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गारि मंत्र बूका सु रज
गारि मंत्र बूका सु रज, मोहनि मूठि हरी जु।जुल्मि तहू घटि सार्ध त्रय, सो नहिं लगत मरी जु॥
दयाराम
नहिं मृगंक भू अंक यह
नहिं मृगंक भू अंक यह, नहिं कलंक रजनीस।तुव मुख लखि हारो कियो, घसि घसि कारो सीस॥
रसलीन
अबिचल राज विभीषनहि
अबिचल राज विभीषनहि, दीन्ह राम रघुनाथ।अजहुँ बिराजत लंक पर, तुलसी सहित समाज॥
तुलसीदास
झपटि लरत, गिरि-गिरि परत
झपटि लरत, गिरि-गिरि परत, पुनि उठि-उठि गिरि जात।लगनि-लरनि चख-भट चतुर, करत परसपर घात॥
दुलारेलाल भार्गव
राम राज संतोष सुख
राम राज संतोष सुख, घर बन सकल सुपास।तरु सुरतरु सुरधेनु महि, अभिमत भोग बिलास॥
तुलसीदास
राज अजिर राजत रुचिर
राज अजिर राजत रुचिर, कोसल पालक बाल।जानु पानि चर चरित, वर सगुन सुमंगल माल॥
तुलसीदास
लंक बिभीषन राज कपि
लंक बिभीषन राज कपि, पति मारुति खग मीच।लही राम सों नाम रति, चाहत तुलसी नीच॥
तुलसीदास
राज रूप रसपान सुख
राज रूप रसपान सुख, समुझत हें मों नैन।पें न बेंन हें नेन कों, नेन नहीं हैं बेंन॥
दयाराम
ललित मृदुल बहु पुलिन-रज
ललित मृदुल बहु पुलिन-रज, ललित निकुंज-कुटीर।लजित हिलोरनि रवि-सुता, ललित सुत्रिविध समीर॥
ललितकिशोरी
छुट्यो राज, रानी बिकी
छुट्यो राज, रानी बिकी, सहत डोम-गृह दंद।मृत सुत हू लखि प्रियहिं तें, कर माँगत हरिचंद॥
दुलारेलाल भार्गव
साधु हैं नहिं सकल थल
साधु हैं नहिं सकल थल, कवि जन कहैं बखानि।धन बन चन्दन होहिं नहिं, गिरि-गिरि मानिक खानि॥
दीनदयाल गिरि
सिला सुतिय भइ गिरि तरे
सिला सुतिय भइ गिरि तरे, मृतक जिए जग जान।राम अनुग्रह सगुन सुभ, सुलभ सकल कल्यान॥