निकालकर उसे जलाया और उसे एक कोने में रख दिया।

कमला ने पूछा—यह क्या है?

मैंने उत्तर दिया—झलमला।

कमला कुछ समझ सकी। मैंने देखा कि थोड़ी देर में मेरे झलमले का क्षुद्र आलोक रात्रि के अंधकार में विलीन हो गया।

स्रोत :
  • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 49)
  • संपादक : श्रीपत राय
  • रचनाकार : पदुमलाल पन्नालाल बख़्शी
  • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
  • संस्करण : 1953

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